Friday, June 13, 2008

संत कबीर वाणीःजहां हरियाली थी वहां ठूंठ खड़े रह गये

खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद
बांझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के विषयों मेंं लिप्त व्यक्तियों से मुलाकात में उनसे निर्रर्थक विषयों पर वार्तालाप कर समय नष्ट करना ही है। यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कोई बांझ स्त्री खाली पालना हिलाती रहे क्योंकि उसमें कोई सार्थकता नहीं है।

भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय
भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय

संत कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य भय के कारण ही भगवान की भक्ति और पूजा में लिप्त होते हैं। इस प्रकार भय तो जीवों के लिये पारसमणि होती है जो उनको सत्संग और भक्ति में लगाकर कल्याण करती है। निर्भयता से आदमी निरंकुश होकर कुमार्ग पर भटक जाता है।

राम भजो तो अब भजो, बहोरि भजोगे कब्ब
हरिया हरिया रुखड़, ईंधन हो गये सब्ब


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान की भक्ति करना है तो शुरु कर दो। फिर समय निकल जायेगा तो कब करोगे। काल की गति विचित्र है। जहां कभी हरे-भरे पेड़ थे वहां ठूंठ खड़े गये और सारा ईंधन समाप्त हो गया।

संक्षिप्त व्याख्या-अक्सर लोग कहते हैं कि भगवान भक्ति तो वृद्धावस्था में करना चाहिए जबकि यह वास्तविकता है कि जब बचपन से ही भगवान भी भक्ति या सत्संग का भाव पैदा नहीं हुआ तो फिर कभी पैदा नहीं होता। भक्ति और सत्संग के प्रति भाव पैदा करने में ही अपने अंदर की बहुत ऊर्जा का होना जरूरी है। विषयों से मन हटाकर भक्ति में मन तभी लग सकता है जब अपने अंदर धैर्य हो वह तभी संभव है जब अपने अंदर शक्ति हो। कहते हैंं न शक्तिशाली व्यक्ति बोलते कम है। जब वृद्धावस्था में सारी इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं तब आदमी में धैर्य भी समाप्त हो जाता है और वह जरा जरा सी बात निराश और क्रोधित हो उठता है। ऐसे में उसमें भक्ति भाव बन सके यह संभव नहीं है। इसलिये जब अपने शरीर में शक्ति हो तभी अपने अंदर सत्संग और भक्ति भाव की स्थापना करना चाहिए ताकि वृद्धावस्था में उसके लिये कोई प्रयास नहीं करना पड़े।

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