Tuesday, June 30, 2009

चाणक्य नीति-तत्वज्ञानी के लिये देव हर जगह व्याप्त

अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्।
प्रतिभा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनाम्
हिंदी में भावार्थ
-द्विजातियां अपना देव अग्नि, मुनियों का देव उनके हृदय और अल्प बुद्धिमानों के लिये देव मूर्ति में होता है किन्तु जो समदर्शी तत्वज्ञानी हैं उनका देव हर स्थान में व्याप्त है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सकाम भक्ति करने वाले हवन, यज्ञ तथा भोजन दान करते हैं। उनके लिये देवता अग्नि है। जो सात्विक भक्ति करता हैं उनके लिये सभी के दिल में भगवान है। जो लोग एकदम अज्ञानी है वह केवल मूर्तियों में ही भगवान मानकर उनकी पूजा करते है। उनको किसी अन्य प्रकार के काम से कोई मतलब नही होता-न वह किसी का परोपकार करते हैं न ही सत्संग के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा उनके मन में आती है। सच्चा ज्ञानी और योगी वही है जो हर जगह उस ईश्वर का वास देखता है।
इस विश्व में अज्ञानी और स्वार्थी लोगों की भरमार है। लोगों ने धर्म से ही भाषा, ज्ञान, विचार, और व्यापार को जोड़ दिया है। आपने देखा होगा कि कुछ लोग धर्म परिवर्तन करते हैं तो अपना नाम भी बदल देते हैं। वह लोग अपने इष्ट के स्वरूप में बदलाव कर उसे पूजने लगते हैं। कहने को भले ही उनका धर्म निरंकार का उपासक हो पर कर्म के आधार पर मूर्तिमान को भजते दिखते हैं-उनका देव भले ही निरंकार हो पर धर्म एक तरह से मूर्तिमान होता है। कहने को सभी धर्माचार्य यही कहते हैं कि इस विश्व में एक ही परमात्मा है पर इसके पीछे उनकी चालाकी यह होती है कि वह केवल अपने वाले ही स्वरूप को इकलौता सत्य बताते हुए प्रचार करते हैं-कभी किसी दूसरे धर्म के स्वरूप पर बोलते कोई धर्माचार्य दिखाई नहीं देता। अलबत्ता भारत धर्मों से जुड़े के कुछ तत्वज्ञानी संत कभी अपने अंदर ऐसे पूर्वाग्रह के साथ सत्संग नहीं करते। वैसे भी भारतीय धर्म की यह खूबी है कि वह इस संसार में व्यापक दृष्टिकोण रखते हैं और केवल मनुष्य की बजाय सभी जीवों-यथा पशु पक्षी, जलचर, नभचर और थलचर-के कल्याण जोर दिया जाता है।
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Sunday, June 28, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-तन पर पहना कपड़ा फटा हैं या सुंदर क्या फर्क पड़ता है

भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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जीर्णाः कन्था ततः किं सितमलपटं पट्टसूत्रं ततः किं
एका भार्या ततः किं हयकरिसुगणैरावृतो वा ततः किं
भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथवा वासरान्ते ततः किं
व्यक्तज्योतिर्नवांतर्मथितभवभयं वैभवं वा ततः किम्

हिंदी में भावार्थ-तन पर फटा कपड़ा पहना या चमकदार इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। घर में एक पत्नी हो या अनेक, हाथी घोड़े हों या न हों, भोजन रूखा-सूखा मिले या पकवान खायें-इन बातों से कोई अंतर नहीं पड़ता। सबसे बड़ा है ब्रह्मज्ञान जो मोक्ष दिलाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव ने हमारे देश में भौतिकवाद को प्रोत्साहन दिया है और अब तो पढ़े लिखे हों या नहीं सभी सुख सुविधाओं को जाल में फंसते जा रहे हैं। भारतीय अध्यात्म ज्ञान के बारे में जानते सभी हैं पर उसे धारण करना लोगों को अब पिछड़ापन दिखाई देता है। नतीजा यह है कि समाज में आपसी रिश्ते एक औपचारिकता बनकर रहे गये हैं। अमीर गरीब की के बीच में अगर भौतिक रूप से दूरी होती तो कोई बात नहीं पर यहां तो मानसिक रूप से सभी एक दूसरे से परे हो जा रहे हैं। जिसके पास सुख साधन हैं वह अहंकार में झूलकर गरीब रिश्तेदार को हेय दृष्टि से देखता है तो फिर गरीब भी अब किसी अमीर पर संकट देखकर उसके प्रति सहानुभूति नहीं दिखाता। हम जिस कथित संस्कृति और संस्कार की दुहाई देते नहीं अघाते वह केवल नारे बनकर रहे गये हैं और धरातल पर उनका अस्तित्व नहीं रह गया है।

जिसके पास धन है वह इस बात से संतुष्ट नहीं होता कि लोग उसका सम्मान इसकी वजह से करते हैं बल्कि वह उसका समाज में प्रदर्शन करता है। धनी लोग अपने इसी प्रदर्शन से समाज में जिस वैमनस्य की धारा प्रवाहित करते हैं उसके परिणाम स्वरूप सभी समाज और समूह नाम भर के रहे गये हैं और उसके सदस्यों की एकता केवल दिखावा बनकर रह गयी है।

जिस तत्वज्ञान की वजह से हमें विश्व में अध्यात्म गुरु माना जाता है उसे स्वयं ही विस्मृत कर हम भारी भूल कर रहे हैं। शरीर पर कपड़े कितने चमकदार हों पर अगर हमारी वाणी में ओज और चेहरे पर तेज नहीं हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होता। काम चलने को तो दो रोटी से भी चल जाये पर जीभ का स्वाद ऐसा है कि अभक्ष्य और अपच भोजन को ग्रहण कर अपने शरीर में बीमारियों को आमंत्रित करना होता है। सोचने वाली बात यह है कि अपना पेट तो पशु भी भर लेते हैं फिर अगर हम ऐसा करते हैं तो कौनासा तीर मार लेते हैं। मनुष्य जीवन में भक्ति और ज्ञान प्राप्त करने की सुविधा मिलती है पर उसका उपयोग नहीं कर हम उसे ऐसे ही नष्ट कर डालते हैं। ऐसे में वह ज्ञानी धन्य है जो दाल रोटी खाकर पेट भरते हुए भगवान भजन और ज्ञान प्राप्त करने के लिये समय निकालते हैं।
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Saturday, June 27, 2009

