Wednesday, June 29, 2011

भर्तृहरि नीति शतक-तृष्णा की नदी में आदमी जीवन भर भटकता रहता है(hindu dharmik vichar,trishna ki nadi mein aadmi ka jivan)

         मनुष्य मन में आशायें पालता है और उनकी पूर्ति करना ही उसका लक्ष्य रह जाता हैं पूरा जीवन इसमें वह व्यय करता है पर कभी संतुष्ट नहीं रह पाता। एक आशा पूरी होती है तो दूसरी मन में प्रज्जवलित हो जाती है। इस तरह मनुष्य निरंतर भागता रहता है। उसे यही नहीं पता रहता कि सुख क्या है और उसकी अनुभूति कैसे होती है।
            महाराज भर्तृहरि कहते हैं
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         आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरङगाकुला
           रामग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी
            मोहावर्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुङगचिन्तातटी
             तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगश्वराः
            "आशा एक नदी की भांति इसमे हमारी कामनाओं के रूप में जल भरा रहता है और तृष्णा रूपी लहरें ऊपर उठतीं है। यह नदी राग और अनुराग जैसे भयावह मगरमच्छों से भरी हुई हैं। तर्क वितर्क रूपी पंछी इस पर डेरा डाले रहते हैं। इसकी एक ही लहर मनुष्य के धैर्य रूपी वृक्ष को उखाड़ फैंकती है। मोह माया व्यक्ति को अज्ञान के रसातल में खींच ले जाती हैं, जहा चिंता रूपी चट्टानों से टकराता हैं। इस जीवन रूपी नदी को कोई शुद्ध हृदय वाला योगी तपस्या, साधना और ध्यान से शक्ति अर्जित कर परमात्मा से संपर्क जोड़कर ही सहजता से पार कर पाता है।

      कहते हैं कि ‘उम्मीद पर आसमान टिका है’। यह उम्मीद और आशा यानि क्या? सांसरिक स्वार्थों की पूर्ति होने ही हमारी आशाओं का केंद्र है। भक्ति, सत्संग तथा तत्वज्ञान से दूर भटकता मनुष्य अपना पेट भरते भरते थक जाता है पर वह है कि भरता नहीं। कभी कभी जीभ स्वाद बदलने के लालायित हो जाती है। सच तो यह है कि मन की तृष्णायें ही आशा का निर्माण करती हैं। भारत जो कभी एक शांत और प्राकृतिक रूप से संपन्न क्षेत्र था आज पर्यावरण से प्रदूषित हो गया है। हमेशा यहां आक्रांता आये और साथ में लाये नयी रौशनी की कल्पित आशायें। सिवाय ढोंग के और क्या रहा होगा? कुछ मूर्ख लोग तो कहते हैं कि इन आक्रांताओं ने यहां नयी सभ्यता का निर्माण किया। इस पर हंसा ही जा सकता है। यह नयी सभ्यता कभी अपना पेट नहीं भर पाती। जीभ के स्वाद के लिये अपना धर्म तक छोड़ देती है। रोज नये भौतिक साधनों के उपयोग की तरफ बढ़ चुकी यह सभ्यता जड़ हो चुकी है। आशायें हैं कि पूर्ण नहीं होती। होती है तो दूसरी जन्म लेती है। यह क्रम कभी थमता नहीं।

