Sunday, November 30, 2008

रहीम सन्देश:खोटे कार्य का परिणाम प्रकट होता है

रहिमन खोटी आदि की, सो परिनाम लखाय
जैसे दीपक तम भखै, कज्जल वमन कराय


कविवर रहीम कहते हैं कि बुराई होने पर उसका फ़ल अवश्य दिखाई देता है। जैसे दीपक अंधकार को दूर कर देता है, परंतु शीघ्र ही कालिमा उगलने लगता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग सोचते हैं कि दूसरे से वस्तुऐं मांग कर अपना काम चलायें। ऐसे लोगों में आत्म सम्मान नहीं होता और जिनमें आत्म सम्मान नहीं है वह मनुष्य नहीं बल्कि पशु समान होता है। अक्सर ऐसे लोग हैं जो अपने काम के लिये वस्तु या धन मांगने में संकोच नहीं करते। उनके पास अपना पैसा होता है पर वह उसको बचाने के चक्कर में दूसरे से वस्तुऐं उधार मांग कर काम चलाते हैं। उद्देश्य यही रहता है कि पैसा बचे। ऐसे कंजूस लोग जिंदगी भर पैसा बचाते हैं पर अंततः वह साथ कुछ भी नहीं ले जाते। कोई आदमी कितना भी बड़ा क्यों न हो जब किसी से कोई चीज मांगता है तो वह छोटा हो जाता है और अगर छोटा हो तो उसे भिखारी समझा जाता है। सच बात तो यह है कि मांगने से कोई बड़ा आदमी नहीं बनता बल्कि दान देने से समाज में सम्मान मिलता है।
-----------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, November 29, 2008

रहीम सन्देश:जहाँ ह्रदय में ईर्ष्या की गाँठ है वहां प्रेम नहीं होता

जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग होय
मंड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय


कविवर रहीम कहते हैं कि यह संसार खोजकर देख लिया है, जहाँ परस्पर ईर्ष्या आदि की गाँठ है, वहाँ आनंद नहीं है. महुए के पेड़ की प्रत्येक गाँठ में रस ही रस होता है क्योंकि वे परस्पर जुडी होतीं हैं.

जलहिं मिले रहीम ज्यों, कियो आपु सम छीर
अंगवहि आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर


कविवर रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार जल दूध में मिलकर दूध बन जाता है, उसी प्रकार जीव का शरीर अग्नि में मिलकर अग्नि हो जाता है.
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जहां दो मनुष्यों में एक दूसरे के प्रति ईष्र्या है वहां किसी के दिल में भी संतोष नहीं रहा सकता। अक्सर लोग आपस में एक दूसरे के प्रति प्रेम होने का दावा करते हैं पर उनके मन में आपस में ही द्वेष, कटुता और ईष्र्या का भाव रहता है। इस तरह वह स्वयं को धोखा देते हैं। प्रेम तो तभी संभव है जब एक दूसरे की सफलता पर हृदय मेंें प्रसन्नता का भाव हो। हालांकि मूंह पर दिखाने के लिये एक मित्र अपने दूसरे मित्र की, भाई अपने भाई की या रिश्तेदार अपने दूसरे रिश्तेदार की सफलता पर बधाई देते हैं पर हृदय में कहीं न कहीं ईष्र्या का भाव होता है। यह दिखावे का प्रेम है और इस पर स्वयं को कोई आशा नहीं करना चाहिये क्योंकि न हम स्वयं दूसरे से वास्तव में प्रेम नहीं करते और न ही कोई हमें करता है। जहां ईष्र्या की गांठ हैं वहां प्रेम हो ही नहीं सकता।
---------------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Wednesday, November 26, 2008

भृतहरि सन्देश: संतोष हो तो निर्धन और धनी एक जैसे होते हैं

वयमहि परितृष्टा वल्कलैस्त्वं दृकूलैस्सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।
स तु भवतु यस्य तृष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्र

भावार्थ-इस भौतिक संसार में कोई मनुष्य वृक्ष की छाल के वस्त्र पहनकर ही संतुष्ट होता है तो किसी का मन रेशमी सूत के बने वस्त्र धारण कर ही प्रसन्न होता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। धनी और निर्धन के संतोष में कोई अंतर नही। जिसकी बहुत बड़ी इच्छाएं हैं वह धनी होते हुए भी असंतोष के साथ जीवन व्यतीत करता है। जिसकी इच्छाएं और आकांक्षाएं कम हैं वह वह दरिद्र होते हुए भी मन के संतुष्ट हो जाता है तो भला किसे धनी कहा जाये और किसे दरिद्र।

