Saturday, September 25, 2010

पतंजलि योग साहित्य-बुद्धि और पुरुष के अंतर जानने वाला ही ज्ञानी (buddhi aur purush ka antar-patanjali yog vigyan)

सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभाधिष्ठास्तृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च।
हिन्दी में भावार्थ-
बुद्धि और पुरुष (आत्मा) के अंतर का आभास जिसे समझ में आ जाता है ऐसा समाधिस्थ योगी सभी प्रकार के भावों पर स्वामित्व प्राप्त कर लेता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम क्या हैं? बुद्धि कहती हैं कि मै हूं और मन इस अहंकार के बोध में बेलगाम विचरण करता है। दैहिक क्रियाओं में कर्तापन की अनुभूति आदमी को ज्ञान से परे कर देती है। आदमी यानि अध्यात्म! पुरुष हो या स्त्री वास्तव में परमात्मा का अंश आत्मा है! वह इस देह को धारण किये है इसलिये उसे अध्यात्म भी कहा जाता है। वह कर्ता नहीं दृष्टा है मगर योग साधना से विरत मनुष्य की बुद्धि इस ज्ञान को ग्रहण नहीं करने देती और मन इधर से उधर उसे दौड़ाता है।
हम आत्मा है! न वह खाता है न वह पीता है न वह सोचता है न बोलता है। यह सारे कार्य तो उस देह के अंग स्वतः कर रहे हैं जिसको आत्मा यानि हमने धारण किया है। देह की आवश्यकतायें असीमित पर अध्यात्म की भूख सीमित है। वह केवल ज्ञान के साथ जीना चाहता है। वह दृष्टा तभी बन सकता है जब हम योग के द्वारा अपनी इंद्रियों के गुणों से उसे सुसज्जित करें। इसके लिये जरूरी है कि ध्यान करते हुए समाधि के माध्यम से उन पर नियंत्रित कर उनका स्वामी बनने का प्रयास किया जाये। नाक है तो सुगंध ग्रहण करेगी, आंख है तो देखेगी और कान है तो सुनेंगे। बुद्धि का काम है विचार करना और मन का काम है इधर उधर विचरण करना। ऐसे में हम अध्यात्मिक ज्ञान को तभी प्राप्त कर सकते हैं कि जब संकल्प धारण करें। सदैव बहिर्मुखी रहने की बजाय अंतर्मुखी होने का प्रयास भी करें। जब हम अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर अपने अध्यात्म से संपर्क कर लेंगे तो वह दृष्टा भाव को प्राप्त होगा तब निराशा, प्रसन्न्ता, शोक तथा हर्ष के भाव पर स्वामित्व प्राप्त हो जायेगा। जिस तरह स्वामी अपने अनुचरों के कर्म से विचलित नहीं होता और मानता है कि यह काम तो उनको करना ही है उसी तरह हम भी यह देखने लगेंगे कि शरीर के अंग हमारे सेवक है और उनको काम करना है तब ऐसा आनंद प्राप्त होगा जो विरलों को ही प्राप्त होता है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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Wednesday, September 22, 2010

मनुस्मृति-अभिवादन का उत्तर जो नहीं जानते उनको प्रणाम न करें (manu smriti in hindi-abhivadan aur pranam(

