Wednesday, December 31, 2008

कबीर के दोहे: फल की चाहत से सेवा कार्य में मन नहीं लगता

फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम
कहैं कबीर सेवक नहीं, कहैं चौगुना दाम


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो मनुष्य अपने मन में इच्छा को रखकर निज स्वार्थ से सेवा करता है वह सेवक नही क्योंकि सेवा के बदले वह कीमत चाहता है। यह कीमत भी चौगुना होती है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-हमने देखा होगा कई लोग समाज की सेवा का दावा करते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य केवल आत्मप्रचार करना होता है। कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होने अपने नाम से सेवा संस्थान बना लिए है और दानी लोगों से चन्दा लेकर तथाकथित रूप से समाज सेवा करते हैं और मीडिया में अपनी ‘समाजसेवी’की छबि का प्रचार करते हैं ऐसे लोगों को समाज सेवक तो माना ही नहीं जा सकता। इसके अलावा कई धनी लोगों ने अपने नाम से दान संस्थाए बना रखी हैं और वह उसमें पैसा भी देते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य करों से बचना होता है या अपना प्रचार करना-उन्हें भी इसी श्रेणी में रखा जाता है क्योंकि वह अपनी समाज सेवा का विज्ञापन के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
कुल मिलाकर समाजसेवा आजकल एक व्यापार की तरह हो गयी है। सच्चा सेव तो उसे माना जाता है जो बिना प्रचार के निष्काम भाव से सच्ची सेवा करते हैं। अपने भले काम का प्रचार करने का आशय यही है कि कोई आदमी उसका प्रचार कर फायदा उठाना चाहता है। कई बार ऐसा भी होता है कि हम जब कोई भला काम कर रहे होते हैं तो यह भावना मन में आती है कि कोई ऐसा करते हुए हमें देखें तो इसका आशय यह है कि हम निष्काम नहीं हैं-यह बात हमें समझ लेना चाहिये। जब हम कोई भला काम करें तो यह ‘हमारा कर्तव्य है’ ऐसा विचार करते हुए करना चाहिये। उसके लिये प्रशंसा मिले यह कभी नहीं सोचें तो अच्छा है। इससे एक तो प्रशंसा न मिलने पर निराशा नहीं होगी और काम भी अच्छा होगा।
संत कबीर संदेशः फल की चाहा में मन से काम नहीं होता
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Tuesday, December 30, 2008

विदुर नीतिः विपत्ति में भी उत्तम आचरण करे वही सर्वश्रेष्ठ

1.काम क्रोध का त्याग और सुपात्र को धन दान देने वाला राज्य प्रमुख ही विशेषज्ञ है। जो शास्त्रों का ज्ञान रखता और अपने कर्तव्य को शीघ्र पूरा करता है उस राजा को लोग प्रमाणिक मानते है।
2. जो राज्य प्रमुख मनुष्यों अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करने का तरीका जानता है और जो किसी अपराधी के अपराध का प्रमाण मिल जाने पर उनको दंड देता है उसके पास अपार धन संपदा चली आती है। राज्य प्रमुख को कम या दंड अधिक मात्रा में दंड देने के साथ ही क्षमा करना भी आना चाहिये।
3.जो व्यक्ति किसी कमजोर का अपमान नहीं करता, सदा सावधान रहकर अपने विरोधी और शत्रु के साथ बुद्धिमानी से व्यवहार करता है, ताकतवर के साथ संघर्ष नहीं करता तथा समय आने पर पराक्रम दिखाता है वह धीर पुरुष कहलाता है।
4.संकट आने पर जो व्यक्ति दुःखी नहीं होता बल्कि सावधानी पूर्वक अपना स्वाभाविक कर्म करता है वही महापुरुष है जो तमाम तरह की विपत्तियों को सहते हुए अपने विरोधियों और प्रतिकूल स्थितियों पर विजय पा लेता है।
5.जो कभी उद्दण्डता करते हुए कोई वेश नहीं बनाता, दूसरों के सामने डींग नहीं हांकता,क्रोध से व्याकुल होने पर भी कठोर या कटु वचन नहीं कहता वह मनुष्य सदा ही सभी को प्रिय होता है।
6.जो शांत हो चुके वैर को पुनः जागृत नहीं करता, कभी अहंकार में वचन नहीं कहता, कहीं हीनता का प्रदर्शन नहीं करता तथा किसी प्रकार की विपत्ति में पड़े होने का भाव लेकर भी कोई अनुचित काम नहीं करता तथा उत्तम साधनों से आय अर्जित करने वाले पुरुष को सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है।
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Monday, December 29, 2008

भृतहरि संदेश: अहंकारी धनवानों के तरफ़ क्यों देखते हो?

किं कन्दाः कन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा वा गिरिभ्यः
प्रघ्वस्ता तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च शाखाः।
वीक्ष्यन्ते यन्मुखानि प्रस्भमपगतप्रश्रयाणां खलानां
दुःखाप्तसवल्पवित्तस्मय पवनवशान्नर्तितभ्रुलतानि ।।


हिंदी में भावार्थ- वन और पर्वतों पर क्या फल और अन्य खाद्य सामग्री नष्ट हो गयी है या पहाड़ों से निकलने वाले पानी के झरने बहना बंद हो गये हैं? क्या वृक्षों से रस वाले फलों की शाखायें नहीं रहीं हैं। उनसे तो तन ढंकने के लिये वल्कल वस्त्र भी प्राप्त होते हैं। ऐसा क्या कारण है कि गरीब लोग उन अहंकारी और दुष्ट लोगों की और मुख ताकते हैं जिन्होंनें थोड़ा धन अर्जित कर लिया हैं।

वर्तमान संदर्भ में संक्षिप्त संपादकीय व्याख्या-यह तो प्रकृति का ही कुछ रहस्य है कि माया सभी के पास समान नहीं रहती। जन्म तो सभी एक तरह से लेते हैं पर माया के आधार पर ही गरीब और अमीर का श्रेणी तय होती है। वैसे प्रकृति ने इतना सभी कुछ बनाया है कि आदमी अगर आग न भी जलाये तो भी उसक पेट भरने का काम चल जाये। तमाम तरह के रसीले फल पेड़ पर लगते हैं पहाड़ों से निकलने वाले झरने पानी देते हैं पर मनुष्य का मन भटकता है केवल उन भौतिक पदार्थों में जो न खाने के काम आते हैं न पीने के। सोना चांदी रुपया और तमाम तरह के अन्य पदार्थ वह संग्रह करता है जो केवल मन के तात्कालिक संतोष के लिये होते हैं। जिनके पास थोड़ा धन आ जाता है गरीब आदमी उसकी तरफ ही ताकता है कि काश इतना धन मुझे भी प्राप्त होता। या वह इस प्रयास में रहता है कि उस धनी से उसका संपर्क बना जाये ताकि समाज में उसका सम्मान बने भले ही उससे कोई आर्थिक लाभ न हो-जरूरत पड़ने पर सहायता की भी आशा वह करता है।
ऐसे विचार हमारे अज्ञान का परिचायक होते हैं। हमें इस प्रकृति की तरफ देखना चाहिये जिसने इतना सब बनाया है कि कोई आदमी दूसरे की सहायता न करे तो भी उसका काम चल जाये। ऐसे में धनिक लोगों की तरफ मूंह ताक कर अपने अंदर कुंठा नहीं पालना चाहिये।
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Friday, December 26, 2008

मनुस्मृति: दंड के जाग्रत होने पर ही आराम से प्रजा सो सकती है

  1. देश, काल, विद्या एवं अन्यास में लिप्त अपराधियों की शक्ति को देखते हुए राज्य को उन्हें उचित दण्ड देना चाहिए।
  2. सच तो यह है कि राज्य का दण्ड ही राष्ट्र में अनुशासन बनाए रखने में सहायक तथा सभी वर्गों के धर्म-पालन कि सुविधाओं की व्यवस्था करने वाला मध्यस्थ होता है।
  3. सारी प्रजा के रक्षा और उस पर शासन दण्ड ही करता है, सबके निद्रा में चले जाने पर दण्ड ही जाग्रत रहता है।
  4. भली-भांति विचार कर दिए गए दण्ड के उपयोग से प्रजा प्रसन्न होती है। इसके विपरीत बिना विचार कर दिए गए अनुचित दण्ड से राज्य की प्रतिष्ठा तथा यश का नाश हो जाता है।
  5. यदि अपराधियों को सजा देने में राज्य सदैव सावधानी से काम नहीं लेता, तो शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर लोंगों को उसी प्रकार नष्ट कर देते हैं, जैसे बड़ी मछ्ली छोटी मछ्ली को खा जाती है।
  6. संसार के सभी स्थावर-जंगम जीव राजा के दण्ड के भय से अपने-अपने कर्तव्य का पालने करते और अपने-अपने भोग को भोगने में समर्थ होते हैं ।

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Thursday, December 25, 2008

रहीम के दोहे: मूर्ख को दंड देने में अधिक विचार न करें

खीरा सिर तें काटिए, मलियत नमक बनाय

रहिमन करुए मुखन को , चाहिअत इहै सजाय

कविवर रहीम कहते हैं कि जिस तरह खीरे का मुख काटकर उस पर नमक घिसा जाता है तभी वह खाने में स्वाद देता है वैसे ही मूर्खों को अपनी करनी की सजा देना चाहिऐ ताकि वह अनुकूल व्यवहार करें।

नये संदर्भ में व्याख्या-यह सही है कि बडों को छोटों के अपराध क्षमा करना चाहिए, पर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो नित्य मूर्खताएं करते रहते हैं। कभी किसी की मजाक उडाएंगेतो कभी किसी को अपमानित करेंगे। कुछ तो ऐसी भी मूर्ख होते हैं जो दूसरे व्यक्ति को शारीरिक, आर्थिक और मानसिक हानि पहुँचने के लिए नित्य तत्पर रहते हैं। ऐसे लोगों को बर्दाश्त करना अपने लिए तनाव मोल लेना है। ऐसे में अपने क्रोध का प्रदर्शन कर उनको दण्डित करना चाहिए। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो उनका साहस बढ़ता जायेगा।

व कई बार ऐसा देख चुका है कि कई लोग तो इतने नालायक होते हैं कि उनको प्यार से समझाओ तो और अधिक तंग करने लगते हैं और जब क्रोध का प्रदर्शन कर उन्हें धमकाया जाये तो वह फिर दोबारा वह बदतमीजी करने का साहस नहीं कर पाते। हालांकि इसमें अपनी सीमाओं का ध्यान अवश्य रखना चाहिऐ और क्रोध का बहाव बाहर से बाहर होना चाहिए न कि उसकी पीडा हमारे अन्दर जाये।
कुछ लोगों की आदत होती है कि वह दूसरों की मजाक उड़ाकर यह अभद्र व्यवहार कर उन्हें अपमानित करते हैं। अनेक लोग उनसे यह सोचकर झगड़ा मोल नहीं लेते कि इससे तो मूर्ख और अधिक प्रज्जवलित हो उठेगा पर देखा गया है कि जब ऐसे लोगों को किसी से कड़े शब्दिक प्रतिकार का सामना करना पड़े तब पीछे हट जाते हैं। अगर प्रतिकार नहीं किया जाये तो वह निरंतर अपमानित करते रहते हैं। अगर हमें ऐसा लगता है कि कोई हमारा निरंतर अपमान या उपेक्षा कर अपने को श्रेष्ठ साबित कर हमारे साथ बदतमीजी कर रहा है तो उसका प्रतिकार करने में अधिक सोचना नहीं चाहिये।


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Wednesday, December 24, 2008

कौटिल्य संदेश: बुद्धिमान लोग संकट में भी अपना संयम नहीं खोते

1.चम्पा के साथ रखने से तिलों में वैसे ही सुगंध आ जाती है, पर रस खाया नहीं जाता। उसकी सुगंध तिलों में जाती है। इस प्रकार संपूर्ण गुण अपना प्रभाव छोड़ते हैं भले ही उनको प्रत्यक्ष या सीधे ग्रहण नहीं किया जाता।

संक्षिप्त व्याख्या-किसी भी अच्छे या बुरे व्यक्ति से संपर्क करने पर उसका प्रभाव होता है। जिस तरह चंपा का रस नहीं कोई पीता नहीं पर उसकी सुगंध अपना प्रभाव छोड़ती है उसी प्रकार से जब किसी अच्छे व्यक्ति की संगति की जाती है तो वह कोई अपने गुण नहीं डाल देता पर उसका प्रभाव संगत करने वाले पर स्वतः ही होता है। अगर किसी ज्ञानी या विद्वान से संगत की जाये तो वह स्वयं कोई बात न बताये पर उसकी बात सुनते हुए संगत करने वाला स्वतः ही ज्ञान प्राप्त करता जाता है।
2.बुद्धिमान भले ही परेशानी में रहे पर पर अपना शुद्ध आचरण रखता है इसके लिये उसकी प्रशंसा भी होती है। वह कभी भी अपयश का भागी नहीं बनता।

संक्षिप्त व्याख्या-यह जीवन तो उतार चढाव से भरा है। अमीरी गरीबी और बीमारी हारी का चक्र चलता रहता है। मुख्य बात यह है कि कोई व्यक्ति उनका सामना कैसे करता है। बुद्धिमान लोग अपना संयम नहीं खोते और तनाव के बावजूद अपने आचरण से भ्रष्ट नहीं होते। इसी कारण समाज में उनका संघर्ष उदाहरण बनता है। वह कभी भी अपयश के भागी नहीं बनते। बुद्धिहीन लोग अपना संयम खोकर अनैतिक आचरण पर उतर आते हैं पर बुद्धिमान समय की बलिहारी मानकर अपने निश्चय पर डटे रहते हैं। उनके जीवन से दूसरे लोग सीखते हैं। समाज में सर्वत्र उनकी प्रशंसा होती है।
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Tuesday, December 23, 2008

रहीम संदेश: संगति का प्रभाव पड़ता है

अनकीन्ही बातें करै, सोवत जागै जोय
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय

