Wednesday, December 25, 2013

भर्तृहरि नीति शतक-लोग अपने कर्म को लेकर संशय में ही रहते हैं(bhartrihari neeti shatka-log apne karma ko lekar sanshya mein hi rahate hain)



                        ऐसे विरले लोग ही रहते हैं जो जीवन में एकरसता से ऊबते नहीं है वरना तो सभी यह सोचकर परेशान इधर से उधर घूमते हैं कि वह किस तरह अपना जीवन सार्थक करें। धनी सोचता है कि निर्धन सुखी है क्योंकि उसे अपना धन बचाने की चिंता नहीं है।  निर्धन अपने अल्पधन के अभाव को दूर करने के लिये संघर्ष करता हैं  जिनके पास धन है उनके पास रोग भी है जो उनकी पाचन क्रिया को ध्वस्त कर देते हैं। उनकी निद्रा का हरण हो जाता हैं। निर्धन स्वस्थ है पर उसे भी नींद के लिये चिंताओं का सहारा होता हैं। धनी अपने पांव पर चलने से लाचार है और निर्धन अपने पांवों पर चलते हुए मन ही मन कुढ़ता है। जिनके पास ज्ञान नहीं है वह सुख के लिये भटकते हैं और जिनके पास उसका खजाना है वह भी सोचते हैं कि उसका उपयोग कैसे हो? निर्धन सोचता है कि वह धन कहां से लाये तो धनी उसके खर्च करने के मार्ग ढूंढता है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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तपस्यन्तः सन्तः किमधिनिवासमः सुरनदीं

गुणोदारान्दारानुत परिचरामः सविनयम्।

पिबामः शास्त्रौघानुत विविधकाव्यामृतरासान्

न विद्मः किं कुर्मः कतिपयनिमेषायुषि जने।।

            हिन्दी में भावार्थ-किसी तट पर जाकर तप करें या परिवार के साथ ही आनंदपूर्वक रहे या विद्वानों की संगत में रहकर ज्ञान साधना करे, ऐसे प्रश्न अनेक लोगों को इस नष्ट होने वाले जीवन में परेशान करते हैं। लोग सोचते हैं कि क्या करें या न करें।
            योग और ज्ञान साधकों के लिये यह विचित्र संसार हमेशा ही शोध का विषय रहा है पर सच यही है कि इसका न तो कोई आदि जानता है न अंत है।  सिद्ध लोग परमात्मा तथा संसार को अनंत कहकर चुप हो जाते है।  वही लोग इस संसार को आनंद से जीते हैं। प्रश्न यह है कि जीवन में आनंद कैसे प्राप्त किया जाये?
            इसका उत्तर यह है कि सुख या आनंद प्राप्त करने के भाव को ही त्याग दिया जाये। निष्काम कर्म ही इसका श्रेष्ठ उपाय है। पाने की इच्छा कभी सुख नहीं देती।  कोई वस्तु पाने का जब मोह मन में आये तब यह अनुभव करो कि उसके बिना भी तुम सुखी हो।  किसी से कोई वस्तु मुफ्त पाकर प्रसन्नता अनुभव करने की बजाय किसी को कुछ देकर अपने हृदय में अनुभव करो कि तुमने अच्छा काम किया।  इस संसार में पेट किसी का नहीं भरा। अभी खाना खाओ फिर थोड़ी देर बाद भूख लग आती है।  दिन में अनेक बार खाने पर भी अगले दिन पेट खाली लगता है। ज्ञान साधक रोटी को भूख शांत करने के लिये नहीं वरन् देह को चलाने वाली दवा की तरह खाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि केवल एक रोटी खाई जाये तो पूरा दिन सहजता से गुजारा जा सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि जब हम अपने चंचल मन की प्रकृत्ति को समझ लेंगे तब जीवन सहज योग के पथ पर चल देंगे।  यह मन ही है जो इंसान को पशू की तरह इधर से उधर दौड़ाता है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


यह ब्लाग/पत्रिका विश्व में आठवीं वरीयता प्राप्त ब्लाग पत्रिका ‘अनंत शब्दयोग’ का सहयोगी ब्लाग/पत्रिका है। ‘अनंत शब्दयोग’ को यह वरीयता 12 जुलाई 2009 को प्राप्त हुई थी। किसी हिंदी ब्लाग को इतनी गौरवपूर्ण उपलब्धि पहली बार मिली थी। ------------------------

Sunday, December 22, 2013

भर्तृहरि नीति शतक-मन तो आदमी को इधर से उधर नचाता है(bhritharti neeti shatak-man to admi ko idhar se udhar nachata hai)



                        ऐसे विरले लोग ही रहते हैं जो जीवन में एकरसता से ऊबते नहीं है वरना तो सभी यह सोचकर परेशान इधर से उधर घूमते हैं कि वह किस तरह अपना जीवन सार्थक करें। धनी सोचता है कि निर्धन सुखी है क्योंकि उसे अपना धन बचाने की चिंता नहीं है।  निर्धन अपने अल्पधन के अभाव को दूर करने के लिये संघर्ष करता हैं  जिनके पास धन है उनके पास रोग भी है जो उनकी पाचन क्रिया को ध्वस्त कर देते हैं। उनकी निद्रा का हरण हो जाता हैं। निर्धन स्वस्थ है पर उसे भी नींद के लिये चिंताओं का सहारा होता हैं। धनी अपने पांव पर चलने से लाचार है और निर्धन अपने पांवों पर चलते हुए मन ही मन कुढ़ता है। जिनके पास ज्ञान नहीं है वह सुख के लिये भटकते हैं और जिनके पास उसका खजाना है वह भी सोचते हैं कि उसका उपयोग कैसे हो? निर्धन सोचता है कि वह धन कहां से लाये तो धनी उसके खर्च करने के मार्ग ढूंढता है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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तपस्यन्तः सन्तः किमधिनिवासमः सुरनदीं

