Saturday, August 30, 2008

रहीम के दोहे:मन की व्यथा मन में ही रखो

रहिमन निज मन की बिधा, मन ही राखो गोय
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बांटि न लैहैं कोय


कविवर रहीम कहते है अपने मन के दुःख दर्द किसी से मत करो। लोग उसे सुनकर उपहास करेंगे। कोई भी उसे बांटने वाला नहीं मिलेगा।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में दुख दर्द तो सभी को होता है पर जो उसे दूसरों को सुनाकर उसे हल्का करने का प्रयास करते हैं उन्हें समाज में उपहास का पात्र बनना पड़ता है। अब तो वैसे भी लोगों की पीड़ाएं इतनी हो गयीं हैं कि कोई किसी की पीड़ा क्या सुनेगा? सब अपनी कह रहे हैं पर कोई किसी की सुनता नहीं है। अमीर हो या गरीब सब अपने तनाव से जूझ रहे हैं। ऐसे में बस सबके पास हंसने का बस एक ही रास्ता है वह यह कि दूसरा अपनी पीड़ा कहे तो दिल को संतोष हो कि कोई अन्य व्यक्ति भी दुखी है। उसकी पीड़ा का मजाक उड़ाओ ‘‘देख हम भी झेल रहे हैं पर भला किसी से कह रहे हैं‘।

कई चालाक लोग अपने दुख को कहते नहीं है पर अपनी पीड़ा को हल्का करने के लिये दूसरों की पीड़ा को सबके सामने सुनाकर उसे निशाना बनाते हैं। ऐसे लोगों को अपनी थोड़ी पीड़ा बताना भी मूर्खता है। वह सार्वजनिक रूप से उसकी चर्चा कर उपहास बनाते है। ऐसे में अपना दर्द कम होने की बजाय बढ़ और जाता है। अपने दुःख दर्द जब हमें खुद ही झेलने हैं तब दूसरों को वह बताकर क्या मिलने वाला है? जब हमारे दर्द को कोई इलाज करने वाला नहीं है उसकी दवा हमें ढूंढनी है तो फिर क्योंकर उसे सार्वजनिक चर्चा का विषय बनाएं। उसका हल हो न हो पर लोग पूछते फिरेंगे-‘‘क्या हुआ उसका?’’

हम अपनी उस पीड़ा को भूल गये हों पर लोग उसे याद कर बढ़ा देते हैं। ऐसे में कुछ अन्य विषय पर सोच रहे हों तो उससे ध्यान हटकर अपनी उसी समस्या की तरफ चला जाता है। बेहतर है अपने दर्द अपने मन में रखें।
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Friday, August 29, 2008

रहीम के दोहे:जब तक इज्जत मिले तब तक ही कहीं ठहरें

रहिमन जा डर निसि परै, ता दिन डर सब कोय
पल पल करके लागते, देखु कहां धौ होय

कविवर रहीम कहते हैं भारी संकट झेलने वाला व्यक्ति न तो रात को चैन से सो पाता है और न दिन में जाग पाता है। उसके हर अपने सामने संकट आता दिखता है। तमाम तरह की आशंकायें और भय उसके मन में समा जाते हैं।
रहिमन ठठरी धूर की, रही पवन ते पूरि
,गांठ युक्ति की खुलि गई, अन्त धूरि की धूरि

कविवर रहीम कहते हैं कि यह देह एक धूल की भरी हुई गठरी है जिसमें पांचो तत्व समाहित है। जब वह सब बिखर कर अलग हो जाते हैं तब यह अस्थि पंजर पड़ा रहता है और उसी धूल में मिल जाता है जहां से उत्पन्न हुआ था।

रहिमन तब लगि ठहरिये, दान, मान, सम्मान
घटत मान देखिए जबहि, तुरतहि करिय पयान

कविवर रहीम कहते हैं कि किसी भी स्थान पर तब तक ठहरिये आपको मान और सम्मान के साथ कुछ मिलता है। जब अपना मान सम्मान वहां कम होते देखें तो वहां से पलायन कर जाईये।

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Thursday, August 28, 2008

संत कबीर वाणीःभक्ति का तो होता है दो प्रकार का स्वभाव

भक्ति दुवारा सांकरा, राई दशवें भाव
मन मैंगल होम रहा, कैसे आये जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भक्ति का द्वार कि राई के दाने के दसवें भाग के बराबर संकरा होता है उसमें पागली हाथी की तरह मतवाला विशाल मन में कैसे प्रवेश कर सकता है।

भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव
भक्ति भाव इक रूप है, दोअ एक सुभाव


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक हृदय में निच्छल और निर्मल भाव नहीं है तब तक इस जगत में भक्ति का भाव नहीं बन सकता है। भक्ति के भाव तो रूप एक है पर उसके दो प्रकार के स्वभाव हैं-एक सकाम भाव दूसरा निष्काम भाव।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भक्ति और ज्ञान का स्वरूप अत्यंत सूक्ष्म है। संत और साधु लोग प्रवचन देते हुए तमाम तरह की कहानियां और संस्मरण जोड़ देते हैं तो ऐसा लगता है कि ज्ञान का कोई बृहद स्वरूप है। अक्सर ऐसे संत लोग कहते हैं कि श्रीगीता का ज्ञान गूढ और रहस्यपूर्ण है पर यह उनका भी भ्रम है। श्रीगीता का ज्ञान सरल और सहज है पर प्रश्न यह है कि उसका अध्ययन और श्रवण करने वाला किस मार्ग पर स्थित है। जो भक्त सकाम भाव में स्थित हैं उसके लिये वह राई के बराबर है और वह उसमें प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि उसका मन तो अपने अंदर इच्छायें और आकांक्षाओं को पालकर मदमस्त हाथी हो जाता है। उसको निष्काम भक्ति का यह द्वार दिखाई ही नहीं देगा। जिसने निष्काम भाव अपनाते हुए श्रीगीता का अध्ययन और श्रवण किया वह सहजता से




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Wednesday, August 27, 2008

संत कबीर वाणी:अपने महल पर गर्व करना व्यर्थ

कबीर गर्व न कीजिए, ऊंचा देखि आवास
काल परौं भूईं लेटना, ऊपर जमसी घास


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं की अपना शानदार मकान और शानशौकत देख कर अपने मन में अभिमान मत पालो जब देह से आत्मा निकल जाती हैं तो देह जमीन पर रख दी जाती है और ऊपर से घास रख दी जाती है।