           इस सभ्यता में हर मनुष्य का सम्मान की बात कही जाती है। यह एक नारा है। योग्यता, चरित्र और वैचारिक स्तर के आधार पर ही मनुष्य को सम्मान की आशा करना चाहिये मगर नयी सभ्यता के प्रतिपादक यहां जातीय और भाषाई भेदों का लाभ उठाकर यहां संघर्ष पैदा कर मायावी दुनियां स्थापित करते रहे। भारतीय अध्यात्म ज्ञान में जहां मान सम्मान से परे रहकर अपनी तृष्णाओं पर नियंत्रण करने के लिये संदेश दिया जाता है। सभी के प्रति समदर्शिता का भाव रखने का आदेश दिया जाता है। वही नयी सभ्यता के प्रतिपादक अगड़ा पिछड़ा का भेद यहां खड़ा करते हुए बतलाते हैं कि जिन तबकों को पहले सम्मान नहीं मिला अब उनकी पीढ़ियों को विशेष सम्मान दिया जाना चाहिए। कथित पिछड़े तबकों को विशेष सम्मान की तृष्णा जगाकर वह दावा करते हैं कि हम यहां समाज में बदलाव ला रहे हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि जिन जातियों में अनेक महापुरुष और वीर योद्धा पैदा हुए उनको ही पिछड़ा बताकर सामाजिक वैमनस्य पैदा केवल इसी ‘विशेष सम्मान’ की आड़ में पैदा किया गया है। आज हालत यह है कि पहले से अधिक जातिपाति का फैल गया है।
            विकास, सम्मान और आर्थिक समृद्धि की आशाऐं जगाकर भारतीय अध्यात्म ज्ञान को ढंकने का प्रयास किया गया। ऐसी आशायें जो कभी पूरी नहीं होती और अगर हो भी जायें तो उनसे किसी मनुष्य को तत्वज्ञान नहीं मिलता जिसके परिणाम स्वरूप समाज में आज रोगों का प्रकोप और तनाव का वातावरण बन गया है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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Saturday, June 25, 2011

पतंजलि योग साहित्य-आत्मा शुद्ध पर बुद्धि के अनुरूप देखने वाला है (patanjali yoga sahitya-atma aur buddhi)

            पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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            द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।
          ‘‘चेतनमात्र दृष्ट (आत्मा) यद्यपि स्वभाव से एकदम शुद्ध यानि निर्विकार तो बुद्धिवृति के अनुरूप देखने वाला है।
           तदर्थ एवं दृश्यस्यात्मा।।
         ‘‘दृश्य का स्वरूप उस द्रष्टा यानि आत्मा के लिये ही है।’’
                    संपादकीय व्याख्या-पंचतत्वों से बनी इस देह का संचालन आत्मा से ही है मगर उसे इसी देह में स्थित इंद्रियों की सहायता चाहिए। आत्मा और देह के संयोग की प्रक्रिया का ही नाम योग है। मूलतः आत्मा शुद्ध है क्योंकि वह त्रिगुणमयी माया से बंधा नहीं है पर पंचेंद्रियों के गुणों से ही वह संसार से संपर्क करता है और बाह्य प्रभावों का उस पर प्रभाव पड़ता है।
           आखिर इसका आशय क्या है? पतंजलि विज्ञान के इस सूत्र का उपयोग क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर तभी जाना जा सकता है जब हम इसका अध्ययन करें। अक्सर ज्ञानी लोग कहते हैं कि ‘किसी बेबस, गरीब, लाचार, तथा बीमार या बेजुबान पर अनाचार मत करो’ तथा ‘किसी असहाय की हाय मत लो’ क्योंकि उनकी बद्दुआओं का बुरा प्रभाव पड़ता है। यह सत्य है क्योंकि किसी लाचार, गरीब, बीमार और बेजुबान पशु पक्षी पर अनाचार किया जाये तो उसका आत्मा त्रस्त हो जाता है। भले ही वह स्वयं दानी या महात्मा न हो चाहे उसे ज्ञान न हो या वह भक्ति न करता हो पर उसका आत्मा उसके इंद्रिय गुणों से ही सक्रिय है यह नहीं भूलना चाहिए। अंततः वह उस परमात्मा का अंश है और अपनी देह और मन के प्रति किये गये अपराध का दंड देता है।
         कुछ अल्पज्ञानी अक्सर कहते है कि देह और आत्म अलग है तो किसी को हानि पहुंचाकर उसका प्रायश्चित मन में ही किया जा सकता है इसलिये किसी काम से डरना नहीं चाहिए। । इसके अलावा पशु पक्षियों के वध को भी उचित ठहराते हैं। यह अनुचित विचार है। इतना ही नहीं मनुष्य जब बुद्धि और मन के अनुसार अनुचित कर्म करता है तो भी उसका आत्मा त्रस्त हो जाता है। भले ही जिस बुद्धि या मन ने मनुष्य को किसी बुरे कर्म के लिये प्रेरित किया हो पर अंततः वही दोनों आत्मा के भी सहायक है जो शुद्ध है। जब बुद्धि और मन का आत्मा से संयोग होता है तो वह जहां अपने गुण प्रदान करते हैं तो आत्मा उनको अपनी शुद्धता प्रदान करता है। इससे अनेक बार मनुष्य को अपने बुरे कर्म का पश्चाताप होता है। यह अलग बात है कि ज्ञानी पहले ही यह संयोग करते हुए बुरे काम मे लिप्त नहीं होते पर अज्ञानी बाद में करके पछताते हैं। नहीं पछताते तो भी विकार और दंड उनका पीछा नहीं छोड़ते।
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Wednesday, June 22, 2011