मनुस्मृति-शरीर को पवित्र एवं शुद्ध रखने के प्रयास जरूरी

वसाशुक्रमसृंमज्जामूत्रविंघ्राणकर्णविट्।
श्नेष्माश्रुदूषिकास्वेदा द्वादशैते नृणां मलाः।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य की देह में बारह प्रकार का मल होता है-1.चर्बी, 2.वीर्य, 3.रक्त, 4.मज्जा, 5.मूत्र, 6.विष्ठा, 7.आंखों का कीचड़, 8.नाक की गंदगी, 9.कान का मैल, 10. आंसू, 11.कफ तथा 12. त्वचा से निकलने वाला पसीना।
कृत्वा मूत्रं पूरीषं वा खन्याचान्त उपस्मृशेत्।
वेदमश्येघ्यमाणश्च अन्नमश्नंश्च सर्वदा।।
हिंदी में भावार्थ-
मल मूत्र त्याग करने के बाद हमेशा हाथ धोकर आचमन करना के साथ ही दो बार मूंह भी धोना चाहिये। सदैव वेद पढ़ने तथा भोजन करने से पहले भी आचमन करना चाहिये।
एका लिंगे गुदे त्रिस्त्रस्तथैकत्र करे दश।
उभयोः सप्त दातव्याः मृदः शुद्धिमभीप्सता।।
हिंदी में भावार्थ-
जो लोग पूर्ण रूप से देह की शुद्धता चाहते हैं उनके लघुशंका पर लिंग पर एक बार मल त्याग करने पर गुदा पर तीन बार तथा बायें हाथ पर दस बार एवं दोनों हाथों की हथेलियों और उसके पृष्ठ भाग पर सात बार मिट्टी (वर्तमान में साबुन भी कह सकते हैं) लगाकर जल से धोना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दरअसल जब शरीर की पवित्रता और अपवित्रता की बात कही जाती है तो आधुनिक ढंग से सोचने वाले उसे एक तरह से अंध विश्वास मानते हैं जबकि पश्चिम के वैज्ञानिक भी अब मानने लगे हैं कि शरीर को साफ रखने से उसे अस्वस्थ करने वाले अनेक प्रकार के सूक्ष्म कीटाणु दूर हो जाते हैं। जल न केवल जीवन है बल्कि औषधि भी है। यही बात वायु के संबंध में कही जाती है। प्रातः प्राणायम करने से आक्सीजन अधिक मात्रा में शरीर को प्राप्त होता है जिससे कि अनेक रोग स्वतः ही परे रहते हैं। वैसे अगर हम विचार करें तो देह अस्वस्थ हो और इलाज के लिये चिकित्सकों के घर जाकर नंबर लगायें उससे अच्छा तो यह है कि जल और वायु से अपने शरीर को स्वस्थ रखें।
भारतीय अध्यात्म के आलोचक आधुनिक विज्ञान की चकाचैंध में इस बात को भूल जाते हैं कि बीमारी के इलाज से अच्छा तो स्वस्थ रहने के लिये प्रयास करने की बात तो पश्चिमी वैज्ञानिक भी मानते हैं।
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Thursday, June 25, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-भोगी मित्र हितैषी होने पर भी दुःखदायी

अमित्राण्यपि कुर्वीत मित्रण्युपचयावहान्।
अहिते वत्र्त मानानि मित्राण्यपि परित्यजेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि अपना हित करने वाला शत्रु भी हो तो भी उसे मित्र बनाना चाहिये। यदि मित्र अहित करने वाला हो तो उसका त्याग करना ही अच्छा है।
भोगप्राप्तं विकुर्वाणं मित्रमप्युपपीडयेत्।
अत्यंतं विकृतं हन्यात्स पापीया् रिपुर्मतः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मित्र भोगों में लिप्त होते हुए भी उपकार करने वाला है तो भी वह पीड़ा देता है। अगर वह अपकार करने वाला है तो उसे अपना शत्रु ही समझते हुए उसे दंडित करें या उसका साथ ही छोड़ दें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मित्र बनाने में हमेशा सतर्कता बरतना चाहिए। आधुनिक समय में युवक युवतियों को अपना मित्र बनाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनका मित्र हमेशा हित की सोचने वाला हो। युवक युवतियों छोटी छोटी बातों पर नाराज और प्रसन्न होते हैं, पर उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि इससे जीवन में अधिक आनंद नहीं आता। आजकल विलासिता के सामान बहुत सस्ते आते हैं अतः वह तोहफे में देने वालों को अपना सच्चा मित्र नहीं मान लेना चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि मित्र का आचरण, चरित्र और विचार कैसे हैं? कुछ मित्र सामने बहुत मीठा बोलते हैं पर पीठ पीछे दूसरों के सामने निंदा करते हैं या मजाक बनाते हैं। खासतौर से युवतियों को अपने युवक मित्रों से अधिक सतर्क रहना चाहिये। कहने को तो कहा जाता है कि आजकल आधुनिक समय है पर कुछ यथार्थ विचार बदल नहीं सकते। कहा जाता है कि युवक की इज्जत को पीतल के लोटे की तरह होती है जो खराब होने पर फिर मिट्टी से भी साफ हो जाता है पर युवती की इज्जत तो मिट्टी के बर्तन की तरह है एक बार बिगड़ी तो फिर उसकी भरपाई नहीं होती। ऐसे मित्र जिनका आचरण, चरित्र और विचार संदिग्ध हों उनसे युवक युवतियों को बचना चाहिये।
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Wednesday, June 24, 2009

श्री गुरु ग्रंथ साहिब-अहंकार से व्रत, दान और तीर्थ का फल नष्ट होता है

‘तीरथ व्रत अरु दान करु महि धरहि गुमान।
नानक निहफल जात तिह जिउ कुंचर इस्नान।’
हिंदी में भावार्थ-
गुरु ग्रंथ साहब के अनुसार तीर्थ, व्रत और दान अगर मन में भी अहंकार आया तो वह निष्फल हो जाता है जिस प्रकार हाथी नहाने के बाद शरीर पर धूल डालकर स्वयं गंदा कर देता है।
‘गुरु जिना का अंधुला सिख भी अंधे करम करेनि।’
हिंदी में भावार्थ-
गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी के अनुसार जिनके गुरु अज्ञानी होंगे उनके शिष्य भी वैसे ही अंधकर्म उनसे सीखेंगे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्री गुरुनानक देव जी ने जीवन भर भारतीय धर्म में व्याप्त अंधविश्वास तथा कुरीतियों का विरोध किया। भारतीय धर्म में दान, व्रत और तीर्थ की बहुत महिमा है। अपनी नियमित दिनचर्या से हटकर कुछ अन्य करने से व्यक्ति का मानसिक संताप कम होता है और इसलिये दान, व्रत और तीर्थ जैसे तरीके बनाये गये। लोग यह सब इस विचार से नहीं करते कि इससे उनकी देह और मन में शुद्धता आयेगी बल्कि वह यह सोचते हैं कि हमने अगर तीर्थ किया तो ईश्वर, दान किया तो ग्रहणकर्ता और व्रत किया तो अन्न पदार्थों पर अहसान किया। यह अहंकार करने से हमारी सारी अध्यात्मिक और धार्मिक गतिविधियां निष्फल हो जाती हैं। इसका कारण यह है कि इस देह से चाहे कोई भी अच्छा काम किया जाये पर उसके लिये हमारे मन में भी शुद्धता का भाव होना चाहिये तभी किसी भी अच्छे काम का परिणाम पूर्ण रूप से ग्रहण कर सकते हैं। जहां मन में अहंकार आया वहीं सब किया धरा रह जाता है। देह के साथ मन में भी पवित्रता को होना बहुत आवश्यक है।
कोई व्यक्ति कैसा है यह उसके गुरु को देखकर पता किया जा सकता है। उसी तरह कौन गुरु कैसा है उसके शिष्यों के व्यवहार से पता लगता है। श्रीगुरुनानक साहब जी धर्म के नाम पर पाखंड के बहुत विरोधी थे। अपने समकालीनों में वह इसी कारण लोकप्रिय भी हुए क्योकि समाज कथित ढोंगियों से तंग हो गया था। देखा जाये तो स्थितियां आज पहले से बदतर हैं। धार्मिक गुरु संख्या में बहुत हैं पर फिर देश में अधर्म का बोलबाला है। इससे यह तो जाहिर होता है कि देश में धर्म के नाम पर उपदेश वाले संतों की वाणी भले ही ओजपूर्ण हो पर प्रभावी नहीं है। एक कान में शोर के साथ घुसती है तो दूसरे से शांतिपूर्वक निकल जाती है। अतः हमेशा ही न स्वयं अच्छे और निष्कामी संतों की शरण लेकर उनको गुरु बनाना चाहिये बल्कि अपने बच्चों का भी इस संबंध में मार्ग दर्शन करना चाहिये।
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Tuesday, June 23, 2009