आज के संदर्भ में व्याख्या-यह कोई नैराश्यवादी विचार नहीं है बल्कि एक सत्य दर्शन है। चाहे अमीर हो या गरीब उसका अंत एक जैसा ही है। अगर इसे समझ लिया जाये तो कभी न तो दिखावटी खुशी होगी न मानसिक संताप। सबमें आत्मा का स्वरूप एक जैसा है पर जो लोग जीवन के सत्य को समझ लेते हैं वह सबके साथ समान व्यवहार करते हैं। हम जब किसी अमीर को देखते हैं तो उसको चमत्कृत दृष्टि से देखते हैं और कोई गरीब हमारे सामने होता है तो उसे हेय दृष्टि से देखते हैं। यह हमारे अज्ञान का प्रतीक है। यह अज्ञान हमारे लिए कष्टकारक होता है। जब थोडा धन आता है तो मन में अंहकार आ जाता है और अगर नहीं होता तो निराशा में घिर जाते हैं और अपने अन्दर मौजूद आत्मा को नहीं जान पाते। यह आत्मा जब हमारी देह से निकल जाता है तो फिर कौन इस शरीर को पूछता है, यह अन्य लोगों की मृतक देह की स्थिति को देख सीख लेना चाहिऐ।
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Monday, August 25, 2008

रहीम के दोहे:निजी हित के अनुसार लोगों की दृष्टि होती है

स्वारथ रचत रहीम सब, औगनहूं जग मांहि
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ कूबर छांहि

कविवर रहीम कहते हैं कि लोग अपने स्वार्थ के लिये दूसरे में गुण दोष निकालते हैं। जो कभी अपनी हित साधने के लिये मार्ग में रुके रथ के हरसे की टेढ़ी-मेढ़ी छाया को अशुभ कहा करते थे वही लोग उसी हरसी की छाया में बैठ कर अपने को धूप से बचाते हैं।

सर सूखै पंछी उड़ै, औरे सरन समाहि
दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम कहं जाहिं


कविवर रहीम कहते हैं कि तालाब का पानी सूखते ही पक्षी उड़कर दूसरे तालाब में चले जाते हैं पर उसमें रहने वाली मछली का क्या? वह तो असमर्थ होकर वहीं पड़ी रहती है। परमात्मा का ही उसे आसरा होता है।

साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान
रहिमन सांचे सूर को, बैरी करे बखान


सज्जन लोग ही सज्जनता की सराहना करते हैं दुष्ट नहीं। जो योगी हैं वही ज्ञान और ध्यान की सराहना करते है जबकि सामान्य जन उससे परे रहते हैं। पर जो शूरवीर हैं उनकी वीरता की प्रशंसा सभी करते हैं।
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Sunday, August 24, 2008

रहीम के दोहे:दुरूपयोग करने से संपत्ति और प्रतिष्ठा समाप्त हो जाती है

संपति भरम गंवाइ के, हाथ रहत कछु नाहिं
ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहिं मांहि


कविवर रहीम कहते हैं कि भ्रम में आकर आदमी तमाम तरह की आदतों का शिकार हो जाता है और उसमें अपनी संपत्ति का अपव्यय करता रहता है और एक दिन ऐसा आ जाता है जब उसके पास कुछ भी शेष नहीं रह जाता। इसके साथ ही समाज में उसकी प्रतिष्ठा खत्म हो जाती है।

संतत संपति जानि कै, सबको सब कुछ देत
दीन बंधु बिन दीन की, कौ रहीम सुधि लेत


कविवर रहीम कहते हैं कि जिनके पास धन पर्याप्त मात्रा में लोग उनको सब कुछ देने को तैयार हो जाते हैं और जिसके पास कम है उसकी कोई सुधि नहीं लेता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस संसार में माया का खेल विचित्र है। वह कभी स्थिर नहीं रहती। आजकल जितने धन के उद्भव के काले स्त्रोत बने हैं उतने उसके पराभव के मार्ग बने हैं। ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने अपने पद, प्रतिष्ठा और परिवार के नाम पर गलत तरीके से अथाह धनार्जन किया पर उनके घर के सदस्यों ने ही गलत मार्ग अपना कर जूए, शराब, सट्टे तथा अन्य व्यसनों में तबाह कर दिया। देखने के लिये अनेक भले लोग अपने धन का अहंकार दिखते हैं पन अपने बच्चों की आदतों से उनका मन हमेशा विचलित होता है। हालांकि कुछ लोग अनाप-शनाप पैसा कमा रहे हैं और अपने बच्चों के विरुद्ध शिकायत न तो सुनते हैं और न ही कोई उनके सामने करता है।

यह कारण है कि आजकल जो कथित बड़े लोग उनके अनेक घर के रहस्य जब सामने आते हैं तो लोग हैरान रह जाते हैं। उनका अपने परिवार पर बस नहीं हैं। कई लोग तो जिनका नाम था अब इसलिये गुमनाम हो गये क्योंकि उनका धन पूरी तरह गलत कामों की वजह से तबाह हो गया। उनकी चर्चा अब इसलिये नहीं होती क्योंकि जिनके पास धन नहीं है उनकी चर्चा भला कौन करता है? इसके बावजूद भी शिक्षित और कथित ज्ञानी लोग भी वैभवशाली लोगों का चाटुकारिता करते हैं और गरीब को अनदेखा करते हैं। अमीर के दौलत से कुद पाने के लिये ही वह लोग उनके इर्दगिर्द चक्कर लगाते है। गरीब को तो वह पांव की जुती समझते हैं। इसके बावजूद हमें समझदार होना चाहिए और सबके प्रति समान व्यवहार करना चाहिए। ऐसा भी होता है कि अमीर की चाटुकारिता करते रहो पर हाथ कुछ नहीं आता। कोई अमीर किसी की बिना कारण सहायता नहीं करता। यह हमें समझना चाहिए। अगर कोई हमारी सहायता करने आ रहा है तो समझ लो उसका कोई स्वार्थ है।
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Saturday, August 23, 2008

