Saturday, June 21, 2008

संत कबीर वाणीःमित्रता से उत्पन्न होती है भक्ति में बाधा

दुनिया सेती दोसती, होय भजन में भंग
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि लोगों से मैत्री करने से भजन में भंग होता है। इसलिये एकांत में ही राम का नाम लेते हुए ध्यान करना चाहिए या फिर सच्चे संतों की संगत में बैठना चाहिए।

मेरा संगी कोय नहिं, सबै स्वारथी लोय
मन परतीति न ऊपजै, जिस विस्वास न होय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में मेरा कोई साथी नहीं है। यहां पर तो सभी लोग अपने स्वार्थ के जुड़े हुए हैं। इसलिये भले ही मन नहीं मानता हो या विश्वास न होता हो यह एक सच्चाई है जिसे हमेशा याद रखना चाहिए कि यहां हर व्यक्ति स्वार्थी है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-यह एक वास्तविकता है कि ध्यान, स्मरण और भक्ति का लाभ एकांत साधना से ही संभव है। कहीं किसी धार्मिक कार्यक्रम में जाईये जो लोग अपने साथ किसी को ले जाते हैं पर एक दूसरे से सांसरिक बातें करने लगते हैं और यह भूल जाते हैं कि वह बैठे कहां हैं। कई लोग तो केवल इसलिये सत्संग और प्रवचन कार्यक्रमों में जाते हैं कि कोई परिचित या मित्र साथ चल रहा है-उनका विचार होता है कि इससे दो काम सिद्ध हो जायेंगे एक तो बातें भी हो जायेंगी और सत्संग भी हो जायेगा। कई लोग बसों में भरकर तीर्थस्थानों में भक्ति भाव प्रदर्शन करने जाते हैं और अपने सहयात्रियों के साथ वही सांसरिक बातें करते हैं जो घर पर होती हैं। इस तरह लोग अपने आपको ही धोखा देते हैं। शोर में भक्ति नहीं होती-हालांकि कुछ देर के लिये अपने को लोग तसल्ली देते हैं पर उनके मन और तन के विकार नहीं निकल पाते और इसलिये वह भक्ति और साधना से मिलने वाले लाभों से वंचित हो जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि हम अगर किसी मंदिर या ध्यान केंद्र में जायें तो वहां कोई अन्य व्यक्ति न हो तभी भक्ति करें। हां, हमारे साथ कोई न हो और हम वहां जाकर अपने आपको अकेले अनुभव करें तभी एकांत साधना करें। ऐसे धार्मिक स्थलों पर अनेक लोग आते हैं पर कोई परिचित न हो तो किसी से बात नहीं हो पाती और भीड़ में भी एकांत मिल सकता है क्योंकि उस समय किसी के साथ न होने की अनुभूति स्वतः एकांत प्रदान करती है। जहां साथ चलने के लिये किसी व्यक्ति को साथ लिया वहां भक्ति और साधना का भाव लुप्त हो जाता है और मन और तन के विकार निकालने के लिये एकाग्रता होना आवश्यक है।

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