गुणोदारान्दारानुत परिचरामः सविनयम्।

पिबामः शास्त्रौघानुत विविधकाव्यामृतरासान्

न विद्मः किं कुर्मः कतिपयनिमेषायुषि जने।।

            हिन्दी में भावार्थ-किसी तट पर जाकर तप करें या परिवार के साथ ही आनंदपूर्वक रहे या विद्वानों की संगत में रहकर ज्ञान साधना करे, ऐसे प्रश्न अनेक लोगों को इस नष्ट होने वाले जीवन में परेशान करते हैं। लोग सोचते हैं कि क्या करें या न करें।
            योग और ज्ञान साधकों के लिये यह विचित्र संसार हमेशा ही शोध का विषय रहा है पर सच यही है कि इसका न तो कोई आदि जानता है न अंत है।  सिद्ध लोग परमात्मा तथा संसार को अनंत कहकर चुप हो जाते है।  वही लोग इस संसार को आनंद से जीते हैं। प्रश्न यह है कि जीवन में आनंद कैसे प्राप्त किया जाये?
            इसका उत्तर यह है कि सुख या आनंद प्राप्त करने के भाव को ही त्याग दिया जाये। निष्काम कर्म ही इसका श्रेष्ठ उपाय है। पाने की इच्छा कभी सुख नहीं देती।  कोई वस्तु पाने का जब मोह मन में आये तब यह अनुभव करो कि उसके बिना भी तुम सुखी हो।  किसी से कोई वस्तु मुफ्त पाकर प्रसन्नता अनुभव करने की बजाय किसी को कुछ देकर अपने हृदय में अनुभव करो कि तुमने अच्छा काम किया।  इस संसार में पेट किसी का नहीं भरा। अभी खाना खाओ फिर थोड़ी देर बाद भूख लग आती है।  दिन में अनेक बार खाने पर भी अगले दिन पेट खाली लगता है। ज्ञान साधक रोटी को भूख शांत करने के लिये नहीं वरन् देह को चलाने वाली दवा की तरह खाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि केवल एक रोटी खाई जाये तो पूरा दिन सहजता से गुजारा जा सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि जब हम अपने चंचल मन की प्रकृत्ति को समझ लेंगे तब जीवन सहज योग के पथ पर चल देंगे।  यह मन ही है जो इंसान को पशू की तरह इधर से उधर दौड़ाता है।


ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, November 30, 2013

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अक्लमंद हमेशा ही बुरे लोगों की संगत से बचता है(aklaman hamesha hi bure logon ki sangat se bachta hai-kautilya ka arthshastra)



                        सांसरिक जीवन में उतार चढ़ाव आते ही रहते हैं। हम जब पैदल मार्ग पर चलते हैं तब कहीं सड़क अत्यंत सपाट होती है तो कहीं गड्ढे होते हैं। कहीं घास आती है तो कहंी पत्थर पांव के लिये संकट पैदा करते हैं।  हमारा जीवन भी इस तरह का है। अगर अपने प्राचीन ग्रंथों का हम निरंतर अभ्यास करते रहें तो मानसिक रूप से परिपक्वता आती है। इस संसार में सदैव कोई विषय अपने अनुकूल नहीं होता। इतना अवश्य है कि हम अगर अध्यात्मिक रूप से दृढ़ हैं तो उन विषयों के प्रतिकूल होने पर सहजता से अपने अनुकूल बना सकते हैं या फिर ऐसा होने तक हम अपने प्रयास जारी रख सकते हैं।  दूसरी बात यह भी है कि प्रकृति के अनुसार हर काम के पूरे होने का एक निश्चित समय होता है।  अज्ञानी मनुष्य उतावले रहते हैं और वह अपने काम को अपने अनुकूल समय पर पूरा करने के लिये तंत्र मंत्र तथा अनुष्ठानो के चक्कर पड़ जाते हैं।  यही कारण है कि हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के पाखंडी सिद्ध बन गये हैं। ऐसे कथित सिद्धों की संगत मनुष्य को डरपोक तथा लालची बना देती है जो कथित दैवीय प्रकोप के भय से ग्रसित रहते हैं।  इतना ही नहीं इन तांत्रिकों के चक्कर में आदमी इतना अज्ञानी हो जाता है कि वह तंत्र मंत्र तथा अनुष्ठान को अपना स्वाभाविक कर्म मानकर करता है।  उसके अंदर धर्म और अधर्म की पहचान ही नहीं रहती।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

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अपां प्रवाहो गांङ्गो वा समुद्रं प्राप्य तद्रसः।

भवत्यपेयस्तद्विद्वान्न्श्रयेदशुभात्कम्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-गंगाजल जब समुद्र में मिलता है तो वह पीने योग्य नहीं रह जाता। ज्ञानी को चाहिये कि वह अशुभ लक्षणों वाले लोगों का आश्रय न ले अन्यथा उसकी स्थिति भी समुद्र में मिले गंगाजल की तरह हो जायेगी।

किल्श्यन्नाप हि मेघावी शुद्ध जीवनमाचरेत्।

तेनेह श्लाध्यतामेति लोकेश्चयश्चन हीयते।।

                        हिन्दी में भावार्थ-बुद्धिमान को चाहे क्लेश में भी रहे पर अपना जीवन शुद्ध रखे इससे उसकी प्रशंसा होती है। लोकों में अपयश नहीं होता।
                        हमारे देश में अनेक ज्ञानी अपनी दुकान लगाये बैठे हैं। यह ज्ञानी चुटकुलों और कहानियों के सहारे भीड़ जुटाकर कमाई करते हैं। इतना ही नहीं उस धन से न केवल अपने लिये राजमहलनुमा आश्रम बनाते हैं बल्कि दूसरों को अपने काम स्वयं करने की सलाह देने वाले ये गुरु अपने यहां सारे कामों के लिये कर्मचारी भी रखते हैं।  एक तरह से वह धर्म के नाम पर कपंनियां चलाते हैं यह अलग बात है कि उन्हें धर्म की आड़ में अनेक प्रकार की कर रियायत मिलती है।  मूल बात यह है कि हमें अध्यात्मिक ज्ञान के लिये स्वयं पर ही निर्भर होना चाहिये। दूसरी बात यह भी है कि ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उसे धारण भी करना चाहिये।  यही बुद्धिमानी की निशानी है। बुद्धिमान व्यक्ति तनाव का समय होने पर भी अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता।  यही कारण है कि बुरा समय निकल जाने के बाद वह प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।  लोग उसके पराक्रम, प्रयास तथा प्रतिबद्धता देखकर उसकी प्रशंसा करते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


यह ब्लाग/पत्रिका विश्व में आठवीं वरीयता प्राप्त ब्लाग पत्रिका ‘अनंत शब्दयोग’ का सहयोगी ब्लाग/पत्रिका है। ‘अनंत शब्दयोग’ को यह वरीयता 12 जुलाई 2009 को प्राप्त हुई थी। किसी हिंदी ब्लाग को इतनी गौरवपूर्ण उपलब्धि पहली बार मिली थी। ------------------------

Wednesday, October 16, 2013

अथर्ववेद से सन्देश-हाथों से कमाने के साथ दान भी करें(atharvved se sandesh-hathon se kamane se saath daan bhee karen)