संत कबीर वाणीः परमात्मा से परिचय हुआ तो दुःख सुख का मेला दूर हो गया

गगन मंडल के बीच में, तुरी तत्त इक गांव
लच्छन निशाना रूप का, परखि दिखाया ठांव

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि हृदय वह स्थान स्थित है जो इस देह में आकाश के नीचे स्थित किसी छोटे गांव की तरह है जहां परमात्मा का वास होता है। वह लक्षणों और संकेतों में अपना रूप प्रकट कर अपने वहां रहने का प्रमाण देता है।
मानसरोवर सुगम जल, हंसा केलि कराय
मुक्ताहल मोती चुगै, अब उडि़ अंत न जाय


संत शिरोमणि कबीरदास जी के मतानुसार हृदय में ही वह मानसरोवर है जहां परमात्मा रूपी हंस विचरण करता है। वह तो ज्ञान के मोती चुनने को लालाचित रहता है जब तक वहां से उड़कर न चला जाये।

पूरे से परिचय भया, दुःख सुख मेला दूर
जम सो बाकी कटि गई, साईं मिला हजूर

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब हृदय में स्थित परमात्मा से पूा परिचय हो गया तो दुःख और सुख का मेला दूर लगने लगा। शेष आयु यमराज की चिंता से मुक्ति मिल गयी और परमात्मा के दर्शन हो गये।
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Friday, August 22, 2008

रहीम के दोहेःपति पत्नी को एक ही देव की आराधना करना चाहिए

पुरुष पूजै देवरा, तिय पूजे रघुनाथ
कहि रहीम दोउन बने, पड़ौ बैल के साथ

कविवर रहीम कहते हैं कि घर का पुरुष किसी दूसरे देवता की पूजा करता है या केवल कमाने में ही उसका मन लगता है और पत्नी भगवान श्रीराम को मानती है तो उनका साथ नहीं बन पाता। उनक यह साथ ऐसा ही जैसे बैल के साथ पड़ा चल रहा हो।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आजकल की विषम परिस्थतियों में लोगोंें के घर तनाव का यह भी एक कारण है। वर्तमान भौतिक युग में कठिन होते जा रहे इस जीवन में जहां केवल कमाने का दायित्व पुरुष सदस्यों का है वहां ऐसे तनाव जरूर पैदा होता है। पुरुष तो रोज कमाने के चक्कर में घर से निकल जाते हैं और स्त्री समय निकालकर भगवान की पूजा करती हैं और सत्संग में जाती है। इसके अलावा पुरुषों के मन में यह भी होता है कि यह पूजा वगैरह तो केवल बुढ़ापे में करने का काम है और फिर अपने घर की स्त्री यह सब कर ही रही है तो उसका फल उसे मिलेगा तो हम भी लाभान्वित होंगे। इससे दोनों के बीच एक वैचारिक अंतर पैदा होता है जो दोनों के लिये तनाव का कारण बनता है। इसके अलावा कहीं पुरुष किसी तांत्रिक या सिद्ध के चक्कर में पड़े रहते हैंं पर स्त्री केवल भगवान का भजन करती है वहां यही संकट पैदा होता है। हर घर में स्त्री और पुरुष को एक ही देव की उपासना करना चाहिए। यहां यह बात याद रखना चाहिए कि जैसे देव या इष्ट की पूजा आदमी करता है वैसा ही गुण उसमें आता है। अगर किसी ऐसे देव की जीवंत भावना रखकर आराधना की जायेगी तो हमारा मन प्रफुल्लित हो उठेगा और अगर किसी देव में उसके स्वर्गीय होने का आभास होता है तो उसकी आराधना से हमारा मन भी निराशा और निष्कियता की ओर अग्रसर हो जायेगा और वैसा ही फल भी होता है। अतः स्त्री और पुरुष को एक ही देव को पूजना चाहिए।
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Thursday, August 21, 2008

रहीम के दोहेःजिसने दीवान खरीदा, समझो राजा खरीद लिया


मन से कहां रहीम प्रभु, दृग सों कहां दीवान
देखि दृगन जो आदरै, मन तोहि हाथ बिकान

                      कविवर रहीम कहते हैं कि मन जैसा कहां स्वामी और कहां किले जैसा अभेद्य दीवान! जो चतुर व्यक्ति उस किले   के  दीवान का आदर करता है तो स्वामी उसके हाथ बिक जाता है।
                        वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-कविवर रहीम के समय में भी राजकाज कोई बादशाह स्वयं नहीं देखते थे बल्कि उनके मंत्री और दीवान ही सारे राज्य के भाग्य नियंता थे। सच तो यह है राजा या बादशाह तो बस देखने भर की उपाधि है। असल राज्य तो मंत्रियों और दीवानों के इशारे पर ही चलता है। राजा या बादशाह के नाम पर तो सभी जगह मुखौटे ही बैठे दिखाई देते हैं। बड़े पद पर बैठै व्यक्ति को अपने बड़प्पन के कारण किसी पर दया भी आती हो तो यह जरूरी नहीं है कि उसके मातहत भी यही भाव अपनायें। कई बार तो राजा या राज्य प्रमुख उदारता से प्रजा की हितार्थ कोई बात कह भी दे पर यह जरूरी नहीं है कि उसके मातहत या चमचे वह काम होने दें।
                     कहने को कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति ने अमुक देश पर इतने बरस राज्य किया पर वास्तविकता यह है कि वह केवल मुखौटे थे। राजकाज के लिये तो मंत्री और दीवान ही निर्णय करते रहे थे। राजशाही बहुत बदनाम हो गयी पर सच तो यह है राज्य की ताकत तो सामंतों और साहुकारों के हाथ में होती और राजा के मातहत चाहे जैसे अपने निर्णय करते थे। वह अपने राजा को भोग विलास में या अन्य व्यर्थ के कामों में लगाये रहते ताकि उसका ध्यान प्रजा की तरफ नहीं जाये। प्रजा भी इसी भ्रम में रहती है कि अमुक उनका राजा है जबकि वास्तविकता यह है कि वह नाम भर का है। राज्य तो दीवानों और मंत्रियों का ही चलता है और वह भी अपने मातहतों के अधीन ही रहते हैं। आज भी यह संच्चाई बदल गयी हो लगता नहीं है। यह अलग बात है कि आजकल दीवानों की जगह चमचों ने ले ली है।
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Wednesday, August 20, 2008