चाणक्य नीति-ध्यान की महिमा जानना आवश्यक (dhyan ki mahima samjhana avshyak-chankya neeti in hindi)

          श्रीमद्भागवत में श्री कृष्ण कहते हैं कि यह संसार मेरे संकल्प के आधार पर ही स्थित है। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि इस संसार में समस्त देहधारियों के जीवन का स्वरूप और आधार ही ध्यान है। हमारे जीवन में अक्सर उतार चढ़ाव आते हैं। जब अच्छा समय होता है तब हमें कुछ आभास नहीं होता पर बुरा समय आता है तो उस समय विलाप करते हैं। उस समय कभी भाग्य को दोष देते हैं तो कभी दूसरे मनुष्य या स्थिति को दोष देते हैं। यह सब भ्रम है। दरअसल जिस तरह परमात्मा का संसार उसके संकल्प के आधार पर बना है वैसे ही हमारा जीवन संसार भी हमारे संकल्प का आधार है। हम कभी अपने मन में चल रहे संकल्पों का अवलोकन नहीं करते पर उससे जो संसार बन रहा है उसे भोगना तो हमें ही होता है। इन संकल्पों में सदैव शुद्धता रहे इसके लिये ध्यान करने साथ ही ज्ञानी तथा विद्वान लोगों का दर्शन कर सत्संग का लाभ उठाना चाहिए।
           इस विषय में नीति विशारद चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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             दर्शनध्यानसंस्पर्शे कूर्मी च पक्षिणी।
            शिशुं पालयते नित्यं तथा सज्जनसंगति।।
          ‘मछली, कछवी और मादा पक्षी चिडिया जिस प्रकार दर्शन, ध्यान और स्पर्श से अपने शिशुओं का पालन करती हैं उसी प्रकार उत्तम पुरुष की तरफ ध्यान करने से मनुष्य को भी लाभ होता है।’’
         पतंजलि योग में भी ध्यान का महत्व अत्यंत व्यापक ढंग से प्रतिपादन किया गया है। वैसे भी कहा जाता है कि हमारे धर्म की शक्ति का मुख्य बिंदु ध्यान है। श्रीमद्भागवत गीता में भी ध्यान को महत्व दिया गया है। योगासन करने के बाद किया गया ध्यान उसे पूर्णता प्रदान करता है। अनेक पशु पक्षी तो अपने ध्यान और दर्शन से ही बच्चों का पालन करते हैं। उनसे प्रेरणा लेना चाहिए।
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Saturday, June 18, 2011

