Wednesday, September 28, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अचानक क्रोध करने वालों से लोग खफा हो जाते हैं (achanak krodh karna theek nahin-kautilya ka artshastra)


            अनेक लोगों की आदत होती है कि जरा जरा बात पर उत्तेजित होकर क्रोध करते हैं। इसके अलावा अनेक लोगों की आदत होती है कि वह अचानक ही बिना किसी मतलब की बात पर ही क्रोध कर यह दिखाना चाहते हैं कि उनकी चिंत्तन और चेतन क्षमता दूसरों से अधिक है। देखने के लिये लोग भले ही उनके सामने कुछ न कहें पर अंदर ही अंदर उनसे चिढ़ने लगते हैं। इस व्यवहार के कारण समाज उनके प्रति तिरस्कार का भाव रखने लगता है। दरअसल वैसे तो क्रोध हमेशा ही विनाश और दुःख कारण बनता है पर निरंतर बातचीत में अपनी क्रोध शक्ति का प्रदर्शन करना अत्यंत ही बदनामी दिलाता है।
अकस्मादेव यः कोषादभष्णं बहु भाषते।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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तस्यमबुद्धिजते लोकः सस्फुतिंगंदिवानतात्।।
       ‘‘जिस मनुष्य अचानक ही क्रोध करने लगता है लोग उसके विपरीत हो जाते हैं, जैसे चिंगारी उड़ाने वाली अग्नि से लोग उतेजित हो जाते हैं।’’
           कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो आपसी वार्तालाप में दूसरों के प्रति गाली गलौच का प्रयोग करते हैं। जो व्यक्ति सामने नहीं है उसकी कमजोरियों  का बखान कर उस पर शक्ति प्रयोग करने की बात करते हैं। छोटे छोटे विषयों पर अपनी आक्रामक अभिव्यक्ति प्रदर्शित कर यह प्रमाणित करते हैं कि वह शक्तिशाली पुरुष हैं । ऐसे लोगों से कोई डरता नहीं है अलबत्ता कोई मुंह पर नहीं कहता यह अलग बात है। मगर जब ऐसे मनुष्य के बारे में समाज यह जान लेता है कि वह निरर्थक क्रोध दिखाने का प्रयास करते हैं पर वास्तव में शक्तिहीन है तो फिर उनका सार्वजनिक रूप से मजाक भी बनने लगता है। इसलिये जहां तक हो सके अपने व्यवहार में सहजता का प्रदर्शन करना चाहिए। कभी भी बड़े बोल नहीं बोलना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Thursday, September 22, 2011

सामवेद से संदेश-जीवन में सदैव सक्रियता आवश्यक (samved se sandesh-jivan mein kam jarrori)

                  जीवन चलते रहने का नाम है। आलस्य करना मनुष्य का सहज भाव है। ऐसे में ज्ञानी, चतुर और सामर्थ्यशाली लोग हमेशा सक्रिय रहकर कुछ न कुछ करते रहते हैं। वह जानते हैं कि जहां हमने अपने जीवन में सक्रियता को विराम दिया वहीं दैहिक तथा मानसिक विकार उन पर हमला कर देंगे। स्वास्थ्य विज्ञानी कहते हैं कि सामान्य आदमी अपने जीवन का केवल पांच फीसदी उपयोग करता है जबकि बुद्धिमान भी उससे थोड़ा अधिक उपयोग कर पाता है। इसे हम मानव स्वभाव की विवशता ही कह सकते हैं कि वह थोड़ा काम करने के बाद आराम चाहता है। दैहिक आराम न भी करे तो भी दिमागी रूप से चिंतन या मनन करने से परे रहता है। हर कोई मनोरंजन चाहता है पर सृजन बहुत कम लोग करते हैं। टीवी के सामने बैठकर दृश्य देखने या हाथ में अखबार पढ़ने से क्षणिक सुख मिलता है पर उससे जो बाद में तनाव आता है उसकी कल्पना कोई नहीं कर सकता। दरअसल इस तरह हम निष्क्रियता के साथ जीते हैं।