संत कबीर वाणी:सहजता की तराजू में सब रस तौल कर देखें

सहज तराजू आनि के, सब रस देख तोल
सब रस माहीं जीभ रस, ज कोय जानै बोल

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस दुनिया मेे विभिन्न प्रकार के रस है पर भी को परख लिया। इमने सबसे अधिक वजन जीभ के रस का है। जो मीठे वचन बोलता है वही इस रस का महत्व जानता है।

बौलै बोल विचारि के, बैठे ठौर संभारि
कहैं कबीर ता दास को, कबहू न आवै हारि

संत कबीरदास जी कहते हैं कि जो सोच समझकर समय के अनुसार बोलता है और उपयुक्त स्थान पर बैठता है तो वह कभी पराजित नहीं कर सकता।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-हमने कुछ लोग ऐसे देखे होंगे जो शांत भाव से जीवन जीते हैं और उनको किसी की परवाह नहीं रहती। दरअसल वह समय के अनुसार उचित और अनुचित का महत्व जानते हुए कार्य करते हैं। अनावश्यक रूप से किसी से वार्ता नहीं करते और जब बोलते हैं तो बहुत ही सधे शब्दों में का उपयोग करते है। ऐसे लोग कभी भी कहीं अपमानित नहीं होते। ऐसे लोग अंर्तमुखी होते हैं और बहुत सोच विचार कर बोलते हैं। जीवन में सफलता उनके कदम चूमती है।
इस संसार में ऐसे भी बहुत लोग हैं जो जीवन में बहुत काम करते हैं। उनका पूरा जीवन परिश्रम करते हुए निकल जाता है और फिर भी समाज में सम्मान नहीं प्राप्त कर पाते वजह यह कि वह अपने मुख से अनर्गल प्रलाप कर अपने ही किये पर पानी फेर देते हैं। बहुत काम करते हैं पर फिर भी अनुभव के नाम पर कोरे रह जाते हैं। अपनी सारी ऊर्जा व्यर्थ बोलने में लगाते है।

Tuesday, August 19, 2008

संत कबीर वाणी:गर्व करते हुए किसी रंक पर नहीं हंसें

अहं अगनि हिरदै, जरै, गुरू सों चाहै मान
जिनको जम नयौता दिया, हो हमरे मिहमान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब किसी मनुष्य में अहंकार की भावना जाग्रत होती है तो वह अपने गुरू से भी सम्मान चाहता है। ऐसी प्रवृत्ति के लोग अपने देह को कष्ट देकर विपत्तियों को आमंत्रण भेजते हैं और अंततः मौत के मूंह में समा जाते हैं।

कबीर गर्व न कीजिये, रंक न हंसिये कोय
अजहूं नाव समुद्र में, ना जानौं क्या होय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपनी उपलब्धियों पर अहंकार करते हुए किसी निर्धन पर हंसना नहीं चाहिए। हमारा जीवन ऐसे ही जैसे समुद्र में नाव और पता नहीं कब क्या हो जाये।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अहंकार आदमी का सबसे बड़ा शत्रू होता है। कुछ लोग अपने गुरू से कुछ सीख लेकर जब अपने जीवन में उपलब्धियां प्राप्त कर लेते हैं तब उनमें इतना अहंकार आ जाता है कि वह अपने गुरू से भी सम्मान चाहते हैं। वैसे आजकल के गुरू भी कम नहीं है वह ऐसे ही शिष्यों को सम्मान देते हैं जिसके पास माल टाल हो। यह गुरू दिखावे के ही होते हैं और उन्होंने केवल भारतीय अध्यात्म ग्रंथों की विषय सामग्री को रट लिया होता है और जिसे सुनाकर वह अपने लिये कमाऊ शिष्य जुटाते हैं। गरीब भक्तों को वह भी ऐसे ही दुत्कारते हैं जैसे कोई आम आदमी। कहते सभी है कि अहंकार छोड़ दो पर माया के चक्कर में फंस गुरू और शिष्य इससे मुक्त नहीं हो पाते। ऐसे में यह विचार करना चाहिए कि हमारा जीवन तो ऐसे ही जैसे समुद्र के मझधार में नाव। कब क्या हो जाये पता नहीं। माया का खेल तो निराला है। खेलती वह है और मनुष्य सोचता है कि वह खेल रहा है। आज यहां तो कल वहां जाने वाली माया पर यकीन नहीं करना चाहिए। इसलिये अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति को सम्मान देने का विचार मन में रखें तो बहुत अच्छा।

Monday, August 18, 2008

भृतहरि शतक:स्वर्ग का फल भी तो भोग विलास ही है

स्वपरप्रतारकोऽसौ निन्दति योऽलीकपण्डितो युवतीः
यस्मात्तपसोऽपि फलं स्वर्गस्तयापि फलं तथाप्सरसः


हिंदी में भावार्थ- जो शास्त्र ज्ञान में अधकचरे पण्डित स्त्रियों की निंदा करते हैं वे अपने और पराए सभी को धोखा देते हैं, क्यों तपस्या से जिस स्वर्ग की प्राप्ति होती है, उस स्वर्ग का फल भी अप्सराओं के साथ भोग विलास ही है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- अनेक कथित ज्ञानी लोग स्त्री को नरक का द्वार कहते हुए उससे दूर रहने का उपदेश देते हैं। ऐसे लोग केवल पाखंड के अलावा कुछ नहीं करते। वास्तविकता यह है कि वह अपने कथित ज्ञान से वह जिस तपस्या आदि करने का प्रचार करते हैं वह केवल कल्पित स्वर्ग की प्राप्ति करवाने वाला होता है। उसमें भी अप्सराओं से मिलन का सुख बखान किया जाता है। भर्तुहरि कहते हैं कि जब अप्सराओं जैसी सुंदर स्त्रियां इस धरती पर ही मिल जातीं हैं तो उनकी अवहेलना क्यों की जाये। एक तरफ स्वर्ग में अप्सराओं से मिलने के मोह में तप आदि का उपदेश करना और इस धरती की नारी से दूर रहने की बात करना पाखंड के सिवाय कुछ नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में इस बात का उल्लेख करना दिलचस्प रहेगा कि फिल्मों और टीवी चैनलों से जुड़ी अभिनेत्रियों को कहीं सैक्सी और सर्वाधिक सुंदर कहकर इसी संसार में काल्पनिक स्वर्ग की अनुभूति करवाकर यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि अन्य कहीं भी स्त्री सुंदर नहीं है। यह भी एक एसा भ्रम है जिसमें युवक अपने हृदय में उनके चेहरे स्थापित कर लेते हैं। सामान्य लड़कियों में भी पर्दे की कथित सुंदरियों जैसा आकर्षण ढूंढने लगते है। अपनी जेब में उनके फोटो रखने लगते हैं। वह जिस सौंदर्य को वास्तविक समझते हैं केवल उन कथित पर्दे वाली सुंदरियों द्वारा उपयोग में लायी गयी सौदर्य प्रसाधन सामग्री और कैमरे का कमाल होता है। अतः कथित अप्सराओं के सौदर्य की कल्पना-चाहे वह धार्मिक संतों द्वारा प्रचारित हो या अन्य प्रचार माध्यमों द्वारा-में बहना नहीं चाहिए क्योंकि ऐसा करना व्यर्थ है।
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दीपक भारतदीप की