संक्षिप्त व्याख्या-यहां कोई धनी अपने धन पर इतराता है तो कोई अपनी निर्धनता को लेकर त्रस्त रहता है। अपनी देह में विचरने वाले मन की ओर कोई दृष्टिपात नहीं करता। अगर मन में संतोष है तो फिर किस बात की चिंता रह जाती है। कुछ लोग ऐसे है जो अपने पास भौतिक साधनों के अभाव की परवाह न करते हुए भक्ति भाव से अपना जीवन व्यतीत करते हैं। वह परमात्मा द्वारा दिये गये धन से संतुष्ट हो जाते हैं पर कई धनिक हैं जो धन क पीछे सदैव पड़े रहते हैं पर मन की शांति उनसे कोसों दूर रहती है। इतना ही नहीं अपनी कम आवश्यकताओं के कारण संतुष्ट लोगों के मन की शांति उनको नहीं सुहाती और तब वह सोचते हैं कि काश! हमें मन की शांति मिल जाये।

आज का भौतिक संसार तो आपने देखा होगा मनुष्य की अशांति पर ही अधिक चल रहा है। टीवी चैनलों पर एक विज्ञापन आता है जिसमें एक अभिनेता कहता है-‘डोंट बी संतुष्ट‘। मतलब यह कि आज के युग के व्यवसायी अपने हित के लिऐ ऐसे प्रयास करते हैं कि आम आदमी के मन में असंतोष भड़काकर उन्हें माया के ऐसे चक्कर में फंसाया जहां से वह निकल नहीं सके।
अगर आदमी के मन में संतोष है इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह धनी है या निर्धन। हमारा काम कम आवश्यकता से चल जाता है तो उससे संतुष्ट हो जाना चाहिए। संतोष ही सबसे बड़ा धन है।

Thursday, November 20, 2008

भृतहरि शतकः तेजस्वी व्यक्ति के लिये आयु बाधक नहीं

सिंह शिशुरपि निपतति मदमलिनकपोलभित्तिशु गजेषु
प्रकृतिरियं सत्तवतां न खलु वयस्तेजसो हेतुः


हिंदी में भावार्थ- सिंह का शावक भी मदमस्त हाथी पर हमला करता है। यह सत्य कहा गया है कि शक्तिशाली जीव का यही स्वभाव होता है। तेजस्विता के भाव का आयु से कोई संबंध नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारत में एक आयु के बाद सामान्य व्यक्ति को अधेड़ और वृद्ध मान लिया जाता है-धनियों और प्रतिष्ठत लोगों पर यह नियम लागू करने में लोग स्वयं ही संकोच करते हैं। इसके विपरीत हम जिस पश्चिम संस्कृति की आलोचना करते हैं वहां व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार नहीं होता। यही कारण है कि वहां लोगों की औसत आयु भारत से बड़ी होती है। होता यह है कि जो लोग गरीब और सामान्य वर्ग के हैं, बड़ी आयु होने पर उनके प्रति समाज और परिवार का दृष्टिकोण हेय हो जाता है और उनके अंदर भी यह कुंठा घर कर जाती है कि हमारी तो आयु हो गयी है और अब यह जीवन ढोना है और इसका परिणाम यह होता है कि वह समयपूर्व ही जीवन में थकावट अनुभव करते हैं।

अनेक ऐसे भी लोग है जो पचास और साठ की आयु के बाद बीमारी का शिकार हो जाते है और अगर उन्हें योग साधना या ध्यान करने को कहा जाये तो वह अपनी आयु का हवाला देकर इंकार कर देते हैं। कुल मिलाकर वह नकारात्मक भाव का ऐसा शिकार हो जाते हैं जिससे उनकी मुक्ति नहीं हो पाती। पश्चिमी देशों में बड़ी आयु में भी लोग सुबह की सैर और व्यायाम नियमित रूप से करते हैं इसलिये उनका स्वास्थ्य ठीक रहता है जबकि भारत में बुजुर्ग लोग स्थाई बीमारी से शिकार हो जाते है और मान लिया जाता है कि बुढ़ापा तो होता ऐसा ही है।