मनुस्मृति-व्यवहार में वस्तुओं का लेनदेन करना पड़ता है

आदानमप्रियकरं दानं च प्रियकारकम्।
अभीपिस्तानामर्थानां काले युक्तं प्रशस्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
जब हमारी प्रिय वस्तुओं को कोई लेता है तब बहुत बुरा पर कोई दूसरा अपनी प्रिय वस्तु हमको देता है तो बहुत अच्छा लगता है। विशेष अवसरों पर इस प्रिय और अप्रिय लेनदेन का विचार छोड़कर व्यवहार करना ही पड़ता है।
हिरण्यभूम्रिसम्प्राप्त्या पार्थिवो न तथैश्वते।
यथा मित्र ध्रुवं लब्धवा कृशमप्यायाति क्षयम्।।
हिंदी में भावार्थ-
कोई भी आदमी किसी दूसरे से सोना या जमीन लेकर शक्तिशाली नहीं बन सकता जितना कि योग्य मित्र की संगत में होता है। मित्रता दुर्बल को भी शक्तिशाली बना देती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे पास ऐसी कुछ वस्तुऐं होती है जिनकी उपयोगिता के कारण हम उनसे बहुत प्यार करते हैं। वह पेन, किताब, गाड़ी या कोई अन्य वस्तु हो सकती है। अनेक ऐसी चीजें हैं जो समय पर पड़ने पर किसी अन्य द्वारा मांगे जाने पर बहुत बुरा लगता है हालांकि अपनी इच्छा के विरुद्ध उसे देते हैं पर दुःख होता है। इसके विपरीत जब कोई अन्य व्यक्ति अपनी प्रिय वस्तु हमारे मांगने पर देता है तब उसकी सदाशयता देखकर बहुत प्रसन्नता होती है। यह जीवन बहुत बड़ा है और यहां कोई चीज स्थिर नहीं है अतः भौतिक वस्तुओं के प्रति अधिक स्नेह न पालते हुए समय के अनुसार लेनदेन करने में संकोच नहीं करना चाहिये।

किसी से कोई वस्तु, सोना और जमीन उपहार में प्राप्त कर लेने से कोई ताकतवर नहीं हो जाता। उल्टे अधिक वस्तुओं के संग्रह से जहां घर में कबाड़ बढ़ता है वहीं सोने और जमीन की अधिक उपलब्धता से ठग और डकैतों की नजर आदमी पर पड़ी रहती है। लुटने या ठगने भय आदमी को मानसिक रूप कमजोर बना देता है। वह संकीर्ण दायरे में रहता है और समाज से उसका संपर्क कट जाता है।
जिस व्यक्ति का व्यवहार अच्छा है उसके मित्र अधिक होते हैं। यही मित्रता और व्यवहार आदमी को शक्तिशाली बनातर हैं। इसलिये भौतिक वस्तुओं, कीमती धातुओं और जमीन की बजाय समाज में अपने व्यवहार और मित्रता से सहृदय लोगों का संग्रह करना ही ठीक है क्योंकि उससे अपनी शक्ति और सम्मान बढ़ता है।
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Monday, June 22, 2009

भर्तृहरि शतक-ज्ञानी लोग विषयों से विचलित नहीं होते (bhartrihari niti shatak-gyani aur vishay)

सुधाशुभ्रं धाम स्फुरदमलरश्मिः शशधरः प्रियाववत्राभोजं मलयजरजश्चातिसुरभिः।
स्रजो हृद्यामोदास्तदिदमखिलं रागिणी जने करोतयन्तः क्षोभं न तु विषयसंसर्गविमुखे।।
हिंदी में भावार्थ-
सफेद रंग से पुता चमकता भवन, चंद्रमा की शीतल रौशनी, अपनी प्राणप्रिया का मुख कमल, चंदन की सुगंध, फूलों की माला जैसे विषय अनुरागियों के मन को तड़पाते हुए विचलित कर देते हैं लेकिन जिन्होंने अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लिया है वह इनसे प्रभावित नहीं होते।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-जीवन में राग अनुराग के प्रति लगाव स्वाभाविक रूप से रहता है। मगर यही राग अनुराग कष्ट का कारण भी बनते हैं। एक अच्छा और बड़ा मकान रहने के लिये होना चाहिये। जिनके पास नहीं है वह ख्वाब देखते हैं पर जिनके पास महल जैसा आवास है वह भी खुश नहीं है। इतने बड़े मकान का रखरखाव नियमित रूप करना भी उनके लिये कष्टप्रद है। बड़े शहरों मे चले जाईये तो कई नई कालौनियां देखकर लगता है कि जैसे यहां स्वर्ग है। कुछ वर्ष बाद जाईये तो वही पुरानी लगती हैं। लोगों के पास धन है पर समय नहीं कि अपने मकानों की हर वर्ष पुताई करा सकें। हालांकि कहने के लिये ऐसे रंग आ गये हैं जो कई वर्ष तक चलें पर बरसात और धूप के सामने भला कौनसा रसायन टिक सकता है।

आदमी का मन है जो कभी न कभी ऊबता है और वह विश्राम चाहता है। देह को तो आराम मिल जाता है पर मन को नहीं। भौतिक जीवन की सत्यता को समझना ही अध्यात्म ज्ञान है और जो इसे जानता है वही सुख दुःख से परे होकर जीवन में आनंद उठा सकता है। कहते भी है कि इस समय विश्व में लोगों के दिमाग में तनाव बढ़ रहा है। आखिर यह सोचने का विषय है कि जब इतनी सारी सुविधायें हैं तो फिर इंसान विचलित क्यों हो जाता है? यह सब अध्यात्म ज्ञान की कमी की वजह से है।
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Sunday, June 21, 2009

संत कबीर वाणी-कवि बहुत हैं भक्त कम

ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पण्डित कवी अनेक।
राम रता इंन्द्री जिता, कोटी मध्ये एक।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि ज्ञान, ज्ञाता, विद्वान और कवि तो बहुत सारे मिले पर भगवान श्रीराम के भजन में रत तथा इंद्रियां जीतने वाला तो कोई करोड़ो में कोई एक होता है।
पढ़ते-पढ़ते जनम गया, आसा लागी हेत।
बोया बीजहि कुमति ने, गया जू निर्मल खेत।।

संत कबीरदास जी कहते हैं कि पढ़ते और गुनते पूरा जन्म गुजर गया पर मन की कामनायें और इच्छायें पीछा करती रही। कुमति का बीज जो दिमाग के खेत में बोया उससे मनुष्य के मन का निर्मल खेत नष्ट हो गया।
वर्तमान संदर्भ में संपाकदीय व्याख्या-आधुनिक शिक्षा ने सांसरिक विषयों में जितना ज्ञान मनुष्य को लगा दिया उतना ही वह अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गया है। वैसे यह तो पुराने समय से चल रहा है पर आज जिस तरह देश में हिंसा और भ्रष्टाचार का बोलबाला है उससे देखकर कोई भी नहीं कह सकता है कि यह देश वही है जैसे विश्व में अध्यात्मिक गुरु कहा जाता है। आतंकवाद केवल विदेश से ही नहीं आ रहा बल्कि उसके लिये खादी पानी देने वाले इसी देश में है। इसी देश के अनेक लोग विदेश की कल्पित विचाराधारा के आधार पर देश में सुखमय समाज बनाने के लिये हिंसक संघर्ष में रत हैं। यह लोग पढ़े लिखे हैं पर अपने देश में वर्ग संघर्ष में समाज का कल्याण देखते हैं। अपने ही अध्यात्मिक शिक्षा को वह निंदनीय और अव्यवहारिक मानते हैं।
जहां हिंसा होगी वहां प्रतिहिंसा भी होगी। जहां आतंक होगा वहां राज्य को भी आक्रमक होकर कार्यवाही करनी पड़ती है। हिंसा से न तो राज्य चलते हैं न समाज सुधरते हैं। इतना ही नहीं इन हिंसक तत्वों ने साहित्य भी ऐसा ही रचा है और उनके लेखक-कवि भी ऐसे हैं जो हिंसा को प्रोत्साहन देते हैं।
सच बात तो यह है कि समाज पर नियंत्रण तभी रह सकता है जब व्यक्ति पर निंयत्रण हो। व्यक्ति पर निंयत्रण राज्य करे इससे अच्छा है कि व्यक्ति आत्मनियंत्रित होकर ही राज्य संचालन में सहायता करे। व्यक्ति को आत्मनिंयत्रण करने की कला भारतीय अध्यात्म ही सिखा सकता है। इसी कारण जिन लोगों के मन में तनाव और परेशानियां हैं वह भारतीय धर्मग्रंथों खासतौर से श्रीगीता का अध्ययन अवश्य करें तभी इस जीवन रहस्य को समझ पायेंगे।
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Friday, June 19, 2009