Saturday, August 16, 2008

संत कबीर वाणीःशीतल गंगाजल पर्वतों को तोड़कर अपना मार्ग बनाता है

कुबुधि कमानी चढ़ि, कुटिल वचन के तीर
भरि भरि मारे कान में, सालै सकल सरीर

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटुता पूर्ण वचन बोलना सबसे बुरा है। जिनकी बुद्धि भ्रष्ट है वह ऐसे वचन बोलकर दूसरे के शरीर को दग्ध कर देते हैं।

कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार
सांधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार

संत शिरोमणि कबीरदास जी के अनुसार दुष्ट लोगों के वचन बहुत दुःखदायी होते और उनको सुनकर पुरा शरीर जल जाता है परंतु साधुओं के वचन जल के समान अत्यंत शीतल हैं और ऐसा लगता है जैसे अमृत बरस रहा हो।

कुटिल बचन नहिं बोलिये, शीतल बैन ले चीन्हि
गंगा जल शीतल भया, परबत फोड़ा तीन्हि


संत शिरोमणि कबीर दास जी के अनुसार कटु वचन कभी नहीं बोलना चाहिये। हृदय के शीतलता प्रदान करने वाले वाक्यों का प्रयोग करना चाहिए। गंगा जल कितना शीतल होता है जो पर्वतों को तोड़कर अपना मार्ग बनाता है।
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Friday, August 15, 2008

संत कबीर वाणीःगांठ से हीरा वहां न निकालें जहां बाजार खोटा हो

हीरा तहां न खोलिए,जहां खोटी है हाट
कसि करि बांधो गठरी, उठि चालो बाट


संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि अगर अपनी गांठ में हीरा है तो उसे वहां मत खोलो जहां बाजार में खोटी मनोवृत्ति के लोग घूम रहे हैं। उस हीरे को कसकर अपनी गांठ में बांध लो और अपने मार्ग पर चले जाओ।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संत कबीर दास जी ने यह बात व्यंजना विद्या में कही हैं। इसका सामान्य अर्थ तो यह है कि अपनी कीमती वस्तुओं का प्रदर्शन वहां कतई मत करो जहां बुरी नीयत के लोगों का जमावड़ा है। दूसरा इसका गूढ़ आशय यह है कि अगर आपके पास अपना कोई ज्ञान है तो उसे सबके सामने मत बघारो। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो आपकी बात सुनकर अपना काम चलायेंगे पर आपका नाम कहीं नहीं लेंगे या आपके ज्ञान का मजाक उड़ायेंगे क्योंकि आपके ज्ञान से उनका अहित होता होगा। अध्यात्म ज्ञान तो हमेशा सत्संग में भक्तों में ही दिया जाना चाहिए। हर जगह उसे बताने से सांसरिक लोग मजाक उड़ाने लगते हैं। समय पास करने के लिये कहते हैं कि ‘और सुनाओ, भई कोई ज्ञान की बात’।
अगर कोई तकनीकी या व्यवसायिक ज्ञान हो तो उसे भी तब तक सार्वजनिक न करें जब तक उसका कोई आर्थिक लाभ न होता हो। ऐसा हो सकता है कि आप किसी को अपने तकनीकी और व्यवसायिक रहस्य से अतगत करायें और वह उसका उपयोग अपने फायदे के लिये कर आपको ही हानि पहुंचाये।
अक्सर आदमी सामान्य बातचीत में अपने जीवन और व्यवसाय का रहस्य उजागर कर बाद में पछताते हैं। कबीरदास जी के अनुसार अपना कीमती सामान और जीवन के रहस्यों को संभाल कर किसी के सामने प्रदर्शित करना चाहिए।
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Thursday, August 14, 2008

संत कबीर वाणी:बाल सफ़ेद होना ज्ञान का प्रमाण नहीं

आंखि न देखि बावरा,शब्द सुनै नहिं कान
सिर के केस उज्जल भये, अबहूं निपट अजान
संत शिरोमिणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के लोग अपनी देह की अवस्था का विचार नहीं करते। इन बावलों को आंख से दिखते नहीं है और कानों से उपदेश और संतों के प्रवचन सुनाई नहीं देते है। सिर के बाल पूरी तरह सफेद हो और तब भी अज्ञानी हैं।

मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार
सत्य शब्द नहिं खोजई, जावैं जम के द्वारा


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति सत्य शब्द नहीं मानता न ही धर्म आदि का विचार करता। वह बिना सत्संग और भगवान भक्त के बिना ही मृत्यू को प्राप्त होता है।

संक्षिप्त व्याख्या-इस देश में इतने सारे कथित संत और उनके शिष्य हैं और इतने सारे धार्मिक अनुष्ठान होते हैं पर फिर भी समाज निरंतर संस्कृति, संस्कार और साहित्य के क्षेत्र में पतन की तरफ जा रहा है। लोग अपने संस्कारों को निरर्थक, संस्कृति को पिछड़ा और धार्मिक साहित्य को अप्रासंगिक मानने लगे हैं। इसका कारण यह है कि हमारे देश में पाखंड बहुत बढ़ चुका है। लोग ऐसे धार्मिक कार्यक्रमों में जाते हैं पर आखें होते हुए भी देखते नहीं, कान से सुनी बात दूसरे कान से निकाल देते हैं और बुद्धि का उपयोग करना तो उनको निरर्थक समय नष्ट करना होता है। वैसे वह फिल्मी और राजनीतिक विषयों पर बातचीत कर अपने आपको विद्वान और ज्ञानी समझते हैं पर सत्संग की बात करो तो कहते हैं-‘इनसे कोई संसार थोड़े ही चलता है।’