कविवर रहीम कहते हैं कि कई लोग ऐसे हैं जो कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं। ऐसे लोग जागते हुए भी सोते हैं। ऐसे अहंकारी व्यक्ति को सिखाना या जागृत करना बिल्कुल व्यर्थ है।

कदल सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन

कविवर रहीम कहते हैं कि कि स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूंदें कदली में प्रवेश कर कपूर बना जाता है, समुद्र की सीपी में जाकर मोती का रूप धारण कर लेता है और वही जल सर्प के मुख में जाकर विष बन जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे व्यक्तियों की अभाव नहीं है जो अपनी कथनी और करनी में भारी भेद प्रकट करते हुए थोड़ा भी संकोच अनुभव नहीं करते। एक तरफ वह आदर्श की बात करते हुए नहीं थकते पर दिन भर वह माया के फेरे में सारी नैतिकता को तिलांजलि देते हैंं। अगर ऐसा न होता तो इस देश में इतने सारे साधु और संत और उनके करोड़ों शिष्य हैं फिर भी पूरे देश मेंे अनैतिकता, भ्रष्टाचार, गरीबों और परिश्रमियों का दोहन तथा अन्य अपराधों की प्रवृतियों वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। आजकल ईमादारी से संग्रह करना कठिन हो गया है। इसका आशय यह है कि जो कमा रहे हैं वही दान कर रहे हैं और अपने गुरुओं के आश्रमों में भी उपस्थिति दिखाते हैं। हर जगह धन सम्राज्य है पर माया से दूर रहने की बात सभी करते हैं। अपराधी हो या सामान्य आदमी भक्ति जरूर करते दिखते हैं। अपराधी अपने दुष्कर्म से बाज नहीं आता और सामान्य आदमी को अपने काम से ही समय नहीं मिलता। बातें सभी आदर्श की करते हैं। यही भेद है जिसके कारण देश में अव्यवस्था फैली है।

इसके अलावा सभी लोग भले आदमी से संगति तो करना ही नहीं चाहते। जो समाज को अपनी शक्ति से आतंकित कर सकता है लोग उससे अपने संपर्क बनाने को लालायित रहते हैं। वह सोचते हैं कि ऐसे असामाजिक तत्व समय पर उनके काम में आयेंगे पर धीरे-धीरे उनके संपर्क में रहते हुए उनका स्वयं का नैतिक आचरण पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। संगति का प्रभाव होता है-यह बात निश्चित है। अगर किसी शराबी के पास कोई व्यक्ति बैठ जाये तो उसकी बातें सुनकर उसका स्वयं का मन वितृष्णा से भर जाता है और वही व्यक्ति किसी सत्संगी के पास बैठे तो उसमें अच्छे और सुंदर भावों का प्रवाह अनभूति कर सकता है। अतः अपने लिये हमेशा अच्छी संगति ही ढूंढना चाहिए।
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Monday, December 22, 2008

संत कबीर संदेश: दिल टूटने पर कुछ नहीं सुहाता

धरती फाटे मेघ मिलै, कपड़ा फाटे डौर
तन फाटे को औषधि, मन फाटे नहिं ठौर


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब पानी बरसता है तो फटी हुई धरती आपस में मिल जाती है और फटा हुआ कपडा डोरे से सिल जाता है और बीमार देह को औषधि से स्वस्थ किया जा सकता है पर अगर कही मन अगर फट गया तो उसके लिये कोई ठिकाना नहीं है।

बिना सीस का मिरग है, चहूं दिस चरने जाय
बांधि लाओ गुरुज्ञान सूं, राखे तत्व लगाय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यह मन तो तो बिना सिर के मृग की तरह है जो चारों तरफ भागता रहता है। इस पर नियंत्रण करने के लिये किसी ज्ञानी गुरू से तत्वज्ञान प्राप्त कर नियंत्रण करना चाहिए तभी जीवन का आनंद लिया जा सकता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या- सब भौतिक चीजों पर हम अपना नियंत्रण कर लेते हैं पर मन पर कोई नियंत्रण नहीं कर पाता। वह चारों तरफ आदमी की दौड़ाता है। अपने देहाभिमान के चलते हम कभी नहीं अनुभव कर पाते कि अकारण तमाम तरह की उपलब्धियों के लिये दौड़ लगा रहे हैं। भक्ति भाव से दूर रहकर हम अपने आपको बहुत तकलीफ देते हैं। कोई भौतिक चीज मिल जाती है तो उसे पाकर पुलकित हो उठते हैं पर जल्द ही उससे ऊब जाते हैं फिर किसी नयी चीज की तलाश में लग जाते हैं। फिर सब चीजों से ऊब जाते हैं उससे बचने के लिये निरर्थक बोलने लगते हैं तमाम तरह के स्वांग रचते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि हम अपने आपको धोखा देने लगते हैं।

हम अपने मन के साथ भागते हैं पर अपने अंदर बैठे जीवात्मा को नहंी देखते जो भगवान भक्ति के लिये ताकता रहता है। हम भटकते हुए ऐसे गुरूओं की शरण में जाते हैं जो स्वयं तत्वज्ञान से रहित हैं और किताबों से रटकर हमें सुनाते हैं। ज्ञान का मतलब रटने से नहीं है बल्कि उसे धारण करने से है। ऐसे में हमें निष्काम भाव से ज्ञान देने वाले गुरूओं की शरण लेकर अपने मन पर नियंत्रण करने का प्रयास करना चाहिए।
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Saturday, December 20, 2008

संत कबीर सन्देश:इष्ट बदलने वाला कभी तर नहीं सकता

कामी तरि, क्रोधी तरै, लोभी तरै अनन्त
आन उपासी कृतधनी, तरै न गुरु कहन्त

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कामी और क्रोधी तर सकते हैं और लोभी भी इस भव सागर से तरकर परमात्मा को पा सकते हैं पर जो अपने इष्ट देव की उपासना त्यागता है और गुरु का संदेश नहीं मानता वह कभी तर नहीं सकता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर कबीरदास जी के इस दोहे का आशय समझें तो उनके अनुसार वह उस हर व्यक्ति को अपने इष्ट देव की उपासना न छोड़ने का संदेश दे रहे हैं। एक तरह से धर्म परिवर्तन को एक भ्रम बता रहे हैं। उस समय धर्म शब्द उस रूप में प्रचलित नहीं था जिस तरह आज है बल्कि लोगों को अपने अपने इष्ट देवों को उपासक के रूप में पहचान थी यही कारण है कि कबीरदास जी के साहित्य में धर्मों के नाम नहीं मिलते बल्कि सभी लोगों को एक समाज मानकर उन्होंने अपनी बात कही है।
दरअसल धर्म का आशय यह है कि निंरकार परमात्मा की उपासना, परोपकार, दान और सभी के साथ सद्व्यवहार करना। वर्तमान समय में इष्ट देवों की उपासना के नाम पर धर्म बनाकर भ्रम फैला दिया गया है और विश्व के अनेक भागों में कई लोगोंं को धन तथा रोजगार का लालच या जीवन का भय दिखाकर धर्म परिवर्तन करवाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। ऐसे कई समाचार आते हैं कि अमुक जगह धर्म अमुक ने धर्म परिवर्तन कर लिया। ऐसा समाचार केवल भारत में नहीं अन्य देशों से भी आते है। यह केवल कुछ लोगों का भ्रम है या वह भ्रम फैलाने और प्रचार पाने के लिये ऐसा करते हैं।

देख जाये तो परमात्मा एक ही है सब मानते हैं। लोग उसे विभिन्न रूपों और नामों से जानते हैं। ऐसे में उसके किसी स्वरूप का बदलकर दूसरे स्वरूप में पूजने का आशय यही है कि आदमी भ्रमित हैं। हमारे देश में तो चाहे आदमी कैसा भी हो किसी न किसी रूप में उसकी उपासना करता है। कोई न कोई पवित्र ग्रंथ ऐसा है जिसे पढ़ता न हो पर मानता है। ऐसे में वह एक स्वरूप को छोड़कर दूसरे की उपासना और एक पवित्र ग्रंथ को छोड़कर दूसरा पढ़ने लगता है तो इसका आशय यह है कि उसकी नीयत ठीक नहीं और जो इसके लिये प्रेरित कर रहे हैं उन पर भी संदेह होता है। संत कबीरदास जी के कथानुसार ऐसे लोग कभी जीवन में तर नहीं सकते भले ही दुष्ट और कामी लोग तर जायें। संत कबीरदास जी तो निरंकार के उपासक थे और वर्तमान में तो पूरा विश्व एक ही परमात्मा को मानता है और ऐसे में उसके स्वरूप को बदलकर दूसरे के रूप में पूजना वह स्वार्थ और लोभ का परिणाम मानकर सभी को उसके लिये रोकने का संदेश कबीरदास जी देते थे।
आशय यह यही है कि बचपन से जिस इष्ट का माना उसे छोड़कर दूसरे की उपासना नहीं करना चाहिए। न ही अपने गुरु, माता पिता और बंधुओं द्वारा सुझाये गये इष्ट के अलावा किसी और का विचार नहीं करना चाहिए। अगर कोई ऐसा करता है तो वह स्वार्थ से प्रेरित है और स्वार्थ से की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की चाहे जो भी इष्ट हो उसकी निष्काम भक्ति करना चाहिए।
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Thursday, December 18, 2008

संत कबीर सन्देश:बिना समझे प्राप्त ज्ञान निरर्थक हो जाता है


सीतलता तब जानिये, समता रहै समाय
विघ छोड़ै निरबिस रहै, सक दिन दूखा जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने अंदर तभी शीतलता की अनुभूति हो सकती है जब हर स्थिति के लिए हृदय में समान भाव आ जाये। भले ही अपने काम में विघ्न-बाधा आती रहे और सभी दिन दुःख रहे तब भी आदमी के मन में शांति हो-यह तभी संभव है जब वह अपने अंतर्मन में सभी स्थितियों के लिए समान भाव रखता हो।

यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय
बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि उसी शब्द के प्रभाव की प्रशंसा की जाती है जो सभी लोगों के हृदय में चुंबक की तरह प्रभाव डालता है। जो मधुर वचन नहीं बोलते या रूखा बोलते हैं वह कभी भी अपने जीवन के संकटों से कभी उबर नहीं सकते।

सीखे सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय
बिना समझै शब्द गहै, कछु न लोहा लेय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने गुरूजनों से शब्द सीखकर उसे अपने हृदय में धारण कर उनका सदुपयोग करता है वही जीवन का आनंद उठा सकता है पर जो केवल उन शब्दों को रटता है उसका कभी उद्धार नहीं हो सकता।
वर्त्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-कुछ लोग थोडा ज्ञान प्राप्त कर फिर उसे बघारना शुरू कर देते हैं।कुछ लोगों तो ऐसे भी हैं जिन्होंने भारतीय अध्यात्म ग्रंथों का अध्ययन इसलिए किया ताकि वह गुरु बन कर अपनी पूजा करा सकें। ऐसे लोगों को उस अध्यात्म ज्ञान से कोइ संबंध नहीं है जो वास्तव में ह्रदय को शांत और समभाव में स्थित रखने में सहायक होता है। ऐसे कथित गुरुओं ने ज्ञान को रट जरूर लिया है पर धारण नहीं किया इसलिए ही उनके शिष्यों पर भी उनका प्रभाव नज़र नहीं आता। उनके वाणी से निकले शब्द तात्कालिक रूप से जरूर प्रभाव डालते हैं पर श्रोता के ह्रदय की गहराई में नहीं उतरते क्योंकि वह कथित वक्ताओं के ह्रदय की गहराई से वह शब्द निकल कर नहीं आते। आजकल के गुरुओं का नाम बहुत है पर उनका प्रभाव समाज पर नहीं दिखता।
शब्द लिखे जाएँ या बोले, उनका प्रभाव तभी होता है जब वह श्रोता या लेखक से उत्पन्न होता है। यह तभी संभव है जब उसने अपना अध्ययन,चिंतन और मनन गहराई से किया हो।
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Wednesday, December 17, 2008

रहीम सन्देश:कथनी और करनी में भेद ठीक नहीं

अनकीन्ही बातें करै, सोवत जागै जोय
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय

कविवर रहीम कहते हैं कि कई लोग ऐसे हैं जो कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं। ऐसे लोग जागते हुए भी सोते हैं। ऐसे अहंकार व्यक्ति को सिखाना या जागृत करना बिल्कुल व्यर्थ है।

कदल सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन

कविवर रहीम कहते हैं कि कि स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूंदें कदली में प्रवेश कर कपूर बना जाता है, समुद्र की सीपी में जाकर मोती का रूप धारण कर लेता है और वही जल सर्प के मुख में जाकर विष बन जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे व्यक्तियों की अभाव नहीं है जो अपनी कथनी और करनी में भारी भेद प्रकट करते हुए थोड़ा भी संकोच अनुभव नहीं करते। एक तरफ वह आदर्श की बात करते हुए नहीं थकते पर दिन भर वह माया के फेरे में सारी नैतिकता को तिलांजलि देते हैंं। अगर ऐसा न होता तो इस देश में इतने सारे साधु और संत और उनके करोड़ों शिष्य हैं फिर भी पूरे देश मेंे अनैतिकता, भ्रष्टाचार, गरीबों और परिश्रमियों का दोहन तथा अन्य अपराधों की प्रवृतियों वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। आजकल ईमादारी से संग्रह करना कठिन हो गया है। इसका आशय यह है कि जो कमा रहे हैं वही दान कर रहे हैं और अपने गुरुओं के आश्रमों में भी उपस्थिति दिखाते हैं। हर जगह धन सम्राज्य है पर माया से दूर रहने की बात सभी करते हैं। अपराधी हो या सामान्य आदमी भक्ति जरूर करते दिखते हैं। अपराधी अपने दुष्कर्म से बाज नहीं आता और सामान्य आदमी को अपने काम से ही समय नहीं मिलता। बातें सभी आदर्श की करते हैं। यही भेद है जिसके कारण देश में अव्यवस्था फैली है।