    हमारे देश में धर्म को लेकर अनेक भ्रम प्रचलित हैं जिनका मुख्य कारण धन के आधारित पर प्रचलित पंरपराऐं हैं जिनको निभाने के लिये कथित धर्मभीरु अपना पूरा जीवन पर दाव पर लगा देते हैं। दूसरी बात यह है कि आधुनिक शिक्षा पद्धति में डूबा समाज अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गया है और उसके पास धर्म तथा भ्रम की पहचान ही नहीं रही।  सच बात तो यह है कि हम जिस अपनी महान संस्कृति और संस्कारों की बात करते रहे हैं उनका आधार वह पारिवारिक संबंध रहे हैं जो अब धन के असमान वितरण के कारण कलह का कारण बनते जा रहे हैं। पहले एक रिश्तेदार के  पैसा अधिक होता तो दूसरे के पास कम पर अंतर इतना नहीं रहता था कि उसकी अनुभूति प्रत्यक्ष रूपे की जा सके पर  कि अब असमान स्तर दिखने लगा है। इतना ही नहीं स्तर में अंतर इतना अधिक आ गया है कि सद्भाव बने रहना कठिन हो गया है। एक रिश्तेदार सामान्य जीवन जी रहा है तो दूसरा राजकीय कर्म से जुड़ने के कारण विशिष्ट हो जाता है। ऐसे में रिश्तों में मिठास कम कड़वाहट अधिक हो जाती है।
       महत्वपूर्ण बात यह कि हम धर्म के नाम पर सभी एक होने का स्वांग करते हैं पर हो नहीं पाते। इसका मुख्य कारण यह है कि हमारे देश में दो प्रकार के भारतीय धार्मिक लोग हैं। एक तो हैं लालची दूसरे हैं त्यागी।  एक बात निश्चित है कि भारतीय धर्म से जुड़े लोग अधिकतर त्यागी होते हैं पर आधुनिक लोकतंत्र ने कुछ लालची लोगों को आगे बढ़ने का मार्ग दिया है। समाज पर नियंत्रण करने वाली अनेक संस्थाओं में कथित रूप से लालची लोगों ने कब्जा कर लिया है। यह लालची लोग एक तरफ से चंदा लेते हैं दूसरी तरफ दान करने का स्वांग करते हैं। अंधा बांटे रेवड़ी आपु ही आपको दे की तर्ज पर यह उस दान का हिस्सा भी अपने घर ही ले जाते हैं। धर्म, अर्थ, राज्य, कला, तथा शिक्षा के शिखर पर अनेक ऐसे कथित लोग पहुंचें हैं जो भारतीय धर्म के रक्षक होने का दावा तो करते हैं पर होते महान लालची हैं। सीधी बात कहें तो हमारे भारतीय धर्म को खतरा बाहर से नहीं बल्कि अपने ही लालची लोगों से है।  यह लालची लोग प्रचार तंत्र में अपने समाज सेवक होने का प्रचार करते हैं जो जब बाहरी लोग उनका चरित्र देखते हैं तो समस्त भारतीय धर्म के लोगों को वैसा ही समझते हैं जबकि हमारे हमारे देश के अधिकतर  लोग अपने धर्म के अनुसार त्यागी होते हैं।  लालची लोग सौ हाथों से धन तो बटोरते हैं पर दान एक हाथ से भी नहीं करते।  ऐसे ही लोग धर्म के लिये सबसे बड़ा संकट हैं। अगर हम अपने देश में श्रम पर आधारित करने वाले लोगों को देखें तो वह गरीब होने के बावजूद अपने आसपास के लोगों की सहायता को तत्पर होते हैं। इसका वह प्रचार नहीं  करते वरन् करने के बाद किसी प्रकार की फल याचना भी नहीं करते।  इसके विपरीत जिन लोगों ने अपनी लालच की वजह से येन केन प्रकरेण समाज पर नियंत्रण करने वाली संस्थाओं पर कब्जा किया है वह अपना स्तर बनाये रखने के लिये षडयंत्रपूर्वक काम करते हैं। इतना ही नहीं धर्म का कोई एक नाम देना हमारे अध्यात्मिक दर्शन की दृष्टि गलत है वहीं वह सभी धर्मों की रक्षा की बात कहते हुए भ्रमित भी करते हैं।  सबसे बड़ी  इन लोगों ने सभ्रांत होने का रूप भी रख लिया है और अपने से नीचे हर व्यक्ति को हेय मानकर चलते हैं।
अथर्ववेद में कहा गया है कि

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शातहस्त समाहार सहस्त्रस्त सं किर।

कृतस्य कार्यस्य चहे स्फार्ति समायह।।

        हिन्दी में भावार्थ-हे मनुष्य! तू सौ हाथों वाला होकर धनार्जन कर और हजार हाथ वाला बनकर दान करते हुए समाज का उद्धार कर।
       समाज में समरसता बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि शक्तिशाली तथा समृद्ध वर्ग कमतर श्रेणी के लोगों की सहायता करे पर अब तो समाज कल्याण सरकार का विषय बना दिया गया है जिससे लोग अब सारा दायित्व सरकार का मानने लगे हैं।   धनी, शिक्षित तथा शक्तिशाली वर्ग यह मानने लगा  है कि अपनी रक्षा करना ही एक तरह से  समाज की रक्षा है।  इतना ही नहीं यह वर्ग मानता है कि वह अपने लिये जो कर रहा है उससे ही समाज बचा हुआ है।  जब धर्म की बात आती है तो सभी उसकी रक्षा की बात करते हैं पर लालची लोगों का ध्येय केवल अपनी समृद्धि, शक्ति तथा प्रतिष्ठा बचाना रह जाता है।  कहने का अभिप्राय यह है कि हमें केवल किसी को अपने धर्म से जुड़ा मानकर उसे श्रेष्ठ मानना गलत है बल्कि आचरण के आधार पर ही किसी के बारे में राय कायम करना चाहिये। हमारा समाज त्याग पर आधारित सिद्धांत को मानता है जबकि लालची लोग केवल इस सिद्धांत की दुहाई देते हैं पर चलते नहीं। समाज की सेवा भी अनेक लोगों का पारिवारिक व्यापार जैसा  हो गया है यही कारण है कि वह अपनी संस्थाओं का पूरा नियंत्रण परिवार के सदस्यों को सौंपते हैं। दावा यह करते हैं कि पूरे समाज का हम पर विश्वास है पर यह भी दिखाते हैं कि  उनका समाज में  परिवार के बाहर किसी दूसरे पर उनका विश्वास नहीं है।  हम जाति, धर्म, शिक्षा, क्षेत्र तथा कला में ऐसे लालची लोगों की सक्रियता पर दृष्टिपात करें तो पायेंगे कि उनका ढोंग वास्तव में समूचे समाज  को बदनाम करने वाला हैं। बहरहाल हमें अपने आचरण पर ध्यान रखना चाहिये। जहां तक हो सके धर्म, जाति, भाषा, कला, राज्यकर्म तथा क्षेत्र के नाम पर समाज को समूहों में  बांटने वाले लोगों  की लालची प्रवृत्ति देखते हुए उनसे दूरी बनाने के साथ ही अपना सहज त्याग कर्म करते रहना चाहिये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Sunday, September 29, 2013

