Saturday, January 21, 2012

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-उपेक्षा कर अपने जीवन मे आनंद लायें (kautilya ka arthshastra-upeksha aur anand)

              राजकर्म और  निज व्यवहार में साम, दाम, दंड और भेद की नीतियों से काम लिया जाता है। जब इन चारों नीतियों का उपयोग समझ में न आये तो क्या करे? हां, ऐसा कई बार अवसर आता है कि हमारा विवेक यह तय नहीं कर पाता कि क्या करें? दरअसल यह बात समझना चाहिए कि हमारे व्यवहार में आने वाले व्यक्ति हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिये तमाम युक्तियां अपनाते हैं जिनसे हम प्रसन्न नहीं होते। कर भी कुछ नहीं पाते।  ऐसे में उपेक्षासन करना ही श्रेयस्कर है। ऐसा हमारा मत है। इसका कारण यह है कि हमारी निष्क्रियता दूसरे को विचलित कर सकती है।  वह हमें अप्रसन्न करने वाली क्रियायें बंद कर देगा।
          आज के युग में इस तरह के आसन का विशेष महत्व है। पहले तो छोटे राज्यों की वजह युद्ध आमतौर से होते थे पर आधुनिक लोकतंत्र प्रणाली से राज्यों स्वरूप बृहद बन जाने से युद्धों की आशंका समाप्त कर दी है। जब भौतिकवाद में डूबे विश्व समाज के लोग अहंकार और मद में एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हों और उनसे बहस करने का कोई परिणाम नहीं निकलता हो तब ज्ञानी आदमी के लिये उपेक्षासन एक तरह से ब्रह्मास्त्र की तरह काम कर सकता है। आपसी वार्तालाप में लोग भौतिक साधनों की चर्चा करते हुए अपनी उपलब्धियों का बखान करने से नहीं चूकते। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों के साथ इंटरनेट में बाज़ार के विज्ञापनों से प्रेरित होकर उपभोग संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे में हमें अपने मन को ऐसी चर्चाओं से मन व्यथित करने की बजाय सात्विक विषयों की तरफ अपना ध्यान ले जाना चाहिए। यह अलग बात है कि इस तरह उपेक्षासन करने पर लोग आपको पौंगापंथी समझें पर सच बात यह है कि इससे आपको आराम मिलेगा। जिस तरह मोर नाचने के बाद अपने गंदे पांव देखकर रोता है उसी आजकल लोग नववर्ष, वैलंटाईन डे तथा अन्य पाश्चात्य पर्व आने पर नाच गाकर और गलत सलत खाकर एंजॉयमेंट यानि आंनद करने का पाखंड करते हैं पर उसके बाद फिर जिंदगी के तनाव उनको घेरकर अधिक दुख देते हैं। पैसा खर्च होने के साथ ही शरीर टूटता है सो अलग।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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आस्त प्रेक्ष्यारिमधिकमुपेक्षासनमुच्यते।
उपेक्षा कृतवानिन्द्र पारिजातग्रहं प्रति।।
              ‘‘जब कोई मनुक्ष्य अपने शत्रु या विरोधी को अपने से अधिक जानकर उसके प्रति उपेक्षा का भाव दिखाता है तब उसे उपेक्षासन कहा जाता है। जब भगवान श्रीकृष्ण ने सत्यभावा के लिये स्वर्ग से कल्पवृक्ष उठा लिया तो देवराज ने अपनी शक्ति को कम मानते हुए उसे युद्ध करने की बजाय उपेक्षासन किया था।"
उपेर्क्षितत्स चान्येस्तु कारणेनेह केन चित्त।
आसनं रुक्मिण इव तदुपेक्षासनं स्पुतम्।।
               ‘‘उसी तरह जिस समय रुक्मणी के भाई रुक्मी ने जब कृष्ण के साथ युद्ध में किसी ने सहायता की तो वह उपेक्षासन कर बैठ गया।’’
                 दरअसल आजकल हम चारों तरफ धन के सहारे फैल रहे आकर्षक वातावरण को देखकर अपने मन में अनेक तरह के सपने पाल लेते हैं। खासतौर से आजकल के मध्यम तथा निम्नवर्गीय युवा फिल्म, इंटरनेट तथा पत्रिकाओं में भौतिकतावाद के चलते आकर्षक संसार के उपभोग का जो सपना देखते हैं वह सभी के लिये साकार होना संभव नहीं है। जिनको विरासत में धन मिलता है वह तो चहकते हैं पर जिनको अपनी रोजी रोटी कमाने के लिये ही संघर्ष करना पड़ता है उनके लिये अपने अभावों का मानसिक तनाव झेलने के अलावा अन्य मार्ग नहीं रह जाता। ऐसे में कुछ युवा बहककर अपराध की तरफ बढ़ जाते हैं। उनके लिये बचने का तो बस यह एक ही मार्ग है कि वह भौतिक संसार के आकर्षण के प्रति उपेक्षासन कर जीवन का आनंद लें।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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