इसके अलावा सभी लोग भले आदमी से संगति तो करना ही नहीं चाहते। जो समाज को अपनी शक्ति से आतंकित कर सकता है लोग उससे अपने संपर्क बनाने को लालायित रहते हैं। वह सोचते हैं कि ऐसे असामाजिक तत्व समय पर उनके काम में आयेंगे पर धीरे-धीरे उनके संपर्क में रहते हुए उनका स्वयं का नैतिक आचरण पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। संगति का प्रभाव होता है-यह बात निश्चित है। अगर किसी शराबी के पास कोई व्यक्ति बैठ जाये तो उसकी बातें सुनकर उसका स्वयं का मन वितृष्णा से भर जाता है और वही व्यक्ति किसी सत्संगी के पास बैठे तो उसमें अच्छे और सुंदर भावों का प्रवाह अनभूति कर सकता है। अतः अपने लिये हमेशा अच्छी संगति ही ढूंढना चाहिए।
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Monday, December 15, 2008

संत कबीर संदेशः हम हैं उस देश के वासी, जहां है ब्रह्म की कृपा अच्छी खासी

हम वासी वा देश के,जहां पुरुष की आन
दुःख सुख कोई व्यापै नहीं, सब दिन एक समान

संत कबीरदास जी कहते हैं कि हम उस देश क निवासी है जहां परमात्मा रूपी पुरुश की मर्यादा रखी जाती है। यहां पर कोई दुःख सख नहीं है। एक दिन एक समान हैं।

हम वासी वा देश के, जहां ब्रह्म का कृप
अविनासी विनसै नहीं, आवै जाय सरूप


संत शिरोमणि कबीरदास जी का आशय यह है कि हमारा देश अन्य देशों से कही अधिक सौभाग्यशाली है जहां ब्रह्म की अत्यधिक कृपा है। जहां उस अविनाशी तत्व का कभी विनाश नहीं होता। देह का क्षय और मरण तो होता रहता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- आज से चार सौ वर्ष पूर्व ही श्री कबीरदास जी ने यह अनुभव कर लिया था कि प्राकृतिक दृष्टि से अपना देश अन्य देशों से कहीं अधिक संपन्न है और जो अध्यात्म ज्ञान है उस आभास भी यहीं के लोगों में हैं। अगर देखा जाये तो जलवायु,खनिज और कृषि संपदा से अपने यहां संपन्नता है जो अन्य कहीं नहीं है। इस देश को किसी अन्य देश से सहायता की आवश्यकता नहीं है। इसके साथ ही किसी प्रकार का विचार या अध्यात्म ज्ञान भी कहीं से नहीं चाहिये। संत कबीरदास जी ने अपने जीवन में इस बात की अनुभूति कर ली थी कि विदेशी लोग इस देश में अपना मायाजाल फैला रहे हैं क्योंकि उनकी दृष्टि इसी प्राकृतिक संपदा पर थी। उन्होंने देखा कि कहीं जाति तो कही गरीबी के नाम पर इस देश में भेद पैदा किया जा रहा है। इसलिये उन्होंने अपने देश के लोगों को चेताया कि किसी भी चक्कर में मत पड़ो।

इसके बावजूद उनकी बातों पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया और परिणाम यह हुआ कि तात्कालिक लाभ की खातिर यहां के अनेक लोगों ने विदेशियों को यहां न केवल आने दिया बल्कि उनको सम्मान देने के साथ उनके विचारों का अनुकरण किया। आज हालत यह है कि न केवल अपनी प्राकृतिक संपदा निरंतर लुटती रही है और पश्चिमी सभ्यता और विचारा धारा को भी ढोना पड़ रहा है जबकि अपने देश का अध्यात्म ज्ञान का कहीं मुकाबला नहीं है।
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Sunday, December 14, 2008

विदुर नीतिः देवता डंडा लेकर सदैव पहरा नहीं देते

1.देवता लोग चरवाहों की तरह डंडा लेकर किसी की रक्षा के लिये पहरा नहीं देते। जिसकी रक्षा और कल्याण करना होता है उसकी बुद्धि को वैसे ही गुणों से संयुक्त कर देते हैं।
संक्षिप्त संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग अपने कार्य करने में यह कहकर लापरवाह दिखने का प्रयास करते हैं कि जो भी करेगा ‘वह भगवान और देवता करेगा।’ कुछ लोग दिखावे के लिये भक्ति कर बस यही समझते हैं कि बस उनका काम हो गया। अनेक कथित साधु संत भी यही कहते हैं कि भगवान और देवता की दया से सारे काम होते हैं। इस मत का समर्थन नहीं किया जा सकता।

दैहिक रूप से मनुष्य ही अपने कर्म का कर्ता है पर उसकी बुद्धि भगवान और देवताओं की आराधना से निर्मित होती है। जो मनुष्य निष्काम भाव से भगवान और देवताओं की आराधना करता है तो उसकी बुद्धि भी वैसे ही निष्पाप हो जाती है और स्वतः उसके हाथों से पवित्र काम संपन्न होते हैं। इसलिये ऐसे ही भगवान या देवताओं के स्वरूप की आराधना करना चाहिये जिससे अपने हृदय में जीवंतता की अनुभूति होती हो। जैसा देवता का स्वरूप होता है वैसी ही उसकी बुद्धि निर्मित होती है और वैसे ही उसका कर्म होता है और फिर तो उसका वैसा ही परिणाम निश्चित होता है।

भगवान और देवताओं की आराधना कर यह नहीं समझना चाहिये कि वह कोई डंडा लेकर आदमी के कल्याण और रक्षा के लिये पहरा देते हैं। उनकी आराधना कर हम कोई उनको अपनी सेवा में नियुक्ति नहीं देते। हम जिस तरह उनकी भक्ति करते हैं उसके अनुसार ही हमारी बुद्धि,कर्म और फल का निर्माण होता है। हृदय में उनके स्वरूप कार धारण करना भी आवश्यक है। दिखावे की आराधना या भक्ति करने से कोई लाभ नहीं होता।
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Saturday, December 13, 2008

विदुर नीतिःजिसकी प्रसन्नता से लाभ न हो उसके क्रोध की भी कोई परवाह नहीं करता

1.अगर साधन छोटा और संक्षिप्त है और कार्य और उद्देश्य महान तो भी उस कार्य को बुद्धिमान पुरुष प्रारंभ कर देते हैं। ऐसे कामों में विघ्न की आशंका को अपने मन में ही नहीं आने देते।

संक्षिप्त व्याख्या-अगर हमें कोई कार्य या अभियान प्रारंभ करना है और उसके लिये हमारे साधन सीमित और छोटे हैं तो भी प्रारंभ कर देना चाहिये। जैसे जैसे हम उस काम या अभियान में आगे बढ़ते जायेंगे वैसे वैसे ही साधन स्वतः बढ़ते जायेंगे। इस बात की परवाह नहीं करना चाहिये कि हम गरीब या कमजोर हैं। अगर हमार उद्देश्य पवित्र और जनहित में है तो एक नहीं हजारों साधन अपने आप आ जायेंगे। मुख्य बात तो काम शुरु करने की है।
2.जिसकी प्रसन्नता से किसी को कोई लाभ नहीं होता तो उसके क्रोध की भी कोई परवाह नहीं करता-जैसे कोई स्त्री नपुंसक पति नहीं चाहती।
संक्षिप्त व्याख्या-जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब कोई हमें प्रसन्न करता है तब उसका प्रतिफल उसे देना चाहिये। कई बार ऐसा होता है कि कोई हमारा काम कर देता पर हम यह मानकर उसकी उपेक्षा कर देते हैं कि यह तो उसका कर्तव्य या धर्म है उसे करना ही था। अगर व्यक्ति हमसे छोटा होता है तो लगता है कि उसने हमारे व्यक्तित्व के प्रभाव में कर दिया तो उसे क्या देना?
यह भाव रखना ठीक नहीं है। जब लोगों को यह पता लग जाता है कि प्रसन्न होने पर यह व्यक्ति किसी को कुछ नहीं देता तो फिर उसके क्रोध की भी परवाह कोई नहीं करता।
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Friday, December 12, 2008

भृतहरि शतक: साधु पुरुष होते हैं गेंद के समान

पातितोऽपि कराघातैरुत्पत्त्येव कन्दुकः
प्रायेण साधुवृत्तोनामस्थाविन्यो विपत्तयः


हिंदी में भावार्थ-जिस तरह गेंद जमीन पर पटक दिये जाने के बाद फिर वापस आ जाती है वैसे ही साधु सत्पुरुष भी संकट आने पर उसमें से सहजता से निकल आते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के लिये नैतिक आचरण का बहुत महत्व है। सुख सुविधा और भौतिक साधनों के प्राप्ति के लिये लोग अपने आचरण पर ध्यान नहीं देते। सभी लोग यह कहते हैं कि ‘ईमानदारी या नैतिकता से आजकल काम कहां चलता है।’ सच तो यह है कि भ्रष्ट आचरण के मामले में कोई कम नहीं है-यह अलग बात है कि किसी को भ्रष्टाचार करने के अवसर अधिक मिलते हैं तो किसी को कम। साधुता और सदाचरण को बाहर के लोग ही नहीं वरन घर के लोग ही मजाक उड़ाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि पूरा समाज ही धन,यश और शक्ति पाने के लिये मदांध हो रहा है। यही कारण है कि कहने वाले यही कहते हैं कि ‘आजकल कोई सुखी नहीं है।’

समाज में व्याप्त निराधा और हताशा का जिक्र करें तो ऐसा नहीं लगता कि वह उससे उबरने वाला है क्योंकि नैतिक आचरण और अध्यात्मिक ज्ञान को लोग धारण करना आजकल एक मूर्खता समझने लगे हैं। सभी लोग भ्रष्ट नहीं है पर साधु और सदाचर के भाव से ओतप्रोत लोगों की संख्या बहुत कम है और वही इस तनाव भरे माहौल में कुछ सुख का अनुभव कर पाते हैं। लोग कमा खा रहे हैं पर फिर भी सुखी नहीं है। उनकी पूरी उम्र तनाव और दुःख से लड़ते बीत रही है क्योंकि उनके आचरण में कमियां होने से मानसिक दृढ़ता नहीं है इसलिये वह उबर नहीं पाते।

जिन लोगों का नैतिक आचरण ऊंचा है वह अपने पथ से विचलित नहीं होते क्येांकि उनके मन में किसी प्रकार का भय नहीं होता इसलिये वह विपत्तियों से जूझ कर आगे बढ़ते जाते हैं। वह मानसिक तनाव के कूंऐ में हमेशा डूबे नहीं रहते।
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Thursday, December 11, 2008

संत कबीर संदेशः साधुओं की निंदा करने वाले नरक में जाते हैं

जो कोये निन्दै साधु को, संकट आवै सोय
नरक जाय जनमै मरै, मुक्ति कबहु नहिं दोय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि जो व्यक्ति साधु-संतों की निंदा करता है वह सीधे नरक में जाता है और कभी भी जनम मरण के बंधन से मुक्ति नहीं पाता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल साधु संतों और पीर फकीरों के रूप में बहुत सारे ढोंगी मिल जायेंगे। उनकी ठगी और ढोंग समाज से छिपते नहीं है और उनकी चर्चा कहीं करनी पड़ती है। अगर हमें लगता है कि कोई साधु संत या पीर फकीर ढोंगी है तो लोगों को आगाह करें-यह हमारा कर्तव्य भी है। यह निंदा समान नही है। दरअसल जो सचमुच में संत हैं और जिन्होंने वास्तव में समाज को कुछ दिया है-ऐसे संतों की निंदा करना अपने लिये पाप का बीज बोना है।

स्वच्छ वस्त्र धारण करने वाले अनेक संतोंं ने समाज में धार्मिक भ्रष्टाचार फैलाया है और उनसे सतर्कता बरतना और लोगों को सचेत करना कोई बुरी बात नहीं है। हां, वैचारिक आधार या कार्यशैली पर जो साधु संत या पीर फकीर हमारे लिये प्रिय नहीं है,उनकी निंदा करना अनुचित है। इसका आशय यह नहीं है कि जिन्होंने साधु संत या पीर फकीर का चोला ओढ़ने वाले हर व्यक्ति को सिद्ध मान लिया जाये क्योंकि पैसा कमाने के लिये अनेक लोग ऐसे चोले पहनने लगे हैं पर जिनके बारे में यह हम जानते हैं कि वह वाकई संत है उनके बारे में कोई परनिंदा वाक्य नहीं कहना चाहिये। उसी तरह कोई किसी गुरु को मानता है तो उसके सामने उनकी निंदा नहीं करना चाहिये। अपने देश में अनेक गुरु हैं और कहीं कहीं तो ऐसा भी होता है कि एक ही परिवार के सदस्यों के अलग अलग गुरु हेाते हैं। ऐसे में एक दूसरे के गुरु की निंदा करने पर पारिवारिक तनाव तो फैलता ही है। इतना ही नहीं समाज में भी अनेक बार गुरुओं के शिष्य एक दूसरे की निंदा कर झगड़ा करने लगते हैं।
परनिंदा या दूसरे को मानसिक दुःख देना पाप है और ऐसा करने वाले की न तो इस दुनियां में मुक्ति हो पाती है और परलोक में ही उसे शांति मिलती है।
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Tuesday, December 9, 2008

भृतहरि शतक:कुपात्र को दान देने से धन नष्ट हो जाता है

दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनष्यति यतिः सङगात्सुतालालनात् विप्रोऽन्ध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात्
ह्यीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान्मैत्री चाप्रणयात्सृद्धिरनयात् त्यागपमादाद्धनम्


