२.जो बिना रोग के उत्पन्न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करने वाला, पाप से संबद्ध, कठोर, तीखा और गरम है जो सज्जनों द्वारा ग्रहण करने योग्य नही और जिसे दुर्जन ही व्यक्त सकते हैं, उस क्रोध को पी जाइये और शांत हो जाइये।
३.रोग से पीड़ित मनुष्य मधुर फलों का आदर नहीं करते, विषयों में भी उन्हें जीवन का सुख और सार भी नहीं मिल पता। रोगी सदा ही दुखी रहते हैं। वह धारण से प्राप्त धन का और वैभव के सुख का अनुभव नहीं कर पाते हैं ।
४.वह बल नहीं है जिसका जो सरल स्वभाव का विरोधी हो। सूक्ष्म धर्म को शीघ्र ही ग्रहण करना चाहिए। क्रूरता से अर्जित धन नष्ट होता है। यदि धन सात्विक मार्ग से आया है तो वह लंबे समय तक स्थिर रहता है.
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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