विदुर नीति-सुपाच्य भोजन करना ही बेहतर

नीति विशारद विदुर महाराज कहते हैं कि
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भक्ष्योत्तमप्रतिच्छन्नं मत्स्यो वङिशमायसम्।
लोभाभिपाती ग्रसते नानुबन्धमवेक्षते।।
यच्छक्यं ग्रसितुं ग्रस्यं ग्रस्तं परिणमेच्च यत्।
हितं च परिणामे यत् तदाद्यं भतिमिच्छता।।
हिंदी में भावार्थ
-मछली कांटे से लगे चारे को लोभ में पकड़ कर अपने अंदर ले जाती है उस समय वह उसके परिणाम पर विचार नहीं करती। उससे प्रेरणा ग्रहण कर उन्नति चाहने वाले पुरुष को ऐसा ही भोजन ग्रहण करना चाहिये जो खाने योग्य होने के साथ पेट में पचने वाला भी हो। जो भोजन पच सकता है वह ग्रहण करना ही उत्तम है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-हमारे देश में फास्ट फूड संस्कृति का प्रचार निरंतर बढ़ता जा रहा हैं। क्या जवान, क्या अधेड़ और बूढ़े और क्या स्त्री और पुरुष, बाजारों में बिकने वाले फास्ट फूड पदार्थों को खाने में आनंद अनुभव करते हैं। यह पश्चिम से आया फैशन है पर वहीं के स्वास्थ्य विशेषज्ञ उसे पेट के लिये खराब और अस्वास्थ्यकर मानते हैं। इसके अलावा मांस खाना भी पश्चिम के ही विशेषज्ञ गलत मानते हैं।
इन्हीं पश्चिमी स्वास्थ्य विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि मांस खाने से मनुष्य में अनावश्यक आक्रामकता आती है और वह जल्दी ही हिंसा पर उतारु हो जाता है। यह जरूरी नहीं है कि भोजन में विष मिला हो तभी वह बुरा प्रभाव डालता है। विष मिले भोजन को पता तो तत्काल चल जाता है क्योंकि उसकी देह पर तत्काल प्रतिक्रिया होती है पर असात्विक और बीमारी वाले भोजन का पता थोड़े समय बाद चलता है। खाने के बाद भोजन पचने से आशय केवल उसका भौतिक रूप नहीं है बल्कि भावनात्मक रूप से पचने से है। अगर मांस वाला भोजन किया तो लगता है कि वह पच गया पर उसके लिये जिस जीव की हत्या हुई उसकी भावनायें भी उसी मांस में मौजूद होती है और सभी जानते है कि भावनाओं का कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता जो किसी को दिखाई दे। अतः मांस खाने वाले के पेट में वह कलुषित भावनायें भी चली जाती हैं जो उस समय उस जीव के अंदर मौजूद थी जब उसे काटा गया। यही हाल ऐसे भोजन का भी है जिसके बहुत से पदार्थ अपच्य है पर वह पेट में धीरे धीरे जमा होकर बड़ी बीमारी का स्वरूप लेते हैं। ऐसा अशुद्ध पेय पदार्थों के सेवन पर भी होता है।
श्रीमदभागवत गीता में ‘गुण ही गुणों के बरतते है’ का जो सिद्धांत बताया गया है उसका यह भी तात्पर्य है कि जैसे अन्न और जल का भोजन हम करते हैं वैसा ही उसका प्रभाव हम पर होता है और हम उससे बच नहीं सकते। अतः प्रयास यही करना चाहिये कि सात्विक भोजन करें ताकि हमारे विचार भी पवित्र रहेें जो कि आनंदपूर्ण जीवन के अति आवश्यक हैं।
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Thursday, June 18, 2009

रहीम के दोहे-अपनी युक्तियां और कष्ट गुप्त रखें

रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि।
गांठ युक्ति की खुलि गई, अंत धूरि को धूरि।
कविवर रहीम कहते हैं कि जिस तरह जमीन पर पड़ी धूल हवा लगने के बाद चलायमान हो उठती है वैसे ही यदि आदमी की योजनाओं का समयपूर्व खुलासा हो जाये तो वह भी धूल हो जाते हैं।
रहिमन निज मन की, बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैह लोग सब, बाटि न लैहैं न कोय।।
कविवर रहीम कहते हैं कि मन की व्यथा अपने मन में ही रखें उतना ही अच्छा क्योंकि लोग दूसरे का कष्ट सुनकर उसका उपहास उड़ाते हैं। यहां कोई किसी की सहायता करने वाला कोई नहीं है-न ही कोई मार्ग बताने वाला है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दूसरे का दुःख देखकर प्रसन्न होने वालों की इस दुनियां में कमी नहीं है। पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्तियां हर मनुष्य में रहती हैं। इस संसार में भला कौन कष्ट नहीं उठाता पर अपने दिल को हल्का करने के लिये लोग दूसरों के कष्टों का उपहास उड़ाते हैं। इसलिये जहां तक हो सके अपने मन की व्यथा अपने मन में ही रखना चाहिये। सुनने वाले तो बहुत हैं पर उसका उपाय बताने वाला कोई नहीं होता। अगर सभी दुःख हरने का उपाय जानते तो अपना ही नहीं हर लेते।
अपने जीवन की योजनाओं को गुप्त रखना चाहिये। जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब हम अपने रहस्य और योजनायें दूसरों को यह कहते हुए बताते हैं कि ‘इसे गुप्त रखना’। यह हास्यास्पद है। सोचने वाली बात है कि जब हम अपने ही रहस्य और योजनायें गुप्त नहीं रख सकते तो दूसरे से क्या अपेक्षा कर सकते हैं।
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Wednesday, June 17, 2009

भक्ति के लिए नहाना ज़रूरी नहीं-आलेख

स्नातो या यदि वाऽस्नातः शुचिवां यदि वाऽशुचि।
विभूतिं विश्वरूपं च संस्मरन्सर्वदा शुचिः।
हिंदी में भावार्थ-
स्नान किया हो या न किया हो, देह पवित्र हो या अपवित्र पर जो मनुष्य परमात्मा के विश्वरूप का स्मरण करता है वह सदा ही पवित्र है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-परमात्मा की सच्चे हृदय से भक्ति करने से ही मन और देह को शांति मिलती है। अक्सर लोग यह कहते हैं कि स्नान आदि करके ही परमात्मा का स्मरण करना चाहिए। इसके अलावा अनेक भक्त मूर्तियों पर फूल और जल चढ़ाकर उसे ही सच्ची भक्ति मान लेते हैं। कई लोग तो केवल इसलिये भक्ति का वह तरीका अपना लेते हैं कि दूसरा भी ऐसा ही कर रहा है तो कुछ दूसरों को दिखाने के लिये कर्मकांड या हवन करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग कुछ अपने को तो कुछ दूसरों को दिखाने के लिये भक्ति करते हैं जबकि भक्ति, स्मरण और ध्यान हृदय से ही की जाना चाहिए।