जहां मेंढक बोलें वहाँ कोयल खामोश हो जाती है-रहीम संदेश


             जहां बकवासी, अहंकारी लोगों का का जमावड़ा हो वहाँ ज्ञानियों का उपहास ही हो सकता है इसलिए उनको सम्मान की आशा नहीं करना चाहिए। वैसे भी आजकल नैतिकता, ईमानदारी और आदर्श की बातें खूब होती हैं पर व्यवहार में अमल कम ही लोग करते हैं। अक्सर हमस लोग अपने  देश में संगीत, साहित्य, खेल और अन्य कला क्षेत्रों में प्रतिभाओं की कमी की शिकायत करते हैं। यह केवल हमारा भ्रम है। 105 करोड़ लोगों के इस देश में एक से एक प्रतिभाशाली लोग हैं। एक से एक ऊर्जावान और ज्ञानवान लोग हैं। भारतभूमि तो सदैव अलौकिक और आसाधारण लोगों की जननी रही है। हां, आजकल हर क्षेत्र व्यवसायिकता का बोलबाला हो गया है। जो बिकता है वही दिखता है। इसलिये जो चाटुकारिता के साथ व्यवसायिक कौशल में दक्ष हैं या जिनका कोई गाडफादर होता है वही चमकते हैं और यकीनन वह अपने क्षेत्र में मेंढक की तरह टर्राने वाले होते हैं। थोड़ा सीख लिया और चल पड़े उसे बाजार में बेचने जहां माया की बरसात हो। जो अपने क्षेत्रों में प्रतिभाशाली हैं और जिन्होंने अपनी विधा हासिल करने के लिये अपनी पूरी शक्ति और बुद्धि झोंक दी और उनकी प्रतिभा निर्विवाद है वह कोयल की तरह माया की वर्षा में आवाज नहीं देते-मतलब वह किसी के घर जाकर रोजगार की याचना नहीं करते और आजकल तो मायावी लोग किसी को अपने सामने कुछ समझते ही नहीं और उनको तो मेंढक की टर्राने वाले लोग ही भाते हैं। यही कारण है की प्रतिभाशाली लोगों का सभी क्षेत्रों में अभाव दिखाई देता है।
इस विषय पर  कविवर रहीम कहते है कि
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पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कोय।।
 "वर्षा ऋतु आते ही मेंढको की आवाज चारों तरफ गूंजने लगती है तब कोयल यह सोचकर खामोश हो जाती है कि उसकी आवाज कौन सुनेगा।"
         कई बार देखा होगा आपने कि फिल्म और संगीत के क्षेत्र में देश में प्रतिभाओं की कमी की बात कुछ उसके कथित अनुभवी और समझदार लोग करते हैं पर उनको यह पता ही नहीं कि कोयल और मेंढक की आवाज में अंतर होता है। एक बार उनको माया के जाल से दूर खड़े होकर देखना चाहिए कि देश में कहां कहां प्रतिभाएं और उनका उपयोग कैसा है तब समझ में आयेगा। मगर बात फिर वही होती है कि वह भी स्वयं मेंढक की तरह टर्रटर्राने वाले लोग हैं वह क्या जाने कि प्रतिभाएं किस मेहनत और मशक्कत से बनती हैं। वैसे बेहतर भी यही है कि अपने अंदर कोई गुण हो तो उसे गाने से कोई लाभ नहीं है। एक दिन सबके पास समय आता है। आखिर बरसात बंद होती है और फिर कोयल के गुनगनाने का समय भी आता है। उसी तरह प्रकृति का नियम है कि वह सभी को एक बार अवसर अवश्य देती है और इसीलिये कोई कोयल की तरह प्रतिभाशाली है तो उसे मेंढक की तरह टर्रटर्राने की आवश्यकता नहीं है और वह ऐसा कर भी नहीं सकते। हमें प्रतिभाशालियों का इसलिये सम्मान और प्रशंसा करना चाहिए कि स्वभावगतः रूप से दूसरे की चाटुकारिता करने का अवगुण नहीं होता। 
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Wednesday, June 15, 2011

कबीर वाणी-अपने मुख से तोलकर शब्द व्यक्त करें (kabir wani-apne mukh se tolakar shabd bolen)