मनुस्मृति-स्वस्थ राजा ही प्रजा के हित का काम कर सकता है(manu smriti-swasth raja hi prajaa hit ke hit ka kam kar sakta hai)



                        हमारे दर्शन के अनुसार पूर्णतः स्वस्थ होने पर ही किसी मनुष्य को राजसी कर्म करना चाहिये। ऐसे में जिन लोगों पर राज्य का भार है उनको प्रजा हित के लिये अधिक ही परिश्रम करना होता है इसलिये उनका पूर्णतः स्वस्थ होना आवश्यक है।  आधुनिक लोकतंत्र ने पूरे विश्व में राज्य व्यवस्थाओं में इस नीति का पालन नहीं किया जा रहा है। आज तो सभी देशों में यही देखा जाता है कि चुनाव में कौन जीत सकता है? चुनाव जीतने की योग्यता और क्षमता ही राज्यपद पाने का एक आधार बन गयी है।  ऐसे में अनेक देशों के राज्य प्रमुख शासन में आने के बाद जनता में अपनी लोकप्रियता खो देते हैं। दूसरी बात यह भी है कि पद की अवधि पांच या छह साल होती है उसमें राज्य पद पर प्रतिष्ठित होने पर व्यक्ति की चिंतायें प्रजा हित से अधिक अपने चुनाव के लिये चंदा देने वालों का उधार चुकाने या फिर अगले चुनाव में फिर अपना पद बरबकरार रहने की होती है।  कुछ समय विपक्षियों का सामना करने तो बाकी समय जनता के सामने नये वादे करते रहने में लग जाता है।
                        अनेक देशों के राज्य प्रमुख शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से अस्वस्थ होने के बावजूद सत्ता रस पीते रहते हैं। राज्य के अधिकारी भी अपनी नौकरी चलाते हुए केवल राज्य प्रमुख की कुर्सी बचाये रखने में अपना हित समझते हैं। विश्व प्रसिद्ध चिंत्तक कार्लमार्क्स ने अपने पूंजी नामक पुस्तक में इन पूंजीपतियों के हाथ लग चुकी व्यवस्थाओं की चर्चा बहुत की है।  यह अलग बात है कि उसके अनुयायियों ने भी अपने शासित राष्ट्रों में शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से बीमार लोगों को उच्च पदों पर बैठाये रखा और बेबस जनता तानाशाही की वजह से उनको ढोती रही।  वामपंथी व्यवस्था में बौद्धिकों को वैचारिक मध्यस्थ बन कर मजे लूटने की सुविधा मिलती है इसलिये वह जनहित की बातें बहुत करते हैं पर अपने शिखर पुरुषों की शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक अस्वस्थता को निजी विषय बताते हैं।  मजे की बात यही है कि यही वामपंथी बौद्धिक मध्यस्था मनुस्मृति का जमकर विरोध करते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि

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अमात्यंमुख्यं धर्मज्ञं प्राज्ञं दान्तं कुलोद्भवम्।

स्थापयेदासने तस्मिन् खिन्नः कार्येक्षणे नृणाम्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-जब राज्य प्रमुख अपने खराब स्वास्थ्य की वजह से प्रजाहित के कार्यों का निरीक्षण करने में असमर्थ हो तब उसे अपना कार्यभार किसी बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, सभ्य तथा शिष्ट पुरुष को सौंप देना चाहिये।

विक्रोशन्त्यो यस्य राष्ट्राद्धियन्ते दस्युभिः प्रजाः।

सम्पतश्यतः सभृत्यस्य मृतः स न तु जीवति।।

                        हिन्दी में भावार्थ-उस राजा या राज्य प्रमुख को जीवित रहते हुए भी मृत समझना चाहिये जिसके अधिकारियों के सामने ही डाकुओं से लूटी जाती प्रजा हाहाकर मदद मांगती है पर वह उसे बचाते ही नहंी है।
                        सामान्य सिद्धांत तो यही है कि अस्वथ्यता की स्थिति में राज्य प्रमुख किसी गुणी आदमी को अपना पदभार सौप दे पर होता यह है कि वामपंथी विचारक शिखर पर बैठे पुरुष को अपने अनुकूल पाते हैं तो वह उसकी जगह किसी दूसरे को स्वीकार नहंी करते। दूसरी बात यह है कि आजकल के राज्य प्रमुखों में इतनी मानवीय चतुराई तो होती है कि वह अपने बाद के दावेदारों को आपस में लड़ाये रखते है ताकि कोई उसकी जगह कोई दूसरा नहीं ले सके। अनेक जगह तो राज्य प्रमुख इस तरह की व्यवस्था कर देते हैं कि उनके बाद उनके परिवार के सदस्यों को ही जगह मिले। वामपंथियों के सबसे बड़े गढ़ चीन में भी अब शासन में परिवारवाद आ गया है।  वामपंथियों ने शायद इसलिये ही हमेशा मनुस्मृति का विरोध किया है ताकि उसकी सच्चाई से आम लोग अवगत न हों और उनका छद्म समाज सुधार का अभियान चलता रहे।
                        हम आजकल पूरी विश्व अर्थव्यवस्था चरमराने की बात करते हैं। उसका मुख्य कारण यही है कि अनेक महत्वपूर्ण देशों का शासन पुराने राजनीतिक सिद्धांतों की अनदेखी कर चलाया जा रहा है। स्थिति यह है कि तानाशाही व्यवस्था हो या लोकतांत्रिक सत्य कहने का अर्थ अपने लिये शत्रुओं का निर्माण करना होता है। अपनी आलोचना सहन करने के लिये पर्याप्त प्राणशक्ति बहुत कम लोगों में रह गयी है। इसका मुख्य कारण शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक अस्वस्थता ही है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Friday, September 20, 2013

मनु स्मृति-अस्वस्थ होते हुए राज्यकर्म से दूर हो जाना चाहिए (aswath hone par rajyakarn se door ho jana chahiye