आखिर यह कैसे पता चले कि हम भक्ति कर रहे हैं? जब हम परमात्मा का स्मरण या ध्यान कर रहे हों तब किसी अन्य बात का विचार हमारे अंदर न आये तब यह समझना चाहिये कि हम हृदय से भक्ति कर रहे हैं। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जब हम जब परमात्मा के निरंकार स्वरूप का स्मरण प्रारंभ करते हैं तब उनका कोई स्वरूप हमारे मस्तिष्क में रहता है। उस पर ध्यान केंद्रित करते समय शुरुआत में हमारे अंदर तमाम तरह के विचार आते हैं। उन्हें आने दीजिये। उनके आने से अपना ध्यान लगाना बंद मत कीजिये। दरअसल वह विचार एक विकार के रूप में हमारे अंदर रहते हैं। ध्यान लगाते हुए हमारे अंदर जो ज्ञानाग्नि प्रज्जवलित होती है वही विकार उसमें पूर्णाहति की तरह जलने आते हैं। जब दृढ़ता से अपने ध्यान में स्थिर रहेंगे तब धीरे धीरे अनुभव होगा कि हमारा ध्यान केवल भृकुटि पर ही केद्रित हो गया है और वहां हम आत्मिक रूप से केवल शून्य में स्थित हैं। यह ध्यान की सबसे रोचक और चरम स्थिति है।
स्मरण या ध्यान करने के बाद जब हम वापस लौटें तब हमें इस दुनियां में नवीनता का अनुभव हो तभी यह समझना चाहिए कि उसका लाभ हुआ है। शुरुआत में शायद ऐसा न लगे पर हम ध्यान, भक्ति और स्मरण के तत्काल बाद यह अनुभव करने का अभ्यास करें तो एसा लगने लगेगा कि ध्यान के बाद प्रतिदिन एकदम नवीन होता है।
वैसे तो ध्यान या स्मरण दैहिक स्वच्छता के बाद करना चाहिए पर स्वास्थ्य खराब होने के कारण यह किसी अन्य वजह से नहाना न हो पाये तब भी उतने ही उत्साह से ही भक्ति, स्मरण और ध्यान करना चाहिए। अगर अवकाश हो या समय मिल जाये तब चाहे जब ध्यान और स्मरण हो सकता है। जैसे दोपहर के खाने के बाद ऐसा लगता है कि कुछ देर ध्यान करना या कोई धार्मिक पुस्तक पुस्तक पढ़ना अच्छा रहेगा तो अपने विचार को इसलिये स्थगित न करें कि अस्वच्छ देह से ऐसा करना ठीक नहीं है। तात्पर्य यह है कि भक्ति, स्मरण और ध्यान में दृढता पूर्वक अपन हृदय लगाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि इससे मानसिक और वैचारिक तनाव कम होता है।
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Tuesday, June 16, 2009

भर्तृहरि शतक-आदमी मसखरा नहीं तो फिर राजा से उसका क्या प्रयोजन

स जातः कोऽप्यासीनमदनरिमुणा मूध्निं धवलं कपालं यस्योच्चैर्विनहितमलंकारविधये।
नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना नमद्धिः कः पुंसामयमतुलदर्प ज्वर भरः।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि भगवान शिव ने अपने अनेक खोपड़ियों की माला सजाकर अपने गले में डाल ली पर जिन मनुष्यों को अहंकार नहीं आया जिनके नरकंकालों से वह निकाली गयीं। अब तो यह हालत है कि अपनी रोजी रोटी के लिये नमस्कार करने वाले को देखकर उससे प्रतिष्ठित हुआ आदमी अहंकार के ज्वर का शिकार हो जाता है।
न नटा न विटा न गायकाः न च सभ्येतरवादचंचवः।
नृपमीक्षितुमत्र के वयं स्तनभारानमिता न योषितः।।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि न तो हम नट हैं न गायक न असभ्य ढंग से बात करने वाले मसखरे और न हमारा सुंदर स्त्रियों से कोई संबंध है फिर हमें राजाओं से क्या लेना देना?
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही अहंकार में डूबा है। जिसने अधिक धन, उच्च पद और अपने आसपास असामाजिक तत्वों का डेरा जमा कर लिया वह अहंकार में फूलने लगता है। अपने स्वार्थ की वजह से सामने आये व्यक्ति को नमस्कार करते हुए देखकर कथित बड़े, प्रतिष्ठित और बाहूबली लोग फूल जाते हैं-उनको अहंकार का बुखार चढ़ता दिखाई देता है। यह तो गनीमत है कि भगवान ने जीवन के साथ उसके नष्ट होने का तत्व जोड़ दिया है वरना वह स्वयं चाहे कितने भी अवतार लेते ऐसे अहंकारियों को परास्त नहीं कर सकते थे।
अधिक धन, उच्च पद और बाहूबल वालों को राजा मानकर हर कोई उनसे संपर्क बढ़ाने के लिये आतुर रहता है। जिसके संपर्क बन गये वह सभी के सामने उसे गाता फिरता है। इस तरह के भ्रम वही लोग पालते हैं जो अज्ञानी है। सच बात तो यह है कि अगर न हम अभिनेता है न ही गायक और न ही मसखरी करने वाले जोकर और न ही हमारी सुंदर स्त्रियों से कोई जान पहचान तब आजकल के नये राजाओं से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह हमसे संपर्क रखेंगे। बड़े और प्रतिष्ठित लोग केवल उन्हीं से संपर्क रखते हैं जिनसे उनको मनोरंजन या झूठा सम्मान मिलता है या फिर वह उनके लिये व्यसनों को उपलब्ध कराने वाले मध्यस्थ बनते हों। अगर इस तरह की कोई विशेष योग्यता हमारे अंदर नहीं है तो फिर बड़े लोगों से हमारा कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।
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Monday, June 15, 2009

संत कबीर वाणी-पढ़ते हुए आदमी रोगी हो गया

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान
भीतर ताप जू जगत का, घड़ी न पड़ती सान

पढ़ते और गुनते हुए आदमी का अभिमान बढ़ता गया। उसके अंतर्मन में जो तृष्णाओं और इच्छाओं की अग्नि जलती है उसके ताप से उसे मन में कभी शांति नहीं मिलती है।
हरि गुन गावे हरषि के, हिरदय कपट न जाय
आपन तो समुझै नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान के भजन और गुण तो नाचते हुए गाते तो बहुत लोग हैं पर उनके हृदय से कपट नहीं जाता। इसलिये उनमे भक्ति भाव और ज्ञान नहीं होता परंतु वह दूसरों के सामने अपना केवल शाब्दिक ज्ञान बघारते है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वर्तमान काल में शिक्षा का प्रचार प्रसार तो बहुत हुआ है पर अध्यात्मिक ज्ञान की कमी के कारण आदमी को मानसिक अशांति का शिकार हुआ है। वर्तमान काल में जो लोग भी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं उनका उद्देश्य उससे नौकरी पाना ही होता है-उसमें रोजी रोटी प्राप्त करने के साधन ढूंढने का ज्ञान तो दिया जाता है पर अध्यात्म का ज्ञान न होने के कारण भटकाव आता है। बहुत कम लोग हैं जो शिक्षा प्राप्त कर नौकरी की तलाश नहीं करते-इनमें वह भी उसका उपयोग अपने निजी व्यवसायों में करते हैं। कुल मिलाकर शिक्षा का संबंध किसी न किसी प्रकार से रोजी रोटी से जुड़ा हुआ है। ऐसे में आदमी के पास सांसरिक ज्ञान तो बहुत हो जाता है पर अध्यात्मिक ज्ञान से वह शून्य रहता है। उस पर अगर किसी के पास धन है तो वह आजकल के कथित संतों की शरण में जाता है जो उस ज्ञान को बेचते हैं जिससे उनके आश्रमों और संस्थानों के अर्थतंत्र का संबल मिले। जिसे अध्यात्मिक ज्ञान से मनुष्य के मन को शांति मिल सकती है वह उसे इसलिये नहीं प्राप्त कर पाता क्योंकि वह अपनी इच्छाओं और आशाओं की अग्नि में जलता रहता है। कुछ पल इधर उधर गुजारने के बाद फिर वह उसी आग में आ जाता है।
जिन लोगों को वास्तव में शांति चाहिए उन्हें अपने प्राचीन ग्रंथों में आज भी प्रासंगिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। यह अध्ययन स्वयं ही श्रद्धा पूर्वक करना चाहिए ताकि ज्ञान प्राप्त हो। हां, अगर उन्हें कोई योग्य गुरू इसके लिये मिल जाता है तो उससे ज्ञाना भी प्राप्त करना चाहिए। यह जरूरी नहीं है कि गुरु कोई गेहुंए वस्त्र पहने हुए संत हो। कई लोग ऐसे भी भक्त होते हैं और उनसे चर्चा करने से भी बहुत प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिये सत्संग में जाते रहना चाहिये।
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Saturday, June 13, 2009