        देखा जाये तो संसार में ज्ञानी लोगों  की संख्या अत्यंत कम है। उसके बाद ऐसे लोगों की संख्या है जो ज्ञान की तलाश के लिये प्रयासरत रहते हैं यह अलग बात है कि योग्य गुरु के अभाव में उनको सफलता नहीं मिलती। मगर ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो न तो जिनके पास ज्ञान है न उनको पाने की जिज्ञासा है। देहाभिमान से युक्त ऐसे लोग हर समय अपने आपको श्रेष्ठ प्रमाणित करने के लिये बकवाद करते हैं। दूसरों का मजाक बनाते हैं। ऐसे मूर्ख लोग अपने आपको बुद्धिमान साबित करने के लिये किसी भी हद तक चले जाते हैं। न तो वह समय देखते हैं न व्यक्ति। अपने शब्दों का अर्थ वह स्वयं नहीं समझते। उनको तो बस बोलने के लिये बोलना है। ऐसे लोग न बल्कि दूसरों को दुःख देते हैं बल्कि कालांतर में अपने लिये संकट का निर्माण भी करते हैं।
संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि
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सहज तराजू आनि के, सब रस देखा तोल
सब रस माहीं जीभ रस, जू कोय जाने बोल
"संसार में विभिन्न प्रकार के रस हैं और हमने सब रसों को सहज स्वभाव की ज्ञान -तुला पर तौलकर देख-परख लिया है। सब रसों में जीभ का रस सर्वोत्तम एव अधिक वजन वाला है। उसे वही जान सकता है जो अपने शब्द और वाणी का सही उपयोग करना जानता है।"
मुख आवै सोई कहै, बोलै नहीं विचार
हटे पराई आतमा, जीभ बाँधि तलवार
"कुछ नासमझ लोग ऐसे हैं जो कभी भी सोच समझकर नहीं बोलते और मुहँ में जो आता है बक देते हैं। ऐसे लोगों की वाणी और शब्द तलवार की तरह दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं।"
         इसके विपरीत ज्ञानी लोग हर शब्द के रस का अध्ययन करते हैं। उनके प्रभाव पर दृष्टिपात करते हैं। उनका अभ्यास इतना अधिक हो जाता है कि उनके मुख से निकला एक एक शब्द न केवल दूसरों का सुख देता है बल्कि वह स्वयं भी उसका आनंद उठाते हैं। एक बात निश्चित है कि किसी भी मनुष्य के मुख से निकले शब्द उसके अंतर्मन का प्रमाण होते हैं। दुष्ट लोग जहां हमेशा अभिमान और कठोरता से भरे भरे शब्द उपयोग करते है जबकि सज्जन कठोर बात भी मीठे शब्दों में कहते हैं। इसलिये जब कहीं वार्तालाप करते हैं तो इस बात का विचार करें कि हमारे शब्द का बाहर प्रभाव क्या होगा? इससे न केवल हम दूसरे को सुख दे सकते हैं बल्कि अपने लिये आने वाले संकटों से भी बच सकते हैं। कहा भी जाता है कि यही वाणी आपको धूप में बैठने का दुःख और छांव में बैठने के सुख का कारण बनती है।
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Monday, June 13, 2011

पतंजलि योग विज्ञान-योग साधना की चरम सीमा है समाधि (patanjali yog vigyan-yaga sadhana ki charam seema samadhi)

        भारतीय योग विधा में वही पारंगत समझा जाता है जो समाधि का चरम पद प्राप्त कर लेता है। आमतौर से अनेक योग शिक्षक योगासन और प्राणायाम तक की शिक्षा देकर यह समझते हैं कि उन्होंने अपना काम पूरा कर लिया। दरसअल ऐसे पेशेवर शिक्षक पतंजलि योग साहित्य का कखग भी नहीं जानते। चूंकि प्राणायाम तथा योगासन में दैहिक क्रियाओं का आभास होता है इसलिये लोग उसे सहजता से कर लेते हैं। इससे उनको परिश्रम से आने वाली थकावट सुख प्रदान करती है पर वह क्षणिक ही होता है । वैसे सच बात तो यह है कि अगर ध्यान न लगाया जाये तो योगासन और प्राणायाम सामान्य व्यायाम से अधिक लाभ नहीं देते। योगासन और प्राणायाम के बाद ध्यान देह और मन में विषयों की निवृत्ति कर विचारों को शुद्ध करता है यह जानना भी जरूरी है।
    पतंजलि योग साहित्य में बताया गया है कि 
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      देशबंधश्चित्तस्य धारण।।
    ‘‘किसी एक स्थान पर चित्त को ठहराना धारणा है।’’
     तत्र प्रत्ययेकतानता ध्यानम्।।
       ‘‘उसी में चित्त का एकग्रतापूर्वक चलना ध्यान है।’’
        तर्दवार्थमात्रनिर्भासयं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।
        ‘‘जब ध्यान में केवल ध्येय की पूर्ति होती है और चित्त का स्वरूप शून्य हो जाता है वही ध्यान समाधि हो जाती है।’’
        त्रयमेकत्र संयम्।।
          ‘‘किसी एक विषय में तीनों का होना संयम् है।’’
           आमतौर से लोग धारणा, ध्यान और समाधि का अर्थ, ध्येय और लाभ नहीं समझते जबकि इनके बिना योग साधना में पूर्णता नहीं होती। धारणा से आशय यह है कि किसी एक वस्तु, विषय या व्यक्ति पर अपना चित्त स्थिर करना। यह क्रिया धारणा है। चित्त स्थिर होने के बाद जब वहां निरंतर बना रहता है उसे ध्यान कहा जाता है। इसके पश्चात जब चित्त वहां से हटकर शून्यता में आता है तब वह स्थिति समाधि की है। समाधि होने पर हम उस विषय, विचार, वस्तु और व्यक्ति के चिंत्तन से निवृत्त हो जाते हैं और उससे जब पुनः संपर्क होता है तो नवीनता का आभास होता है। इन क्रियाओं से हम अपने अंदर मानसिक संतापों से होने वाली होनी को खत्म कर सकते हैं। मान लीजिये किसी विषय, वस्तु या व्यक्ति को लेकर हमारे अंदर तनाव है और हम उससे निवृत्त होना चाहते हैं तो धारणा, ध्यान, और समाधि की प्रक्रिया अपनाई जा सकती है। संभव है कि वस्तु,, व्यक्ति और विषय से संबंधित समस्या का समाधाना त्वरित न हो पर उससे होने वाले संताप से होने वाली दैहिक तथा मानसिक हानि से तो बचा ही जा सकता है।
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Thursday, June 9, 2011

