Friday, July 29, 2011

मनुस्मृति-प्रजा की रक्षा न करने वाला राजा दंड का भागी होता है

         भारतीय अध्यात्म में राजधर्म का बहुत ही व्यापक वर्णन है पर लगता है कि आधुनिक राजनीति विशारद उसकी इसलिये उपेक्षा करते हैं क्योंकि उनको लगता है कि आज के समय में सात्विक रूप से राज्य चलाना संभव नहीं है। उनकी यह सोच स्वभाविक भी है। दरअसल पहले राजतंत्र की प्रणाली थी जो कि पूरे विश्व में करीब करीब समाप्त हो चुकी है। अब या तो लोकतंत्र है या ताना शाही। राजकर्म से जुड़ने वाले लोगों से सात्विक होने की अपेक्षा करना अब संभव नहीं है। यही कारण है कि भारत में अपनी स्वदेशी सोच की बजाय विदेशी विचारधाराओं को अपनाया गया है। पहले कहा जाता था कि यथा राजा तथा प्रजा अब यह कहा जा सकता है कि यथा प्रजा तथा राजा।
     हमारे समाज में न्यायिक सिद्धांतों पर उल्लंघन की प्रवृत्ति बढ़ी है। छोटा हो या बड़ा आदमी धन, बल, और उच्च पद पाने के लिये हमेशा इसलिये संघर्षरत रहता है ताकि वह समाज पर अपना प्रभाव जमा सके। अपने प्रभाव से किसी का भला करें यह भाव तो केवल विरले ही लोगों में दिखाई देता है।
योऽरक्षन्बलिमादत्ते करं शुल्कं च पार्थिवः।
प्रतिभागं च दण्डं च से सद्यो नरकं व्रजेत्।।
            ‘‘यदि राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता, लेकिन बलि, कर व शुल्क के रूप में प्रजा से आय का छठा हिस्सा प्राप्त करत है तो वह राजा दंड पाने का भागी है तथा उसे शीघ्र ही नरक प्राप्त होता है।
यदधीते यद्यजते यद्ददाति यदचैति।
तस्य षड्भागभाग्राजा सम्यग्भवति रक्षणात्।।
         ‘‘जो राजा प्रजा को निडर बनाता है उसे अपनी प्रजा के उन लोगों के समग्र पुण्य फल का छठा भाग प्राप्त होता है जो वेदाध्ययन और यज्ञ करने के साथ ही दान दक्षिणा देते हैं।
           ऐसी स्थिति में राजकर्म से परे लोग यह अपेक्षा करते हैं कि राज्य व्यवस्थायें सात्विक हों तो निरर्थक है। जब सात्विकता का प्रभाव समाज में ही नहीं है तो वहां से निकले आधुनिक राजाओं से अपेक्षा करना व्यर्थ नहीं तो और क्या है? एक तो भारतीय अध्यात्म दर्शन में वैसे ही राजधर्म का निर्वाह अत्यंत कठोर बताया गया है उस स्थिति यह है कि आज का समाज अपने प्राचीन ग्रंथों से दूर हो गया है। जिन वेदों में जीवन का सार है उनको कलंक बताया जाता है। जो श्रीमद्भागवत गीता जीवन रहस्य उजागर करते हुए मनुष्य को सत्कर्म में लिप्त रहने का उपदेश देती है उसे सन्यासियों के लिये उपयुक्त बताकर उपेक्षित कर दिया गया है। ऐसे में राजकर्म में श्रेष्ठ आचरण की आशा करना अजीब लगता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Sunday, July 24, 2011

चाणक्य नीति-दुष्टों और मूर्खों को सुधारने का प्रयास व्यर्थ(dushton aur murkhon ko sudharne ka prayas vyarth)