हिंदी में भावार्थ-कुमित्रता से राजा, विषयासक्ति और कामना योगी, अधिक स्नेह से पुत्र, स्वाध्याय के अभाव से विद्वान, दुष्टों की संगत से सदाचार, मद्यपान से लज्जा, रक्षा के अभाव से कृषि, परदेस में मित्रता, अनैतिक आचरण से ऐश्वर्य, कुपात्र को दान देने वह प्रमाद से धन नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ संक्षिप्त व्याख्या-आशय यह है कि जीवन में मनुष्य जब कोई कर्म करता है तो उसका अच्छा और बुरा परिणाम यथानुसार प्राप्त होता है। कोई मनुष्य ऐसा नहीं है जो हमेशा बुरा काम करे या कोई हमेशा अच्छा काम करे। कर्म के अनुसार फल प्राप्त होता है। अच्छे कर्म से अर्थ और सम्मान की प्राप्ति होती है। ऐसे में अपनी उपलब्ध्यिों से जब आदमी में अहंकार या लापरवाही का भाव पैदा होता है तब अपनी छबि गंवाने लगता है। अतः सदैव अपने कर्म संलिप्त रहते हुए अहंकार रहित जीवन बिताना चाहिये।
यह मानकर चलना चहिये कि हमें मान, सम्मान तथा लोगों का विश्वास प्राप्त हो रहा है वह अच्छे कर्मों की देन है और उनमें निरंतरता बनी रहे उसके लिये कार्य करना चाहिये। अगर अपनी उपलब्धियों से बौखला कर जीवन पथ से हट गये तो फिर वह मान सम्मान और लोगों का विश्वास दूर होने लगता है।

निरंतर स्वाध्याय करते रहने के साथ ही प्रात: भगवान् का स्मरण करना चाहिए. यह कभी नहीं सोचना चाहिए के हम बहुत बड़े ज्ञानी हो गए हैं और हमारा कोई अब मुकाबला नहीं कर सकता. क्योंकि यहाँ निरंतर परिवर्तन होते हैं और इसलिए सतत अध्ययन,चिंतन और मनन करते रहना चाहिए. साथ ही भक्ति भी नियमित करते रहना चाहिए.
अक्सर कुछ लोगों में अपनी भक्ति को लेकर भी अंहकार आ जाता है जो कि उनके लिए लाभ दायक नहीं होता। इस कारण वह उसमे लापरवाही करने लगते हैं। सच बात तो यह है कि भक्ति और ज्ञान का आनंद तभी है जब उनको नियमित रूप से किया जाए।
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Monday, December 8, 2008

संत कबीरदास के दोहेःभक्ति में चतुराई करने से परमात्मा नहीं मिलते

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात
एक निस प्रेमी निराधार का गाहक गोपीनाथ

संत कबीरदास जी का आशय यह है कि चुतराई करने से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। निष्काम भक्ति से उनको प्राप्त किया जा सकता है। वह निस्वाथी भक्त को ही पंसद करते हैं।
पथ से बूढ़ी प्रथमी, झूठे कुल की लार
अलघ बिसारियो भेष में बूढ़े काली धार

संत कबीरदास जी का कहना है कि पूरी दुनियां पुरानी परंपराओं और कुल की मर्यादा का वहम पालकर डूब जाती है। परमात्मा को भुलाकर आदमी उनके पीछे घूमते हुए एक दिन इस दुनियां से विदा हो जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोग अपने गुरुओं के पास जाते हैं तो वह कथित रूप से उनको परमात्मा प्राप्ति का उपाय बताते हैं। उपाय थोड़ा बड़ा या लंबा होता है तो भक्त के आग्रह पर उसे छोटा कर दिया जाता है। उनसे कहा जाता है कि ‘अगर यह नहीं होता तो इतना कर लो’ या एक घंटे नहीं जाप कर सकते तो पांच मिनट ही कर लो‘। यह सब ढोंग है। सच तो यह है कि परमात्मा का प्राप्ति निष्काम भक्ति से ही की जा सकती हैं। अपना काम करते हुए उसका स्मरण हर पल करने से ही ऐसी भक्ति प्राप्ति की जा सकती है। यह नहीं कि सुबह अगरबती जलाकर चले गये और फिर दिन भर उसका स्मरण नहीं किया। इस जीवन में देह की क्षुधा शांत करने के लिये जैसे हर पल काम करना पड़ता है वैसे ही आत्मा की शांति के लिये उसका स्मरण करना चाहिये। परमात्मा की प्राप्ति का कोई शार्टकट नहीं है। उसका नाम हर पल लेते हुए अपना काम करना चाहिये तभी सच्ची भक्ति प्राप्ति हो सकती है।
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Sunday, December 7, 2008

विदुर नीति: हृदय को दग्ध करती है शुष्क वाणी

1.दूसरों के अभद्र शब्द सुनकर भी स्वयं उन्हें न कहे। क्षमा करने वाला अगर अपने क्रोध को रोककर भी बदतमीजी करने वाले का नष्ट कर और उसके पुण्य भी स्वयं प्राप्त कर लेता है।
2.दूसरों से न तो अपशब्द कहे न किसी का अपमान करें, मित्रों से विरोध तथा नीच पुरुषों की सेवा न करें।सदाचार से हीन एवं अभिमानी न हो। रूखी तथा रोष भरी वाणी का परित्याग करं।
3.इस जगत में रूखी या शुष्क वाणी, बोलने वाले मनुष्य के ही मर्मस्थान हड्डी तथा प्राणों को दग्ध करती रहती है। इस कारण धर्मप्रिय लोग जलाने वाली रूखी वाणी का उपयोग कतई न करें।
4.जिसकी वाणी रूखी और शुष्क है, स्वभाव कठोर होने के साथ ही वह जो दूसरों के मर्म कटु वचन बोलकर दूसरों के मन पर आघात और मजाक उड़ाकर पीड़ा पहुंचाता है वह मनुष्यों में महादरिद्र है और वह अपने साथ दरिद्रता और मृत्यु को बांधे घूम रहा है।
5.कोई मनुष्य आग और सूर्य के समान दग्ध करने वाले तीखे वाग्बाणों से बहुत चोट पहुंचाए तो विद्वान व्यक्ति को चोट खाकर अत्यंत वेदना सहते हुए भी यह समझना कि बोलने वाला अपने ही पुण्यों को नष्ट कर रहा है।
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Saturday, December 6, 2008

कबीर दास जी का सन्देश-देखा देखी कभी भक्ति का रंग नहीं चढ़ता

देखा देखी भक्ति का, कबहूँ न चढ़सी रंग
विपत्ति पडे यों छाड्सी, केचुली तजत भुजंग

संत शिरोमणी कबीरदास जी के अनुसार देखा-देखी की हुई भक्ति का रंग कभी भी आदमी पर नहीं चढ़ता और कभी उसके मन में स्थायी भाव नहीं बन पाता। जैसे ही कोई संकट या बाधा उत्पन्न होती है आदमी अपनी उस दिखावटी भक्ति को छोड़ देता है। वैसे ही जैसे समय आने पर सांप अपने शरीर से केंचुली का त्याग कर देता है।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग दूसरों को देख कर भगवान की भक्ति करते हैं। उनका अपना कोई इष्ट तो होता नहीं है और जो जैसा कहता है वैसी उसकी भक्ति करना लगते हैं। इससे उनको कोई लाभ नहीं होता। दूसरे के कहने से उसके इष्ट की पूजा करने से स्वयं को कोइ लाभ नहीं होता है। भक्ति से लाभ का आशय यह है की स्वयं के मन में हमेशा ही प्रसन्नता का भाव रहे और कभी किसी से डर न लगे या किसी बात की चिंता न हो। हमेशा मन प्रसन्न रहे यही है भक्ति का लाभ। कई बार ऐसा होता है कि पत्नी विवाह से पहले किसी इष्ट को मानती थी तो विवाह के बाद पति के इष्ट को ही मानने लगी। उसी तरह कहीं पति भी यही करता है। सच बात तो यह है कि बचपन से जिस इष्ट को पूजने की आदत बचपन से हो जाए उसे ही पूजना चाहिए। किसी दूसरे के कहने से इष्ट के स्वरूप को नहीं बदलना चाहिए। कहा जाता है की परमात्मा तो एक ही है उसके स्वरूप आलग हैं तो क्या? ऐसे में किसी को देखकर या कहने में आकर उसमें बदलाव करना इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य के मन में भक्ति का भाव नहीं है।
भक्त और ध्यान तो एकांत में किये जाते हैं। इससे उसी व्यक्ति के मन में शुद्धता और शान्ति होती है। दूसरे को दिखाकर या दूसरे को देखकर भक्ति करने से कोई लाभ नहीं है।
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Friday, December 5, 2008

संत कबीरदास के दोहे:दोमुहँ से बोलने पर पड़ता है चांटा

जौ मन लागै एक सों, तो निरुवारा जाय
तूरा दो मुख बाजता, घना तमाचा खाय


संत श्री कबीरदास जी कहते हैं अगर एक ही स्थान या काम में मन लगाया तो शीघ्र ही परिणाम प्राप्त हो जाता है पर अगर जो ढोल की तरह दो मुखों से काम करता है तो उसे थप्पड़ ही झेलने पड़ते हैं अर्थात उसे असफलता हाथ लगती है।

जो यह एक न जानिया, बहु जाने क्या होय
एकै ते से सब होत है, सब ते एक न होय


संत श्री कबीर जी के मतानुसार जो एक विषय का ज्ञाता नहीं हो पाता वह अनेक के बारे में क्या जानेगा। जो ज्ञानीजन अपने अभ्यास करते रहने से एक विषय के बारे में जान जाते हैंं तो अन्य विषयों का भी उनको ज्ञान हो जाता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-चाहे भगवान की भक्ति हो या अन्य कोई विषय आदमी को एकाग्रता से काम करना चाहिए। एक साथ अनेक विषयों का अध्ययन कर पारंगत होने की बजाय पहले एक विषय के विशेषज्ञता प्राप्त कर लेने से अन्य विषयों की जानकारी भी स्वतः हो जाती है। मूल रूप से कोई एक विषय होता है पर उससे अन्य विषयों की जानकारी भी किसी न किसी रूप से जुड़ी होती है। बस अंतर यह रहता है कि कहीं किसी विषय की प्रधानता होती है तो कहीं किसी अन्य की। अगर एकाग्रता से अपने एक ही विषय में अभ्यास किया जाये तो अन्य ज्ञान भी स्वतः आता है पर अगर भटकाव आया तो कोई जीवन में सफलता प्राप्त नहीं हो पायेगी।

यही स्थिति भक्ति के विषय में भी है। एक ही इष्ट का स्मरण करना चाहिये और उसके स्वरूप में कभी बदलाव नहीं करना चाहिये। अगर हम किसी इष्ट को बचपन से पूजते आये हैं तो उसमें बदलाव नहीं करना चाहिये। ऐसा बदलाव जीवन में भ्रम और तनाव पैदा करता है। जो लोग बचपन से भक्ति नहीं करते वह तो बाद में किसी की भी भक्ति कर सकते हैं पर जिन्होंने बचपन से ही अपने इष्ट का मानते हैं उनको बदलाव नहीं करना चाहिये।

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Tuesday, December 2, 2008

भृतहरि संदेशः फटे कपड़े पहनें या आकर्षक,क्या फर्क पड़ता है?

जीर्णाः कन्था ततः किं सितमलपटं पट्टसूत्रं ततः किं
एका भार्या ततः किं हयकरिसुगणैरावृतो वा ततः किं
भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथवा वासरान्ते ततः किं
व्यक्तज्योतिर्नवांतर्मथितभवभयं वैभवं वा ततः किम्

हिंदी में भावार्थ-तन पर फटा कपड़ा पहना या चमकदार इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। घर में एक पत्नी हो या अनेक, हाथी घोड़े हों या न हों, भोजन रूखा-सूखा मिले या पकवान खायें-इन बातोंं से कोई अंतर नहीं पड़ता। सबसे बड़ा है ब्रह्मज्ञान जो मोक्ष दिलाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव ने हमारे देश में भौतिकवाद को प्रोत्साहन दिया है और अब तो पढ़े लिखे हों या नहीं सभी सुख सुविधाओं को जाल में फंसते जा रहे हैं। भारतीय अध्यात्म ज्ञान के बारे में जानते सभी हैं पर उसे धारण करना लोगों को अब पिछड़ापन दिखाई देता है। नतीजा यह है कि समाज में आपसी रिश्ते एक औपचारिकता बनकर रहे गये हैं। अमीर गरीब की के बीच में अगर भौतिक रूप से दूरी होती तो कोई बात नहीं पर यहां तो मानसिक रूप से सभी एक दूसरे से परे हो जा रहे हैं। जिसके पास सुख साधन हैं वह अहंकार में झूलकर गरीब रिश्तेदार को हेय दृष्टि से देखता है तो फिर गरीब भी अब किसी अमीर पर संकट देखकर उसके प्रति सहानुभूति नहीं दिखाता। हम जिस कथित संस्कृति और संस्कार की दुहाई देते नहीं अघाते वह केवल नारे बनकर रहे गये हैं और धरातल पर उनका अस्तित्व नहीं रह गया है।

जिसके पास धन है वह इस बात से संतुष्ट नहीं होता कि लोग उसका सम्मान इसकी वजह से करते हैं बल्कि वह उसका समाज में प्रदर्शन करता है। धनी लोग अपने इसी प्रदर्शन से समाज में जिस वैमनस्य की धारा प्रवाहित करते हैं उसके परिणाम स्वरूप सभी समाज और समूह नाम भर के रहे गये हैं और उसके सदस्यों की एकता केवल दिखावा बनकर रह गयी है।

जिस तत्वज्ञान की वजह से हमें विश्व में अध्यात्म गुरु माना जाता है उसे स्वयं ही विस्मृत कर हम भारी भूल कर रहे हैं। शरीर पर कपड़े कितने चमकदार हों पर अगर हमारी वाणी में ओज और चेहरे पर तेज नहीं हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होता। काम चलने को तो दो रोटी से भी चल जाये पर जीभ का स्वाद ऐसा है कि अभक्ष्य और अपच भोजन को ग्रहण कर अपने शरीर में बीमारियों को आमंत्रित करना होता है। सोचने वाली बात यह है कि अपना पेट तो पशु भी भर लेते हैं फिर अगर हम ऐसा करते हैं तो कौनासा तीर मार लेते हैंं। मनुष्य जीवन में भक्ति और ज्ञान प्राप्त करने की सुविधा मिलती है पर उसका उपयोग नहीं कर हम उसे ऐसे ही नष्ट कर डालते हैं। ऐसे में वह ज्ञानी धन्य है जो दाल रोटी खाकर पेट भरते हुए भगवान भजन और ज्ञान प्राप्त करने के लिये समय निकालते हैं।
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Sunday, November 30, 2008