अथर्ववेद से संदेश-ज्ञानी लोग बहसों के निष्कर्ष में सत्य की रक्षा करते है (athavaved se sandesh-gyani aur satya)

         पूरे विश्व के अनेक विषयों पर बहसें होती हैं। सांसरिक विषयों पर पक्ष और विपक्ष में वैचारिक योद्धा युद्धरत रहकर समाज को बौद्धिक मनोरंजन प्रदान करते हैं। हमारा देश तो बहसों और चर्चाओं में बहुत पारंगत है। अब यह अलग बात है कि सार्थक विषयों पर बहस कितनी होती है और निरर्थक विषय समाज में कितने लोकप्रिय हैं, इस पर दृष्टिपात कोई नहीं करता। अध्यात्मिक विषयों पर बहस तो शायद ही कभी होती है जबकि सांसरिक विषयों को इस तरह प्रस्तुत किया जाता है जैसे कि वह अध्यात्मिकता से जुड़े हैं। ऐसा मान लिया गया है कि आज के भौतिक युग में भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का कोई महत्व नहीं है। इतना जरूर है कि जब सांसरिक विषयों में अपनी बुद्धि लगाये रखने से उकताये लोगों का मन कभी न कभी अध्यात्मिक विषय में लिप्त होने का करता है। ऐसे में उनको सत्य और असत्य पर बहसों में भाग लेना अच्छा लगता है मगर उनके निष्कर्ष निकालना केवल ज्ञानी लोगों के लिये ही संभव है।
          अथर्ववेंद में कहा गया है कि
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            सुविज्ञानं चिकितेषुजनायसच्चासच्च वयसी पस्पृधाते
             तर्योर्यत्सत्यं यतरह जीयस्तदित्सोमोऽहन्त्यासतु।
       ‘‘ज्ञानी मनुष्य के विशिष्ट ज्ञान की यह पहचान है वह सत्य और असत्य भाषणों में जो स्पर्धा रहती है उसमें सरलता और सत्य की रक्षा करते हुए असत्य को विलोपित करता है।
        ‘‘इंद्र मित्रं वरुणमाग्नियाहुरथो दिव्यः स सुपर्णों गुरुत्मान्।      
          एकं साद्विप्रा बहुधा वदन्त्यानि वमं मातरिश्वानमाहुः।
         ‘‘सत्य एक ऐसा विषय है जिसका ज्ञानी अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं। उसी तरह एक इंद्र को मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्य, सुवर्ण, गुरुत्भानु, यम और माता शिखा कहते हैं।’’
        ज्ञानी लोग कभी अपने ज्ञान का प्रदर्शन नहीं करते। जब तक कोई पूछे नहीं तब तक तत्वज्ञान का उपदेश नहीं करते। यह जरूर है कि वह जिज्ञासावश दूसरों की बहसें सुनते हुए उनमें सत्य और सरल भाव के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हैं। निष्कर्ष निकालते हुए निरर्थक तर्कों से अधिक वह सार्थक तत्वों पर अपनी दृष्टि रखते हैं। वैसे देखा जाये तो तत्वज्ञान कोई व्यापक नहीं है पर अधिकतर विद्वान उस पर अपने अपने अनुसार व्याख्यायें प्रस्तुत करते हैं। उनकी व्याख्यायें से अल्पज्ञानियों को ऐसा लगता हे कि सत्य कोई अद्भुत तथा रहस्यमय विषय है पर ज्ञानी लोग ऐसा नहीं सोचते। ज्ञानी लोगों में विनम्रता होती है इसलिये वह सत्य पर की गयी अलग अलग व्याख्याओं का सार समझ लेते हैं।
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Sunday, June 5, 2011