चाणक्य नीति-ईख में गुड़ की तरह ही आत्मा है देह में

वाचः शौचं च मनसः शौचन्द्रियनिग्रहः।
सर्वभूतिे दया शौचं एतच्छौत्रं पराऽर्थिनाम्।।
हिंदी में भावार्थ-
वाणी की पवित्रता, मन की स्वच्छता, इंन्द्रियों पर नियंत्रण, समस्त जीवों पर दया और भौतिक साधनों की शुद्धता ही वास्तव में धर्म है।
पुष्पे गंधं तिले तैलं काष्ठेऽग्निं पयसि घृतम्।।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्चाऽऽत्मानं विवेकतः।।
हिंदी में भावार्थ-
पुष्पों में सुंगध, तिल में तेल, लकड़ी में आग और ईख में गुड़ प्रकार विद्यमान होते हुए भी दिखाई नहीं देता वैसे ही शरीर में आत्मा का निवास है। इस बात को विवेकशील व्यक्ति ही समझ पाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस विश्व में अनेक प्रकार के धर्म प्रचलन में आये हैं और हरेक में एक मध्यस्थ होता है जो उसका आशय समझाता है-आम आदमी उसकी बात पर ही यकीन कर लेता है। अनेक तरह की कहानियां सुनाकर लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन किया जाता है। धर्म के नाम पर शांति की बात इसलिये की जाती है क्योंकि उसी के नाम पर सबसे अधिक झगड़े होते हैं। कहीं धार्मिक मध्यस्थ का प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ होता है तो कहीं उसका सामाजिक महत्व ही इस प्रकार का होता है उसे राज्य और समाज से अप्रत्यक्ष रूप में लाभ मिलता है। धर्म के आशय इतने बड़े कर दिये गये हैं कि लोगों को यही पता नहीं रह जाता कि वह क्या है?
धर्म का आशय है वाणी, मन और विचारों में शुद्धता होना साथ ही अपने नियमित कर्म मेें पवित्रता रखना। केवल मनुष्य ही नहीं सभी प्रकार के जीवों पर दया करना ही मनुष्य का धर्म है। शेष बातें तो केवल सामाजिक एवं जातीय समूह बनाकर शक्तिशाली लोग उन पर नियंत्रण बनाये रखने के लिये करते हैं।

अक्सर लोग आत्मा को लेकर भ्रमित रहते हैं। उनके लगता है कि अपनी इंद्रियों से जो सुनने, बोलने, देखने और खाने की क्रियायें हम कर रहे हैं। यह केवल एक संकीर्ण सोच है। यह हमारी देह है जिसकी समस्त इंद्रियां स्वतः इसलिये कर पाती हैं क्योंकि आत्मा उनको ऊर्जा देती है। वही आत्मा हम है। जिस तरह ईख (गन्ने) में गुड़ दिखाई नहीं देता उसी तरह आत्मा भी नहीं दिखाई देता। जिस तरह एक गन्ने को निचोड़कर उसमें से गुड़ निकालने पर दिखाई देता है इसलिये इं्रद्रियों पर नियंत्रण कर जब उनहें निचोड़ा जाये तभी वह आत्मा दिखाई देता है। ध्यान योगासन,प्राणायम और भक्ति भाव से जीवन गुजारना ही वह प्रक्रिया है जिससे अपने आत्मा का दर्शन किया जा सकता है।
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Thursday, June 11, 2009

संत कबीरदास वाणीः भौतिक विषयों के शिक्षक कभी अध्यात्मिक गुरु नहीं कहलाते (kabir ke dohe)

शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो गुरु जीवन रहस्यों का शब्द ज्ञान दे वही गुरु है। जो गुरु केवल भौतिक शिक्षा देता है उसे गुरु नहीं माना जा सकता। गुरु तो उसे ही कहा जा सकता है जो भगवान की भक्ति करने का तरीका बताता है।

पंख होत परबस पयों, सूआ के बुधि नांहि।
अंकिल बिहूना आदमी, यौ बंधा जग मांहि।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं बुद्धिमान पक्षी जिस तरह पंख होते हुए भी पिंजरे में फंस जाता है वैसे ही मनुष्य भी मोह माया के चक्क्र में फंसा रहता है जबकि उसकी बुद्धि में यह बात विद्यमान होती है कि यह सब मिथ्या है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वर्तमान शिक्षा पद्धति में विद्यालयों और महाविद्यालयों में अनेक शिक्षक छात्रों को अपनी अपनी योग्यता के अनुसार पाठ्यक्रमों का अध्ययन कराते हैं पर उनको गुरु की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वर्तमान शिक्षा के समस्त पाठयक्रम केवल छात्र को नौकरी या व्यवसाय से संबंधित प्रदान करने के लिये जिससे कि वह अपनी देह का भरण भोषण कर सके। अक्सर देखा जाता है कि उनकी तुलना कुछ विद्वान लोग प्राचीन गुरुओं से करने लगते हैं। यह गलत है क्योंकि भौतिक शिक्षा का मनुष्य के अध्यात्मिक ज्ञान से कोई संबंध नहीं होता।

उसी तरह देखा गया गया है कि अनेक शिक्षक योगासन, व्यायाम तथा देह को स्वस्थ रखने वाले उपाय सिखाते हैं परंतु उनको भी गुरुओं की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। हां, ध्यान और भक्ति के साथ इस जीवन के रहस्यों का ज्ञान देने वाले ही लोग गुरु कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि जिनसे अध्यात्मिक ज्ञान मिलता है उनको ही गुरु कहा जा सकता है। वैसे आजकल तत्वज्ञान का रटा लगाकर प्रवचन करने वाले भी गुरु बन जाते हैं पर उनको व्यापारिक गुरु ही कहा जाना चाहिये। सच्चा गुंरु वह है जो निष्काम और निष्प्रयोजन भाव से अपने शिष्य को अध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करता है।
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Wednesday, June 10, 2009

चाणक्य नीतिः अधिकारी कभी कामना रहित नहीं होता

निस्पृहो नाऽधिकारी स्यान्नाकामी मण्डनप्रियः।
नाऽविदग्धः प्रियं ब्रूयात् स्पष्टवक्ता न वंचकः।।