सभी जानते हैं कि जितनी बीमारियां दिमागी तनाव से पैदा होती है उतनी अन्य किसी से नहीं। ऐसे में अपने अंदर बड़ी आयु का भाव यह सोचकर नहीं पालना चाहिये कि हमारी बीमारियां तो दूर नहीं हो सकतीं। इतना ही नहीं सभी बड़ी के आयु के लोगों को अपनी आयु का विचार किये बिना जीवन में कार्य करते रहना चाहिये। तेजस्वी व्यक्ति पर आयु का प्रभाव नहीं होता और न कभी वह परेशान दिखते हैं। जहां आदमी ने यह सोचा कि अब तो मैं आराम करूंगा वहीं उसका शरीर ढीला और कमजोर पड़ने लगता है और उसके चेहरे की फीकी कांति देखकर लोग उसकी उपेक्षा कर देते हैं। इससे बेहतर यही है कि नियमित रूप से व्यायाम आदि करते रहें ताकि बुढ़ापे में अपने चेहरे का तेज कम न पड़े।
------------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, November 16, 2008

रहीम संदेशः दूध अगर कलारी में दिखे तो मदिरा जैसा लगता है

रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि
दूध कलारी कर गहे, मद समझै सब ताहि

कविवर रहीम जी का कहना है कि निम्न प्रवृत्ति के लोगों के संगत करने पर कभी न कभी कलंकित होना तो तय ही है। दूध का बर्तन अगर कलारी में रखा हो तो भी उसे शराब ही समझा जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अगर स्वयं सज्जन है तो उसे दुष्ट लोगों की संगत से बचना चाहिये-यह तय बात है कि एक मनुष्य के व्यवहार,विचार, और कार्य को दूसरे पर भी प्रभाव होता है। जहां तक दुर्गुणी, दुष्ट और दुव्र्यसनी लोगों को सवाल है उनके लिये यह माया ही संसार है और भक्ति, भलाई, और भावुकता एकदम बकवास है। वह दूसरों को भी ऐसा करने को उकसाते हैं।
अधिकतर मामलों में आपने यह सुना तो होगा कि अमुक व्यक्ति दूसरे की संगत में बिगड़ गया और पर यह नहीं सुना होगा कि वह सुधर गया। कई बार अपराधियों के मां बाप अपने बच्चोंे की तरफ से सफाई देते हैं कि ‘हमारा बच्चा तो ठीक है पर दूसरे की संगत में बिगड़ गया, पर जो उपलब्धियों के शिखर पर पहुचंते हैं उनके मां बाप यह नहीं कहते कि दूसरे की संगत में बन गया।
तय बात है कि संगत का प्रभाव होता है-अच्छा भी बुरा भी-यह अलग बात है कि अच्छी संगत को लोग आकर्षक नहीं मानते बल्कि ऐसे लोगों के साथ संगत करने से प्रसन्न होते हैं जो दलाल या दादा टाईप के हों। एक बात बजे की बात है कि ऐसे लोगों की छबि उनकी नजरों के अच्छी नहीं होती और उनके मित्रों को भी वह ऐसे ही देखते हैं-अगर ऐसे लोग उनके मित्र नहीं हुए तो। जब स्वयं दलाल और दादा टाईप के लोगों से दोस्ती करते हैं तब यह बात भूल जाते हैं।
जिन अंतविरोधों में सभी रह रहे हैं उनको देखना चाहिये पर यह बात संशयरहित है कि दुष्ट की संगत से कभी न कभी अपने लिये संकट का कारण बनती है। यदि संकट का कारण न बने तो भी समाज में दुष्ट के कारण सज्जन की छबि भी खराब होती ही है।
---------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, November 15, 2008

संत कबीर संदेशः सांसरिक चतुराई तो सभी सीख लेते हैं

लिखना पढ़ना चातुरी, यह संसारी जेव
जिस पढ़ने सों पाइये, पढ़ना किसी न सेव


संत कबीरदास जी कहते हैं कि संसार में अपनी जीविका चलाने की शिक्षा तो हर कोई प्राप्त करता है। यह चतुराई तो हर मनुष्य में स्वाभाविक रूप से आती है। जिससे पढ़ने से अध्यात्म ज्ञान प्राप्त होता है वह कोई भी स्वीकार नहीं करना चाहता।