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
             हम अपने ज्ञान और विचार से किसी मूर्ख व्यक्ति को बुद्धिमान बना सकते हैं या दुष्ट में सज्जनता ला सकते हैं यह सोचना भी ठीक नहीं है। अनेक बार कुछ अल्पज्ञानी लोग अपने ज्ञान का बखान सार्वजनिक रूप से लोगों के बीच में बैठकर करते हैं यह सोचकर कि वह उनको सुधार लेंगे और समाज में बुद्धिमार का दर्जा पायेंगे। यह उनके अपूर्ण ज्ञान का परिचायक ही है क्योंकि वह पीठ पीछे लोगों की हंसी का पात्र बनते हैं। अनेक बार उनको ज्ञानी कहकर मजाक भी बनाया जाता है। सामान्यजन उनको केवल बकवादी समझते हैं।
         दरअसल इस संसार के विषय इतने व्यापक और आकर्षक हैं उनमें सभी लोग रमे हुए हैं। उनके लिये उनका मोह, लोभ और क्रोध ही सत्य है। अल्पज्ञानी लोग इसे नहीं जानते पर तत्व ज्ञानी श्रीमद्भागत गीता में वर्णित यह तथ्य नहीं भूलते जिसमें भगवान ने कहा है कि हजारों में भी कोई एक मुझे भजता है और उनमें भी हजारों में से कोई एक मुझे पाता है। स्पष्टतः यही कहा गया है कि सामान्य मनुष्यों में ज्ञानी उंगलियों पर गिनने लायक ही होंगे।
           नीति विशारद चाणक्य ने अपनी चाणक्य नीति में कहा है कि
                            -----------------------
           अन्तःसारविहीनानामुपदेशो न जायते। 
          मलयाचलसंसर्गात् न वेणुश्चन्दनायते।।
            ‘‘जिसके अंदर योग्यता का अभाव है और जिसका हृदय अत्यंत मैला है उस पर किसी के उपदेश वैसे ही कोई प्रभाव नहीं होता जैसे मलयागिरी से आने वाली वायु के स्पर्श से भी बांस चंदन नहीं बनता।
                यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करीति किम्।
               लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति।।
              ‘‘जिसके पास स्वयं ही बुद्धि नहीं है वेद शास्त्र उसे कोई लाभ नहीं कर सकते। वैसे ही जैसे जन्मांध व्यक्ति के दर्पण कोई कार्य नहीं कर सकता।
               दुर्जनं सज्जनं कर्तुमुपायो न हि भूतले।
             अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत्।।
            ‘‘दुष्ट व्यक्ति को सज्जन बनाने के लिये भूमि पर कोई भी उपाय नहीं है जैसे मलत्याग करने वाली इंद्रिय को सौ प्रकार से धोने पर भी वह श्रेष्ठ नहीं हो पाती।
                ऐसे में तत्वाज्ञानी केवल उचित स्थानों पर ही अपनी चर्चा रखते हैं। अगर कोई अपना ज्ञान सार्वजनिक रूप से बघार रहा है तो समझें कि वह अल्पज्ञानी या केवल तोता रटंत वाला आदमी है। दूसरी बात यह कि ज्ञानी आदमी को चाहिए कि अपना कर्म करते रहें और दूसरी किसी आदमी से यह अपेक्षा न करें कि कोई अकारण सम्मान या सहायता करे। लोगों में काम, क्रोध, मोह और अज्ञान का ऐसा जाल छाया रहता है कि वह अपने स्वार्थों से प्रथक नहीं हो सकते। दुष्ट और मूर्ख लोगों के साथ तो यह अपेक्षा कभी करना भी नहीं चाहिए कि वह कभी सुधरेंगे। उनको सुधारने के प्रयास में अपनी समय और ऊर्जा नष्ट करना ही है।
------------
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Friday, July 22, 2011