आधुनिक शिक्षा से भारतीय अध्यात्म विषय को दूर रखने की वजह से आजकल लोगों में मानसिक विकृतियां जन्म ले चुकी हैं। ऐसे में वही लोग थोड़ा बहुत ज्ञान धारण किये हुए हैं जिनको माता पिता या किसी योग्य गुरू द्वारा उससे परिचित कराया गया है वरन लोग तो मन की आखों से दृष्टिहीन, कान से बहरे और बुद्धि से विवेकहीन हो गये हैं। उनको केवल सांसरिक विषय ही प्रिय लगते हैं।
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Wednesday, August 13, 2008

संत कबीर वाणी:बाहर के दरवाजे बंद कर अन्दर झांकें

सुमिरन सुरति लगाय के, मुख ते कछु न बोल
बाहर के पट देय के, अंतर के पट खोल


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मन का एकाग्र और वाणी पर नियंत्रण करते हुए परमात्मा का स्मरण करो। आपनी बाह्य इंदियों के द्वार बंद कर अंदर के द्वार खोलो।

संपादकीय व्याख्या-इससे पता चलता है कि कबीरदास जी ध्यान की चरम स्थिति प्राप्त कर चुके थे और यही उनकी भक्ति और शक्ति का निर्माण करता था। भगवान की भक्ति का श्रेष्ठ रूप भी ध्यान ही है। अक्सर लोग कहते हैं कि हमारा ध्यान नहीं लगता या थोड़ी देर लगता है फिर भटक जाता है। दरअसल हम लोग शोरशराबे से भक्ति करने के आदी हो जाते हैं इसलिये यह सब होता है। इसके अलावा ध्यान के लिये गुरू की आवश्यकता होती है वह मिलते नहीं है। अधिकतर गुरू सकाम भक्ति के लिए प्रेरित कर केवल अपने प्रति लोगों का आकर्षण बनाये रखना चाहते हैं।

ध्यान लगाना सरल भी है और कठिन भी। यह हम पर निर्भर करता है कि हमारे मन और विचारों पर हमारा नियंत्रण कितना है। इस संसार के दो मार्ग हैं। एक सत्य का दूसरा माया का। हमारा मन माया के प्रति इतना आकर्षित रहता है कि उसे वहां से हटाने के लिये दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। अगर हमने तय कर लिया कि हमें ध्यान लगाना ही है तो दुनियां की कोई ताकत उसे लगने से रोक नहीं सकती और अगर संशय है तो कोई गुरू उसे लगवा नहीं सकता।
इन पंक्तियों का लेखक कोई सिद्ध पुरुष नहीं है पर ध्यान की विधि जो अनुभव से आई है उसे तो बता ही सकता है। कहीं शांत स्थान पर सुखासन में बैठ जाईये और आंखें बंद कर शरीर को ढीला छोड़ दें। अपने हृदय में चक्रधारी देव की कल्पना कर उसे पर अपनी दृष्टि रखें। अपना पूरा नाक के बीच में भृकुटि पर ही रखें। दुनियां के विचार आयें आने दीजिये। आप तो तय कर लीजिये कि मुझे ध्यान लगाना है। जो विचार आते हैं उनके बारे में चिंतित होने की बजाय यह सोचिये कि वह आपके जीवन के जो घटनाक्रम आपने देखे और अनुभव किये हैं उनसे उत्पन्न विकार है जो वहां भस्म हो रहे हैं। जिस तरह हम कोई पदार्थ मुख से ग्रहण करते हैं पर शरीर में वह गंदगी के रूप में बदल जाता है। हम मुख से करेला खायें यह क्रीमरोल उसका हश्र एक जैसा ही होता है। हम काढ़ा पियें या शर्बत वह भी कीचड़ के रूप में परिवर्तित हो जाता है। यही हाल आखों से देखे गये अच्छे बुरे दृश्य और कानों से सुने गये प्रिय और कटु स्वर का भी होता है। उसके विकार हम देख नहीं पाते पर वह हमारी देह में होते है और उसको वहां से निकालने के लिये ब्रह्मास्त्र का काम करता है ध्यान। जब ध्यान लगाते हैं और जो विचार हमारे दिमाग में आते हैं उनके बारे में यह समझना चाहिए कि वह विकार हैं जो वहां भस्म होने आ रहे हैं और हमारा मन शुद्ध हो रहा है। धीरे-धीरे हमारी बाह्य इंद्रियों के द्वार ध्यान के कारण स्वतः बंद होने लगेंगे। बस अपने अंदर दृढ़ इच्छा शक्ति की आवश्यकता है।
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Tuesday, August 12, 2008

रहीम के दोहेःपृथ्वी के सभी प्राणी एक ही ईश्वर का स्वरूप हैं

जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि, लपटाय
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वाद स्वाद सों खाय

कविवर रहीम कहते हैं कि जैसे कोई आदमी उल्टी कर देता है पर श्वान उसे स्वादिष्ट समझकर चाटने लगता है उसी प्रकार के संसार के विषय और भोग विलास का ज्ञानी त्याग देते हैं और मूर्ख उसे ग्रहण करने हैं।

भूप गनत लघू गुनिन को, गुनी गलत लघु भूप
रहिमन गिर तें भूमि लौं, लखो तो एकैं रूप


कविवर रहीम कहते हैं कि राजा लोग अपने राज्य के गुणवानों को हेय दृष्टि से देखते हैं और गुणी तथा ज्ञानी लोग राजा को अपने से छोटा समझते हैं जबकि इस पृथ्वी पर सभी प्राणी एक ही ईश्वर के स्वरूप हैं।

मथन मथत माखन रहे, दही मही बिलगाय
रहिमन सोई मीत है, भीर परै ठहराय

कविवर रहीम कहते हैं कि जब दही को लगतार मथा जाता है तब उसमें से मक्खन निकल पाता है और दही स्वयं मट्ठा होकर मक्खन को आश्रय देती है। उसी प्रकार सच्चा मित्र वही है जो संकट आने पर मदद करता है।
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Monday, August 11, 2008