पढ़ी गुनी पाठक भये, समुझाया संसार
आपन तो समुझै नहीं, वृथा गया अवतार


स्वयं शिक्षा प्राप्त की और फिर अपने शिष्यों को भी ज्ञान देने लगे पर जिन लोगों ने अपने आपको नहंी समझा उनका जीवन तो व्यर्थ ही गया।

वर्तमान संदर्भ संपादकीय व्याख्या-अक्सर अनेक लोग शिकायत करते हुए मिल जाते हैं कि उनके बच्चे उनसे परे हो गये हैं या उनकी देखभाल नहीं करते। इसके दो कारण होते हैं एक तो यह कि नये सामाजिक परिवेश से तालमेल न बिठा पाने के कारण लोग अपने माता पिता को त्याग देते हैं या फिर वह व्यवसाय के सिलसिले में उनसे दूर हो जाते है। दोनो ही स्थितियों का विश्लेषण करें तो यह अनुभव होगा कि सभी माता पिता अपने बच्चों से यह अपेक्षा करते हैं कि वह इस मायावी दुनियां में उच्च पद प्राप्त कर, अधिक धनार्जन कर, और प्रतिष्ठा की दुनियां में चमककर उनका नाम रोशन करें। लोग बच्चों की कामयाबी के सपने देखते हैं और केवल सांसरिक शिक्षा तक ही अपने बच्चों को सीमित रखते हैं। किसी तरह अपना पेट पालो यही सिखाते हुए वह ऐसा अनुभव करते हैं कि जैसे कि वह दुनियां का कोई विशेष ज्ञान दे रहे हैं। यह तो एक सामान्य चतुराई है जिसे सब जानते हैं।
यह उनका एक भ्रम है। यह शिक्षा तो सभी स्वतः ही प्राप्त करते हैं पर जिन बच्चों को उनके माता पिता इसके साथ ही अध्यात्म ज्ञान, ईश्वर भक्ति और परोपकार करना सिखाते हैं वह अधिक योग्य निकलते हैं। जब तक आदमी मन में अध्यात्म का ज्ञान नहीं होगा तब वह न तो स्वयं कभी प्रसन्न रह पाता है और न ही दूसरों को प्रसन्न करता है।
-------------------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, November 9, 2008

संत कबीर संदेशः व्यवहार में शुद्धता नहीं हो तो नाम लेने से लाभ कोई नहीं

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
----------------------------------
मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग

साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।

सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन
सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान


कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चैरासी के चक्कर में पड़ जाती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भगवान का नाम लेना और साधुओं के आश्रमों मेंे जाकर हाजिरी देना कोई भक्ति का प्रमाण नहीं हैं। भीड़ में बैठकर भगवान का नाम लेकर शोर मचाने से भी कोई भक्ति नहीं हो जाती। लोग बरसों तक ऐसा करते हैं पर मन में फिर भी चैन नहीं पाते। मन में शांति तभी संभव है जब एकाग्र होकर हृदय भगवान के नाम का स्मरण किया जाये। ऐसा नहीं कि आंखें बंद कर मूंह से भगवान का नाम जाप कर रहे हैं और अंदर कुछ और ही विचार आ रहे हैं। कुछ लोग विशेष अवसर पर प्रसिद्ध मंदिरों और आश्रमों में जाकर मत्था टेक कर अपनी भक्ति को धन्य समझते हैं-ऐसा करना भगवान को नहीं बल्कि अपने आपको धोखा देना है। सबसे बड़ी बात यह है कि अगर अपने आचरण में पवित्रता नहीं है तो इसका मतलब यह है कि भक्ति एक धोखा है। जब तक आचार विचार और व्यवहार में पवित्रता नहीं रहेगी तब तक भगवान के नाम लेने का सकारात्मक प्रभाव नहीं हो सकता।

कुछ लोग अपने जीवन में बरसोंे तक भगवान के किसी एक ही स्वरूप की आराधना करते हैं। धीरे धीरे उनके अंदर भक्ति का रंग चढ़ने लगता है पर अचानक ही उनको कोई दूसरे स्वरूप या गुरु को पूजने के लिये प्रेरित करता है तो वह उसकी तरफ मुड़ जाते हैं। यह उनकी बरसों से की गयी भक्ति की कमाई को नष्ट कर देता है। जब सभी कहते हैं कि भगवान तो एक ही फिर उसके लिये स्वरूप में बदलाव करना केवल धोखा है यह अलग बात है कि उसकी प्रेरणा देने वाला भक्त को दे रहा है या भक्त स्वयं ही उसकी लिये उत्तरदायी है।
--------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, November 7, 2008