भर्तृहरि नीति शतक से संदेश-संतों जैसे काम भी किये पर फल वैसा नहीं मिला

                      भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
                        ----------------
                क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषतः,
                सोढो दुस्सहश्याीततापपवनक्लेशो न तप्तं तपः।
             ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितप्राणैर्न शंभोः पदं
            तत्तत्कर्म कृतं यदेव मुनिभिस्तैस्तैः फलैर्वञ्चिताः।।
        ‘‘हमने क्षमा दान किया, किन्तु धर्म के अनुसार नहीं, हमने सुखों का त्याग किया पर संतोषी होकर नहीं, कष्ट तो सहे पर तप के लिये नहीं, ध्यान तो किया परंतु परमात्मा के स्मरण में नहीं। काम तो सभी संतों जैसे किये पर फल वैसे नहीं मिले।
        वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के मन में अहंकार रहता है इसलिये वह कभी आत्मंथन नहीं करता। लोग एक दूसरे से झगड़ा करते हैं। एक दूसरे पर अभद्र टिप्पणियां करते हैं फिर अपनी कही बात भूल जाते हैं। दूसरे ने गलत बात कही तो अनेक लोग उसे भी हमेशा याद नहीं रखते हैं। एक तरह से यह क्षमा करना है पर चूंकि धर्म का आभास नहीं है इसलिये कान से सुनी गयी कटु बात का प्रभाव मन में रहता है जबकि क्षमा कर देने से विष खत्म हो जाता है। किसी को क्षमा करना है तो मन से करें। मन में दोहरायें कि मैंने उसे क्षमा किया। इस तरह हमारे प्रति किसी का अपराध उसे शांति प्रदान करता है तो हम भी चैन पाते हैं। वरना अपने साथ किया गया दूर्व्यवहार भले ही भूल जायें पर क्षमा न करने से उसका प्रभाव कभी न कभी परिलक्षित होता है।
         पंच तत्वों से बनी इस देह के हाथों से अनेक शुभ काम भी हो जाते हैं पर उनका लाभ मनुष्य मन को नहीं मिलता। यह संभव नहीं है कि कोई व्यक्ति हमेशा बुरा हो। क्रूर से क्रूर व्यक्ति भी कभी न कभी पसीज कर दूसरे का भला करता है मगर धर्म का ज्ञान न होने से वह सुखानुभूति नहीं कर पाता। हमारे यहां ध्यान की महिमा कही जाती है। कहा जाता है कि ध्यान परमात्मा में लगाया जाये तो लाभ होता है। मनोविज्ञानिक भी मानते हैं कि दिनचर्या से प्रथक होकर कहंी ध्यान लगाने से मनुष्य दृढ़ प्रवृत्ति का बनता है। इसी कारण श्रीमद्भागवत गीता में निष्काम कर्म का संदेश दिया गया है। देखा जाये तो ध्यान सभी व्यक्ति लगाते हैं पर कोई कोई परमात्मा में लगाकर बुरी प्रवृत्तियों से मुक्त होते हैं पर अधिकतर तो सांसरिक विषयों में ध्यान लगाकर जीवन नष्ट करते हैं।
       कहने का अभिप्राय यह है कि अध्यात्म ज्ञान के अभाव में जो सुख की वास्तविक अनुभूति नहीं की जा सकती। इस देह से अच्छे और बुरे दोनों ही काम होते हैं। दुःख और सुख भी आते हैं। तत्वज्ञान होने पर आदमी कभी तनाव नहीं पालता। सहज भाव से जीवन जीना एक कला है और वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान होने पर ही संभव है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Sunday, July 17, 2011

स्वार्थी लोग ही सम्मान और प्रशंसा करते हैं-संत कबीर वाणी (sarth,samman aur man-sant kabir wani)