धनपति लोग कांटों की तरह राज्य में व्यवहार करते हैं-कौटिल्य का अर्थशास्त्र (rich man always tension creat for comman public-kautilaya ka artshastra)

      राजनीति एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है। आधुनिक राजनीतिक शास्त्रों का तो पता नहीं पर ऐसा लगता है कि उनमें राजनीति के विषय में इतना सबकुछ लिखा गया होगा जितना कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है। मूलतः कौटिल्य का अर्थशास्त्र केवल आर्थिक विषय पर ही नहीं बल्कि राजधर्म की भी स्पष्ट व्याख्या करता है। पूरे विश्व में आज एक ऐसे प्रकार का लोकतंत्र है जो चुनावों पर आधारित है। भारत में पुराने समय में यह प्रथा नहीं थी जिसका आज पालन किया गया जा रहा है। यह प्रणाली बुरी नहीं है पर ऐसा लगता है कि इससे जहां आम लोगों को राजनीति में आने का अवसर मिला वहीं है ऐसे लोगों भी राजनीति करने लगे हैं जो केवल पद पाकर उसकी सुविधाओं का उपयोग करने तथा समाज में प्रतिष्ठित रहने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। इसके अलावा विश्व के समस्त देशों में-ऐसे देश भी जहां तानाशाही या राजशाही हो-व्यवस्था में नौकरशाही की एक स्वचालित मशीनरी का निर्माण किया गया है।
       ऐसे में राजनीति के माध्यम से उच्च पदों पर रहने वाले लोगों के लिये करने को कुछ नहीं रहता। सभी को राजनीति विषय का ज्ञान हो यह जरूरी नहीं है और अगर किसी ने पढ़ा हो तो उसे धारण करता हो यह भी आवश्यक नहीं है। ऐसे में राजनीति के सिद्धांतों के अनुरूप कितने चलते हैं यह अलग चर्चा का विषय है। अलबत्ता ऐसे में अब यह दिखने लगा है कि पूरे विश्व में पूंजीपतियों, बाहूबलियों तथा प्रतिष्ठित लोगों का अनेक देशों की सरकारों पर प्रभाव हो गया है यही कारण है कि अनेक देश असंतोष की आग में झुलस रहे हैं। इसके लिये जिम्मेदार सामान्य लोग भी कम नहीं है क्योंकि न वह स्वयं राजनीति के विषय का अध्ययन करते हैं न बच्चों को कराते हैं। यही कारण है कि जहां कुछ शुद्ध विचार से लोग राजनीति में आते हैं उससे अधिक तो संख्या उन लोगों की है जो इसे उपभोग के लिये अपनाते हैं।
                    कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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                आयुक्तकेभ्यश्चौरेभ्यः परेभ्यो राजवल्भात्ै
               पृवितवीपतिलोभाच्व प्रजानां पंवधा भयम्।।
         ‘‘राज कर्मचारी, चोर, शत्रु, राजा के प्रियजनों और लोभी राजा इन पांचों से जनता को हमेशा भय रहता है।’’
            आस्रावयेदुपचितान् साधु दुष्टत्रणनिव।
            आमुक्तास्ते च वतेंरन् वाह्य् महीपती।।
          ‘‘दुष्टव्रणों या कांटों के समान धन से पके हुए समृद्ध दुष्ट लोगों को राज्य निचोड़ ले तो ठीक है अन्यथा वह आग के समान राज्य में अपने व्यवहार का प्रदर्शन करते हैं।
           अगर देखा जाये तो राजनीति का कार्य ही राजस भाव से किया जाता है। उसमें सात्विकता या निष्कर्मता को बोध तो रह ही नहीं जाता। भारत में कौटिल्य का अर्थशास्त्र चर्चित बहुत है पर इसे पढ़ते कम ही लोग हैं। राजधर्म का सबसे बड़ा कर्तव्य है समाज, धर्म, व्यापार तथा अपने अनुचरों की रक्षा करना। जिन नये लोगों को राजनीति में आना है उन्हें यह समझना चाहिए कि जिस तरह जल में बड़ी मछली हमेशा ही छोटी मछली का शिकार करती है वैसे ही समाज में शक्तिशाली वर्ग हमेशा ही कमजोर वर्ग को कुचला रहता है। यहीं से राजधर्म निभाने वालों की भूमिका प्रारंभ होती है। प्रजा को हमेशा ही राज्य के लिये काम करने वालों कर्मचारियों, अपराधियों, शत्रुओं और राज्य प्रमुख के करीबी लोगों से भय रहता है। जो राज्य प्रमुख जनता को भयमुक्त रखता है वही श्रेष्ठ कहलाता है। जो अपने कर्तव्य को निर्वाह नहीं करता उसकी निंदा होती है। इसलिये राजधर्म का अध्ययन करने के बाद ही राजनीति में कदम रखना चाहिए।
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Friday, June 3, 2011