                        हमारे दर्शन के अनुसार पूर्णतः स्वस्थ होने पर ही किसी मनुष्य को राजसी कर्म करना चाहिये। ऐसे में जिन लोगों पर राज्य का भार है उनको प्रजा हित के लिये अधिक ही परिश्रम करना होता है इसलिये उनका पूर्णतः स्वस्थ होना आवश्यक है।  आधुनिक लोकतंत्र ने पूरे विश्व में राज्य व्यवस्थाओं में इस नीति का पालन नहीं किया जा रहा है। आज तो सभी देशों में यही देखा जाता है कि चुनाव में कौन जीत सकता है? चुनाव जीतने की योग्यता और क्षमता ही राज्यपद पाने का एक आधार बन गयी है।  ऐसे में अनेक देशों के राज्य प्रमुख शासन में आने के बाद जनता में अपनी लोकप्रियता खो देते हैं। दूसरी बात यह भी है कि पद की अवधि पांच या छह साल होती है उसमें राज्य पद पर प्रतिष्ठित होने पर व्यक्ति की चिंतायें प्रजा हित से अधिक अपने चुनाव के लिये चंदा देने वालों का उधार चुकाने या फिर अगले चुनाव में फिर अपना पद बरबकरार रहने की होती है।  कुछ समय विपक्षियों का सामना करने तो बाकी समय जनता के सामने नये वादे करते रहने में लग जाता है।
                        अनेक देशों के राज्य प्रमुख शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से अस्वस्थ होने के बावजूद सत्ता रस पीते रहते हैं। राज्य के अधिकारी भी अपनी नौकरी चलाते हुए केवल राज्य प्रमुख की कुर्सी बचाये रखने में अपना हित समझते हैं। विश्व प्रसिद्ध चिंत्तक कार्लमार्क्स ने अपने पूंजी नामक पुस्तक में इन पूंजीपतियों के हाथ लग चुकी व्यवस्थाओं की चर्चा बहुत की है।  यह अलग बात है कि उसके अनुयायियों ने भी अपने शासित राष्ट्रों में शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से बीमार लोगों को उच्च पदों पर बैठाये रखा और बेबस जनता तानाशाही की वजह से उनको ढोती रही।  वामपंथी व्यवस्था में बौद्धिकों को वैचारिक मध्यस्थ बन कर मजे लूटने की सुविधा मिलती है इसलिये वह जनहित की बातें बहुत करते हैं पर अपने शिखर पुरुषों की शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक अस्वस्थता को निजी विषय बताते हैं।  मजे की बात यही है कि यही वामपंथी बौद्धिक मध्यस्था मनुस्मृति का जमकर विरोध करते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि

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अमात्यंमुख्यं धर्मज्ञं प्राज्ञं दान्तं कुलोद्भवम्।

स्थापयेदासने तस्मिन् खिन्नः कार्येक्षणे नृणाम्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-जब राज्य प्रमुख अपने खराब स्वास्थ्य की वजह से प्रजाहित के कार्यों का निरीक्षण करने में असमर्थ हो तब उसे अपना कार्यभार किसी बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, सभ्य तथा शिष्ट पुरुष को सौंप देना चाहिये।

विक्रोशन्त्यो यस्य राष्ट्राद्धियन्ते दस्युभिः प्रजाः।

सम्पतश्यतः सभृत्यस्य मृतः स न तु जीवति।।

                        हिन्दी में भावार्थ-उस राजा या राज्य प्रमुख को जीवित रहते हुए भी मृत समझना चाहिये जिसके अधिकारियों के सामने ही डाकुओं से लूटी जाती प्रजा हाहाकर मदद मांगती है पर वह उसे बचाते ही नहीं है।
                        सामान्य सिद्धांत तो यही है कि अस्वथ्यता की स्थिति में राज्य प्रमुख किसी गुणी आदमी को अपना पदभार सौप दे पर होता यह है कि वामपंथी विचारक शिखर पर बैठे पुरुष को अपने अनुकूल पाते हैं तो वह उसकी जगह किसी दूसरे को स्वीकार नहंी करते। दूसरी बात यह है कि आजकल के राज्य प्रमुखों में इतनी मानवीय चतुराई तो होती है कि वह अपने बाद के दावेदारों को आपस में लड़ाये रखते है ताकि कोई उसकी जगह कोई दूसरा नहीं ले सके। अनेक जगह तो राज्य प्रमुख इस तरह की व्यवस्था कर देते हैं कि उनके बाद उनके परिवार के सदस्यों को ही जगह मिले। वामपंथियों के सबसे बड़े गढ़ चीन में भी अब शासन में परिवारवाद आ गया है।  वामपंथियों ने शायद इसलिये ही हमेशा मनुस्मृति का विरोध किया है ताकि उसकी सच्चाई से आम लोग अवगत न हों और उनका छद्म समाज सुधार का अभियान चलता रहे।
                        हम आजकल पूरी विश्व अर्थव्यवस्था चरमराने की बात करते हैं। उसका मुख्य कारण यही है कि अनेक महत्वपूर्ण देशों का शासन पुराने राजनीतिक सिद्धांतों की अनदेखी कर चलाया जा रहा है। स्थिति यह है कि तानाशाही व्यवस्था हो या लोकतांत्रिक सत्य कहने का अर्थ अपने लिये शत्रुओं का निर्माण करना होता है। अपनी आलोचना सहन करने के लिये पर्याप्त प्राणशक्ति बहुत कम लोगों में रह गयी है। इसका मुख्य कारण शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक अस्वस्थता ही है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Monday, September 9, 2013

अथर्ववेद के आधार पर चिंत्तन-कमाकर दान करने की आदत डालें (kamakar dan karne kee aadat dalen-atharvved ke aadhar par sandesh)