    अपनी प्रशंसा सुनना आम आमदी की कमजोरी है। यही कारण है कि चालाक लोग अपना काम करने के लिये किसी आदमी के ऐसे गुणों का भी बखान करते हैं जो उनमें होते नहीं है। यही कारण है कि आत्ममुग्ध लोग उनके जाल में फंस जाते हैं। आजकल प्रचार का ज़माना है, कई बार लोग अपने काम के प्रचार के लिए ऐसे व्यावसायिक संगठनो का सहारा लेते है जो उनसे पैसा लेकर प्रशंसा अभियान चलते हैं। इसके अलावा कई बार ऐसा भी होता है की कोई दूसरे के काम की प्रशंसा इसलिए करता है कि समय आने पर वह उसका बदला उसी तरह चुकाए। यह अलग बात है कि यह दिखावा होता है वरना तो कोई किसी कि मन से प्रशंसा नहीं करता है।
         सामने झूठी प्रशंसा करने और पीठपीछे निंदा करने वालों के लिये क्या कहा जाय? आजकल लोग आपस में तपाक से मिलते हैं पर मन में किसी के प्रति कोई स्नेह नहीं है। सब स्वार्थ के कारण मिलते हैं। जिसमें स्वार्थ न हो तो उसे जानते हुए भी मुंह फेर लेते हैं। अगर आदमी के पस धन, पद और बाहूबल है तो उसके दस प्रशंसक हो जाते हैं-‘आप जैसा कोई नहीं’, ‘आपके पहले तो यहां कुछ नहीं था’, ‘आप आये तो बहार आयी’, और ‘आप बहुत स्मार्ट हैं’ जैसे वाक्य सुनकर जो लोग फूल जाते हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि वह चाटुकारों से घिरे हैं। इस हाड़मांस के पुतले में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो किसी अन्य से अलग हो सिवाय दिमागी ज्ञान के। निष्काम प्रेम पाना तो आज एक दिवास्वप्न हो गया है जो मिल रहा है उसे सच समझना मूर्खता है। चाटुकारिता का जमाना है। जिनके पास आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शक्ति है उन तक हर कोई पहुंचना चाहता है। उन पर हर कोई लिखना चाहता है। ऐसे कथित बड़े लोगों को मिलने वाली प्रशंसा से जो लोग अपने को उपेक्षित अनुभव करते हैं उन्हें अपने अंदर कोई मलाल नहीं करना चाहिए। उन बड़े लोगों को मिलने वाला प्रेम और सम्मान झूठा है। ऐसे सम्मान और प्रेम के मिलने से तो न मिलना अच्छा। कितना बड़ा भ्रम है यह लोगों का। वास्तव में वह सम्मान तो धन, पद और अनैतिक बल का है उसके धारक का नहीं। adhyatm, darshan, dharm, kabir ke dohe, दर्शन, धर्म, सत्संग, सन्देश, समाज, हिन्दू
     इस विषय पर संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
           ----------------------
        स्वारथ कुं स्वारथ मिले, पडि पडि लूंबा खूंब।
           निस्प्रेही निरधार को, कोय न राखै झूंब।।
         "सभी लोग अपने स्वार्थ को लेकर एकदूसरे से मिलते हैं तो एक दूसरे की मुंहदेखी प्रशंसा करते हैं परंतु निष्कामी और निर्लिप्त भाव से रहने वाले सज्जन लोगों का इसीलिये सम्मान नहीं करते क्योंकि उनमें कोई स्वार्थ नहीं होता।"
           जिन लोगों को सत्संग मिलता है और वहां उनको अपने जैसे निष्काम भक्त मिलते हैं उनको अपने आपको धन्य समझना चाहिए। हालांकि यह सत्संग ढूंढना भी कठिन काम है पर अगर हम ढूंढे तो कहीं न कहीं तो मिल ही जाता है। हालांकि ज्ञानी लोग कभी इन चीजों की परवाह नहीं करते पर देह में मन है तो कभी न कभी विचलित तो होता है तब उन्हें यह समझना चाहिए कि उनमें किसी का सांसरिक स्वार्थ नहीं फंसता इसलिये लोग उनके प्रति प्रेम और सम्मान प्रदर्शित करने नहीं आते पर जब कहीं चर्चा होती है तो उनका नाम लेकर प्रशंसा करते हैं। फर्क यही है कि स्वार्थ की वजह से लोग सामने झूठी प्रशंसा करते हैं पर उसके न होने पर पीठ पीछे ही करते हैं। इसलिए ज्ञानी लोगों को मान सम्मान और प्रशंसा के लोभ से बचना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

मनुस्मृति-साम, दाम एवं भेद नीति सफल न हो तो युद्ध करें (manu smruti-rashtra raksha ke liye yuddh karen)