सामवेद में कहा गया है कि
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उत्तो कृपन्त धीतयो देवानां नाम विभ्रतीः।
           ‘‘ज्ञानी लोगों की उंगलियां सदैव कर्मो में लिप्त रहकर सामर्थ्यवान होती है। यह बात समझ लें ज्ञानी हमेशा सक्रिय रहता है तथा निष्क्रयता उसे स्वीकार नहीं होती।।
विष्णोः कर्माणि पश्चत यतो व्रतानि पस्पर्श।
           ‘‘विष्णु के पुरुषार्थ को देखो और उनका विचार कर अनुसरण करो।’
              ज्ञानी लोग जानते हैं कि अपने जीवन में विश्राम शब्द केवल निष्क्रियता का पर्याय है। यही कारण है कि वह हाथ से कोई न कोई काम करते हैं। फल की चाहत कर वह कोई तनाव नहीं पालते। मुख्य बात यह है कि जिंदा रहने के लिये जिस तरह भोजन और पानी आवश्यक है उसी तरह देह को चलायमान रखना चाहिए। हमेशा ही दैहिक तथा मानसिक सक्रियता से सृजन के पथ पर चलना अच्छा है बनिस्बत के मनोरंजन या क्षणिक सुख की खातिर निष्क्रियता अपनाने के। यही जीवन का मूल मंत्र है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Monday, September 12, 2011

हिन्दी दिवस से पूर्व हिन्दी पत्रिका ने पार की तीन लाख की पाठक/पाठ पठन संख्या-हिन्दी संपादकीय (hindi divas or diwas ke poorva hindi patrika ki uplabdhi-hindi editorial)

       14 सितंबर को हिन्दी दिवस है इसलिये इस दौरान इंटरनेट पर हिन्दी लेखन को चर्चा जरूरी होगी ऐसे में यह खबर अच्छी लगती है कि इस लेखक का वर्डप्रेस पर लिखा जाने वाला ‘हिन्दी पत्रिका’ ब्लाग आज तीन लाख पाठक/पाठ पठन संख्या पार कर गया। इतना बड़ा देश और इतने सारे हिन्दी भाषी हैं, जिसे देखते हुए पांच साल में यह संख्या कोई बड़ी बात नहीं होना चाहिए, मगर अपने एकल प्रयासों को देखते हुए यह कोई संख्या कम भी नहीं लगती। जब बाज़ार से समर्थन न हो, पाठक कोई अधिक महत्व न देते हों और फिर विचारों का उपयोग करते हुए बाज़ार के लेखक ब्लाग का नाम देकर अपने आपको बड़ा चिंतक साबित करने में लगे हों या फिर पूरा पाठ ही चुराने लगे हों तब अपनी स्वप्रेरणा से यह अकेला सफर दुःखदायी होने के बावजूद मजेदार अधिक लगता है। आतंकवाद को व्यापार बताने का प्रयास इस लेखक ने अपने ही ब्लागों पर शुरु किया जिसे आजकल अनेक बुद्धिमान दूसरों को बताते फिर रहे हैं। सीधी बात यह है कि आम पाठक भले ही अंतर्जाल पर सक्रिय न हों पर उनकी बुद्धि को नियंत्रित करने वाले बुद्धिजीवी यहां सक्रिय हैं और हमारे जैसे लेखकों के चिंतन को अपनी रचनाओं का हिस्सा बना रहे हैं। बाज़ार के होने के कारण उनको ‘क्रीम’ टाईप का माना जाता है।