संत कबीर वाणी:अहंकारी आदमी गुरु से भी सम्मान चाहता है

अहं अगनि हिरदै, जरै, गुरू सों चाहै मान
जिनको जम नयौता दिया, हो हमरे मिहमान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब किसी मनुष्य में अहंकार की भावना जाग्रत होती है तो वह अपने गुरू से भी सम्मान चाहता है। ऐसी प्रवृत्ति के लोग अपने देह को कष्ट देकर विपत्तियों को आमंत्रण भेजते हैं और अंततः मौत के मूंह में समा जाते हैं।

कबीर गर्व न कीजिये, रंक न हंसिये कोय
अजहूं नाव समुद्र में, ना जानौं क्या होय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपनी उपलब्धियौं पर अहंकार करते हुए किसी निर्धन पर हंसना नहीं चाहिए। हमारा जीवन ऐसे ही जैसे समुद्र में नाव और पता नहीं कब क्या हो जाये।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अहंकार आदमी का सबसे बड़ा शत्रू होता है। कुछ लोग अपने गुरू से कुछ सीख लेकर जब अपने जीवन में उपलब्धियां प्राप्त कर लेते हैं तब उनमें इतना अहंकार आ जाता है कि वह अपने गुरू से भी सम्मान चाहते हैं। वैसे आजकल के गुरू भी कम नहीं है वह ऐसे ही शिष्यों को सम्मान देते हैं जिसके पास माल टाल हो। यह गुरू दिखावे के ही होते हैं और उन्होंने केवल भारतीय अध्यात्म ग्रंथों की विषय सामग्री को रट लिया होता है और जिसे सुनाकर वह अपने लिये कमाऊ शिष्य जुटाते हैं। गरीब भक्तों को वह भी ऐसे ही दुत्कारते हैं जैसे कोई आम आदमी। कहते सभी है कि अहंकार छोड़ दो पर माया के चक्कर में फंस गुरू और शिष्य इससे मुक्त नहीं हो पाते। ऐसे में यह विचार करना चाहिए कि हमारा जीवन तो ऐसे ही जैसे समुद्र के मझधार में नाव। कब क्या हो जाये पता नहीं। माया का खेल तो निराला है। खेलती वह है और मनुष्य सोचता है कि वह खेल रहा है। आज यहां तो कल वहां जाने वाली माया पर यकीन नहीं करना चाहिए। इसलिये अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति को सम्मान देने का विचार मन में रखें तो बहुत अच्छा।
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Sunday, August 10, 2008

विदुर नीतिःसात्विक मार्ग से आया धन ही स्थाई रहता है

१.मनुष्य में धन और आरोग्य को छोड़कर कोई दूसरा गुण नहीं है, क्योंकि रोगी मनुष्य मुर्दे के समान है।
२.जो बिना रोग के उत्पन्न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करने वाला, पाप से संबद्ध, कठोर, तीखा और गरम है जो सज्जनों द्वारा ग्रहण करने योग्य नही और जिसे दुर्जन ही व्यक्त सकते हैं, उस क्रोध को पी जाइये और शांत हो जाइये।
३.रोग से पीड़ित मनुष्य मधुर फलों का आदर नहीं करते, विषयों में भी उन्हें जीवन का सुख और सार भी नहीं मिल पता। रोगी सदा ही दुखी रहते हैं। वह धारण से प्राप्त धन का और वैभव के सुख का अनुभव नहीं कर पाते हैं ।
४.वह बल नहीं है जिसका जो सरल स्वभाव का विरोधी हो। सूक्ष्म धर्म को शीघ्र ही ग्रहण करना चाहिए। क्रूरता से अर्जित धन नष्ट होता है। यदि धन सात्विक मार्ग से आया है तो वह लंबे समय तक स्थिर रहता है.
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Saturday, August 9, 2008

संत कबीर वाणीःहठ करने से यहां कोई बात नहीं बनती

अति हठ मत कर बावरे, हठ से बात न होय
ज्यूं ज्यूं भीजे कामरी, त्यूं त्यूं भारी होय।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अधिक हठ करने कोई बात नहीं बनती है जैसे जैसे कंबल पानी में भीगता है और अधिक भारी होता जाता है।

नाम भजो मन बसि करो, यही बात है तंत
काहे को पढि़ मरो, कोटि ज्ञान गिरंथ


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि परमात्मा का नाम जपनते हुए ही मन को बस में किया जा सकता है यही जीवन का मूल मंत्र है। व्यर्थ में ज्ञान की पुस्तकेंं पढ़ने से कोई लाभ नहीं है। ढेर सारे ग्रंथ पढ़ने से कोई ज्ञान थोड़े ही मिल जाता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-हर मनुष्य में अहंकार होता है पर किसी किसी में यह इतना अधिक हो जाता है कि वह किसी सही बात को भी स्वीकार नहीं करता। लोगों के आत्मप्रवंचना करने की आदत होती है। वह चाहते हैं कि हर कोई उनका सम्मान और प्रशंसा करे। इस मोह के कारण मनुष्य हठी हो जाता है और अपने मूंह से निकली बात यह हाथ से हुई गलती मान लेना उसे अपनी हेठी लगता है। उसे सही साबित करने के लिये वह अनर्गल तर्क देता या बहाने बनाते हुए अपनी गलती का वजन बढ़ाता जाता है। ऐसे हठी लोग समाज में मजाक का पात्र बनते हैं।

इस विश्व में तमाम तरह के धार्मिक ग्रंथ हैं और उनमें तमाम तरह का ज्ञान भरा हुआ है। उसमें कहानियों के साथ अनेक तरह की बातें कही गयी हैं और अगर उनको पढ़ा जाये तो यह समझ में नही आता कि भगवान की भक्ति का सही स्वरूप कौनसा है। ऐसे में लोग तमाम तरह के भ्रम अपने मन में पाल लेते हैं। भारतीय अध्यात्म के अनुसार केवल प्रभु का नाम हृदय में धारण कर उसे स्मरण करना ही पर्याप्त है। इसके लिये कोई समय या दिन निर्धारित नहीं है। चाहे जब आये मन में अपने ईश्वर का ध्यान लगा लो तो पूरे शरीर में स्फूर्ति आ जाती है। उसके लिये जरूरी नहीं है कि कोई किताब पढ़ी जाये। इन किताबों से ज्ञान रटकर तो अनेक लोगों ने अपने नाम के आगे संत की उपाधि लगा ली है पर उनके कर्म तो सांसरिक मनुष्यों की तुलना में निम्न कोटि के हैं क्योंकि वह भगवान का नाम अपनी वाणी से लेते हैं पर उनके हृदय में तो माया का ही वास होता है।
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Wednesday, August 6, 2008