             समाज हित के लिये राज्य और राजा की व्यवस्था पूरे विश्व में स्वीकार की गयी है। किसी भी राज्य के कार्य का दायरा अत्यंत विस्तृत होता है। केवल एक राजा या उसके कुछ अनुचर मिलकर पूरे राज्य की व्यवस्था नहीं चला सकते इसलिये राजा और प्रजा के बीच एक बहुत बड़ा संगठन होता है जिसमें प्रथक प्रथक विभाग होते हैं जिनमें कार्य करने वाले व्यक्तियों के लिये पदों का सृजन किया जाता है। राज्य प्रमुख या राजा तो एक ही होता है पर उसके अंतर्गत अनेक राजकीय कर्मी अनुचर पदों के नाम से शासन करते हैं। यही कारण है कि प्रजा में से अनेक लोग राजकीय पदों पर भी सुशोभित होते हैं पर राजकीय पद के अहंकार में वह प्रजाजनों से ही राजा की तरह बर्ताब करते हैं। यह बुरा नहीं है पर अगर ऐसे राजकीय पदधारी लोग राजनीति नहीं जानते तो वह समाज का संकट बन जाते हैं। इतना ही नहीं अगर वह सक्षम न हों तो राजा के शत्रुओं के लिये हमले करना आसान हो जाता है। इसलिये यह आवश्यक है कि राजकीय पदों पर राज्य प्रमुख के अनुचर पदों वाले लोग भी राजनीति शास्त्र का ज्ञान रखें।
                साम्ना दोनेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक।
                 विजेतुः प्रयतेतनारीन्न युद्धेन कदाचन्।।
           ‘‘जिस राज्य प्रमुख को जीत की इच्छा हो वह साम, दाम तथा भेद नीति के माध्यम से किसी भी शत्रु को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करे। अगर उसमें असफल हो तो फिर उसे दंडात्मक कार्यवाही यानि युद्ध करना ही चाहिए।’’
               त्रयाणामप्युपायानां पूर्वोक्त्तानामसम्भवे।
                 ततो युध्येत संपन्नो विजयेत रिपून्यथा।।
             ‘‘साम, दाम तथा भेद नीतियों में सफलता न मिले तो फिर राजा को अपने शत्रु के विरुद्ध पूरी तैयारी के बाद युद्ध छेड़ना चाहिए ताकि निश्चित रूप से विजय मिल सके।
                आधुनिक लोकतंत्र में राज्य प्रमुख की शक्तियों का विकेंद्रीकरण हो गया है इसलिये अनेक स्थानीय, प्रादेशिक तथा केंद्रीय स्तर के पद भी राज्य प्रमुख की तरह आकर्षक प्रभाव रखने वाले हो गये हैं। उनके आकर्षण के शिकार लोग उनको पाना चाहते हैं। उनको लगता है कि यह पद समाज पर प्रभाव दिखाने के लिये सबसे आसान मार्ग हैं। वह कभी यह नहीं सोचते कि इन पदों से राज्य का उपभोग तो किया जाता है पर अपने कौशल से प्रजा की रक्षा भी की जाती है। इसके लिये राजनीति शास्त्र का ज्ञान होन आवश्यक है। खासतौर से राज्य के शत्रुओं से निपटने की कला आना चाहिए। जिसमें वीरता के साथ प्रबंध कौशल भी होना चाहिए। यही कारण है कि हम देख रहे हैं कि विश्व राजनीति में ऐसे लोग भी शीर्ष पदों पर पहुंच रहे हैं जो प्रत्यक्ष शासन करते दिखते हैं पर उनकी डोर धनपतियों, बाहुबलियों तथा चालाक लोगों के हाथ में होती है। हिटलर जैसे लोग भी इतिहास में हुए हैं पर शक्ति के बल पर हासिल सत्ता अपने राज्य का भला करने की बजाय उसे हानि पहुंचाते हैं। शक्ति के मद में चूर अनावश्यक रूप से युद्ध करते हैं और बाद में मारे जाते हैं। फिर गद्दाफी जैसे लोग भी हुए हैं जो शक्ति के दम पर सत्ता प्राप्त करने के बाद भ्रष्ट हो जाते हैं और प्रजा के शत्रु हो जाते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथी
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका
7.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश-पत्रिका