      आज ही यह ब्लाग एक ही दिन में एक हजार की पाठक संख्या भी पार करने का कीर्तिमान बना रहा है तो एक अन्य ब्लाग दीपक बापू कहिन दो हजार के पास है। अन्य अनेक ब्लाग अपने पुराने कीर्तिमानों को तोड़ने वाले हैं। यह सब 14 सितंबर को हिन्दी दिवस के कारण है। हमने पहले ही यह साफ कर दिया है कि आम पाठक नहीं बल्कि देश की बौद्धिक क्रीम की छवि वाले लोग कुछ ढूंढ रहे हैं। यहां अगर हमारी कोई बात जंची तो वह अपने नाम से उपयोग करेंगे। उनकी नज़र में इंटरनेट लेखक आम आदमी है जिसकी बात वह बुद्धिजीवी होकर पढ़ रहे हैं। फिर जनता की आवाज को बाज़ार के प्रचार माध्यमों में इस तरह स्थान देंगे जैसे वह स्वयं उनका चिंत्तन हो। अपने पैसे से प्रकाशन करने वाला इंटरनेट  का प्रयोक्ता उनकी नज़र में लेखक नहीं है बल्कि बाज़ार के सौदागरों तथा प्रचार प्रबंधकों के पांवों के पास बैठकर लिखने वाला ही वास्तविक लेखक है। मतलब लेखक वह है जो बाज़ार में बिकता दिखे।
बाज़ार स्वामियों के वरदहस्त से इन बौद्धिक कर्मियों में इतना जबरदस्त आत्मविश्वास है कि वह इंटरनेट पर लिखी हर रचना को अपनी संपत्ति समझते हैं। यही कारण है कि इंटरनेट पर आज कोई भी समझदार लेखक लिखना नहीं चाहता। इस तरह हिन्दी के कर्णधार ही अंतर्जाल पर हिन्दी को उबरने से रोकने का काम कर रहे हैं। उससे भी बुरा यह कि बाज़ार के प्रचार माध्यमों में स्वयं के विचार व्यक्त करने वालों के पास तो शुद्ध हिन्दी का अभ्यास भी नहीं है इसलिये अंग्रेजी शब्दों का मिश्रण करते हैं।
            इस बहाने हिन्दी दिवस की चर्चा कर लें। आम आदमी को ऐसे दिवस से मतलब नहीं है। अलबत्ता जिनको प्रचार सामग्री सजानी है उनके लिये यह जरूरी है कि वह घिसे पिटे सोच से अलग होकर लिखें। अब जो बाज़ार से बाहर अलग सोच रखते हैं उनको तो यह प्रचार कर्मी ढूंढ नहीं सकते। इसलिये इंटरनेट पर वह नयी सोच ढूंढ रहे हैं। एक लेखक के रूप में हमारे लिये प्रयोग का समय है। इसलिये तुकी और बेतुकी कवितायें हिन्दी दिवस पर डाल दीं यह जानते हुए कि अभी वह तीन दिन दूर है। आज देखा कि जबरदस्त हिट हो रही हैं। यही कारण है कि आज सभी बीस ब्लाग मिलकर छह हजार पाठकं/पाठ पठन संख्या पार कर जायेंगे। इसी बीच कुछ बेतुकी रचनायें डालकर हम यह भी प्रयास करेंगे कि कम से कम 13 सितंबर तक सात हजार की संख्या पार हो जाये। 14 सितंबर को कोई नहीं पूछेगा क्योंकि उस दिन तक प्रचार माध्यम अपना काम कर चुके होते हैं। आम पाठक आयेगा नहीं इसलिये यह संख्या गिरने लगेगी। वैसे यह संख्या नियमित रूप से 35 सौ हो गयी है। उसमें भी अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कारण सर्च इंजिनों में उनसे संबंधित विषयों की खोज बढ़ना एक कारण है।
             चूंकि लिखना हमारा शौक रहा है। अगर व्यवसायिक लेखक करते तो शायद बड़े लेखक बन जाते पर स्वतंत्र रूप से लिखने की चाहत के कारण प्रबंध कौशल के अभाव में हमेशा ही एक आम आदमी बने रहे। फिर बड़े लेखक बनने के लिये यह आवश्यक है कि बाज़ार के सौदागरों और प्रचार प्रबंधकों की चाटुकारिता की जाये यह हमारे जैसे ंिचंतक के लिये कठिन था।