    हमारे देश में धर्म को लेकर अनेक भ्रम प्रचलित हैं जिनका मुख्य कारण धन के आधारित पर प्रचलित पंरपराऐं हैं जिनको निभाने के लिये कथित धर्मभीरु अपना पूरा जीवन पर दाव पर लगा देते हैं। दूसरी बात यह है कि आधुनिक शिक्षा पद्धति में डूबा समाज अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गया है और उसके पास धर्म तथा भ्रम की पहचान ही नहीं रही।  सच बात तो यह है कि हम जिस अपनी महान संस्कृति और संस्कारों की बात करते रहे हैं उनका आधार वह पारिवारिक संबंध रहे हैं जो अब धन के असमान वितरण के कारण कलह का कारण बनते जा रहे हैं। पहले एक रिश्तेदार के  पैसा अधिक होता तो दूसरे के पास कम पर अंतर इतना नहीं रहता था कि उसकी अनुभूति प्रत्यक्ष रूपे की जा सके पर  कि अब असमान स्तर दिखने लगा है। इतना ही नहीं स्तर में अंतर इतना अधिक आ गया है कि सद्भाव बने रहना कठिन हो गया है। एक रिश्तेदार सामान्य जीवन जी रहा है तो दूसरा राजकीय कर्म से जुड़ने के कारण विशिष्ट हो जाता है। ऐसे में रिश्तों में मिठास कम कड़वाहट अधिक हो जाती है।
       महत्वपूर्ण बात यह कि हम धर्म के नाम पर सभी एक होने का स्वांग करते हैं पर हो नहीं पाते। इसका मुख्य कारण यह है कि हमारे देश में दो प्रकार के भारतीय धार्मिक लोग हैं। एक तो हैं लालची दूसरे हैं त्यागी।  एक बात निश्चित है कि भारतीय धर्म से जुड़े लोग अधिकतर त्यागी होते हैं पर आधुनिक लोकतंत्र ने कुछ लालची लोगों को आगे बढ़ने का मार्ग दिया है। समाज पर नियंत्रण करने वाली अनेक संस्थाओं में कथित रूप से लालची लोगों ने कब्जा कर लिया है। यह लालची लोग एक तरफ से चंदा लेते हैं दूसरी तरफ दान करने का स्वांग करते हैं। अंधा बांटे रेवड़ी आपु ही आपको दे की तर्ज पर यह उस दान का हिस्सा भी अपने घर ही ले जाते हैं। धर्म, अर्थ, राज्य, कला, तथा शिक्षा के शिखर पर अनेक ऐसे कथित लोग पहुंचें हैं जो भारतीय धर्म के रक्षक होने का दावा तो करते हैं पर होते महान लालची हैं। सीधी बात कहें तो हमारे भारतीय धर्म को खतरा बाहर से नहीं बल्कि अपने ही लालची लोगों से है।  यह लालची लोग प्रचार तंत्र में अपने समाज सेवक होने का प्रचार करते हैं जो जब बाहरी लोग उनका चरित्र देखते हैं तो समस्त भारतीय धर्म के लोगों को वैसा ही समझते हैं जबकि हमारे हमारे देश के अधिकतर  लोग अपने धर्म के अनुसार त्यागी होते हैं।  लालची लोग सौ हाथों से धन तो बटोरते हैं पर दान एक हाथ से भी नहीं करते।  ऐसे ही लोग धर्म के लिये सबसे बड़ा संकट हैं। अगर हम अपने देश में श्रम पर आधारित करने वाले लोगों को देखें तो वह गरीब होने के बावजूद अपने आसपास के लोगों की सहायता को तत्पर होते हैं। इसका वह प्रचार नहीं  करते वरन् करने के बाद किसी प्रकार की फल याचना भी नहीं करते।  इसके विपरीत जिन लोगों ने अपनी लालच की वजह से येन केन प्रकरेण समाज पर नियंत्रण करने वाली संस्थाओं पर कब्जा किया है वह अपना स्तर बनाये रखने के लिये षडयंत्रपूर्वक काम करते हैं। इतना ही नहीं धर्म का कोई एक नाम देना हमारे अध्यात्मिक दर्शन की दृष्टि गलत है वहीं वह सभी धर्मों की रक्षा की बात कहते हुए भ्रमित भी करते हैं।  सबसे बड़ी  इन लोगों ने सभ्रांत होने का रूप भी रख लिया है और अपने से नीचे हर व्यक्ति को हेय मानकर चलते हैं।
अथर्ववेद में कहा गया है कि

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शातहस्त समाहार सहस्त्रस्त सं किर।

कृतस्य कार्यस्य चहे स्फार्ति समायह।।

        हिन्दी में भावार्थ-हे मनुष्य! तू सौ हाथों वाला होकर धनार्जन कर और हजार हाथ वाला बनकर दान करते हुए समाज का उद्धार कर।
       समाज में समरसता बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि शक्तिशाली तथा समृद्ध वर्ग कमतर श्रेणी के लोगों की सहायता करे पर अब तो समाज कल्याण सरकार का विषय बना दिया गया है जिससे लोग अब सारा दायित्व सरकार का मानने लगे हैं।   धनी, शिक्षित तथा शक्तिशाली वर्ग यह मानने लगा  है कि अपनी रक्षा करना ही एक तरह से  समाज की रक्षा है।  इतना ही नहीं यह वर्ग मानता है कि वह अपने लिये जो कर रहा है उससे ही समाज बचा हुआ है।  जब धर्म की बात आती है तो सभी उसकी रक्षा की बात करते हैं पर लालची लोगों का ध्येय केवल अपनी समृद्धि, शक्ति तथा प्रतिष्ठा बचाना रह जाता है।  कहने का अभिप्राय यह है कि हमें केवल किसी को अपने धर्म से जुड़ा मानकर उसे श्रेष्ठ मानना गलत है बल्कि आचरण के आधार पर ही किसी के बारे में राय कायम करना चाहिये। हमारा समाज त्याग पर आधारित सिद्धांत को मानता है जबकि लालची लोग केवल इस सिद्धांत की दुहाई देते हैं पर चलते नहीं। समाज की सेवा भी अनेक लोगों का पारिवारिक व्यापार जैसा  हो गया है यही कारण है कि वह अपनी संस्थाओं का पूरा नियंत्रण परिवार के सदस्यों को सौंपते हैं। दावा यह करते हैं कि पूरे समाज का हम पर विश्वास है पर यह भी दिखाते हैं कि  उनका समाज में  परिवार के बाहर किसी दूसरे पर उनका विश्वास नहीं है।  हम जाति, धर्म, शिक्षा, क्षेत्र तथा कला में ऐसे लालची लोगों की सक्रियता पर दृष्टिपात करें तो पायेंगे कि उनका ढोंग वास्तव में समूचे समाज  को बदनाम करने वाला हैं। बहरहाल हमें अपने आचरण पर ध्यान रखना चाहिये। जहां तक हो सके धर्म, जाति, भाषा, कला, राज्यकर्म तथा क्षेत्र के नाम पर समाज को समूहों में  बांटने वाले लोगों  की लालची प्रवृत्ति देखते हुए उनसे दूरी बनाने के साथ ही अपना सहज त्याग कर्म करते रहना चाहिये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Saturday, August 24, 2013

संत कबीर दर्शन-आध्यात्मिक साधना के लिए बहादुर होना जरूरी (sant kabir darshan- adhyatmik sadhna ke liye bahadur hona jaroori)



      हमारे देश में आजकल योग साधना विधा का अत्यंत प्रचार हो रहा है।  अनेक योग साधक प्रचारक अत्यंत परिश्रम से इसका प्रचार कर रहे हैं। उनकी जितनी प्रशंसा की जाये अत्यंत कम है।  उनके निष्काम प्रयासों के परिणाम यह तो हुआ है कि सामान्य लोग योग साधना का महत्व समझ गये हैं, जिससे योग साधकों की संख्या बढ़ी भी है फिर जनसंख्या की दृष्टि से उसे पर्याप्त नहीं माना जा सकता।  सच तो यह है कि देश में मनोरंजन के आधुनिक साधनों ने सामान्य मनुष्य की बुद्धि का हरण कर लिया है और लोग देर रात तक जागते हैं और सुबह प्रातःकाल भी निद्रा उनको घेर रहती है। कहा जाता है कि प्रातः सुबह साढ़े तीन बजे से साढ़े चार बजे तक प्रथ्वी पर  आक्सीजन सर्वाधिक मात्रा में होती है। इस अवधि का लाभ उठाने वाले हमारे देश में बहुत कम हैं।  हालांकि कुछ वीर ऐसे भी हैं जिन्होंने जीवन भर इसी समय का जमकर लाभ उठाया हैं। इस लेखक ने अनेक ऐसे लोग देखे हैं जो सुबह चार बजे उठकर बिना किसी अवरोध के भ्रमण करते हैं और वह किसी अन्य मनुष्य से अधिक स्वस्थ लगते हैं। 
       योग साधना के प्रचार के बाद अब साधकों की संख्या भी बढ़ी है फिर भी अधिकतर लोग इसे अपनाना नहीं चाहते।  दरअसल प्रातः जल्दी उठकर भ्रमण या योग साधना करने के लिये त्याग का भाव होना आवश्यक है। जो इस संबंध में नियम बनाते हैं वह सांसरिक विषयों से उस अवधि में अलग हो जाते हैं।  हमें घूमना ही  है या योग साधना करना ही है, यह भाव जिनके मन में आता है वह कहीं न कहीं सांसरिक विषय का त्याग कर अध्यातम के प्रति झुक जाते हैं। अध्यात्म का यह अर्थ कदापि नहीं है कि सुबह उठकर भगवान की सकाम भक्ति की जाये अथवा किसी मूर्ति के पास जाकर सिर झुकाया जाये। यह मनुष्य देह परमात्मा ने दी है इसे स्वस्थ रखना भी एक तरह से उसकी पूजा करना ही है।  इसके लिये अध्यात्म चेतना आवश्यक है जो कि सांसरिक विषयों से हृदय का भाव त्यागने पर ही उत्पन्न होती है।  मनुष्य सांसरिक विषयों से कुछ देर भी प्रथक नहीं रहना चाहता है।  
संत कबीरदास जी कहते हैं कि
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मारग कठिन कबीर का, धरि न सकै पग कोय।
आय चले कोई सूरमा, जा धड़ सीस न होव।।
         सामान्य हिन्दी में भावार्थ-अध्यात्म का मार्ग अत्यंत कठिन है, इस पर हर कोई कदम नहीं रख सकता।
कायर का काचा मता, घड़ी पलक मन और।
आगा पीछा ह्वै रहै, जागि मिसै नहिं ठौर।।
         सामान्य हिन्दी में भावार्थ-अध्यात्म साधना के क्षेत्र में अपरिपक्व तथा कायर का मन इधर से उधर भटकता भी है। साधना के क्षेत्र में पहले आग में जलना पड़ता है फिर राम शब्द का उच्चारण करना होता है।
       अस्वस्थ देह में विकारपूर्ण मन लोगों को भटका रहा है। अपने शहर में प्रातःकाल उठकर सैर सपाटे पर जाना, योग साधना करना  या मंदिर में जाने वाले लोगों के मन में एक शांति रहती है। इसके विपरीत जो अपने शहर में ही नहीं घूमते वही धर्म के नाम पर पर्यटन के नाम कथित भक्ति का पाखंड करते हुए इधर से उधर भागते हैं।  देश के बड़े शहरों में अनेक प्रसिद्ध बड़े मंदिर हैं जहां लोग जाते है।  देखा जाये तो हर शहर में कोई न कोई सिद्ध मंदिर होता है पर जो अपने घर के पास के मंदिर में ही जाने का कष्ट नहीं करते वही बड़े सिद्ध मंदिरों पर दर्शन करने के बहाने पर्यटन करने के लिये लालायित होते हैं।  यही मन मन का भटकाव है जो अध्यात्म ज्ञान के अभाव में पैदा होता है। सासंरिक विषयों में सतत लगा मन ऊबने लगता है और अपरिपक्त तथा कच्चे विचारों वाले लोग उसके जाल में फंसे रहते हैं।  इसके विपरीत जो प्रातःकाल वीरता पूर्वका\ भ्रमण, योग साधना या मंदिर में जाते हैं उनका चित्त हमेशा प्रसन्न रहता है ।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Friday, August 9, 2013

मनु स्मृति-अपने विग्रह को पहचान कर उसे शांत करें (manu smriti-apne bigrah ko pahachan kar use shant karen)



        हमारे समाज में निंरतर व्यक्ति तथा परिवारों के स्तर पर आसपस तनाव बढ़ता जा रहा है।  सच बात तो यह है कि हम राष्ट्र की एकता, अखंडता तथा स्थिरता की चिंता कर रहे हैं पर व्यक्ति तथा परिवारों की स्थिरता के बिना यह संभव नहीं है कि हम उत्थान के मार्ग पर चल सकें।  आर्थिक विकास आवश्यक है पर मनुष्य का अध्यात्मिक पतन होने पर उसका महत्व नहंी रहता।  हम चाहें कितने भी दावे करें पर पश्चिम की वैचारिक धारायें वहीं के देशों के अनुकूल नहीं रही क्योंकि उनका आधार राष्ट्र, प्रदेश, नगर, समाज, परिवार तथा व्यक्ति के क्रम में विकास का महत्व प्रतिपादित करती हैं जबकि मनुष्य का स्वभाव ठीक इस क्रम के विपरीत होता है।  सबसे पहले वह अपनी चिंता करता है फिर परिवार की। बाद में दूसरे क्रमों पर उसका ध्यान जाता  है।  अब हमारे यहां हो यह रहा है कि हम सोचते पश्चिम के आधार पर चलते अपने मूल रूप के साथ ही हैं।  सांसरिक विषयों का ज्ञान तो बहुत हो गया है पर अध्यात्मिक ज्ञान का अभाव है।  यही कारण है कि देश में लोगों के अंदर मानसिक तनाव बढ़ रहा है।  फलस्वरूप छोटी छोटी बातों पर हिंसा का तांडव नृत्य देखने को मिलता है।

मनुमृति में कहा गया है कि

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भूतानुग्रहविच्छेदजाते तत्र वदेत्प्रियम्।

दवमेव तु दवोत्थे शमनं साधुसम्मतम्।।

           हिन्दी में भावार्थ-जो प्राणियों के अनुग्रह के विच्छेद से विग्रह हुआ हो उसे अपनी मधुर वाणी से प्रियवचन बोलकर तथा जो दैव कोप से विग्रह  उत्पन्न हुआ हो उसे दैव की प्रसन्नता से शांत करने का प्रयास करें।

कुर्यायर्थदपरित्यागमेकार्थाभिनिवेशजे।

धनापचारजाते तन्निराधं न समाचरेत्।।

           हिन्दी में भावार्थ-जहां एक ही उद्देश्य के निमित विग्रह उपस्थित हो वहां दोनों में एक को अपना त्याग करना चाहिये। जहां धन के अपचार से अशांति उत्पन्न हो वहां विरोध न करें तो शांति हो जाती है।

