Tuesday, May 27, 2008

भृतहरि शतक:आलस्य शत्रु और पुरुषार्थ मित्र होता है

आलस्यं हिं मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः
नास्त्यद्यम समो बन्धु कुर्वाणे नावसीदति


हिंदी में अर्थ मनुष्य के शरीर में रहने वाला आलस्य ही उसका सबसे प्रबल शत्रू है, वही पुरुषार्थ के समान उसका कोई मित्र नहीं है, जिसके करते रहने से मनुष्य कभी भी कष्ट नहीं पाता।

संपादकीय व्याख्या-हम अपने जीवन में जितना आलस्य करते हैं उसे कभी स्वयं भी अनुभव नहीं कर पाते। वैज्ञानिक कहते हैं कि एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन में अपने दिमाग का केवल दस प्रतिशत ही उपयोग करता है और जो एक प्रतिशत भी इससे अधिक करता है वह श्रेष्ठ लोगो में गिना जाता है। इसक कारण यह है कि हम कई बार ऐसे काम करते हैं जो हमारे लिए केवल मनोरंजन का प्रबंध करते हैं और जो सकारात्मक और लाभ देने वाले है उनसे पीठ फेरना अच्छा लगता क्योंकि उसमें मेहनत होती है। मेरे विचार से आलस्य का आशय यह नहीं है कि हम केवल अनावश्यक रूप से बिस्तर पर सोते हैं बल्कि चलते फिरते अपने मस्तिष्क को वैचारिक क्रिया से दूर रखना भी एक प्रकार का आलस्य है। हम सोचते हैं कि हमारे मस्तिष्क में तनाव पैदा न हो इसलिये ऐसे काम नहीं करते जिनमे सोचना पड़ता है। इस प्रकार मानसिक आलस्य भी एक प्रकार का कष्ट प्रदान करने वाला होता है। जो लोग इस बात की परवाह किये बिना अपना काम करते हैं वही जीवन में सफल होते हैं।

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