          बहरहाल आत्मीय जनों और मित्रों से ऐसे पाठ लिखकर अपनी बात कहने का अवसर मिलता है। इससे वह मन की बात समझ पाते हैं। अंतर्जाल पर किया जाने वाला व्यवहार कितना छद्म है कितना सत्य है, इस बात को लेकर हम अधिक विचार नहीं करते। मगर इतना तय है कि हमें चाहने वाले कुछ लोग हैंे जिनके बारे में हमारा मानना है कि उनकी वाद, संवाद और विचार का संप्रेषण कौशल हमसे अधिक प्रबल है और कहीं न कहीं हमसे पढ़कर प्रभावित होते हैं। उनकी संख्या कितनी है नहीं मालुम है पर इतना अनुमान है कि वह उंगलियों पर गिनने लायक हैं। यह लेख पाठकों तथा ब्लाग लेखक मित्रों को ही समर्पित है। यह उनसे प्रशंसा पाने के लिये नहीं बल्कि सूचनार्थ लिखा गया है उनका आभार जताने के लिये।
इस ब्लाग पर टिप्पणियां देने वाले प्रमुख लोगों के नाम नीचे   लिखे हैं।
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अशोक बजाज    322
समीर लाल 'उड़न तश्तरी वाले'    37
paramjitbali    28
दीपक भारतदीप    15
mehhekk    13
Brijmohan shrivastava    13
SHAILENDRA CHAUDHARY    10
mamta    10
ravindra.prabhat    9
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sameerlal

हिन्दी पत्रिका पर हिन्दी दिवस पर लिखा गया लोकप्रिय लेख

       सुना है अब इंटरनेट में लैटिन के साथ ही देवनागरी में भी खोज सुगम होने वाली है। यह एक अच्छी खबर है मगर इससे हिंदी भाषा के पढ़ने और लिखने वालों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ जायेगी, यह आशा करना एकदम गलत होगा। सच तो यह है कि अगर देवनागरी में खोज सुगम हुई भी तो भी इसी मंथर गति से ही हिंदी लेखन और पठन में बढ़ोतरी होगी जैसे अब हो रही है। हिंदी को लेकर जितनी उछलकूल दिखती है उतनी वास्तविकता जमीन पर नहीं है। सच कहें तो कभी कभी तो लगता है कि हम हिंदी में इसलिये लिख पढ़े रहे हैं क्योंकि अंग्रेजी हमारे समझ में नहीं आती। हम हिंदी में लिख पढ़ते भी इसलिये भी है ताकि जैसा लेखक ने लिखा है वैसा ही समझ में आये। वरना तो जिनको थोड़ी बहुत अंग्रेजी आती है उनको तो हिंदी में लिखा दोयम दर्जे का लगता है। वैसे अंतर्जाल पर हम लोगों की अंग्रेजी देखने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि लोगों की अंग्रेजी भी कोई परिपक्व है इस पर विश्वास नहीं करना चाहिए-क्योंकि बात समझ में आ गयी तो फिर कौन उसका व्याकरण देखता है और अगर दूसरे ढंग से भी समझा तो कौन परख सकता है कि उसने वैसा ही पढ़ा जैसा लिखा गया था। बहरहाल अंग्रेजी के प्रति मोह लोगों का इसलिये अधिक नहीं है कि उसमें बहुत कुछ लिखा गया है बल्कि वह दिखाते हैं ताकि लोग उनको पढ़ालिखा इंसान समझें।
       ‘आप इतना पढ़ें लिखें हैं फिर भी आपको अंग्रेजी नहीं आती-‘’हिंदी में पढ़े लिखे एक सज्जन से उनके पहचान वाले लड़के ने कहा’‘-हमें तो आती है, क्योंकि अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं न!’