हिंदी में भावार्थ-अधिकारी कभी इच्छा और लोभ रहित, श्रृंगार का रसिक निष्काम, मूर्ख मधुरवाणी तथा स्पष्टवादी कभी धोखा देने वाला नहीं होता।
अभ्यासाद्धर्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
अभ्यास से ज्ञान और गुण और शील से कुलप्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती है। मनुष्य अपने गुणों से पहचाना जाता है और उसका क्रोध नेत्रों से प्रकट होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जहां किसी व्यक्ति को कोई अधिकार मिला है वहां वह लोभ और कामना रहित नहीं हो सकता। कहते हैं न कि ‘घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या?‘ मनुष्य में अधिकार आने पर अहंकार आ ही जाता है। ऐसे विरले ही लोग होत हैं जो आत्मज्ञान से युक्त होने पर अधिकार आने पर पर लालची नहीं होते। सच बात तो यह है कि आदमी अपने कर्तव्य बोध से अधिक अपने अधिकार पर अहंकार करता है।
जहां मनुष्य अधिकारी है वहां इस बात को भूल जाता है कि उसका कर्तव्य क्या है? वह बस अधिकार की बात करता और सोचता है। अगर उसके साथ वह अपने कर्तव्य के निर्वहन का अभ्यास करे तो उसके अधिकार स्वतः बने रह सकते हैं पर इसके विपरीत वह बिना कर्तव्य के अधिकार चाहता है। इसी कारण वह अलोकप्रिय होता है। अपने कर्तव्य निर्वाह के अभ्यास करने पर जहां मनुष्य की लोक प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है और न करने पर वह अपयश का भागी बनता है। विश्व में जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्होंने लोक प्रतिष्ठा इसलिये अर्जित की क्योंकि उन्होंने अपने कर्तव्य निर्वहन का निरंतर अभ्यास किया। जहां केवल अपने लिये अधिकारों की लड़ाई होती है वहां लड़ाई झगड़े और वैमनस्य फैलता है। विश्व में जो हम इस समय तनाव का वातावरण देख रहे हैं उसका कारण यही है कि लोग अपने अधिकार की बात तो करते हैं पर कर्तव्य के विषय में खामोश हो जाते हैं। अगर अधिकारी अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति सजग हों तो ही परिवार, समाज और राष्ट्र में शांति रह सकती है।
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Tuesday, June 9, 2009

संत कबीर वाणीः सितारों की बैठक में चांद पाता है सम्मान

तारा मण्डल बैठि के, चांद बड़ाई खाय।
उदै भया जब सूर का, तब तारा छिपि जाय।।


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आसमान में तारा मंडल में बैठकर चांद बढ़ाई प्राप्त करता है पर जैसे ही सूर्य नारायण का उदय होता है वैसे ही तारा मंडल और चंद्रमा छिप जाते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जहां अज्ञान होता है वह थोड़ा बहुत ज्ञान रट लेते हैं और उसी के सहारे प्रवचन कर अपने आपको विद्वान के रूप में प्रतिष्ठत करते हैं। आज के भौतिकतावादी युग में विज्ञापन की महिमा अपरंपार हो गयी है। इसने आदमी की चिंतन, मनन, अनुसंधान और अभिव्यक्ति क्षमता लगभग नष्ट कर दिया है। मनोरंजन के नाम पर लोग टीवी, अखबार तथा इंटरनेट पर सामग्री तलाशते हैं जो कि बाजार और विज्ञापन के सहारे ही हैं। इन विज्ञापनों में आदमी का सोच का अपहरण कर लिया है। उनकी सहायता करते हैं वह धार्मिक लोग जिनके पास रटा रटाया ज्ञान है और वह लोगों को तत्व ज्ञान से दूर रहकर केवल परमात्मा के स्वरूपों की कथायें मनोरंजन के रूप में सुनाकर भक्ति करवाते हैं।

सच बात तो यह है कि ज्ञान का सपूर्ण स्त्रोत है ‘श्रीमद्भागवत गीता’। पर हमारे कथित धार्मिक ज्ञानियों ने उसका केवल सन्यासियों के लिये अध्ययन करना उपयुक्त बताया है। यही कारण है कि काल्पनिक फिल्मों के नायक और नायिकाओं को देवता के रूप में प्रतिष्ठत कर दिया जाता है। लोग सत्संग की चर्चा की बजाय आपसी वार्तालाप में उनकी अदाओं और अभिनय की चर्चा करते हुए अपना खाली समय बिताना पसंद करते हैं। इन अभिनय को सितारा भी कहा जाता है-अब इन सितारों में कितनी अपनी रौशनी है यह समझा जा सकता है। वह लोग संवाद दूसरों को लिखे बोलते हैं। नाचते किसी दूसरे के इशारों पर हैं। हर दृश्य में उनके अभिनय के लिये कोई न कोई निर्देशक होता है।

उसी तरह ऐसे लोग भी समाज सेवी के रूप में प्रतिष्ठत हो जाते हैं जिनका उद्देश्य उसके नाम पर चंदा वसूल कर अपना धंधा करना होता है। इतना ही नहीं वह लोग महान लेखक बन जाते हैं जो भारतीय अध्यात्म के विपरीत लिखते हैं और जो उस पर निष्काम भाव से लिखते हैं उनको रूढि़वादी और पिछड़ा माना जाता है। कुल मिलाकर इस दुनियां में एक कृत्रिम दुनियां भी बना ली गयी है जो दिखती है पर होती नहीं है।
हमारे देश के लोगों को कथित आधुनिक विचारों के नाम पर ऐसे जाल में फंसाया गया है जिसमें चंद्रमा की तरह उधार की रौशनी लेकर अपनी शेखी स्वयं बघारने वाले ही सम्मान पाते हैं। इस जाल में वह लोग नहीं फंसते जो भारतीय अध्यात्म में वर्णित तत्व ज्ञान के पढ़, सुन और समझ कर धारण कर लेते हैं। भारतीय अध्यात्म ज्ञान तो सूर्य की तरह है जिसमें इस प्रथ्वी पर मौजूद हर चीज की सत्यता को समझा जा सकता है। यही कारण है कि व्यवसायिक कथित समाजसेवी, विद्वान, लेखक और संत उससे लोगों को परे रखने के लिये अपना सम्मान करने की अप्रत्यक्ष रूप से देते हैं।
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Monday, June 8, 2009

भर्तृहरि शतकः भक्ति में वणिकवृत्ति का त्याग करें (hindu dharm and thought on the money in hindi)

कि वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रेर्महाविस्तजैः स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।
मुक्त्वैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानलं स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषाः वणिगवृत्तयं:।।


हिंदी में भावार्थ- वेद, स्मुतियों और पुराणों का पढ़ने और किसी स्वर्ग नाम के गांव में निवास पाने के लये कर्मकांडों को निर्वाह करने से भ्रम पैदा होता है। जो परमात्मा संसार के दुःख और तनाव से मुक्ति दिला सकता है उसका स्मरण और भजन करना ही एकमात्र उपाय है शेष तो मनुष्य की व्यापारी बुद्धि का परिचायक है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने जीवन यापन के लिये व्यापार करते हुए इतना व्यापारिक बुद्धि वाला हो जाता है कि वह भक्ति और भजन में भी सौदेबाजी करने लगता है और इसी कारण ही कर्मकांडों के मायाजाल में फंसता जाता है। कहा जाता है कि श्रीगीता चारों वेदों का सार संग्रह है और उसमें स्वर्ग में प्रीति उत्पन्न करने वाले वेद वाक्यों से दूर रहने का संदेश इसलिये ही दिया गया है कि लोग कर्मकांडों से लौकिक और परलौकिक सुख पाने के मोह में निष्काम भक्ति न भूल जायें।

वेद, पुराण और उपनिषद में विशाल ज्ञान संग्रह है और उनके अध्ययन करने से मतिभ्रम हो जाता है। यही कारण है कि सामान्य लोग अपने सांसरिक और परलौकिक हित के लिये एक नहीं अनेक उपाय करने लगते हंै। कथित ज्ञानी लोग उसकी कमजोर मानसिकता का लाभ उठाते हुए उससे अनेक प्रकार के यज्ञ और हवन कराने के साथ ही अपने लिये दान दक्षिणा वसूल करते हैं। दान के नाम किसी अन्य सुपात्र को देने की बजाय अपन ही हाथ उनके आगे बढ़ाते हैं। भक्त भी बौद्धिक भंवरजाल में फंसकर उनकी बात मानता चला जाता है। ऐसे कर्मकांडों का निर्वाह कर भक्त यह भ्रम पाल लेता है कि उसने अपना स्वर्ग के लिये टिकट आरक्षित करवा लिया।