रहीम सन्देश:खोटे कार्य का परिणाम प्रकट होता है

रहिमन खोटी आदि की, सो परिनाम लखाय
जैसे दीपक तम भखै, कज्जल वमन कराय


कविवर रहीम कहते हैं कि बुराई होने पर उसका फ़ल अवश्य दिखाई देता है। जैसे दीपक अंधकार को दूर कर देता है, परंतु शीघ्र ही कालिमा उगलने लगता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग सोचते हैं कि दूसरे से वस्तुऐं मांग कर अपना काम चलायें। ऐसे लोगों में आत्म सम्मान नहीं होता और जिनमें आत्म सम्मान नहीं है वह मनुष्य नहीं बल्कि पशु समान होता है। अक्सर ऐसे लोग हैं जो अपने काम के लिये वस्तु या धन मांगने में संकोच नहीं करते। उनके पास अपना पैसा होता है पर वह उसको बचाने के चक्कर में दूसरे से वस्तुऐं उधार मांग कर काम चलाते हैं। उद्देश्य यही रहता है कि पैसा बचे। ऐसे कंजूस लोग जिंदगी भर पैसा बचाते हैं पर अंततः वह साथ कुछ भी नहीं ले जाते। कोई आदमी कितना भी बड़ा क्यों न हो जब किसी से कोई चीज मांगता है तो वह छोटा हो जाता है और अगर छोटा हो तो उसे भिखारी समझा जाता है। सच बात तो यह है कि मांगने से कोई बड़ा आदमी नहीं बनता बल्कि दान देने से समाज में सम्मान मिलता है।
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Saturday, November 29, 2008

रहीम सन्देश:जहाँ ह्रदय में ईर्ष्या की गाँठ है वहां प्रेम नहीं होता

जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग होय
मंड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय


कविवर रहीम कहते हैं कि यह संसार खोजकर देख लिया है, जहाँ परस्पर ईर्ष्या आदि की गाँठ है, वहाँ आनंद नहीं है. महुए के पेड़ की प्रत्येक गाँठ में रस ही रस होता है क्योंकि वे परस्पर जुडी होतीं हैं.

जलहिं मिले रहीम ज्यों, कियो आपु सम छीर
अंगवहि आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर


कविवर रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार जल दूध में मिलकर दूध बन जाता है, उसी प्रकार जीव का शरीर अग्नि में मिलकर अग्नि हो जाता है.
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जहां दो मनुष्यों में एक दूसरे के प्रति ईष्र्या है वहां किसी के दिल में भी संतोष नहीं रहा सकता। अक्सर लोग आपस में एक दूसरे के प्रति प्रेम होने का दावा करते हैं पर उनके मन में आपस में ही द्वेष, कटुता और ईष्र्या का भाव रहता है। इस तरह वह स्वयं को धोखा देते हैं। प्रेम तो तभी संभव है जब एक दूसरे की सफलता पर हृदय मेंें प्रसन्नता का भाव हो। हालांकि मूंह पर दिखाने के लिये एक मित्र अपने दूसरे मित्र की, भाई अपने भाई की या रिश्तेदार अपने दूसरे रिश्तेदार की सफलता पर बधाई देते हैं पर हृदय में कहीं न कहीं ईष्र्या का भाव होता है। यह दिखावे का प्रेम है और इस पर स्वयं को कोई आशा नहीं करना चाहिये क्योंकि न हम स्वयं दूसरे से वास्तव में प्रेम नहीं करते और न ही कोई हमें करता है। जहां ईष्र्या की गांठ हैं वहां प्रेम हो ही नहीं सकता।
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Wednesday, November 26, 2008

भृतहरि सन्देश: संतोष हो तो निर्धन और धनी एक जैसे होते हैं

वयमहि परितृष्टा वल्कलैस्त्वं दृकूलैस्सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।
स तु भवतु यस्य तृष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्र

भावार्थ-इस भौतिक संसार में कोई मनुष्य वृक्ष की छाल के वस्त्र पहनकर ही संतुष्ट होता है तो किसी का मन रेशमी सूत के बने वस्त्र धारण कर ही प्रसन्न होता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। धनी और निर्धन के संतोष में कोई अंतर नही। जिसकी बहुत बड़ी इच्छाएं हैं वह धनी होते हुए भी असंतोष के साथ जीवन व्यतीत करता है। जिसकी इच्छाएं और आकांक्षाएं कम हैं वह वह दरिद्र होते हुए भी मन के संतुष्ट हो जाता है तो भला किसे धनी कहा जाये और किसे दरिद्र।

संक्षिप्त व्याख्या-यहां कोई धनी अपने धन पर इतराता है तो कोई अपनी निर्धनता को लेकर त्रस्त रहता है। अपनी देह में विचरने वाले मन की ओर कोई दृष्टिपात नहीं करता। अगर मन में संतोष है तो फिर किस बात की चिंता रह जाती है। कुछ लोग ऐसे है जो अपने पास भौतिक साधनों के अभाव की परवाह न करते हुए भक्ति भाव से अपना जीवन व्यतीत करते हैं। वह परमात्मा द्वारा दिये गये धन से संतुष्ट हो जाते हैं पर कई धनिक हैं जो धन क पीछे सदैव पड़े रहते हैं पर मन की शांति उनसे कोसों दूर रहती है। इतना ही नहीं अपनी कम आवश्यकताओं के कारण संतुष्ट लोगों के मन की शांति उनको नहीं सुहाती और तब वह सोचते हैं कि काश! हमें मन की शांति मिल जाये।

आज का भौतिक संसार तो आपने देखा होगा मनुष्य की अशांति पर ही अधिक चल रहा है। टीवी चैनलों पर एक विज्ञापन आता है जिसमें एक अभिनेता कहता है-‘डोंट बी संतुष्ट‘। मतलब यह कि आज के युग के व्यवसायी अपने हित के लिऐ ऐसे प्रयास करते हैं कि आम आदमी के मन में असंतोष भड़काकर उन्हें माया के ऐसे चक्कर में फंसाया जहां से वह निकल नहीं सके।
अगर आदमी के मन में संतोष है इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह धनी है या निर्धन। हमारा काम कम आवश्यकता से चल जाता है तो उससे संतुष्ट हो जाना चाहिए। संतोष ही सबसे बड़ा धन है।

Thursday, November 20, 2008

भृतहरि शतकः तेजस्वी व्यक्ति के लिये आयु बाधक नहीं

सिंह शिशुरपि निपतति मदमलिनकपोलभित्तिशु गजेषु
प्रकृतिरियं सत्तवतां न खलु वयस्तेजसो हेतुः


हिंदी में भावार्थ- सिंह का शावक भी मदमस्त हाथी पर हमला करता है। यह सत्य कहा गया है कि शक्तिशाली जीव का यही स्वभाव होता है। तेजस्विता के भाव का आयु से कोई संबंध नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारत में एक आयु के बाद सामान्य व्यक्ति को अधेड़ और वृद्ध मान लिया जाता है-धनियों और प्रतिष्ठत लोगों पर यह नियम लागू करने में लोग स्वयं ही संकोच करते हैं। इसके विपरीत हम जिस पश्चिम संस्कृति की आलोचना करते हैं वहां व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार नहीं होता। यही कारण है कि वहां लोगों की औसत आयु भारत से बड़ी होती है। होता यह है कि जो लोग गरीब और सामान्य वर्ग के हैं, बड़ी आयु होने पर उनके प्रति समाज और परिवार का दृष्टिकोण हेय हो जाता है और उनके अंदर भी यह कुंठा घर कर जाती है कि हमारी तो आयु हो गयी है और अब यह जीवन ढोना है और इसका परिणाम यह होता है कि वह समयपूर्व ही जीवन में थकावट अनुभव करते हैं।

अनेक ऐसे भी लोग है जो पचास और साठ की आयु के बाद बीमारी का शिकार हो जाते है और अगर उन्हें योग साधना या ध्यान करने को कहा जाये तो वह अपनी आयु का हवाला देकर इंकार कर देते हैं। कुल मिलाकर वह नकारात्मक भाव का ऐसा शिकार हो जाते हैं जिससे उनकी मुक्ति नहीं हो पाती। पश्चिमी देशों में बड़ी आयु में भी लोग सुबह की सैर और व्यायाम नियमित रूप से करते हैं इसलिये उनका स्वास्थ्य ठीक रहता है जबकि भारत में बुजुर्ग लोग स्थाई बीमारी से शिकार हो जाते है और मान लिया जाता है कि बुढ़ापा तो होता ऐसा ही है।

सभी जानते हैं कि जितनी बीमारियां दिमागी तनाव से पैदा होती है उतनी अन्य किसी से नहीं। ऐसे में अपने अंदर बड़ी आयु का भाव यह सोचकर नहीं पालना चाहिये कि हमारी बीमारियां तो दूर नहीं हो सकतीं। इतना ही नहीं सभी बड़ी के आयु के लोगों को अपनी आयु का विचार किये बिना जीवन में कार्य करते रहना चाहिये। तेजस्वी व्यक्ति पर आयु का प्रभाव नहीं होता और न कभी वह परेशान दिखते हैं। जहां आदमी ने यह सोचा कि अब तो मैं आराम करूंगा वहीं उसका शरीर ढीला और कमजोर पड़ने लगता है और उसके चेहरे की फीकी कांति देखकर लोग उसकी उपेक्षा कर देते हैं। इससे बेहतर यही है कि नियमित रूप से व्यायाम आदि करते रहें ताकि बुढ़ापे में अपने चेहरे का तेज कम न पड़े।
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Sunday, November 16, 2008

रहीम संदेशः दूध अगर कलारी में दिखे तो मदिरा जैसा लगता है

रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि
दूध कलारी कर गहे, मद समझै सब ताहि

कविवर रहीम जी का कहना है कि निम्न प्रवृत्ति के लोगों के संगत करने पर कभी न कभी कलंकित होना तो तय ही है। दूध का बर्तन अगर कलारी में रखा हो तो भी उसे शराब ही समझा जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अगर स्वयं सज्जन है तो उसे दुष्ट लोगों की संगत से बचना चाहिये-यह तय बात है कि एक मनुष्य के व्यवहार,विचार, और कार्य को दूसरे पर भी प्रभाव होता है। जहां तक दुर्गुणी, दुष्ट और दुव्र्यसनी लोगों को सवाल है उनके लिये यह माया ही संसार है और भक्ति, भलाई, और भावुकता एकदम बकवास है। वह दूसरों को भी ऐसा करने को उकसाते हैं।
अधिकतर मामलों में आपने यह सुना तो होगा कि अमुक व्यक्ति दूसरे की संगत में बिगड़ गया और पर यह नहीं सुना होगा कि वह सुधर गया। कई बार अपराधियों के मां बाप अपने बच्चोंे की तरफ से सफाई देते हैं कि ‘हमारा बच्चा तो ठीक है पर दूसरे की संगत में बिगड़ गया, पर जो उपलब्धियों के शिखर पर पहुचंते हैं उनके मां बाप यह नहीं कहते कि दूसरे की संगत में बन गया।
तय बात है कि संगत का प्रभाव होता है-अच्छा भी बुरा भी-यह अलग बात है कि अच्छी संगत को लोग आकर्षक नहीं मानते बल्कि ऐसे लोगों के साथ संगत करने से प्रसन्न होते हैं जो दलाल या दादा टाईप के हों। एक बात बजे की बात है कि ऐसे लोगों की छबि उनकी नजरों के अच्छी नहीं होती और उनके मित्रों को भी वह ऐसे ही देखते हैं-अगर ऐसे लोग उनके मित्र नहीं हुए तो। जब स्वयं दलाल और दादा टाईप के लोगों से दोस्ती करते हैं तब यह बात भूल जाते हैं।
जिन अंतविरोधों में सभी रह रहे हैं उनको देखना चाहिये पर यह बात संशयरहित है कि दुष्ट की संगत से कभी न कभी अपने लिये संकट का कारण बनती है। यदि संकट का कारण न बने तो भी समाज में दुष्ट के कारण सज्जन की छबि भी खराब होती ही है।
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Saturday, November 15, 2008

संत कबीर संदेशः सांसरिक चतुराई तो सभी सीख लेते हैं

लिखना पढ़ना चातुरी, यह संसारी जेव
जिस पढ़ने सों पाइये, पढ़ना किसी न सेव


संत कबीरदास जी कहते हैं कि संसार में अपनी जीविका चलाने की शिक्षा तो हर कोई प्राप्त करता है। यह चतुराई तो हर मनुष्य में स्वाभाविक रूप से आती है। जिससे पढ़ने से अध्यात्म ज्ञान प्राप्त होता है वह कोई भी स्वीकार नहीं करना चाहता।

पढ़ी गुनी पाठक भये, समुझाया संसार
आपन तो समुझै नहीं, वृथा गया अवतार


स्वयं शिक्षा प्राप्त की और फिर अपने शिष्यों को भी ज्ञान देने लगे पर जिन लोगों ने अपने आपको नहंी समझा उनका जीवन तो व्यर्थ ही गया।