Wednesday, July 13, 2011

मनुस्मृति-राजकर्मियों के काम पर दृष्टि रखने के लिये विद्वान नियुक्त करना चाहिए (manu smriti-imadnar vidvan aur rajya)

             भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों के ज्ञान से सुसज्जित ज्ञान और सात्विक पुरुष राजनीति नहीं करते क्योंकि राजकर्म हमेशा राजस भाव के लोगों का शौक रहा है। हमारे देश में समाज की निज गतिविधियों पर भी राज्य का हस्तक्षेप हो गया है इससे राजनीति में रुचि रखने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक होती जा रही है। यह अलग बात है कि अब राजनीति एक व्यवसाय हो गयी है इसलिये अनेक युवक युवतियां इससे विमुख भी रहे हैं। हालांकि आधुनिक लोकतंत्र में आम लोगों की भागीदारी बढ़नी चाहिए थी पर हो उल्टा रहा है। लोग राजनीति में सक्रिय लोगों को संदेह से देखने लगे हैं। खर्चीली चुनाव पद्धति के कारण आम आदमी चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता। यही कारण है कि जिसके धन, पद और बाहुबल है वह समाज पर नियंत्रण करने के लिये राजनीति में सक्रिय हो जाता है। राजनीति केवल व्यक्तिगत हित साधना का साधन बन गयी है। बहुत कम लोग जानते हैं कि राजनीति के अर्थ और उद्देश्य अत्यंत व्यापक हैं।
   मनु महाराज कहते हैं कि
       -------------
              अध्यक्षान्विविधानकुर्यात्तत्र त़ विपश्चितः।
            तैऽस्य सर्वाण्यवेक्षेरनृणां कार्याणि कृर्वाताम्।।
        ‘‘राज्य प्रमुख को जनता की भलाई से संबंधित कार्यों को करने वाले कर्मचारियों पर दृष्टि रखने के लिये विद्वानो को नियुक्त करना चाहिए। उनको यह आदेश देना चाहिए कि वह राज्य कर्मियों के कार्यों पर हमेशा दृष्टि रखें।’’
        सांवत्सरिकमाप्तैश्च राष्ट्रादाहारववेद् बलिम्।
          स्वयाच्याययम्नाय परो लोके वर्तत पितृवन्नृषु।।
   ‘‘राज्य प्रमुख को चाहिए कि वह करों की उगाही के लिये ऐसे कर्मचारियों को नियुक्त करे जिनकी ईमानदारी प्रमाणिक हो। राजा को अपनी प्रजा का पालन संतान की तरह करना चाहिए।’’
              राजनीति से समाज हित किया जाता है न कि उस पर नियंत्रण कर अपना घर भरा जाता है। हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में राजनीति की विशद व्याख्या है पर उसे शायद ही कोई समझना चाहता है। समझना भी क्यों चाहे क्योंकि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथ जनता को अपनी संतान की तरह समझने की बात कहते हैं और स्थिति यह है कि व्यवसायिक राजनीतिज्ञ अपनी संतान को ही प्रजा समझते है। इसी कारण राजकर्मियों पर उनका नियंत्रण नहीं रहता और उनमें से कुछ लोग चाहे जैसा काम करते हैं। जनहित हो या न हो वह राजनीतिज्ञों को भ्रमित कर उनका तथा अपना घर भर भरते हैं। हालांकि अनेक राजनीतिज्ञ विशारद होते हैें पर कुछ लोग तो केवल पद पर इसलिये बैठते हैं कि उनका रुतवा समाज पर बना रहे। ऐसे राजनीतिज्ञों से जनता को कोई लाभ नहीं होता। वह ईमानदार राजकर्मियों का उपयोग न कर चालाक तथा भ्रष्ट कर्मचारियों को ऐसे पदों पर नियुक्त कर देते हैं जो जनहित करने के लिये सृजित किये जाते है। कार्यकुशलता तथा राजनीतिक ज्ञान का अभाव उनकी स्वयं की ईमानदारी भी संदेह उत्पन्न कर देता है। जिन लोगों को राजनीति में आना है या सक्रिय हैं उनको राजनीति के सिद्धांतों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Friday, July 8, 2011