विदुर नीति:बिना परखे किसी को सहयोगी न बनाएं

1. जो मित्र न हो, मित्र होने पर भी ज्ञानी न हो, ज्ञानी होने पर जिसका अपने मन पर नियंत्रण न हो उसे अपना गुप्त मंत्र नहीं बताना चाहिये। किसी की परीक्षा किये बिना अपना सहयोगी नहीं बनाना चाहिये।
2.जो मोहवश बुरे कर्म करता है, उन कार्यों का विपरीत परिणाम होने से अपने जीवन को ही नष्ट कर देता है।
3.जिसके क्रोध और हर्ष व्यर्थ नहीं जाते और आवश्यक कार्य करते हुए स्वयं ही सतर्कता बरतता है और अपने आर्थिक स्थिति का पूरा ज्ञान जिसे है उसको पृथ्वी पर्याप्त संपदा प्रदान करती है।
4.जो संधि विग्रह आद छः गुणों का ज्ञान होने के लिये प्रसिद्ध है तथा अपनी स्थिति, विकास और पतन का समझता है और जिसके स्वभाव से सभी लोग प्रभावित होते हैं पृथ्वी उसकी रक्षा करती है।
5. उत्तम कर्मो का अनुष्ठान तो सुख देने वाला होता है, किंतु उन्हीं का अनुष्ठान न किया जाये तो पश्चाताप भी होता है।

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Tuesday, August 5, 2008

चाणक्य नीतिःसचेत न रहें तो बीमारी और दुश्मन हमला कर देते हैं

1.निरंतर परिश्रम करना ही अपनी निर्धनता हटाने का सबसे अधिक अच्छा उपाय है। परिश्रमी कभी निर्धन नहीं रह सकता। उद्यम करने वाले को उसका भाग्य का लिखा मिलता है। अगर कोई सिंह सो रहा है तो उसके मूंह में पशु अपने आप नहीं चले जाते। अगर वह परिश्रम न करे तो उसे भी भूखा मरना पड़ता है।
2.भगवान का नाम जपने से सभी पाप अपने आप नष्ट हो जाते हैं। प्राचीन ग्रंथों में पापों के प्रायश्चित को के रूप में तप का ही महत्व प्रतिपादित किया गया है, जो व्यक्ति निरंतर जप करता रहता है उसके पाप तो रह ही नहीं सकते।
3.उत्तर का प्रत्युत्तर देना ही झगड़े का कारण बनता है। अगर किसी ने अपशब्द कहें हैं और दूसरा भी उसके उत्तर में अपशब्द कहता है तो झगड़ा अपने आप शूरू हो जाता है। अगर की झगड़े का निराकरण करना है तो उसका सबसे अच्छा उत्तर मौन है।
4.जागरुक और सावधान व्यक्ति को किसी प्रकार के भय की आशंका नहीं रहती। प्रायः रोग, शत्रू तथा अपराधिक प्रवृत्ति के लोग असावधान और सोते व्यक्ति पर ही प्रहार करते हैं और उनके जागते ही भाग जाते हैं।


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Saturday, August 2, 2008

चाणक्य नीति: मनुष्यों में होते हैं कई प्रकार के अंधे

1.मनुष्य में अंधापन कई प्रकार का होता है। एक तो जन्मांध होते हैं जिनको वास्तव में आंखों से कुछ भी नहीं दिखता, पर दूसरे वह होते हैं जो आखें होते हुए भी नहीं देखते या न देखने का नाटक करते हैं।
2.सावन के अंधे को केवल हरियाली ही दिखती है। इसका तात्पर्य यह है कि आदमी को आंखें तो हैं पर वह सूखे में भी सावन की हरियाली की बात करता है क्योंकि उस पर केवल उसी का प्रभाव होता है
3.कामवासना के अंधे को कुछ भी नहीं सूझता उसकी आखों में केवल मद छाया रहता है। वह केवल इसी विषय पर बात कर अपना तथा दूसरों को मनोरंजन का प्रयास करता है। इसी प्रकार लोभी को भी अपने स्वार्थ की अलावा कुछ नहीं सूझता।
कुछ इस प्रकार के कामांध, मदांध और लोभी ऐसे मनुष्य होते हैं जो आंखें रहते हुए भी अंधों की तरह व्यवहार करते हैं। ऐसे लोग अपने नजरिये से दुनियां को देखते हैं और अपने स्वार्थ के अनुसार उसके स्वरूप का वर्णन करते हैं।

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Friday, August 1, 2008

रहीम के दोहे:काम का जैसा आरंभ वैसा ही होता है अंत

रहिमन धरिया रहंट की, त्यों ओछे की डीठ
रीतेहि सन्मुख होत है, भरी दिखावै पीठ


कविवर रहीम कहते हैं कि नीच आदमी की प्रवृत्ति रहंट की घडि़या की तरह होती है जब पानी भरना होता है तो वह उसके आगे अपना सिर झुकाती है और जब जब भर जाता है तो उससे मूंह मूंह फेर लेती है। ऐसे ही नीच आदमी जब किसी में काम पड़ता है तो उसके आगे सिर झुकाता है और कम करते ही मूंह फेर लेता है।

रहिमन खोटि आदि की, सो परिनाम लखाय
जैसे दीपक तम भरवै, कज्जल वमन कराय


कविवर रहीम कहते हैं कि अगर किसी काम का आरंभ जैसे होता है वैसे ही उसके अनुसार परिणाम पर उसका अंत होता है। जैसे दीपक अपने प्रज्जवलित होते ही ऊपर के अंधेरे को अंदर भरता है और रोशनी करने के बावजूद उसके तल में अंधेरा ही रहता है।

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