अथर्ववेद से संदेश-समाज की रक्षा करे वहीं देवराज इंद्र (atharved se sandesh-samaj ki raksha kare vahi devraj indra)

         सभी मनुष्य को अपने लिये नियत तथा स्वाभाव के अनुकूल कार्य करना चाहिए। इतना ही नहीं अगर सार्वजनिक हित के लिये कोई कार्य आवश्यक करने की अपने अंदर क्षमता लगे तो उसमें भी प्राणप्रण से जुट जाना चाहिए। अगर हम इतिहास और धर्म पुस्तकों पर दृष्टिपात करें तो सामान्य लोग तो अपना जीवन स्वयं और परिवार के लिये व्यय कर देते हैं पर जो ज्ञानी, त्यागी और सच्चे भक्त हैं पर सार्वजनिक हित के कार्य न केवल प्रारंभ करते हैं बल्कि समय आने पर बड़े बड़े अभियानों का नेतृत्व कर समाज को सम्मान और परिवर्तन की राह पर ले जाते हैं। ऐसे लोग न केवल इतिहास में अपना नाम दर्ज करते हैं वरन् अपने भग्वत्स्वरूप हो जाते हैं।
भारतीय अध्यात्म ग्रंथ अथर्ववेद में कहा गया है कि
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यः शर्धते नानुददाति शुध्यां दस्योर्हन्ता स जनास इन्द्रः।
‘‘जो मनुष्य अहंकारी के अहंकार को दमन करता है और जो दस्युओं को मारता है वही इन्द्र है।’’
यो जाभ्या अमेथ्यस्तधत्सखायं दुधूर्षति।
ज्योष्ठो पदप्रचेतास्तदाहु रद्यतिगति।
‘‘जो मनुष्य दूसरी स्त्री को गिराता है, जो मित्र की हानि पहुंचाता है जो वरिष्ठ होकर भी अज्ञानी है उसको पतित कहते हैं।’’
       एक बात निश्चित है कि जैसा आदमी अपना संकल्प धारण करता है उतनी ही उसकी देह और और मन में शक्ति का निर्माण होता है। जब कोई आदमी केवल अपने परिवार तथा स्वयं के पालन पोषण तक ही अपने जीवन का ध्येय रखता है तब उसकी क्षमता सीमित रह जाती है पर जब आदमी सामूहिक हित में चिंत्तन करता है तब उसकी शक्ति का विस्तार भी होता है। शक्तिशाली व्यक्ति वह है जो दूसरे के अहंकार को सहन न कर उसकी उपेक्षा करने के साथ दमन भी करता है। समाज को कष्ट देने वालों का दंडित कर व्यवस्था कायम करता है। ऐसी मनुष्य स्वयं ही देवराज इंद्र की तरह है जो समाज के लिये काम करता है। शक्तिशाली मनुष्य होने का प्रमाण यही है कि आप दूसरे की रक्षा किस हद तक कर सकते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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