रहीम संदेशः ब्रह्मज्ञानी को देखते ही चित्त प्रसन्न हो जाता है

उत्तम जाती ब्राह्मनी, देखत चित्त लुभाय
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय


ज्ञानी मनुष्य की पहचान तो स्वतः ही उसके गुणों और लक्षणों से हो जाती है। ब्रह्मज्ञानी का चेहरा मात्र देखते ही आदमी का चित्त आनन्द विभोर हो उठता है। ऐसे ब्रह्मज्ञानी के दर्शन मात्र से पाप परे हो जाते हैं और उसके चरणों कें शीश झुकाने का मन करता है।
वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या-यह बिल्कुल सत्य बात है कि आदमी के चेहरे पर वही भाव स्वतः रहते हैं जो उसके मन में विद्यमान हैं। किसी प्रकार के ज्ञान और विज्ञान में श्रेष्ठता का भाव प्रदर्शन करना व्यर्थ है। आदमी के गुण स्वतः ही दूसरों के सामने प्रकट होते हैंं। दूसरे के अंदर अगर झांकना हो तो उसके चेहरे को पढ़ें। कई बार ऐसा होता है कि हम दूसरों के कहने में आकर किसी को श्रेष्ठ समझ बैठते हैं यह देखने का प्रयास ही नहीं करते कि उस व्यक्ति का आचरण कैसा है या उसमें वह गुण है भी कि नहीं जिसका बखान किया जा रहा है।

अनेक गुरु ऐसे हैं जो रटारटाया ज्ञान तो बताते हैं पर उनके चेहरे देखकर नहीं लगता कि वह कोई ब्रह्मज्ञानी हैं। योग साधना,ध्यान और धार्मिक ग्रंथों से चिंतन और मनन से ज्ञान प्राप्त होता है और जिसने वह धारण कर लिया उसका चेहरा स्वतः खिल उठता है और अगर नहीं खिला तो इसका आशय यह है कि मन में भी तेज नहीं है। इसलिये किसी के कहने में आकर कोई गुरु नहीं बनाना चाहिये। जिन लोगों में ज्ञान है तो उनका चेहरा ही बता देता है और उनका आचरण और व्यवहार उसे पुष्ट भी करता है। अतः ऐसे लोगों को ही अपना गुरु बनाना चाहिये।
-----------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, November 3, 2008

भृतहरि शतकः शान द्वारा तराशने पर भी रहती है मणि की शोभा

मणिः शाणोल्लीढः समर विजयी हेतिदलितो
मदक्षीणो नागः शरदि सरितः श्यानपुलिनाः


हिंदी में भावार्थः शान (खराद) द्वारा तराशा गया मणि, हथियारों से घायल होने पर युद्धविजेता, मदक्षीण हाथी,शरद ऋतु में किनारे सूखे होने पर नदियां, कलाशेष चंद्रमा, और पवित्र कार्यों में धन खर्च कर निर्धन हुआ मनुष्य की शोभा नहीं जाती।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोग अपने चेहरे पर निखार लाने के लिये श्रृंगार का सामान उपयोग लाते हैं। पहले तो स्त्रियों ही अपनी सजावट के लिये श्रृंगार का उपयोग करती थीं पर अब तो पुरुष भी उनकी राह चलने लगे हैं। अपने शरीर पर कोई पसीना नहीं देखना चाहता। लोग दिखावे की तरफ अधिक आकर्षित हो रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि शारीरिक श्रम को लोग पहले से अधिक हेय समझने लगे हैंं। स्मार्ट दिखने के लिये सभी जगह होड़ लगी है। सच तो यह है कि दैहिक आकर्षण थोड़ी देर के लिये प्रभाव डालता है पर अपने हाथों से निरंतर पवित्र कार्य किये जायें तो चेहरे और व्यक्तित्व में स्वयं ही निखार आ जाता है। जो लोग सहजता पूर्वक योग साधना, ध्यान, सत्संग और दान के कार्य मेें लिप्त होते हैं उनका व्यक्ति इतना प्रभावी हो जाता है कि अपरिचित भी उनको देखकर आकर्षित होता है।

कितना भी आकर्षक क्यों न हो धनी होते हुए भी अगर वह परोपकार और दान से परे हैं तो उसका प्रभाव नहीं रहता। खालीपीली के आकर्षण में कोई बंधा नहीं रहता। धनी होते हुए भी कई लोगोंं को दिल से सम्मान नहीं मिलता और निर्धन होते हुए भी अपने पूर्व के दान और पुण्र्य कार्यों से अनेक दानवीरों को सम्मान मिलता है। सच तो यह है कि अपने सत्कर्मों से चेहरे में स्वतः ही निखार आता है और स्वार्थी और ढोंगी लोग चाहे कितना भी श्रृंगार कर लें उनके चेहरे पर चमक नहीं आ सकती।
-----------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, November 1, 2008

भृतहरि शतकः राजनीति तो होती ही है बहुरूपिया

सत्याऽनृता च परुषा प्रियवादिनी च
हिंस्त्रा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या
नित्यव्यया प्रचुरनित्य धनागमा च
वारांगनेव नृपनीतिनेक रूपा


हिंदी में भावार्थ-राजाओं को तो बहुरूपी राजनीति करनी पड़ती है। कभी सत्य तो कभी झूठ, कभी दया तो कभी हिंसा,कभी कटु तो कभी मधुर कभी धन व्यय करने में उदार तो कभी धनलोलुप, कभी अपव्यय तो कभी धनसंचय की नीति अपनानी पड़ती है क्योंकि राजनीति तो बहुरुपिया पुरुष और स्त्री की तरह होती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-यह एक ध्रुव सत्य है कि राजनीति करने वाले को अनेक तरह के रंग दिखाने ही पड़ते हैं। जो अपना जीवन शांति, भक्ति और अध्यात्म ज्ञान के साथ बिताना चाहते हैं उनके लिये राजनीति करना संभव नहीं है। ज्ञानी लोग इसलिये राजनीति से समाज में परिवर्तन की आशा नहीं करते बल्कि वह तो समाज और पारिवारिक संबंधों में राज्य के हस्तक्षेप का कड़ा विरोध भी करते हैं। राजनीति का सीधा आशय राज्य प्राप्त करने और उसे चलाने के कार्य करने के लिये अपनायी जाने वाली नीति से है। बहूरंग और आकर्षक होने के कारण अधिकतर लोगों को यही करना रास आता है। अन्य की बात तो छोडि़ये धार्मिक किताब पढ़कर फिर उसका ज्ञान लोगों को सुनाकर पहले उनके दिल में स्थान बनाने वाले कई कथित गुरु फिर राजनीति को स्वच्छ बनाने के लिये उसमें घुस जाते हैं-यह लोकतंत्र व्यवस्था होने के कारण हुआ है क्योंकि लोग राजनीति विजय को प्रतिष्ठा का अंतिम चरम मानते हैं। लेखक,पत्रकार,अभिनेता-अभिनेत्रियां तथा अन्य व्यवसायों मं प्रतिष्ठत लोग राजनीति के अखाड़े को पसंद करते हैं। इतना ही नहीं अन्य क्षेत्रों में प्रसिद्ध लोग राजनीति में शीर्ष स्थान पर बैठे लोगों की दरबार में हाजिरी देते हैं तो वह भी उनका उपयोग करते हैं। लोकतंत्र में आम आदमी के दिलो दिमाग में स्थापित लोगों का उपयोग अनिवार्य आवश्यकता बन गया है। कोई व्यक्ति अपने लेखन,कला और कौशल की वजह से कितना भी लोकप्रिय क्यों न हो उसे लगता है कि स्वयं को राजनीति में स्थापित किये बिना वह अधूरा है।

मगर राजनीति तो बहुरुपिये की तरह रंग बदलने का नाम है। लोकप्रियता के साथ कभी अलोकप्रिय भी होना पड़ता है। हमेशा मृद भाषा से काम नहीं चलता बल्कि कभी कठोर वचन भी बोलने पड़ते हैं। हमेशा धन कमाने से काम नहीं चलता कभी व्यय भी करना पड़ता है-लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो भारी धन का व्यय करने का अवसर भी आता है तो फिर उसके लिये धन संग्रह भी करना पड़ता है। कभी किसी को प्यार करने के लिये किसी के साथ घृणा भी करना पड़ती है।
यही कारण है कि अनेक लेखक,कलाकार और प्रसिद्ध संत राजनीति से परे रहते हैं। हालांकि उनके प्रशंसक और अनुयायी उन पर दबाव डालते हैं पर वह फिर भी नहीं आते क्योंकि राजनीति में हमेशा सत्य नहीं चल सकता। अगर हम अपने एतिहासिक और प्रसिद्ध संतों और लेखकों की रचनाओं को देखें तो उन्होंने राजनीति पर कोई अधिक विचार इसलिये नहीं रखा क्योंकि वह जानते थे कि राजनीति में पूर्ण शुद्धता तो कोई अपना ही नहीं सकता। आज भी अनेक लेखक,कलाकर और संत हैं जो राजनीति से दूर रहकर अपना कार्य करते हैं। यह अलग बात है कि उनको वैसी लोकप्रियता नहीं मिलती जैसे राजनीति से जुड़े लोगों को मिलती है पर कालांतर में उनका रचना कर्म और संदेश ही स्थाई बनता है। राजनीति विषयों पर लिखने वाले लेखक भी बहुत लोकप्रिय होते है पर अंततः सामाजिक और अध्यात्मिक विषयों पर लिखने वालों का ही समाज का पथप्रदर्शक बनता है।

राजनीति के बहुरूपों के साथ बदलता हुआ आदमी अपना मौलिक स्वरूप खो बैठता है और इसलिये जो लेखक,कलाकर और संत राजनीति में आये वह फिर अपने मूल क्षेत्र के साथ वैसा न ही जुड़ सके जैसा पहले जुडे थे। इतना ही नहीं उनके प्रशंसक और अनुयायी भी उनको वैसा सम्मान नहीं दे पाते जैसा पहले देते थे। सब जानते हैं कि राजनीति तो काजन की कोठरीी है जहां से बिना दाग के कोई बाहर नहीं आ पाता। वैसे यह वह क्षेत्र से बाहर आना पसंद नहीं करता। हां, अपने पारिवारिक वारिस को अपना राजनीतिक स्थान देने का मसला आये तो कुछ लोग तैयार हो जाते हैं।

आखिर किसी को तो राजनीति करनी है और उसे उसके हर रूप से सामना करना है जो वह सामने लेकर आती है।ं सच तो यह है कि राजनीति करना भी हरेक के बूते का नहीं है इसलिये जो कर रहे हैं उनकी आलोचना कभी ज्ञानी लोग नहीं करते। इसमें कई बार अपना मन मारना पड़ता है। कभी किसी पर दया करनी पड़ती है तो किसी के विरुद्ध हिंसक रूप भी दिखाना पड़ता है। आखिर अपने समाज और क्षेत्र के विरुद्ध हथियार उठाने वालों को कोई राज्य प्रमुख कैसे छोड़ सकता है? अहिंसा का संदेश आम आदमी के लिये ठीक है पर राजनीति करने वालों को कभी कभी अपने देश और लोगों पर आक्रमण करने वालों से कठोर व्यवहार करना ही पड़ता हैं। राज्य की रक्षा के लिये उन्हें कभी ईमानदार तो कभी शठ भी बनना पड़ता है। अतः जिन लोगों को अपने अंदर राजनीति के विभिन्न रूपों से सामना करने की शक्ति अनुभव हो वही उसे अपनाते हैं। जो लोग राजनेताओं की आलोचना करते हैं वह राजनीति के ऐसे रूपों से वाकिफ नहीं होते। यही कारण है कि अध्यात्मिक और सामाजिक ज्ञानी राजनीति से दूर ही रहते हैं न वह इसकी आलोचना करते हैं न प्रशंसा। अनेक लेखक और रचनाकार राजनीतिक विषयों पर इसलिये भी नहीं लिखते क्योंकि उनका विषय तो रंग बदल देता है पर उनका लिखा रंग नहीं बदल सकता।
........................................................

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


इस लेखक की लोकप्रिय पत्रिकायें

आप इस ब्लॉग की कापी नहीं कर सकते

Text selection Lock by Hindi Blog Tips

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

विशिष्ट पत्रिकायें

Blog Archive

stat counter

Labels