वर्तमान संदर्भ संपादकीय व्याख्या-अक्सर अनेक लोग शिकायत करते हुए मिल जाते हैं कि उनके बच्चे उनसे परे हो गये हैं या उनकी देखभाल नहीं करते। इसके दो कारण होते हैं एक तो यह कि नये सामाजिक परिवेश से तालमेल न बिठा पाने के कारण लोग अपने माता पिता को त्याग देते हैं या फिर वह व्यवसाय के सिलसिले में उनसे दूर हो जाते है। दोनो ही स्थितियों का विश्लेषण करें तो यह अनुभव होगा कि सभी माता पिता अपने बच्चों से यह अपेक्षा करते हैं कि वह इस मायावी दुनियां में उच्च पद प्राप्त कर, अधिक धनार्जन कर, और प्रतिष्ठा की दुनियां में चमककर उनका नाम रोशन करें। लोग बच्चों की कामयाबी के सपने देखते हैं और केवल सांसरिक शिक्षा तक ही अपने बच्चों को सीमित रखते हैं। किसी तरह अपना पेट पालो यही सिखाते हुए वह ऐसा अनुभव करते हैं कि जैसे कि वह दुनियां का कोई विशेष ज्ञान दे रहे हैं। यह तो एक सामान्य चतुराई है जिसे सब जानते हैं।
यह उनका एक भ्रम है। यह शिक्षा तो सभी स्वतः ही प्राप्त करते हैं पर जिन बच्चों को उनके माता पिता इसके साथ ही अध्यात्म ज्ञान, ईश्वर भक्ति और परोपकार करना सिखाते हैं वह अधिक योग्य निकलते हैं। जब तक आदमी मन में अध्यात्म का ज्ञान नहीं होगा तब वह न तो स्वयं कभी प्रसन्न रह पाता है और न ही दूसरों को प्रसन्न करता है।
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Sunday, November 9, 2008

संत कबीर संदेशः व्यवहार में शुद्धता नहीं हो तो नाम लेने से लाभ कोई नहीं

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग

साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।

सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन
सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान


कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चैरासी के चक्कर में पड़ जाती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भगवान का नाम लेना और साधुओं के आश्रमों मेंे जाकर हाजिरी देना कोई भक्ति का प्रमाण नहीं हैं। भीड़ में बैठकर भगवान का नाम लेकर शोर मचाने से भी कोई भक्ति नहीं हो जाती। लोग बरसों तक ऐसा करते हैं पर मन में फिर भी चैन नहीं पाते। मन में शांति तभी संभव है जब एकाग्र होकर हृदय भगवान के नाम का स्मरण किया जाये। ऐसा नहीं कि आंखें बंद कर मूंह से भगवान का नाम जाप कर रहे हैं और अंदर कुछ और ही विचार आ रहे हैं। कुछ लोग विशेष अवसर पर प्रसिद्ध मंदिरों और आश्रमों में जाकर मत्था टेक कर अपनी भक्ति को धन्य समझते हैं-ऐसा करना भगवान को नहीं बल्कि अपने आपको धोखा देना है। सबसे बड़ी बात यह है कि अगर अपने आचरण में पवित्रता नहीं है तो इसका मतलब यह है कि भक्ति एक धोखा है। जब तक आचार विचार और व्यवहार में पवित्रता नहीं रहेगी तब तक भगवान के नाम लेने का सकारात्मक प्रभाव नहीं हो सकता।

कुछ लोग अपने जीवन में बरसोंे तक भगवान के किसी एक ही स्वरूप की आराधना करते हैं। धीरे धीरे उनके अंदर भक्ति का रंग चढ़ने लगता है पर अचानक ही उनको कोई दूसरे स्वरूप या गुरु को पूजने के लिये प्रेरित करता है तो वह उसकी तरफ मुड़ जाते हैं। यह उनकी बरसों से की गयी भक्ति की कमाई को नष्ट कर देता है। जब सभी कहते हैं कि भगवान तो एक ही फिर उसके लिये स्वरूप में बदलाव करना केवल धोखा है यह अलग बात है कि उसकी प्रेरणा देने वाला भक्त को दे रहा है या भक्त स्वयं ही उसकी लिये उत्तरदायी है।
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Friday, November 7, 2008

रहीम संदेशः ब्रह्मज्ञानी को देखते ही चित्त प्रसन्न हो जाता है

उत्तम जाती ब्राह्मनी, देखत चित्त लुभाय
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय


ज्ञानी मनुष्य की पहचान तो स्वतः ही उसके गुणों और लक्षणों से हो जाती है। ब्रह्मज्ञानी का चेहरा मात्र देखते ही आदमी का चित्त आनन्द विभोर हो उठता है। ऐसे ब्रह्मज्ञानी के दर्शन मात्र से पाप परे हो जाते हैं और उसके चरणों कें शीश झुकाने का मन करता है।
वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या-यह बिल्कुल सत्य बात है कि आदमी के चेहरे पर वही भाव स्वतः रहते हैं जो उसके मन में विद्यमान हैं। किसी प्रकार के ज्ञान और विज्ञान में श्रेष्ठता का भाव प्रदर्शन करना व्यर्थ है। आदमी के गुण स्वतः ही दूसरों के सामने प्रकट होते हैंं। दूसरे के अंदर अगर झांकना हो तो उसके चेहरे को पढ़ें। कई बार ऐसा होता है कि हम दूसरों के कहने में आकर किसी को श्रेष्ठ समझ बैठते हैं यह देखने का प्रयास ही नहीं करते कि उस व्यक्ति का आचरण कैसा है या उसमें वह गुण है भी कि नहीं जिसका बखान किया जा रहा है।

अनेक गुरु ऐसे हैं जो रटारटाया ज्ञान तो बताते हैं पर उनके चेहरे देखकर नहीं लगता कि वह कोई ब्रह्मज्ञानी हैं। योग साधना,ध्यान और धार्मिक ग्रंथों से चिंतन और मनन से ज्ञान प्राप्त होता है और जिसने वह धारण कर लिया उसका चेहरा स्वतः खिल उठता है और अगर नहीं खिला तो इसका आशय यह है कि मन में भी तेज नहीं है। इसलिये किसी के कहने में आकर कोई गुरु नहीं बनाना चाहिये। जिन लोगों में ज्ञान है तो उनका चेहरा ही बता देता है और उनका आचरण और व्यवहार उसे पुष्ट भी करता है। अतः ऐसे लोगों को ही अपना गुरु बनाना चाहिये।
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Monday, November 3, 2008

भृतहरि शतकः शान द्वारा तराशने पर भी रहती है मणि की शोभा

मणिः शाणोल्लीढः समर विजयी हेतिदलितो
मदक्षीणो नागः शरदि सरितः श्यानपुलिनाः


हिंदी में भावार्थः शान (खराद) द्वारा तराशा गया मणि, हथियारों से घायल होने पर युद्धविजेता, मदक्षीण हाथी,शरद ऋतु में किनारे सूखे होने पर नदियां, कलाशेष चंद्रमा, और पवित्र कार्यों में धन खर्च कर निर्धन हुआ मनुष्य की शोभा नहीं जाती।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोग अपने चेहरे पर निखार लाने के लिये श्रृंगार का सामान उपयोग लाते हैं। पहले तो स्त्रियों ही अपनी सजावट के लिये श्रृंगार का उपयोग करती थीं पर अब तो पुरुष भी उनकी राह चलने लगे हैं। अपने शरीर पर कोई पसीना नहीं देखना चाहता। लोग दिखावे की तरफ अधिक आकर्षित हो रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि शारीरिक श्रम को लोग पहले से अधिक हेय समझने लगे हैंं। स्मार्ट दिखने के लिये सभी जगह होड़ लगी है। सच तो यह है कि दैहिक आकर्षण थोड़ी देर के लिये प्रभाव डालता है पर अपने हाथों से निरंतर पवित्र कार्य किये जायें तो चेहरे और व्यक्तित्व में स्वयं ही निखार आ जाता है। जो लोग सहजता पूर्वक योग साधना, ध्यान, सत्संग और दान के कार्य मेें लिप्त होते हैं उनका व्यक्ति इतना प्रभावी हो जाता है कि अपरिचित भी उनको देखकर आकर्षित होता है।

कितना भी आकर्षक क्यों न हो धनी होते हुए भी अगर वह परोपकार और दान से परे हैं तो उसका प्रभाव नहीं रहता। खालीपीली के आकर्षण में कोई बंधा नहीं रहता। धनी होते हुए भी कई लोगोंं को दिल से सम्मान नहीं मिलता और निर्धन होते हुए भी अपने पूर्व के दान और पुण्र्य कार्यों से अनेक दानवीरों को सम्मान मिलता है। सच तो यह है कि अपने सत्कर्मों से चेहरे में स्वतः ही निखार आता है और स्वार्थी और ढोंगी लोग चाहे कितना भी श्रृंगार कर लें उनके चेहरे पर चमक नहीं आ सकती।
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Saturday, November 1, 2008

भृतहरि शतकः राजनीति तो होती ही है बहुरूपिया

सत्याऽनृता च परुषा प्रियवादिनी च
हिंस्त्रा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या
नित्यव्यया प्रचुरनित्य धनागमा च
वारांगनेव नृपनीतिनेक रूपा


हिंदी में भावार्थ-राजाओं को तो बहुरूपी राजनीति करनी पड़ती है। कभी सत्य तो कभी झूठ, कभी दया तो कभी हिंसा,कभी कटु तो कभी मधुर कभी धन व्यय करने में उदार तो कभी धनलोलुप, कभी अपव्यय तो कभी धनसंचय की नीति अपनानी पड़ती है क्योंकि राजनीति तो बहुरुपिया पुरुष और स्त्री की तरह होती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-यह एक ध्रुव सत्य है कि राजनीति करने वाले को अनेक तरह के रंग दिखाने ही पड़ते हैं। जो अपना जीवन शांति, भक्ति और अध्यात्म ज्ञान के साथ बिताना चाहते हैं उनके लिये राजनीति करना संभव नहीं है। ज्ञानी लोग इसलिये राजनीति से समाज में परिवर्तन की आशा नहीं करते बल्कि वह तो समाज और पारिवारिक संबंधों में राज्य के हस्तक्षेप का कड़ा विरोध भी करते हैं। राजनीति का सीधा आशय राज्य प्राप्त करने और उसे चलाने के कार्य करने के लिये अपनायी जाने वाली नीति से है। बहूरंग और आकर्षक होने के कारण अधिकतर लोगों को यही करना रास आता है। अन्य की बात तो छोडि़ये धार्मिक किताब पढ़कर फिर उसका ज्ञान लोगों को सुनाकर पहले उनके दिल में स्थान बनाने वाले कई कथित गुरु फिर राजनीति को स्वच्छ बनाने के लिये उसमें घुस जाते हैं-यह लोकतंत्र व्यवस्था होने के कारण हुआ है क्योंकि लोग राजनीति विजय को प्रतिष्ठा का अंतिम चरम मानते हैं। लेखक,पत्रकार,अभिनेता-अभिनेत्रियां तथा अन्य व्यवसायों मं प्रतिष्ठत लोग राजनीति के अखाड़े को पसंद करते हैं। इतना ही नहीं अन्य क्षेत्रों में प्रसिद्ध लोग राजनीति में शीर्ष स्थान पर बैठे लोगों की दरबार में हाजिरी देते हैं तो वह भी उनका उपयोग करते हैं। लोकतंत्र में आम आदमी के दिलो दिमाग में स्थापित लोगों का उपयोग अनिवार्य आवश्यकता बन गया है। कोई व्यक्ति अपने लेखन,कला और कौशल की वजह से कितना भी लोकप्रिय क्यों न हो उसे लगता है कि स्वयं को राजनीति में स्थापित किये बिना वह अधूरा है।

मगर राजनीति तो बहुरुपिये की तरह रंग बदलने का नाम है। लोकप्रियता के साथ कभी अलोकप्रिय भी होना पड़ता है। हमेशा मृद भाषा से काम नहीं चलता बल्कि कभी कठोर वचन भी बोलने पड़ते हैं। हमेशा धन कमाने से काम नहीं चलता कभी व्यय भी करना पड़ता है-लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो भारी धन का व्यय करने का अवसर भी आता है तो फिर उसके लिये धन संग्रह भी करना पड़ता है। कभी किसी को प्यार करने के लिये किसी के साथ घृणा भी करना पड़ती है।
यही कारण है कि अनेक लेखक,कलाकार और प्रसिद्ध संत राजनीति से परे रहते हैं। हालांकि उनके प्रशंसक और अनुयायी उन पर दबाव डालते हैं पर वह फिर भी नहीं आते क्योंकि राजनीति में हमेशा सत्य नहीं चल सकता। अगर हम अपने एतिहासिक और प्रसिद्ध संतों और लेखकों की रचनाओं को देखें तो उन्होंने राजनीति पर कोई अधिक विचार इसलिये नहीं रखा क्योंकि वह जानते थे कि राजनीति में पूर्ण शुद्धता तो कोई अपना ही नहीं सकता। आज भी अनेक लेखक,कलाकर और संत हैं जो राजनीति से दूर रहकर अपना कार्य करते हैं। यह अलग बात है कि उनको वैसी लोकप्रियता नहीं मिलती जैसे राजनीति से जुड़े लोगों को मिलती है पर कालांतर में उनका रचना कर्म और संदेश ही स्थाई बनता है। राजनीति विषयों पर लिखने वाले लेखक भी बहुत लोकप्रिय होते है पर अंततः सामाजिक और अध्यात्मिक विषयों पर लिखने वालों का ही समाज का पथप्रदर्शक बनता है।

राजनीति के बहुरूपों के साथ बदलता हुआ आदमी अपना मौलिक स्वरूप खो बैठता है और इसलिये जो लेखक,कलाकर और संत राजनीति में आये वह फिर अपने मूल क्षेत्र के साथ वैसा न ही जुड़ सके जैसा पहले जुडे थे। इतना ही नहीं उनके प्रशंसक और अनुयायी भी उनको वैसा सम्मान नहीं दे पाते जैसा पहले देते थे। सब जानते हैं कि राजनीति तो काजन की कोठरीी है जहां से बिना दाग के कोई बाहर नहीं आ पाता। वैसे यह वह क्षेत्र से बाहर आना पसंद नहीं करता। हां, अपने पारिवारिक वारिस को अपना राजनीतिक स्थान देने का मसला आये तो कुछ लोग तैयार हो जाते हैं।

आखिर किसी को तो राजनीति करनी है और उसे उसके हर रूप से सामना करना है जो वह सामने लेकर आती है।ं सच तो यह है कि राजनीति करना भी हरेक के बूते का नहीं है इसलिये जो कर रहे हैं उनकी आलोचना कभी ज्ञानी लोग नहीं करते। इसमें कई बार अपना मन मारना पड़ता है। कभी किसी पर दया करनी पड़ती है तो किसी के विरुद्ध हिंसक रूप भी दिखाना पड़ता है। आखिर अपने समाज और क्षेत्र के विरुद्ध हथियार उठाने वालों को कोई राज्य प्रमुख कैसे छोड़ सकता है? अहिंसा का संदेश आम आदमी के लिये ठीक है पर राजनीति करने वालों को कभी कभी अपने देश और लोगों पर आक्रमण करने वालों से कठोर व्यवहार करना ही पड़ता हैं। राज्य की रक्षा के लिये उन्हें कभी ईमानदार तो कभी शठ भी बनना पड़ता है। अतः जिन लोगों को अपने अंदर राजनीति के विभिन्न रूपों से सामना करने की शक्ति अनुभव हो वही उसे अपनाते हैं। जो लोग राजनेताओं की आलोचना करते हैं वह राजनीति के ऐसे रूपों से वाकिफ नहीं होते। यही कारण है कि अध्यात्मिक और सामाजिक ज्ञानी राजनीति से दूर ही रहते हैं न वह इसकी आलोचना करते हैं न प्रशंसा। अनेक लेखक और रचनाकार राजनीतिक विषयों पर इसलिये भी नहीं लिखते क्योंकि उनका विषय तो रंग बदल देता है पर उनका लिखा रंग नहीं बदल सकता।
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Thursday, October 30, 2008

भृतहरि शतकः जिनसे मन मिले हों उनको दूर अनुभव न करें

विरहेऽपि संगमः खलु परस्परं संगतं मनो येषाम्
हृदयमपि विघट्टितं चेत्संगी विरहं विशेषयति


हिंदी में भावार्थ-जिनके व्यक्तियों हृदय आपस मिले हों वह दैहिक रूप से एक दूसरे से परे होते हुए भी अपने को साथ अनुभव करते हैं। जिनसे हार्दिक प्रेम न हो तो वह कितने भी पास हो उनसे एक प्रकार से दूर बनी रहती है।

वैराग्ये सञ्चरत्येको नीतौ भ्रमति चापरः
श्रंृगाारे रमते कश्चिद् भुवि भेदाः परस्परम्


हिंदी में भावार्थ-इस विश्व में सभी व्यक्तियों का स्वभाव ऐक जैसा नहीं होता। सभी के हृदय में व्याप्त रुचियों भिन्न होती हैं। कोई वैराग्य धारण कर मोक्ष के लिये कार्य करता है तो कोई नीति शास्त्र के अनुसार अपने कार्य कर संतुष्ट होता है तो कोई श्रंृगार रस में आनंद मग्न है। यह भेद तो प्राकृतिक रूप से बना ही है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- वर्तमान समय में विकास का ऐसा पहिया घूमा है कि आत्मीय लोग अपने से दूर हो जाते हैं। अधिक धन और विकास की लालसा मनुष्य को अपनों से दूर जाने का बाध्य करती है पर इसे विरह नहीं मानना चाहिये। हालांकि अनेक शायर और गीतकार इसे विरह मानते हुए कवितायें, शायरी और गीत लिखते हैं पर उनको हृदय में धारण नहीं करना चाहिये। ऐसी रचनायें अध्यात्म ज्ञान से परे होती हैं। खासतौर से फिल्मों में काल्पनिक दृश्य गढ़कर ऐसे गीत रचे जाते हैं। एक देश से दूसरे देश पात्र भेजकर ‘चिट्ठी आई है’जैसे गीत लिखे जाते हैं जिसे सुनकर लोग भावुक हो जाते हैं। यह अज्ञान है। मनुष्य की पहचान उसके मन से है और अगर किसी के मन में बसे हैं और वह हमारे मन में बसा है तो उसे कभी दूर नहीं समझना चाहिये। ऐसे गीतों को सुनकर भूल जाना चाहिये। अरे जो मन में बसा है वह भला कभी दूर जा सकता है। विरह गीत रखने वाले दैहिक तत्व तक का सीमित ज्ञान रखते हैं और संगीत की धुनों से उनको लोकप्रियता मिलती है। अध्यात्म ज्ञान रखने वाले भी उनको सुनते हैं पर फिर भूल जाते हैं पर जिनको नहीं है वह भले ही कोई अपना दूर न हुआ हो फिर भी ऐसे गीतों को गुनगनाते हैं।
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Monday, October 27, 2008

रहीम सन्देश:छोटे पर दया करे वही है बड़ा आदमी

जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग


कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।

जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।वैसे भी बड़े तथा अमीर लोगों को अपने छोटे और गरीब पर दया के लिये काम करते रहना चाहिये क्योंकि इससे समाज में समरसता का भाव बना रहता है।

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Saturday, October 25, 2008

भृतहरि शतकःअधिक धन होने पर राज्य से भय लगता है

भोग रोगभयं कुले च्यूतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभर्य रूपे जरायाः भयम्
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद् भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्


हिंदी में भावार्थ- इस संसार में आने पर रोग का भय, ऊंचे कुल में पैदा हानेपर नीच कर्मों में लिप्त होने का भय, अधिक धन होने पर राज्य का भय, मौन रहने में दीनता का भय, शारीरिक रूप से बलवान होने पर शत्रु का भय, सुंदर होने पर बुढ़ापे का भय, ज्ञानी और शास्त्रों में पारंगत होने पर कहीं वाद विवाद में हार जाने का भय, शरीर रहने पर यमराज का भय रहता है। संसार में सभी जीवों के लिये सभी पदार्थ कहीं न कहीं पदार्थ भय से पीडि़त करने वाले हैं। इस भय से मन में वैराग्य भाव स्थापित कर ही बचा जा सकता है

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर आदमी कहीं न कहीं भय से पीडि़त होता है। अगर यह देह है तो अनेक प्रकार के ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जिससे उसका पालन पोषण हो सके पर इसी कारण अनेक त्रुटियां भी होती हैं। इन्हीं त्रुटियों के परिणाम का भय मन को खाये जाता है। इसके अलावा जो वस्तु हमारे पास होती है उसके खो जाने का भय रहता है। इससे बचने का एक ही मार्ग है वह वैराग्य भाव। श्रीमद्भागवत गीता मेें इसे निष्काम भाव कहा गया है। वैराग्य भाव या निष्काम भाव का आशय यह कतई नहीं है कि जीवन में कोई कार्य न किया जाये बल्कि इससे आशय यह है कि हम जो कोई भी कार्य करें उसके परिणाम या फल में मोह न पालेंं। दरअसल यही मोह हमारे लिये भय का कारण बनकर हमारे दिन रात की शांति को हर लेता है। हमारे पास अगर नौकरी या व्यापार से जो धन प्राप्त होता है वह कोई फल नहीं है और उससे हम अन्य सांसरिक कार्य करते हैं-इस तरह अपने परिश्रम के बदल्र प्राप्त धन को फल मानने का कोई अर्थ ही नहीं है बल्कि यह तो कर्म का ही एक भाग है। हम अपने पास पैसा देखकर उसमें मोह पाल लेते हैं तो उसके चोरी होने का भय रहता है। अधिक धन हुआ तो राज्य से भय प्राप्त होता है क्योंकि कर आदि का भुगतान न करने पर दंड का भागी बनना पड़ता है।

इसी तरह ज्ञान हो जाने पर जब उसका अहंकार उत्पन्न होता है तब यह डर भी साथ में लग जाता है कि कहीं किसी के साथ वाद विवाद में हार न जायें। यह समझना चाहिये कि कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। भले ही एक विषय के अध्ययन या कार्य करने में पूरी जिंदगी लगा दी जाये पर सर्वज्ञ नहीं बना जा सकता है। समय के साथ विज्ञान के स्वरूप में बदलाव आता है और इसलिये नित नये तत्व उसमें शामिल होते हैं। जिस आदमी में ज्ञान होते हुए भी नयी बात को सीखने और समझने की जिज्ञासा होती है वही जीवन को समझ पाते हैं पर ज्ञानी होने का अहंकार उनको भी नहीं पालना चाहिये तब किसी हारने का भय नहीं रहता।

कुल मिलाकर सांसरिक कार्य करते हुए अपने अंदर निष्काम या वैराग्य भाव रखकर हम अपने अंदर व्याप्त भय के भाव से बच सकते हैं जहां मोह पाला वह अपने लिये मानसिक संताप का कारण बनता है।
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Thursday, October 23, 2008

मनुस्मृतिः नकली वस्तुओं को बेचना अनुचित

नान्यदन्येन संसृष्टरूपं विक्रयमर्हति
न चासारं न च न्यून न दूरेण तिरोहितम्

हिंदी में आशय -मनुष्य किसी विशेष वस्तु के बदल किसी दूसरी वस्तु, सड़ी गली, निर्धारित वजन से कम, केवल दूर से ठीक दिखने वाली तथा ढकी हुई वस्तु न बेचे। विक्रेता को चाहिये कि वह ग्राहक को अपनी वस्तु की स्थिति ठीक बता दे।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-ऐसा लगता है कि आजकल धर्म के प्रति लोग इसलिये भी अधिक आकर्षित हो रहे हैं क्योंकि उनके नित्य कर्म में अशुद्धता का बोध उन्हें त्रस्त कर देता है। वह न केवल अपने ही कर्मों से असंतुष्ट हैं बल्कि दूसरे के अपने प्रति किया गया व्यवहार भी उन्हें खिन्न कर देता हैं। अब यह तो संभव नहीं है कि हम स्वयं बेईमानी का व्यवहार करते हुए दूसरों से ईमानदारी की आशा करें। नौकरी और व्यापार में कहीं न कहीं झूठ और बेईमानी करनी ही पड़ती है-यह सोचना अपने आपको धोखा देना है। दूसरे की बेेईमानी तो सभी को दिखती है अपना कर्म किसी ज्ञानी को ही दिखाई देता है। धन तो सभी के पास आता जाता है पर कुछ लोगों को धन का लोभ अनियंत्रित होकर उन्हें बेईमानी के रास्ते पर ले जाता है।

त्यौहारों के अवसर पर जब बाजार में मांग बढ़ती है तब दूध में मिलावट की बात तो होती थी पर अब तो सिंथेटिक दूध बिकने लगा है कि जिसका एक अंश भी शरीर के लिये सुपाच्य नहीं है अर्थात जो पेट में जाकर बैठता है तो फिर वहां पर बीमारी पैदा किये बिना नहीं रहता। तय बात है कि आदमी को डाक्टर के पास जाना है। दूध ऐसा जिसे दूध नहीं कहा जा सकता है मगर बेचने वाले बेच रहे है। कई जगह बड़े व्यापारी जानते हुए भी उसे खरीदकर खोवा बना रहे हैं। हलवाई मिठाई बनाकर बेचे रहे है। फिर जब दीपावली का दिन आता है तो भगवान श्रीनारायण और लक्ष्मी की मूर्तियां सजाकर अपने व्यवसायिक स्थानों की पूजा कर अपने धर्म का निर्वाह भी करते हैं। एसा पाखंड केवल इसी देश में ही संभव है। नकली दूध तथा अन्य वस्तुऐं बेचने वाले व्यापारी रौरव नरक के भागी बनते हैं यह बात मनुस्मृति में स्पष्ट की गयी है। मनु द्वारा स्थापित धर्म को मानने वाले उनकी पूजा भी करते हैं पर उनके ज्ञान को धारण नहीं करते।

धर्म का आशय यही है कि हमारे आचार, विचार और व्यवहार में शुद्धता होना चाहिये। यह भ्रम नहीं रखना चाहिये कि ईमानदारी से इस संसार में काम नहीं चलता। नकली और विषैली वस्तुयें बेचना पाप है यही सोचकर अपना व्यापार करना चाहिये।
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Tuesday, October 21, 2008

भर्तृहरि शतकः सहायता करने वाले दिखावा नहीं करते

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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पद्माकरं दिनकरो विकची करोति
चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम्|
नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति
संत स्वयं परहिते विहिताभियोगाः||
     हिंदी में भावार्थ- बिना याचना किये सूर्य नारायण संसार में प्रकाश का दान करते है। चंद्रमा कुमुदिनी को उज्जवलता प्रदान करता है। कोई प्रार्थना नहीं करता तब भी बादल स्वयं ही वर्षा कर देते हैं। उसी प्रकार सहृदय मनुष्य स्वयं ही बिना किसी दिखावे के दूसरों की सहायता करने के लिये तत्पर रहते हैं।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- आज के आधुनिक युग में समाज सेवा करना फैशन हो सकता है पर उससे किसी का भला होगा यह विचार करना भी व्यर्थ है। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में समाज सेवा करने वालों  समाचार नित्य प्रतिदिन  आना एक विज्ञापन से अधिक कुछ नहीं होता। कैमरे के सामने बाढ़ या अकाल पीडि़तों को सहायता देने के फोटो देखकर यह नहीं समझ लेना चाहिये कि वह मदद है बल्कि वह एक प्रचार है। बिना स्वार्थ के सहायता  करने वाले लोग कभी इस तरह के दिखावे में नहीं आते। जो दिखाकर मदद कर रहे हैं उनसे पीछे प्रचार पाना ही उनका उद्देश्य है। इस तरह की समाज सेवा की गतिविधियों में वही लोग सक्रिय देखे जाते हैं जिनकी समाजसेवक की छवि छद्म रूप होती है जबकि दरअसल उनका लक्ष्य दूसरा ही होता है| उनके प्रयासों से  समाज का उद्धार कभी नहीं होता। समाज के सच्चे हितैषी तो वही होते हैं जो बिना प्रचार के किसी की याचना न होने पर भी सहायता के लिये पहुंच जाते हैं। जिनके हृदय में किसी की सहायता का भाव उस मनुष्य को बिना किसी को दिखाये सहायता के लिये तत्पर होना चाहिये-यह सोचकर कि वह एक मनुष्य है और यह उसका धर्म है। अगर आप सहायता का प्रचार करते हैं तो दान से मिलने वाले पुण्य का नाश करते हैं।
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Tuesday, October 14, 2008