           कहा जाता है कि झगड़े और अपराध का कारण हमेशा ही जड़, जमीन और जोरु होती है।  सबसे अधिक झगड़ा जमीन और धन को लेकर होता है। इन विषयों पर विवाद भी कोई गैरों में नहीं बल्कि अपनो के साथ ही होता है।  तय बात है कि जब कोई व्यक्ति अपना है और अज्ञानवश लोभ की प्रवृत्ति के चलते कोई चीज हमसे पाना चाहता है और हम उसे मना करें दें तो वह लड़ने पर आमादा होगा।  ऐसे मेें अध्यात्मक ज्ञानी को चाहिये कि वह त्याग के भाव का अनुसरण करे।  उसी तरह मित्रवर्ग में भी कभी समान रूप से एक ही लक्ष्य बन जाता है तब वातावरण में शत्रुता का भाव उत्पन्न होता है।  ऐसे में ज्ञानसाधक को चाहिये कि वह अपने उद्देश्य का त्याग करे। 
    उसी तरह हमें एक बात समझना चाहिये कि वर्तमान समय में हर कोई धन के लिये कुछ भी करने के लिये तैयार है।  आदमी सज्जन भी हो पर उसके आर्थिक लक्ष्य की प्राप्ति में बाधा पैदा की जाये तो वह दुर्जनता का व्यवहार कर सकता है।  उसी तरह अगर व्यक्ति मूलतः दुंर्जन है तो वह अधिक क्रूरता भी दिखा सकता है। इसलिये जहां तक हो सके दूसरों के आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति में बाधा पैदा करने का प्रयास नहीं करें तो ही ठीक रहेगा।  ज्ञान साधकों के लिये इस युग में सर्वाधिक सुखद स्थिति यह है कि वह किसी से डरे नहीं क्योंकि अकारण उनको कोई तंग नहीं कर सकता।  किसी के पास अपने लक्ष्यों के पीछा करने से समय ही नहीं मिलता।  अगर किसी प्रियजन या मित्र से बातचीत में वाद विवाद भी हो जाये तो उसे मधुर वाणी से शांत करें।  जहां तक गैरों का प्रश्न है जब किसी के कार्य में बाधा पैदा नहीं की जायेगी तब कोई भय भी उत्पन्न नहीं करेगा।  भयमुक्त रहना ही तनाव मुक्त रहने का सबसे सरल उपाय है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Monday, August 5, 2013

चाणक्य नीति दर्शन-भोग विलासी के विचार कभी शुद्ध नहीं रहते (chankya neeti darshan-bhog vilasi ke vichar kabhee shuddh nahin hote-chankya neeti darshan))



           हमारे समाज में परनिंदा की प्रवृत्ति बहुत देखी जाती है। जहां चार लोग मिलेंगे वहां किसी अन्य की निंदा करते हुए अपनी चर्चा करेंगे।  इसके अलावा अपने गुणों तथा कल्पित परोपकार की बात सुनाते हुए अपनी प्रशंसा करते हुए कहीं भी लोगों को देखा जा सकता है। उससे भी बड़ी बात यह कि ज्ञान की बातें बखान करने वाले कदम कदम पर मिल जायेंगे।  जहां तक उस ज्ञान को धारण करने वालों की संख्या की बात है वह नगण्य ही नज़र आती है। ज्ञान और योग साधना में लिप्त लोगों के लिये भारतीय समाज में व्याप्त अंतर्विरोध हमेशा ही शोध का विषय रहा है।  यही कारण है कि हमारे देश में  अध्यात्मिक विषय में नित्य नये नये सृजन होते रहते हैं।  यह अलग बात है कि अध्यात्मिक सिद्धों की रचनाऐं लोग पढ़ते हैं और फिर उनको रटकर एक दूसरे को सुनाते हैं।  उस ज्ञान को धारण करने की कला किसी किसी को ही आती है जबकि सामान्य मनुष्य ज्ञान का बखान तो करता है पर अपना पूरा पंाव  अज्ञान की राह पर ही रखता है। 
     सच बात यह है कि श्रीमद्भगवत्गीता में कहा गया है कि गुण ही गुणों को बरतते हैं। इंद्रियां ही विषयों में लिप्त हैं।  त्रिगुणमयी माया में फंसा मनुष्य अपनी स्थिति के अनुसार ही विचार करते हुए व्यवहार करता है।  इसलिये ज्ञान साधकों को कभी किसी की निंदा नहीं करते हुए इस बात का विचार अवश्य करना चाहिये कि जिस व्यक्ति का खान पान, रहन सहन तथा संगत जिस तरह की होगी वैसा ही वह काम तथा आचरण करेगा।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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गृह्यऽसक्तस्य नो विद्या नो दया मासंभोजिनः।
द्रव्यनुलुब्धस्य नो सत्यं स्त्रेणाभ्य न पवित्रता।।
       हिन्दी में भावार्थ-घर में आसक्ति रखने वालों को कभी  विद्या प्राप्त नहीं होती, मांस खाने वालों में दया नहीं होती, धन के लोभी में कभी सच्चाई नहीं होती और भोग विलासी में विचारों की पवित्रता नहीं होती
            हमारे समाज में एक बात दूसरी भी देखी जाती है कि अर्थ, राज्य तथा धर्म के शिखर पर स्थिति पुरुषों की तरफ आशा भरी नज़रों से देखता है। वह सोचता है कि उनमें शायद समाज भक्ति पैदा हो और वह उस पर कृपा करें।  वह उनके विचार, व्यवहार और व्यक्तित्व की तरफ नहीं देखता। जिन शिखर पुरुषों में समाज के प्रति दया, सद्भावना तथा प्रेम का भाव है वह बिना प्रचार ही अपना काम करते है। जिनके मन में संवेदना नहीं है वह पाखंड बहुत करते हैं। इतना ही नहीं अनेक शिखर पुरुष तो दिखावे के लिये समाज सेवा करते हैं।  उनका मुख्य उद्देश्य अपने परिवार तथा कुल को प्रतिष्ठा दिलाकर अधिक शक्ति प्राप्त करना ही होता है।  समाज से दूर होने के कारण उनके घर के सत्य बाहर नहीं आ पाते पर फिर अपने सामान्य व्यवहार में उनका चरित्र सामने आ ही जाता है। वह प्रचार के लिये समाज के साथ सहानुभूति अवश्य जताते हैं उनके किसी कर्म से ऐसा नहीं लगता कि वह आशाओं पर खरे उतरेंगे। उनसे किसी भी प्रकार समाज हित की आशा करना व्यर्थ है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


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