          मध्यम वर्ग की यह नयी पीढ़ी हिंदी के प्रति रुझान दिखाने की बजाय उसकी उपेक्षा में आधुनिकता का बोध इस तरह कराती है जैसे कि ‘नयी भारतीय सभ्यता’ का यह एक  प्रतीक हो। इनमें तो कई ऐसे हैं जिनकी हिंदी तो  गड़बड़ है साथ  ही  इंग्लिश भी कोई बहुत अच्छी  नहीं है।
       जैसे जैसे हिंदी भाषी क्षेत्रों में सरकारी क्षेत्र के विद्यालयों और महाविद्यालयों के प्रति लोगों का रुझान कम हुआ है-निजी क्षेत्र में अंग्रेजी की शिक्षा का प्रसार बढ़ा है। एक दौर था जब सरकारी विद्यालयों में प्रवेश पाना ही एक विजय समझा जाता था-उस समय निजी क्षेत्र के छात्रों को फुरसतिया समझा जाता था। उस समय के दौर के विद्यार्थियों ने हिंदी का अध्ययन अच्छी तरह किया। शायद उनमें से ही अब ऐसे लोग हैं जो हिंदी में लेखन बेहतर ढंग से करते हैं। अब अगर हिंदी अच्छे लिखेंगे तो वही लोग जिनके माता पिता फीस के कारण अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के निजी विद्यालयों में नहीं पढ़ा सकते और सरकारी विद्यालयों में ही जो अपना भविष्य बनाने जाते हैं।
       एक समय इस लेखक ने अंग्रेजी के एक प्रसिद्ध स्तंभकार श्री खुशवंत सिंह के इस बयान पर विरोध करते हुए एक अखबार में पत्र तक लिख डाला‘जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंदी गरीब भाषा है।’
       बाद में पता लगा कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा बल्कि उनका आशय था कि ‘हिन्दुस्तान में हिंदी गरीबों की भाषा है’। तब अखबार वालों पर भरोसा था इसलिये मानते थे कि उन्होंने ऐसा कहा होगा पर अब जब अपनी आंखों के सामने बयानों की तोड़मोड़ देख रहे हैं तो मानना पड़ता है कि ऐसा ही हुआ होगा। बहरहाल यह लेखक उनकी आलोचना के लिये अब क्षमाप्रार्थी है क्योंकि अब यह लगने लगा है कि वाकई हिंदी गरीबों की भाषा है। इन्हीं अल्पधनी परिवारों में ही हिंदी का अब भविष्य निर्भर है इसमें संदेह नहीं और यह आशा करना भी बुरा नहीं कि आगे इसका प्रसार अंतर्जाल पर बढ़ेगा, क्योंकि यही वर्ग हमारे देश में सबसे बड़ा है।

       समस्या यह है कि इस समय कितने लोग हैं जो अब तक विलासिता की शय समझे जा रहे अंतर्जाल पर सक्रिय होंगे या उसका खर्च वहन कर सकते हैं। इस समय तो धनी, उच्च मध्यम, सामान्य मध्यम वर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के लिये ही यह एक ऐसी सुविधा है जिसका वह प्रयोग कर रहे हैं और इनमें अधिकतर की नयी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित है। जब हम अंतर्जाल की बात करते हैं तो इन्हीं वर्गों में सक्रिय प्रयोक्ताओं से अभी वास्ता पड़ता है और उनके लिये अभी भी अंग्रेजी पढ़ना ही एक ‘फैशनेबल’ बात है। ऐसे में भले ही सर्च इंजिनों में भले ही देवनागरी करण हो जाये पर लोगों की आदत ऐसे नहीं जायेगी। अभी क्या गूगल हिंदी के लिये कम सुविधा दे रहा है। उसके ईमेल पर भी हिंदी की सुविधा है। ब्लाग स्पाट पर हिंदी लिखने की सुविधा का उपयेाग करते हुए अनेक लोगों को तीन साल का समय हो गया है। अगर हिंदी में लिखने की इच्छा वाले पूरा समाज होता तो क्या इतने कम ब्लाग लेखक होते? पढ़ने वालों का आंकड़ा भी कोई गुणात्मक वुद्धि नहीं दर्शा रहा।
       गूगल के ईमेल पर हिंदी लिखने की सुविधा की चर्चा करने पर एक नवयौवना का जवाब बड़ा अच्छा था-‘अंकल हम उसका यूज (उपयोग) नहीं करते, हमारे मोस्टली (अधिकतर) फ्रैंड्स हिंदी नहीं समझते। हिंदी भी उनको इंग्लिश (रोमन लिपि) में लिखना पसंद है। सभी अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं। जो हिंदी वाले भी हैं वह भी इससे नहीं लिखते।’
