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कामी तरि क्रोधी तरै, लोभी तरै अनंत
आग उपासी कृतघनी, तरै न गुरु कहंत
सद्गुरुओं का कहना है कि कामी, क्रोधी और लोभी भी अनेक बार अपने इष्ट को हृदय से स्मरण कर तर जाता है पर परंतु अपने इष्ट और सदगुरु को छोड़कर अन्य की उपासना करने वाला कभी नहीं तर सकता।
देवि देव मानै सबै, अलख न मानै कोय
जा अलेख का सब किया, तासों बेबुख होय
अनेक देवों की आराधना करने वाले निरंकार को नहीं मानते जबकि यह चराचर विश्व उसी ने रच रखा है। मूर्तियों को पूजने वाले उस निरंकार को नहीं जानते इसलिये उसे प्राप्त नहीं कर पाते।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-संत कबीरदास जी के समय भी धर्म परिवर्तन संभवतः बड़े पैमाने पर हो रहा था इसलिये उन्होंने इसका प्रतिवाद करते हुए उसकी आलोचना की है। सत्य तो यह है कि बाल्यकाल से ही माता पिता जिस इष्ट या गुरु का संपर्क करा देते हैं फिर उसी का ही अनुसरण जीवन भर करना चाहिये क्योंकि वह इस देह में मौजूद आत्मा धारण कर चुकी होती है। जो धर्म परिवर्तन करते हैं एक तरह से वह अपने माता पिता का त्याग तो करते ही हैं अज्ञान की शरण भी लेते हैं। जब सभी स्वरूपों में एक ही ईश्वर है तब उसका स्वरूप बदलने का आशय यह है कि मन में लोभ, काम और क्रोध का प्रकोप है। अगर सच्चे मन से माना जाये तो जिस रूप में हम बचपन से ही आराधना करते हैं उसी में ही परमात्मा की स्नेहपूर्ण अनुभूति होती है। धर्म या इष्ट बदलने का अर्थ यह है कि कोई स्वार्थ है जो इसके लिये प्रेरित करता हैै। ऐसा करने वाले माता पिता और गुरुओं का अपमान भी करते हैं।
यह केवल धर्म परिवर्तन के ही विषय में नहीं कहा गया बल्कि इष्ट के स्वरूप बदलना भी गलत माना गया है। कभी जीवन में कुछ काम समय न आने का कारण नहीं हो पाते तब लोग इष्ट या गुरु को भी बदलने के लिये प्रेरित करते हैं। उनकी बात भी नहीं मानी जानी चाहिये। वैसे देखा जाये तो समय के अनुसार सारे काम होते हैं पर कुछ लोग अपने लाभ के लिये दूसरों को धर्म, इष्ट या गुरु बदने के लिये उकसाते हैं। वह स्वयं तो संकट में रहते ही हैं दूसरों को भी संकट में डालते हैं। वैसे भी परमात्मा को निच्छल हृदय से स्मरण करने पर ही मन को शांति मिलती है। उसके स्वरूप बदलना तो अपने आपको ही धोखा देना है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप