Sunday, May 7, 2017

देश में सार्वजनिक विमर्श के लिये वातावरण का शुद्ध होना जरूरी-हिन्दी लेख (Neccesary Envirment for Public Discussion-HindiArticle)

                                हम यह तो नहीं कहेंगे कि देश में असहिष्णुता की वजह से अभिव्यक्ति का संकट है पर इतना जरूर मानते हैं कि अन्मयस्कता की वजह से सार्वजनिक विमर्श बाधित जरूरी हुआ है। पहले प्रगतिशील और जनवादी बुद्धिजीवी हाशिये पर आये तो अब राष्ट्रवादी भी अपने आपको ठगा हुआ अनुभव करते हैं। इसका कारण यह है कि इन विचाराधारा के बुद्धिजीवियों ने अपने दृष्टिकोण से राजनीति क्षेत्र में सक्रिय समाजवादी, वामपंथी और हिन्दूवादी दलों के आसरे अपनी वैचारिक यात्रा की। प्रगतिशील और जनवादी तो राज्यप्रबंध में इस तरह घुसे हैं कि आज भी उनको सम्मान मिल जाता है पर राष्ट्रवादियों को जैसे भुला ही दिया गया है। हम अगर मूल भारतीय साहित्य लेखन की बात करें तो वह अब असंगठित क्षेत्र के लेखकों की जिम्मेदारी बन गया है। वैसे हमारा प्राचीन साहित्य और हिन्दी का  भक्तिकाल हमारे साहित्य की ऐसी धरोहर है जिसके सहारे हम सदियों तक असंगठित साहित्य के चल सकते हैं। अलबत्ता आपसी विचार विमर्श का जो वातवरण प्रगतिशील व जनवादियों ने जो बनाया था वह प्रदूषित हो गया है। हम दोनों से सहमत नहीं होते पर यह सच हम मानते हैं कि इनकी रचनाओं से हमें अपने अंदर एक अध्यात्मिक लेखक ढूंढने में सहायता मिलती है। हम अध्यात्मिक वादी लेखक हैं इसलिये राष्ट्रवादी विचाराधारा से थोड़ा लगाव है-हालांकि समाज पर राज्य प्रबंध से पूर्ण नियंत्रण की उनकी शैली हमें पसंद नहीं है। हमारा मानना है कि भारतीय समाज एक वैज्ञानिक आधार पर चलता रहा है जिस पर राज्य का अधिक दबाव ठीक नहीं है।  इधर राष्ट्रवादी लेखकों में भी निराशा का माहौल दिख रहा है। 
प्रगतिशील और जनवादी अनुभवी हैं और उन्हें पता है कि वह जनमानस को विमर्श के माध्यम से व्यस्त रखते हैं और राज्प प्रबंध को अपनी नाकामी के प्रचार से बचने के लिये यह अच्छा लगता है। वह सहविचारक राज्य प्रबंध के अनुयायी होते हैं पर जानते हैं कि वह उनके विचार के सहारे नहीं चलता पर जनमानस को व्यस्त रखने के लिये उन्हें जो मिलता है वही पर्याप्त है। इनके विषय व्यापक हैं इसलिये वह सदैव सक्रिय रहते हैं। इसके विपरीत राष्ट्रवादियों के पास सीमित विषय हैं। उन्हें अब अनुभव होने लगा है कि वह राज्य प्रबंध के लिये उतने ही अवांछनीय है जितने पहले थे। ऐसे में हमें तीनों विचाराधारा के लेखकों से हमदर्दी है। हमारी सलाह है कि सभी विचाराधाराओं के इंटरनेट पर सक्रिय ऐसे लेखक जो असंगठित हैं पर सक्षम हैं आपस में मिलें । कोई समागम करें जिसमें सभी अपने खर्चे पर आयें। दिल्ली में बैठे लोग किसी ऐसे उद्यान या मैदान का चयन करें जहां बैठने की व्यवस्था भर हो। संगठित क्षेत्र के बुद्धिजीवियों की तरह कोई बड़ा आयोजन तो संभव नहीं है पर एक पर्यटननुमा आयोजन किया जा सकता है जिसमें लेखक दिल्ली घूमने भी आयें और लेखक मित्रों से मिलकर कोई योजना बनायें। अभी टीवी चैनल, अखबार और इंटरनेट पर देश की मनमोहक प्रतिमओं के दम पर जनमानस को प्रायोजित रूप से व्यस्त रखा जा रहा है पर आगे एक वैचारिक शून्यता का संकट आने वाला है। सत्तर साल पुरानी राजकीय प्रबंध शैली में जरा भी सुधार न है न भविष्य में होने की संभावना है।
हमसे जो बन पड़ेगा करेंगे। मूल रूप से अध्यात्मिकवादी हैं इसलिये तो एकांतवास में ही रहना चाहिये पर स्वभाव ऐसा है कि कुछ नया करने को ढूंढता है।  हमने थोड़ा सोचा है आप ज्यादा सोचो। हम हमेशा ही तैयार हैं। 


Sunday, April 16, 2017

बड़े पदों पर बौनेचरित्र लोग पहुंच गये हें (Bade pade par baone charitra ke log)

                               एक बात समझ में नहीं आती। ऐसा क्या मजबूरी है कि योग प्रचार में शीर्ष पर पहूंचे विद्वान विश्व में जीवन जीने की इकलौती सर्वश्रेष्ठ कला कहलाने वाली इस साधना में दूसरे धर्मों की पूजा पद्धति से करने लगे हैं। बीस साल पूर्व हमने योग साधना प्रारंभ की तो अनेक ऐसी अनुभूतियां हुईं जो सामान्यतौर से नहीं हो सकतीं थीं। सबसे बड़ी बात यह कि योग साधना से आत्मविश्वास बढ़ता है।  जब देह, मन और विचार शुद्ध होते हैं तो मनुष्य की पूरे देह में उत्साह का संचार सदैव बना रहता है। अगर इसे एक पूजा पद्धति माने तो इसका रूप जिज्ञासा तथा ज्ञान की प्रकृति पर आधारित है।  हम अन्य धर्मों की ही क्या भारतीय धर्मों की ही बात करें तो अनेक प्रकार की पूजा पद्धतियां हैं पर वह सभी आर्त व अर्थार्थी भाव पर चलती हैं।  अगर हम इसे भारतीय धर्मों से अलग करके देखें तो यह इकलौती ऐसी कला है जो मनुष्य में चेतना की धारा सदैवा प्रवाहित करती है। मुख्य बात यह कि योग साधना में संकल्प का सर्वाधिक महत्व है जिसे धारण करना प्रारंभ में सहज नहीं होता पर जिसने धारण कर लिया वह कभी असहज नहीं होता। हम तो यह कहते हैं कि बाकी कोई करे या न करे पर भारतीय धर्मावलंबियों को यह अनिवार्य रूप से करना चाहिये।  बाहरी विचाराधारा वाले हमारी जीवन पद्धतियों को नहीं मानते पर हमारे विद्वान उनसे समानता बताकर आखिर कहना क्या चाहते हैं?
                          बड़ा आदमी जब छोटे पर हमला करता है तो अपना ही स्तर गिराता है। मार या गाली खाकर भी छोटा आदमी वहीं रहता है जहां था। इसके विपरीत उसे अन्य लोगों से सहानुभूति मिलती है चाहे वह स्वयं भी गलत रहा हो।
हमारे देश में यह भी एक समस्या है कि बौने चरित्र के लोग बड़े पदों पर विराजे हैं जिन्हें यह पता नहीं कि उनकी ताकत क्या है? वह तो इस चिंता में रहते हैं कि कहीं उनकी औकात सार्वजनिक न हो जाये। इस तनाव में वह ऐसी गल्तियां कर बैठते हैं जो अंततः उनके अंदर का बौना चरित्र बाहर ला देती हैं। रहता तो वह वहीं है पर लोग उसे छोटा और हल्का मानने लगते हैं।

Friday, January 13, 2017

जवानों की शिकायतों पर ध्यान देना चाहिये-हिन्दी संपादकीय(Jawan's Porblamb must solwe-HindiEditorial)

                                 भक्तगणों को बिन मांगे हमारी  राय है कि जवानों की शिकायतों पर प्रतिकूल टिप्पणियां कर अपने इष्ट के प्रति उनके ही सद्भाव को समाप्त न करें। भक्तों को बता दें कि जवानों की यह शिकायतों का दौर अब इसलिये प्रारंभ हो गया है कि वह भक्तों के इष्ट को अपना समझते हैं-मतलब जो पहले उनकी जगह थे उनसे दर्द झेल रहे जवान आशा नहीं करते थे। समस्या दूसरी भी है कि भक्त यह समझें कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनके इष्ट का रवैया शाब्दिक रूप से आक्रामक रहा है पर भूतल पर वह दिखाई नहीं दिया।  भ्रष्टाचारियों में अब उनके इष्ट का भय नहीं रहा इसलिये वह अपने कारमाने जारी रखे हुए हैं।  जवानों का दर्द भक्तों के इष्ट की वजह से नही वरन् भ्रष्टाचारियों की बेदर्दी से उपजा है। जब तक भ्रष्टाचारियों में भक्तों के इष्ट का खौफ दोबारा नहीं आयेगा तब यह समस्या यथावत रहेगी। भक्त यह समझें कि उनके इष्ट की छवि ने जो देवता की छवि बनायी है उसी वजह से जवान अपनी समस्या उन तक पहुुंचाने के लिये आतुर हैं। जवानों की शिकायतों पर आक्षेप कर भक्तगण अपने ही इष्ट की छवि से उनके मन में पैदा हुई आशा पर प्रहार न करें।
                      देश में सुरक्षा तथा गोपनीयता के नाम सरकारी कर्मचारियों को अपनी व्यथा कथा सार्वजनिक रूप से कहने पर अघोषित प्रतिबंध है। सीमा सुरक्षा बल के जवान तेजबहादुर ने अपने खाने पीने में दाल या घी न होने की शिकायत की है-यकीनन उसने सुरक्षा बलों में उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को सोशल मीडिया पर लाकर अपने लिये ही चुनौती मोल ली है-उच्च अधिकारी उसे अब प्रताडि़त करने का कोई अवसर नहीं छोड़ेंगे।  अतः केंद्रीय राजकीय नागरिक कर्मचारी संगठनों के राष्ट्रवादी नेताओं को चाहिये कि वह सेना तथा सीमासुरक्षा बल के जवानों की समस्याओं को पुरजोर ढंग से उठायें। सेना तथा पुलिस के जवान अनुशासन के कारण अपनी बात नहीं कहते इसलिये नागरिक कर्मचारी संगठनों को उनकी व्यथा सरकार तक पहुंचाना चाहिये। प्रगतिशील और जनवादी मजदूर नेताओं ने जबरन कर्मचारी तथा मजदूरों संगठनों की समन्वित संस्थाओं पर कब्जा कर रखा है। यह लोग केवल फिक्सिंग करते हैं। अतः राष्ट्रवादी मजदूर तथा कर्मचारी नेताओं को इन समन्वित संस्थाओं पर बनाना चाहिये।
                                    हम पुस्तक मेला 2017 देखने दिल्ली आना चाहते हैं। दिल्ली कई बार आये हैं पर ज्यादा घूमे नहीं है। प्रगति मैदान तक कैसे जायें कैसे आयें-इस पर भी जानकारी ले रहे हैं। क्या सुबह घर से निकलकर शाम तक वहां पहुंच पायेंगे। फिर रात को वहां से ग्वालियर  लौट आयें-ऐसा कार्यक्रम बनाना पड़ेगा। इधर रेलों का भी कुहरे के कारण भरोसा कम रह गया है। दिल्ली में हम अगर रुकें तो कहां? यह सवाल भी आता है। पुस्तक मेला है तो कोई साथी भी चलने के लिये नहीं मिलेगा-आज जब मोबाइल युग है कौन इस तरह बेगार का साथी बनेगा। मतलब पूरा सफर अकेले मौन से मित्रता कर बिताना पड़ेगा।
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                               पैतालीस साल पहले 1972 में हम एक बार अपने पापा के साथ प्रगति मैदान विज्ञान मेला देखने  आये थे जो भारत पाक युद्ध के बाद लगा था। तब बहुत छोटे थे तब हमारे साथ ताऊ और चाचा के लड़के भी थे।  वहां से खरीद कुछ नहीं पाये थे क्योंकि उस समय निम्न मध्यम वर्गीय परिवारें की स्थिति इस तरह की नहीं थी कि महंगे कैमरे या अन्य वस्तुऐं खरीद सकें-देखना भी धन्य माना जाता था।  अब अगर आये तो पुस्तकें तो जरूर खरीदेंगे। देखें आगे क्या विचार बनता है।

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