यो न वेत्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।
नाभिवाद्य स विदुषा यथा शूर्दस्तथैव सः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो अभिवादन का उत्तर देना नहीं जानता उसे प्रणाम नहीं करना क्योंकि वह इस सम्मान के अयोग्य होता है।
अवाच्यो तु या स्त्री स्वादसम्बद्धा य योनितः।
भोभवत्पूर्वकं त्वनेमभिभाषेत धर्मवित्।।
हिन्दी में भावार्थ-
धर्म का ज्ञान रखने वाले को चाहिए कि वह दूसरे ज्ञानी को कभी भी नाम से संबोधित न करे भले ही वह उससे छोटी आयु का क्यों न हो। उसको हमेशा सम्मान से संबोधित करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या  -हमेशा मीठी वाणी में बोलकर दूसरों को प्रसन्न करना चाहिए। अपने से बड़ों का सम्मान करना हमारा धर्म है। निसंदेह इस संसार में विनम्र व्यवहार से मनुष्य विजय प्राप्त करता है। मगर इस संसार में ही लोग भी दो प्रकार के होते हैं-एक आसुरी संपदा तो दूसरे दैवीय संपदा लेकर उत्पन्न होते हैं, यह बात भी ध्यान रखने योग्य हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो विनम्र व्यवहार को कायरता और उदारता को कमजोरी समझकर दुर्व्यवहार करने पर आमादा हो जाते हैं। ऐसे लोगों को दंडित करना भी हमारा धर्म है।
इसलिये जो लोग अभिवादन का उत्तर न देते हों या अहंकारवश मजाक उड़ाते हों उनका कभी स्वयं अभिवादन नहीं करना चाहिए। जहां तक हो सके उनके सामने आने से बचना चाहिए। इस संसार में आसुरी संपदा लेकर उत्पन्न हुए कुछ लोग ऐसे हैं जिनका अभिवादन करने पर सिवाय अपमान के कुछ नहीं मिलता। उनका अभिवादन करना तो दूर उनके चेहरे की तरफ दृष्टि नहीं डालना चाहिए।
उसी तरह दैवीय संपदा लेकर उत्पन्न सहृदयजनों का सम्मान करना भी आवश्यक है भले ही आयु में वह छोटे क्यों न हों? सच बात तो यह है कि योग्यता, प्रतिभा तथा सज्जनता के गुणों होने के लिये आयु का छोटा या बड़ा होना जिम्मेदार नहीं है। अनेक लोग बड़ी आयु होने पर भी अपना विवेक नहीं खोते। अतः अपने से कम आयु के व्यक्ति की योग्यता देखकर उसका सम्मान करना चाहिए। सामने आने पर उसे पहले अभिवादन करना भी अच्छी बात है। उस समय पहले अभिवादन करने में संकुचित मानसिकता नहीं दिखाना चाहिए।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,Gwalior
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Saturday, September 18, 2010

मनुस्मृति-ज्ञान देने वाला छोटा हो तो भी सम्मानीय (gyani sammaniya-manu smruti in hindi)

ब्राह्मस्य जन्मनः कर्त्ता स्वधर्मस्य च शासिता।
बालोऽपि विप्रो वृद्धास्य पिता भवति धर्मतः।।
हिन्दी में भावार्थ-
ज्ञान देकर दूसरा जन्म देने के साथ ही अपने धर्म का संदेश देने वाला विद्वान चाहे बालक ही क्यों न हो वह धर्म के अनुसार वृद्ध तथा पिता की तरह आदरणीय होता है।
न तेन वृद्धो भवित येनास्य पलितं शिरः।
यो वै युवाऽष्यधीमानस्तं देवाः स्थविरं विदुः।।
हिन्दी में भावार्थ-
बाल सफेद होने से कोई बड़ा या आदरणीय नहीं होता। ज्ञान प्राप्त करने के बाद तो युवा भी बुद्धिमान लोगों की दृष्टि से पूज्यनीय होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक लोग दावा करते हैं कि उन्होंने अपने बाल धूप में सफेद नहीं किये तो कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि ज्ञान देने का काम काम केवल उच्च वर्ण के विद्वानों का है। कुछ लोगों में यह भी भ्रम है कि वेदों का ज्ञान केवल पंडित जाति के लोगों का ही है। मनृस्मृति के आधार पर इसका प्रचार खूब होता है। जब मनुस्मृति का अध्ययन करते हैं तो उससे पता लगता है कि चारों वर्णों के लोग अपना स्वाभाविक कर्म करते हैं। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि हमारे स्वाभाविक कर्म ही हमारे वर्ण का परिचायक है।
संसार का ज्ञान प्राप्त करना दूसरा ही जन्म माना जाता है यानि जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली वही पंडित हो गया। ज्ञान देने वाला किसी भी जाति में जन्मा हो, उसकी आयु छोटी हो या बड़ी वह पंडित ही है। बुद्धिमान लोग इसलिये ही ज्ञान को परख कर सम्मान प्रदान करते हैं। जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्रीय आधार पर बने कथित समाजों में जन्म लेने से कोई छोटा या बड़ा नहीं होता बल्कि जिसने तत्व ज्ञान को समझ लिया और भारतीय अध्यात्म के मर्म को ग्रहण कर लिया वही पंडित है। वैसे भी बड़प्पन इस बात में है कि दूसरो पर उपकार किया जाये वरना अपनी शक्ति किस काम की? यही कारण है कि समझदार लोग केवल उन्हीं लोगों को सम्मानीय मानते हैं जो समाज के हित के लिये काम करते हैं।
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Saturday, September 11, 2010

पतंजलि योग विज्ञान-जीवन में सकारात्मक भाव लाने के प्रयास करें (exercise for positive think-patanjali yoga darshan)

वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखज्ञानान्तफला इतिप्रतिक्षभावनम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
हिंसा आदि का भाव वितर्क कहलाते हैं जिन पर आधारित बुरे कर्म स्वयं या दूसरों से करवाये जाते हैं या उनका अनुमोदन किया जाता है। यह वितर्क वाला भाव लोभ, क्रोध और मोह के कारण पैदा होता है। यह भाव दुःख और अज्ञान के रूप में फल प्रदान करते हैं अतः उनके लिये प्रतिपक्षी विचार करना चाहिए।
वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनाम्।
हिन्दी में भावार्थ-
जब वितर्क और यम नियम में बाधा पहुंचाये तब उनके प्रतिपक्षी विचारों का ध्यान करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आधुनिक सभ्यता के विशेषज्ञ अक्सर सकारात्मक भाव को जीवन की सफलता का मूल मंत्र बताते हैं। अनेक अनुभवी लोग भी सभी को सकारात्मक विचाराधारा रखने की सलाह देते हैं पर यह भाव आये कैसे इसे कोई नहीं बता सकता क्योंकि इसके लिये मनुष्य मन के रहस्य को समझना जरूरी है जिसे कोई विरले ही समझ पाते हैं। पतंजलि योग सूत्र को विज्ञान इसलिये भी कहा जाता है क्योंकि वह मनुष्य की देह, मन तथा विचारों में शुद्धता लाने का मार्ग भी बताता है।
मनुष्य का मन चंचल और बुद्धि में कुटिलता का भाव स्वाभाविक रूप से रहता है। इसलिये ही अज्ञानी मनुष्य व्यसनों की तरफ आकर्षित होता है जो कि उसके लिये देह के लिये हानिकारक हैं और वह जरा जरा बात पर क्रोध का शिकार होता है जो कि उसके लिये मानसिक तनाव का कारण बनता है। इन पर नियंत्रण करने के लिये राय देना आसान है पर इसका मार्ग जाने बिना कोई भी आत्मनियंत्रण नहीं कर सकता। इसके लिये अभ्यास की आवश्यकता है। इस अभ्यास का तरीका यह है कि जब हमारे अंदर आवेश, निराशा या अस्थिरिता का भाव आता है तब हमें अपने समक्ष उपस्थित प्रसंग पर विपरीत दृष्टिकोण पर भी विचार करना चाहिए। जब किसी की बात पर गुस्सा आता है तब हमें यह भी देखना चाहिए कि कहीं सामने वाले की बात सही तो नहीं है, अगर वह गलत है तो यह भी जानने का प्रयास करना चाहिए कि वह किसी अन्य की प्रेरणा से तो यह नहीं कह रहा। इसके बाद उस बात को अनसुना करने का प्रयास भी करना अच्छा रहता है। उसी समय यह भी विचार करना चाहिये कि आखिर क्रोध करने के परिणाम क्या होंगे। उसके बाद इस बात पर भी चिंतन करना चाहिये कि इस जीवन में प्रसन्नता लाने के लिये अन्य विषय भी हैं जिससे ध्यान अच्छी बात की तरफ चला जाये। कोई गाली दे तब अपने अंदर ओम शब्द का ध्यान करें और जब कोई लड़ने आये तो विनम्रता और मौन का मार्ग अपनायें जिससे तत्काल न केवल तनाव समाप्त होता है बल्कि एक प्रकार से अलौकिक प्रसन्नता भी प्राप्त होती है।
हमारे जीवन में अनेक लोग संपर्क में आते हैं। कई लोग दुःख देते हैं तो कोई प्रसन्नता देते हैं। जो दुःख का हेतु हैं उनका स्मरण होने पर अपना ध्यान प्रसन्न करने वाले लोगों की तरफ लाना चाहिये। इसके कष्ट आने पर आनंद के गुजरे पलों का स्मरण कर अपने अंदर यह दृढ़ भाव स्थापित हो जाता है कि समय की बलिहारी है वह अच्छा समय नहीं रहा तो यह बुरा भी नहीं रहेगा। इसी तरह अभ्यास करने से ही सकारात्मक भाव पैदा किया जा सकता है।
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Saturday, September 4, 2010

विदुर नीति-अधिक विश्वास किसी पर न करें (adhik vishvas na karen-vidur neeti in hindi)