ऐसे लोगों को समझाना कठिन है। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी की कितनी भी सुविधा अंतर्जाल पर आ जाये उसका लाभ तब तक नहीं है जब तक उसे सामान्य समाज की आदत नहीं बनाया जाता। इसका दूसरा मार्ग यह है कि इंटरनेट कनेक्शन सस्ते हो जायें तो अल्प धन वाला वर्ग भी इससे जुड़े  जिसके बच्चों को हिंदी माध्यम में शिक्षा मजबूरीवश लेनी पड़ रही है। यकीनन इसी वर्ग के हिंदी भाषा का भविष्य को समृद्ध करेगा। ऐसा नहीं कि उच्च वर्ग में हिंदी प्रेम करने वाले नहीं है-अगर ऐसा होता तो इस समय इतने लिखने वाले नहीं होते-पर उनकी संख्या कम है। ऐसा लिखने वाले निरंकार भाव से लिख रहे हैं पर उनके सामने जो समाज है वह अहंकार भाव से फैशन की राह पर चलकर अपने को श्रेष्ठ समझता है जिसमे हिंदी से मुंह   फेरना एक प्रतीक माना जाता है।
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Thursday, September 8, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-परशुराम की तरह प्रतापी ही सर्वत्र राज्य करते हैं (kautilya ka arthshastra-parshuram ki tarah pratapi raja hona cnahiye)

            कौटिल्य का अर्थशास्त्र न केवल राज्य की अर्थव्यवस्था बल्कि राजकाज संचालन के सिद्धांतों   का भी बयान करता है। राज्य प्रमुख के आचरण से ही प्रजा सुखी होती है, यह बात तो कौटिल्य महाराज कहते हैं पर साथ उनका यह भी मानना है कि वीर राजा के प्रताप से ही राज्य की सुरक्षा होती है। हमारे देश में राजनीति करने का विषय बन गयी है पर अध्ययन करना कोई नहीं चाहता। पद पाने की रणनीति सभी अपनाते हैं पर उस बैठकर प्रजा का हित कैसे हो इसका बहुत कम लोग विचार करते हैं। एक बात यहां यह भी बता दें कि प्रजा का हित सोचना या ऐसा दावा करना आसान है पर अपनी व्यवस्था के व्यवहारिक धरातल पर उसे उतारना कोई आसान काम नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध जीतकर प्रजा में अपने प्रति विश्वास पैदा करना आवश्यक है। शत्रु चाहे अंदर हों या बाहर उन पर कड़े प्रहार कर ही कोई राज्य प्रमुख प्रजा का विश्वास जीत सकता है। 
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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जमदग्नेः सृतस्येव सर्वः सर्वत्र संवदा।
अनेकवृद्धजविन प्रतापदेव भुज्यते।।
            ‘‘जमदग्नि के पुत्र परशुराम के समान सब ही सर्वत्र अनेक युद्ध जीत चुके राजा ही अपने प्रताप से ही शासन करते हैं।’’
अनेकयुद्धविजयी सन्मानं यस्यमच्छति।
तत्प्रतापेन तस्माशु वशं गच्छन्ति शत्रवः।।
          ‘‘अनेक युद्ध जीतने वाले के प्रताप से अनेक अन्य राजाओं से उसकी संधि हो जाती है और शत्रु तक उसका पक्ष स्वीकार करते हैं।’’
           जो राज्य प्रमुख राज्य और प्रजा के शत्रुओं को परास्त करता है वह न केवल प्रजा का विश्वास जीतता है वरन् दूसरे राजा भी उससे संधि करने लगते हैं। अगर कोई राज्य प्रमुख युद्ध नहीं करता और अपने आंतरिक शत्रुओं से नरमी बरतता है तो उसका पतन जल्दी होता है। इसलिये यह आवश्यक है कि राज्य की रक्षा तथा प्रजा का विश्वास बनाये रखने के लिये राज्य प्रमुख को अपनी मानसिक तथा वैचारिक दृढ़ता का परिचय देना चाहिए।