यही कारण है कि कि सच्चे संत मनुष्य को निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया करने के लिये प्रेरित करते हैं। भ्रमजाल में फंसकर की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। इसके विपरीत तनाव बढ़ता है। जब किसी यज्ञ या हवन से सांसरिक काम नहीं बनता तो मन में निराशा और क्रोध का भाव पैदा होता है जो कि शरीर के लिये हानिकारक होता है। जिस तरह किसी व्यापारी को हानि होने पर गुस्सा आता है वैसे ही भक्त को कर्मकांडों से लाभ नहीं होता तो उसका मन भक्ति और भजन से विरक्त हो जाता है। इसलिये भक्ति, भजन और साधना में वणिक बुद्धि का त्याग कर देना चाहिये।
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Saturday, June 6, 2009

चाणक्य नीतिःसतत अभ्यास है सफलता का मंत्र

जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्वते घटः।
स हेतु सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य चः।।
हिंदी में भावार्थ-
पानी की एक एक बूंद से जिस तरह घड़ा भर जाता है उसी प्रकार थोड़े से अभ्यास से सभी प्रकार विद्यायें, धार्मिक ज्ञान तथा धन प्राप्त किया जा सकता है।
नाहारं विच्तयेत् प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत्।
आहारा हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते।।
हिंदी में भावार्थ-
विद्वान को भोजन तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति की चिंता छोड़कर केवल धर्म संग्रह की चिंता करना चाहिए क्योंकि परमात्मा ने दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था पहले ही कर दी है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में सफलता प्राप्त करने का कोई संक्षिप्त मार्ग नहीं है। जीवन में धीरज के साथ अपने कर्म करने के साथ ही ज्ञानार्जन का अभ्यास सतत करना ही सफलता का मंत्र है। संक्षिप्त मार्ग ढूंढने का आशय है अप्राकृतिक साधनों की तरफ आकर्षित होकर अपने लिये विपत्तियों का बुलाना। लोग एक दिन में ही लखपति और फिर करोड़पति बनना चाहते हैं। सच बात तो यह है कि अवैध या अपराधिक कार्यों में ही यह संभव है पर स्वच्छ और पवित्र व्यवसायों में तो धीरज के साथ ही उन्नति की तरफ बढ़ा जाता है। इस बात पर विचार कर सुख के साथ शांति पूर्वक जीवन की इच्छा करने वालों को अपने व्यवसाय और नौकरी के साथ ही अध्यात्मिक विषयों में भी रुचि लेना चाहिए।
इतना ही नहीं जीवन में परिश्रम से बचने का कोई प्रयास नहीं करना चाहिए। काम करने से ही आत्मविश्वास बढ़ता है और इसके लिये जरूरी है कि अपने प्रयास में नैतिकता और ईमानदारी बरतें। अपने व्यवसाय और अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति के कार्य के निरंतर अभ्यासरत रहने से उपलब्धियों प्राप्त होती हैं और इस पर विश्वास करना चाहिए।
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Thursday, June 4, 2009

संत कबीर वाणी-जादू टोने के चक्कर में मत पड़ो

जंत्र मंत्र सब झूठ है, मति भरमो जग कोय।
सार शब्द जानै बिना, कागा हंस न होय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जादू टोना और जंत्र मंत्र सब झूठ है और उनके चक्कर में मत पड़ो। शब्द ज्ञान के बिना कोई कौवा हंस नहीं हो सकता।
सार शब्द जानै बिना, जिव परलै में जाय।
काया माया थिर नहीं, शब्द लेहु अरथाय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि शब्द ज्ञान के बिना इंसान प्रलय मे फंस जाता है। माया तो स्थिर नहीं है इसलिये शब्द से अर्थ लेना चाहिए-अर्थात इस तत्व ज्ञान को धारण कर लेना चाहिये कि यह संसार नश्वर है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सप्ताह में सात दिन होते हैं और इनमें कुछ जंत्र मंत्र और जादू टोना करने वालों ने अपने लिये कर रखे हैं। खासतौर से मंगलवार, शनिवार और गुरुवार के दिनों में ऐसे कथित सिद्धों और फकीरों की दरबारों में भीड़ लगती है जो दावा करते हैं कि वह सभी का दर्द दूर कर देंगे। यह एक तरह का ढोंग है। यह संसार चक्र स्वतः ही चलता है और समयानुसार संकट आते और जाते हैं। किसी के जंत्र मंत्र या ताबीज से उनका दूर होने का मात्र भ्रम है और कुछ नहीं। ऐसे कथित के पास कोई सिद्धि नहीं होती और न ही उनके पास तत्वज्ञान होता है। वह इस आड़ में प्रत्यक्ष धनार्जन करते हैं या मुफ्त सेवा कर समाज में प्रभाव जमाते हुए अप्रत्यक्ष रूप से अपने हित साधते हैं।
बिना तत्वज्ञान के मनुष्य का उद्धार नहीं हो सकता। उसके बिना वह इस संसार में आने वाले उतार चढ़ाव को चमत्कार और संकट की तरह देखते हुए ऐसे ढोंगियों के यहां जाकर सिर झुकाता है जो स्वयं ही अज्ञान के अंधेरे में भटकते हुए मायावी संसार की समस्याओं को दूर करने का दावा करते हैं। अतः उनके पास जाने की बजाय सच्चे मन से भगवान की भक्ति करना चाहिये।
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Wednesday, June 3, 2009

चाणक्य नीति-अपने मुख में निंदात्मक शब्दों की खेती न करें

स जीवति गुणा यस्य धर्मः स जीवति।
गुणधर्मविहीनस्य जीवतं निष्प्रयोजनम्।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि वही मनुष्य जीवित माना जाता है जिसमें गुण हों और उसने जीवन में धर्म धारण कर लिया है। गुण और धर्म के बिना मनुष्य का जीवन जीना व्यर्थ है।
यदीच्छसि वशीकर्तंु जगदेकेन कर्मणा।
परापवादसस्येभ्यो गां चरंन्तीं निवारथ।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि यदि कोई मनुष्य अपने किसी एक काम से ही सारी पृथ्वी पर अपना नाम करना चाहता है तो बस दूसरों की निंदा त्याग दे। अपने मूंह में किसी दूसरे के प्रतिकूल लगने वाले शब्दों की खेती करना बंद कर देना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिस मनुष्य में दूसरों को प्रभावित करने वाला गुण नहीं है और न ही उसका अपने स्वार्थ के अलावा कोई धर्म है वह जीवित होेते हुए भी मृतक समान है। अपने और परिवार का पेट तो सभी पालते हैं पर जो परोपकार करे वही सच्चा मनुष्य है।
मनुष्य का सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह स्वयं कोई धर्म या परोपकार किये बिना ही अपने को ज्ञानी और परोपकारी प्रमाणित करना चाहता है। इसके लिये वह दूसरों की निंदा करता है। अक्सर वार्तालाप में अज्ञानी लोग अपने मुख से दूसरे के लिये निंदात्मक शब्द कहकर यह साबित करते हैं कि अमुक दुर्गुण हमारे अंदर नहीं है या दूसरे के मुकाबले हमारे अंदर यह गुण है। देखा जाये तो इस विश्व में अधिकतर झगड़े इसी बात को लेकर होते हैं कि सभी अपने को श्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं पर उसके लिये वह कोई सात्विक काम नहीं करना चाहते। ज्ञानी आदमी को किसी की न तो निंदा करना चाहिए न ही किसी में दोष देखना चाहिए। हो रहा है उल्टा! लोग एक दूसरे को नीचा बताते हुए आक्रामक रूप से अपनी श्रेष्ठता साबित करना चाहते हैं। सच बात तो यह है कि दूसरे के प्रति बुरा सोचना और बोलना अगर लोग कम कर दें तो पूरे विश्व में शांति स्वतः आ जाये।
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