अनीर्षुर्गुप्तदारश्च संविभागी पियंवदः।
श्लक्ष्णो मधुरपाक् स्वीणां न चासां वशगो भवेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य ईर्ष्या रहित, स्त्रियों की रक्षा करने वाला, संपत्ति का न्यायपूर्वक बांटने वाला, प्रिय वाणी बोलने वाला, साफ सुथरा तथा स्त्रियों से सद्व्यवहार करने वाला हो परंतु किसी के वश में न हो।
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस मनुष्य का विश्वास प्रमाणिक न हो उस पर तो विश्वास करना ही नहंी चाहिए पर जिस पर जो योग्य हो उस भी अधिक विश्वास न करें। विश्वास से जो भय उत्पन्न होता है वह मूल लक्ष्य को ही नष्ट कर डालता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जहां तक हो सके मनुष्य को अपने विवेक से काम लेना चाहिये। सुनना सभी की चाहिए पर करना तो मन की ही ठीक रहता है।। अनेक लोग दूसरों के कहने में आकर अपनी हानि कर डालते हैं। हर कोई अपनी शक्ति और लक्ष्यों के बारे में अधिक केवल स्वयं ही जान सकता है। दूसरा उसे राय दे सकता है पर इसका अर्थ कदापि नहीं कि उसे मान लिया जाये। दूसरे की बात पर विचार करना चाहिये पर निर्णय लेते समय अपने विवेक का उपयोग करना ही अच्छा है।
इस संसार में बिना विश्वास किये काम नहीं चल सकता पर उसकी सीमायें हैं। हम अनेक बाद अपने मन की बात दूसरे से यह प्रमाण पत्र लेने के बाद उसे बता देते हैं कि वह किसी से कहेगा नहीं पर उस समय यह सोचना चाहिए कि जब हम अपनी बात स्वयं मन में नहीं रख सके तब दूसरा कैसे रखेगा? अतः विश्वास एक सीमा तक ही करना चाहिये।
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Thursday, September 2, 2010

मनुस्मृति-दो प्रकार का शांत आसन (manu smruti-shant aasan)

मनु स्मृति में कहा गया है कि
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क्षीणस्य चैव क्रमशो दैवात् पूर्वकृतेन वा।
मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम्।।

           
हिन्दी में भावार्थ-जब शक्ति क्षीण हो जाने पर या अपनी गलतियों के कारण चुप बैठना तथा मित्रों की बात का सम्मान करते हुए उनसे विवाद न करना यह दो प्रकार के शांत आसन हैं।
यदावगच्छेदायत्वयामाधिक्यं ध्रृवमात्मनः।
तदा त्वेचाल्पिकां पीर्डा तदा सन्धि समाश्चयेत्।।

           
हिन्दी में भावार्थ-भविष्य में अच्छी संभावना हो तो वर्तमान में विरोधियों और शत्रुओं से भी संधि कर लेना चाहिए।
            वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-किसी भी मनुष्य के जीवन में दुःख, सुख, आशा और निराशा के दौर आते हैं। आवेश और आल्हाद के चरम भाव पर पहुंचने के बाद किसी भी मनुष्य का अपने पर से नियंत्रण समाप्त हो जाता है। भावावेश में आदमी कुछ नहीं सोच पाता। मनु महाराज के अनुसार मनुष्य को अपने विवेक पर सदैव नियंत्रण करना चाहिये। जब शक्ति क्षीण हो या अपने से कोई गलती हो जाये तब मन शांत होने लगता है और ऐसा करना श्रेयस्कर भी है। अनेक बार मित्रों से वाद विवाद हो जाने पर उनके गलत होने पर भी शांत बैठना एक तरह से आसन है। यह आसन विवेकपूर्ण मनुष्य स्वयं ही अपनाता है जबकि अज्ञानी आदमी मज़बूरीवश ऐसा करता है। जिनके पास ज्ञान है वह घटना से पहले ही अपने मन में शांति धारण करते हैं जिससे उनको सुख मिलता है जबकि अविवेकी मनुष्य बाध्यता वश ऐसा करते हुए दुःख पाते हैं।
            जीवन में ऐसे अनेक तनावपूर्ण क्षण आते हैं जब आक्रामक होने का मन करता है पर उस समय अपनी स्थिति पर विचार कना चाहिए। अगर ऐसा लगता है कि भविष्य में अच्छी आशा है तब बेहतर है कि शत्रु और विरोधी से संधि कर लें क्योंकि समय के साथ यहां सब बदलता है इसलिये अपने भाव में सकारात्मक भाव रखते स्थितियों में बदलाव की आशा रखना चाहिए।
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