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Thursday, September 1, 2011

वसिष्ठ स्मृति से-तृष्णा कभी वृद्ध नहीं होती (vashshtha smriti se-trishna kabhee bodhin nahin hotee)

          आधुनिक युग में भौतिकतावाद की चलते अधिकतर अध्यात्म से विरक्त हो गये है। सांसरिक विषयों में प्रवीणता और विशेषज्ञता प्राप्त करने वाले अनेक लोग मिल जायेंगे पर अध्यात्मिक ज्ञान में दक्ष लोगों की संख्या अत्यंत नगण्य है। यह अलग बात है कि हर मनुष्य एक आत्मा है जो देह में विराजमान मन को कचोटता है कि वह अध्यात्मिक रूप से कोई कार्य करे। चूंकि अध्यात्मिक ज्ञान का रूप नहीं समझा इसलिये अनेक लोग उन कथित गुरुओं के शिष्य बन जाते हैं जिन्होंने भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का सतही अध्ययन केवल इसलिये किया होता है ताकि वह उनको सुनाकर अपना व्यवसाय कर सकें। ऐसे गुरु स्वयं ही तृष्णाओं के दास होते हैं।
        मनुष्य मन का यह स्वभाव है कि वह हमेशा ही तृष्णाओं के जाल में फंसा रहता है। उनसे ऊबता है पर फिर भी ऐसा कोई दूसरा मार्ग नहीं जानता जिस पर चलकर वह मुक्त भाव से जीवन व्यतीत कर सके। तत्वज्ञानी यह बात जानते हैं कि तृष्णाओं से कभी मुक्ति संभव नहीं है पर उनका दासत्व स्वीकार करने की बजाय वह उस पर शासन करते हैं। सांसरिक विषयों में उतना ही लिप्त रहते हैं जितना देह के लिये आवश्यक है।
वसिष्ठ स्मृति में कहा गया है कि
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जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः।
जीवनाशा धनाशा च जीर्यतोऽपि न जीर्यति।।
       ‘‘मनुष्य जब बूढ़ा हो जाता है तब उसके केश, दांत और अन्य अंग में बूढ़े हो चुके होते हैं पर उसकी तृष्णाऐं बूढ़ी नहीं होती। तरूण पिशाचिनी की तरह यह तृृष्णाऐं नुष्य का खून चूसकर उसे पथभ्रष्ट करती हैं।’’
या दुस्त्य दुर्मतिभियां न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसौ प्राणान्ति रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्।।
           ‘‘दुषित बुद्धिवाले इस तृष्णा से चिढ़ते है किन्तु चाहकर भी उसे छोड़ नहीं पाते। मनुष्य कितना भी बूढ़ा हो जाये पर उसकी तृष्णा हमेशा ही युवा बनी रहती है। यह तृष्णा वह रोग है जो प्राण लेकर ही छोड़ती है।
      आधुनिक पश्चिमी शिक्षा पद्धति के कारण हमारे देश में लोेग अपने प्राचीन अध्यात्मिक ज्ञान से विरक्त हो गये हैं। फिर आजकल मायाजाल की विकटता के चलते उनकी व्यसततायें इतनी बढ़ गयी हैं कि अपनी नियमितता से परे हटकर नवीन आनंद की की दृष्टि से वह उन गुरुओं के शरण में चले जाते हैं जिनको यह नहीं पता कि तत्वज्ञान क्या है? उनकी वाणी में शब्द रटे हुए हैं, मन में अर्थ भी है पर हृदय में भाव नहीं है। शब्द तभी ज्ञान बनते हैं जब भाव हो। ऐसा न होने पर सारी सत्संग चर्चा व्यर्थ है। अतः जब किसी को अध्यात्मिक ज्ञान के लिये गुरु बनाना है तो पहले यह देखना चाहिए कि वह तृष्णा रूपी सुंदरी के जाल में फंसा हुआ तो नहीं है। इसकी सबसे बड़ी पहचान यह है कि अपने गुरु के जीवन और आचरण पर दृष्टि डालना चाहिए। यह नहीं देखना चाहिए कि उसने अध्यात्मिक ज्ञान के चलते पाया क्या? बल्कि इस तथ्य पर दृष्टिपात करना चाहिए कि उसने त्यागा क्या है? अगर वह भी अन्य सांसरिक मनुष्यों की तरह तृष्णाओं रूप मायाजाल में फंसा है तो उससे दूर रहना ही बेहतर है।
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