चाणक्य नीति-अपने विकास में नाकाम लोग दूसरे की निंदा करते हैं (chankya neeti-nakam log bante hain nindak)

         मनुष्य का धर्म है कि वह अपना कर्म निरंतर करता रहे। अपनी वाणी और विचार पर नियंत्रण रखे। भगवान का स्मरण करते हुए अपनी जीवन यात्रा सहजता से पूर्ण करे। जहां तक हो सके अपने ही काम से काम रखे न कि दूसरों को देखकर ईर्ष्या करे। आमतौर से इस विश्व में लोग शांति प्रिय ही होते हैं इसलिये ही मानव सभ्यता बची हुई। यह अलग बात है कि शांत और निष्कर्मी मनुष्य की सक्रियता अधिक दिखती नहीं है इसलिये उसकी चर्चा सार्वजनिक रूप से नहीं होती जबकि अशांति, दुष्टता और परनिंदा में लगे लोगों की सक्रियता अधिक दिखती है इसलिये आमजन उस पर चर्चा करते हैं।
     हम लोग परनिंदकों की बातें सुनकर मजे लेते हैं जबकि दूसरों की तरक्की से ईर्ष्या के साथ उसकी निंदा करने वालों की बातें सुनना भी अपराध है। ऐसे लोग पीठ पीछे किसी आदमी की निंदा कर सामने मौजूद आदमी को प्रसन्न अवश्य करते हैं पर सुनने वाले को यह भी सोचना चाहिए कि उसके पीछे वही आदमी उसकी भी निंदा कर सकता है।
       आचार्य चाणक्य कहते हैं कि
             ----------------
       दह्यमानाः सुतीत्रेण नीचा पर-यशोऽगिना।
           अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकृर्वते।।
     ‘‘दुर्जन आदमी दूसरों की कीर्ति देखकर उससे ईर्ष्या करता है और जक स्वयं उन्नति नहीं कर पाता तो प्रगतिशील आदमी की निंदा करने लगता है।’’
       यदीच्छसि वशीकर्तु जगदकेन कर्मणा।
            परापवादस्सयेभ्यो गां चरंतीं निवारथ।।
       ‘‘यदि कोई व्यक्ति चाहता है कि वह समस्त संसार को अपने वश में करे तो उसे दूसरों की निंदा करना बंद कर देना चाहिए। अपनी जीभ को वश में करने वाला ही अपना प्रभाव समाज पर रखता है।
           इस संसार में कुछ लोग ऐसे भी दिखते हैं जिनका उद्देश्य अपना काम करने अधिक दूसरे का काम बिगाड़ना होता है। सकारात्मक विचाराधारा से अधिक उनको नकारात्मक कार्य में संलिप्त होना अधिक अच्छा लगता है। रचना से अधिक विध्वंस में उनको आनंद आता है। अंततः वह अपने लिये हानिदायक तो होते हैं कालांतर में अपने सहयेागी की भी लुटिया डुबो देते हैं।
        जो लोग सोचते हैं कि उनको समाज में सम्मान प्राप्त हो उनके लिये यह जरूरी है कि वह अपनी ऐसी संगत बदल दें जिसके साथ रहने पर लोग उनसे भी हानि होने की आशंका से ग्रस्त रहते हैं। यह भय सम्मान दिलाने में सबसे अधिक बाधक है। इसके अलावा किसी की निंदा तो बिल्कुल न करें क्योंकि अगर किसी आदमी के सामने आप अन्य की पीठ पीछे निंदा करते हैं तो सामने वाले के मन में यह संशय भी आ सकता है कि बाद में आप उसकी भी निंदा करे। इससे विश्वास कम होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Saturday, July 2, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मद्यपान के आदी लोग सभी जगह प्रवृत्त होते हैं (kuatilya ka artshastra-sharab aur aadmi)

            यह प्रकृति की महिमा है कि मनुष्य का ध्यान व्यसनों की तरफ बहुत आसानी से चला जाता है। इसमें मद्यपान तथा जुआ दो ऐसे व्यसन हैं जो आदमी के तन, मन और धन की क्षति करते हैं पर फिर भी वह इसे अपनाता है। यह सही है कि सारे संसार में लोग एक जैसे नहीं होते पर प्रवृत्ति तो सभी की एक जैसी है। जिनके पास धन आता है उनका ऐसी राह पर चले जाना सहज होता है। जिनके पास धनाभाव है वह ऐसी प्रवृत्तियों में लिप्त इसलिये नहीं होते क्योंकि उनके पास अवसर नहीं होता।
          आर्थिक विशेषज्ञ अपने आंकड़े बताते हैं कि भारत में धनिकों की संख्या बढ़ी है तो सामाजिक विशेषज्ञ भी यह रेखांकित करते हैं कि देश में खतरनाक प्रवृत्तियों वाले लोग भी बढ़ते जा रहे हैं। शराब और जुआ के प्रति लोगों का रूझान बढ़ रहा है। स्थिति यह है कि धनिकों की संगत वाले युवा अपनी जरूरतों के लिये अपराध की तरफ अपने कदम बढ़ाते जा रहे हैं।
पानझिप्तो हि पुरुषो यत्र तत्र प्रवर्तते।
वात्यसंव्यवहारर्यत्वै यत्र तत्र प्रवर्त्तनात्।।
                ‘‘मद्यपान का आदी पुरुष हर जगह अपना मुंह डालते हैं। मद्यपान के आदी पुरुष व्यवहार के योग्य नहीं रह जाते।’’
कामं स्त्रियं निषेवेत पानं वा साधुमात्रया।
न युतमृगये विद्वान्नात्यंव्यसने हि ते।।
             ‘‘भले ही कोई पुरुष स्त्रियों से अधिक संपर्क रखता हो और थोड़ी मात्रा में मद्यपान भी करे पर द्युतक्रीड़ा और शिकार में लिप्त होना तो बहुत बुरा व्यसन है।’’
          भारतीय समाज में अनेक विरोधाभास हैं जिनमें एक यह भी है कि जहां धर्म कर्म के नाम पर शोरशराबा बढ़ रहा है वही शराब और जुआ को सामाजिक शिष्टाचार माना जाने लगा है। अब तो यह संभव ही नहीं है कि कोई व्यक्ति यह कहे कि मैं शराबी से अपने संपर्क नहीं रखूंगा। पहले जिन रिश्तों के सामने शराब की बात तक कहना भी कठिन था उनके पास बैठक बड़े मजे से सेवन किया जाता है।
              इस तरह विचार परिवर्तन से सत्य नहीं बदल जायेगा। शराब शनै शनै मनुष्य की मानसिकता को प्रभावित करती है। उसके व्यवहार में विश्वास की कमी आने लगती है। इस बात को केवल तत्वज्ञानी ही अनुभव कर सकते हैं। वैसे आज तो यह स्थिति है कि मित्रता और व्यवहार के समूह बनते ही ऐसी आदतों पर हैं जिनको वर्जित माना जाता है। जुआ या सट्टा तो इस तरह आम हो गया है कि प्रसिद्ध खेल, धारावाहिक और चुनावों में इसका प्रभाव देखा जाता है। ऐसे में समाज के बिगड़ने की शिकायत करना बेमानी लगता है। यहां तो पूरी दाल ही काली है और जब हम समाज के बिगड़ने की बात कहते हैं तो अपनी मान्यताओं का भी विचार करना चाहिए। स्वयं तथा निकटस्थ लोगों को शराब और जुआ जैसे व्यवसनों से दूर रहने के लिये प्रेरित करना चाहिए।
----------
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


इस लेखक की लोकप्रिय पत्रिकायें

आप इस ब्लॉग की कापी नहीं कर सकते

Text selection Lock by Hindi Blog Tips

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

विशिष्ट पत्रिकायें

Blog Archive

stat counter

Labels