चाणक्य सन्देश: प्रत्युपकार से मनुष्य अपनी रक्षा करता है

1.पाँव धोने का जल और संध्या के उपरांत शेष जल विकारों से युक्त हो जाता अत: उसे उपयोग में लाना अत्यंत निकृष्ट होता है। पत्थर पर चंदन घिसकर लगाना और अपना ही मुख पानी में देखना भी अशुभ माना गया है।
२.बिना बुलाए किसी के घर जाने की बात, बिना पूछे दान देना और दो व्यक्तियों के बीच वार्तालाप में बोल पडना भी अधर्म कार्य माना जाता है।
३.शंख का पिता रत्नों की खदान है। माता लक्ष्मी है फिर भी वह शंख भीख माँगता है तो उसमें उसके भाग्य का ही खेल कहा जा सकता है।
४.उपकार करने वाले पर प्रत्युपकार, मारने वाले को दण्ड दुष्ट और शठ से सख्ती का व्यवहार कर ही मनुष्य अपनी रक्षा कर सकता है।

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Saturday, October 11, 2008

संत कबीर संदेशः इष्ट बदल कर पूजने वालों का उद्धार नहीं

संत कबीर दास जी के अनुसार
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कामी तरि क्रोधी तरै, लोभी तरै अनंत
आग उपासी कृतघनी, तरै न गुरु कहंत


सद्गुरुओं का कहना है कि कामी, क्रोधी और लोभी भी अनेक बार अपने इष्ट को हृदय से स्मरण कर तर जाता है पर परंतु अपने इष्ट और सदगुरु को छोड़कर अन्य की उपासना करने वाला कभी नहीं तर सकता।

देवि देव मानै सबै, अलख न मानै कोय
जा अलेख का सब किया, तासों बेबुख होय


अनेक देवों की आराधना करने वाले निरंकार को नहीं मानते जबकि यह चराचर विश्व उसी ने रच रखा है। मूर्तियों को पूजने वाले उस निरंकार को नहीं जानते इसलिये उसे प्राप्त नहीं कर पाते।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-संत कबीरदास जी के समय भी धर्म परिवर्तन संभवतः बड़े पैमाने पर हो रहा था इसलिये उन्होंने इसका प्रतिवाद करते हुए उसकी आलोचना की है। सत्य तो यह है कि बाल्यकाल से ही माता पिता जिस इष्ट या गुरु का संपर्क करा देते हैं फिर उसी का ही अनुसरण जीवन भर करना चाहिये क्योंकि वह इस देह में मौजूद आत्मा धारण कर चुकी होती है। जो धर्म परिवर्तन करते हैं एक तरह से वह अपने माता पिता का त्याग तो करते ही हैं अज्ञान की शरण भी लेते हैं। जब सभी स्वरूपों में एक ही ईश्वर है तब उसका स्वरूप बदलने का आशय यह है कि मन में लोभ, काम और क्रोध का प्रकोप है। अगर सच्चे मन से माना जाये तो जिस रूप में हम बचपन से ही आराधना करते हैं उसी में ही परमात्मा की स्नेहपूर्ण अनुभूति होती है। धर्म या इष्ट बदलने का अर्थ यह है कि कोई स्वार्थ है जो इसके लिये प्रेरित करता हैै। ऐसा करने वाले माता पिता और गुरुओं का अपमान भी करते हैं।

यह केवल धर्म परिवर्तन के ही विषय में नहीं कहा गया बल्कि इष्ट के स्वरूप बदलना भी गलत माना गया है। कभी जीवन में कुछ काम समय न आने का कारण नहीं हो पाते तब लोग इष्ट या गुरु को भी बदलने के लिये प्रेरित करते हैं। उनकी बात भी नहीं मानी जानी चाहिये। वैसे देखा जाये तो समय के अनुसार सारे काम होते हैं पर कुछ लोग अपने लाभ के लिये दूसरों को धर्म, इष्ट या गुरु बदने के लिये उकसाते हैं। वह स्वयं तो संकट में रहते ही हैं दूसरों को भी संकट में डालते हैं। वैसे भी परमात्मा को निच्छल हृदय से स्मरण करने पर ही मन को शांति मिलती है। उसके स्वरूप बदलना तो अपने आपको ही धोखा देना है।
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Friday, October 10, 2008

संत कबीर संदेशः दूसरों की निंदा कर वैमनस्य न बढ़ायें

संत श्री कबीरदास जी के अनुसार
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काहू का नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय


किसी भी व्यक्ति का दोष देखकर भी उसकी निंदा न करें। अपना कर्तव्य तो यही है कि जो साधु और गुणी हो उसका सम्मान करें और उसकी बातों को समझें

तिनका कबहू न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़े, पीर घनेरी होय


आशय यह है कि दूसरे के दोष देखकर उसकी निंदा से बचने का प्रयास करना चाहिये। तिनके तक की निंदा भी नहीं करना चाहिये। पता नहीं कब आंखों में गिरकर त्रास देने लगे।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही दूसरों की निंदा करने में लगा है। इसी प्रवृत्ति के कारण एक दूसरे से दूर हो जाते हैं। सक एक दूसरे की सामने तो प्रशंसा करते हैं पर पीठ पीछे निंदा पर आमादा हो जाते हैंं। यही कारण है कि किसी का किसी पर यकीन नहीं हैंं। अगर हम किसी की यह सोचकर निंदा करते हैं कि उससे क्या डरना वह कुछ नहीं कर सकता। यह भ्रम है। इस जीवन में पता नहीं कब किसकी आवश्यकता पड़ जाये-यही सोचकर किसी की निंदा नहीं करना चाहिये। दोष सभी में होते हैं। मानव देह तो दोषों का पुतला है फिर निंदा कर दूसरे लोगों से अपना वैमनस्य क्यों बढ़ाया जाये?

बजाय दूसरों की निंदा करने के ऐसे लोगोंे से संपर्क रखना चाहिये जो साधु प्रवृत्ति के हों। उनके सद्गुणों की चर्चा करना चाहिये। यह तय बात है कि हम अपने मूंह से अगर किसी के लिये बुरे शब्द निकालते हैं तो उसका हमारी मानसिकता पर ही बुरा प्रभाव पड़ता है। अगर किसी के बारे मे सद्चर्चा की जाये तो उसका सकारात्मक प्रभाव दिखता है।
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Thursday, October 9, 2008

संत कबीर संदेशः दुःख के महल त्याग कर सुख के आश्रम में रहो

दुक्ख महल को ढाहने, सुक्ख महल रहु जाय
अभि अन्तर है उनमुनी, तामें रहो समाय


संत कबीरदास जी के अनुसार इस संसार में रहना है तो दुख के महल को गिराकर सुख महल में रहो। यह तभी संभव है जब जो हमारे अंदर आत्मा है उसमें ही समा जायें।

काजल तजै न श्यामता, मुक्ता तर्ज न श्वेत
दुर्जन तजै न कुटिलता, सज्जन तजै न हेत


आशय यह है कि जिस तरह काजल अपना कालापन और मोती अपनी सफेदी को नहीं त्यागता वेसे ही दुर्जन अपनी कुटिलता और सज्जन अपनी सज्ज्नता नहीं त्यागता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-देने वाला परमात्मा है और जो कर्म करता है उसे उसका परिणा मिलता ही है। फिर भी आदमी में अपना अहंकार है कि 'मैं कर्ता हूं।' वह अपने देह से किये गये कर्म से प्राप्त माया के भंडार को ही अपना फल समझता है और बस उसकी वृद्धि में ही अपना जीवन धन्य समझता है और भक्ति भाव को वह केवल एक समय पास काम मानता है। कितना बड़ा भ्रम मनुष्य में है यह अगर हम अपना आत्म मंथन करें तो समझ में आ जायेगा। हम कहीं दुकान कर रहे हैं या नौकरी उससे जो आय होती है वह फल नहीं होता। वह जो पैसा प्राप्त होता है उससे अपने और परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति पर ही व्यय करते हैं। वह पैसा प्राप्त करना तो हमारे ही कर्म का हिस्सा है। कहीं से मजदूरी या वेतन प्राप्त होता है वह भला कैसे फल हो सकता है जबकि उसे प्राप्त करना भी हमारा कर्तव्य है ताकि हम अपनी इस देह का और साथ ही अपने परिवार का भरण भोषण कर सकें। इसलिये माया की प्राप्त को फल समझना एक तरह से दुःख का महल है और उसे एक सामान्य कर्म मानते हुए उसे त्याग कर देना चाहिये। भगवान की भक्ति करना ही सुख के महल में रहना है।

अगर हमें यह अनुभूति हो जाये कि अमुक व्यक्ति के मूल स्वभाव में ही दुष्टता का भाव है तो उसे त्याग देना चाहिये। यह मानकर चले कि यहां कोई भी अपना स्वभाव नहीं बदल सकता। जिसत तरह काजल अपनी कालापन और मोती आपनी सफेदी नहीं छोड़ सकता वैसे ही जिनके मूल में दुष्टता का भाव है वह उसे नहीं छोड़ सकता। उसी तरह जिन में हमें सज्जनता का भाव लगता है उनका साथ भी कभी नहीं छोड़ना चाहिये।
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Wednesday, October 8, 2008

रहीम संदेशः परमात्म से किया गया प्रेम ही सच्चा

वहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत

स्वाभाविक रूप से जो प्रेम होता है उसकी कोई रीति नहीं होती। स्वार्थ की वजह से हुआ प्रेम तो धीरे धीरे घटते हुए समाप्त हो जाता है। जब आदमी के स्वार्थ पूरे हो जाते हैं जब उसका प्रेम ऐसे ही घटता है जैसे रेत हाथ से फिसलती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में कई ऐसे लोग आते हैं जिनका साथ हमें बहुत अच्छा लगता है और हम से प्रेम समझ बैठते हैं। फिर वह बिछड़ जाते हैं तो उनकी याद आती है और फिर एकदम बिसर जाते हैं। उनकी जगह दूसरे लोग ले लेत हैं। यह प्रेमी की ऐसी रीति है जो देह के साथ आती है। यह अलग बात है कि इसमेें बहकर कई लोग अपना जीवन दूसरे को सौंप कर उसे तबाह कर लेते हैं।

सच्चा प्रेम तो परमात्मा के नाम से ही हो सकता है। आजकल के फिल्मी कहानियों में जो प्रेम दिखाया जाता है वह केवल देह के आकर्षण तक ही सीमित है। फिर कई सूफी गाने भी इस तरह प्रस्तुत किये जाते हैं कि परमात्मा और प्रेमी एक जैसा प्रस्तुत हो जाये। सूफी संस्कृति की आड़ में हाड़मांस के नष्ट होने वाली देह में दिल लगाने के लिये यह संस्कृति बाजार ने बनाई है। अनेक युवक युवतियां इसमें बह जाते हैं और उनको लगता हैकि बस यही प्रेम परमात्मा का रूप है।

सच तो यह है परमात्मा को प्रेम करने वाली तो कोई रीति नहीं है। उसका ध्यान और स्मरण कर मन के विकार दूर किये जायें तभी पता लगता है कि प्रेम क्या है? यह दैहिक प्रेम तो केवल एक आकर्षण है जबकि परमात्मा के प्रति ही प्रेम सच्चा है क्योंकि हम उससे अलग हुई आत्मा है।

रामनवमी के अवसर पर सभी पाठक,ब्लाग लेखक मित्रों और सहृदय सज्जनों को हार्दिक बधाई। यह पर्व समाज में पूरे वर्ष खुशियां बिखेरे ऐसी कामना सभी को करना चाहिये।
संपादक-दीपक भारतदीप

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Tuesday, October 7, 2008

रहीम के दोहेः जो दीन पर दया करे वही दीनबंधु कहलाता है

कविवर रहीम कहते हैं
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दिव्य दीनता के रसहि, का जाने जग अंधु
भली बिचारी दीनता, दीनबंधु से बंधु
      हिंदी में भावार्थ-भगवान की भक्ति दीन भाव से करने पर जो रस और आनंद मिलता है उसे अहंकार में अंधे लोग नहीं समझ सकते। दीनता में जो सोंदर्य है उससे ही दीनबंधु आकर्षित होते हैं।
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय
जो रहीम दीनहि लखै, दीनबंधु सम होय
      हिंदी में भावार्थ-जो दीन है वह सबकी तरफ देखता है पर उसे कोई नहीं देखता। जो दीन की ओर देखकर उस पर दया करता है उसके लिये वह भगवान तुल्य हो जाता है।
     वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-पहले समाज की एक स्वचालित व्यवस्था थी जिसमें धनी व्यक्ति के लिये दान का कर्तव्य निश्चित किया गया ताकि जिनके पास धन नहीं है उन्हें प्राप्त होता रहे और समाज में समरसता का भाव बना रहे मगर  अब लोग दान के नाम पर नाक भौं सिकोड़ते हैं या फिर ढिंढोरा पीटकर देते हें जिससे उनको आर्थिक लाभ और सामाजिक प्रतिष्ठा मिले। कुछ धनिक और उनकी संतानों के लिये तो माया शक्ति प्रदर्शन का एक हथियार बन गयी है। जिनके पास धन है उनको समाज में दीन और दरिद्र की तकलीफों का ख्याल नहीं होता और न ही इस बात का विचार होता है कि वह उनकी तरफ अपेक्षित भाव से देख रहे हैं। माया उनको अंधा बना देती हैं और फिर इन्हीं दीनों में से कोई अपराधी बनकर उनकी इसी माया का हरण तो कर ही लेता है और कहीं न कहीं तो शारीरिक हानि भी पहुंचा देता हैं।
      एक बात धनिकों को याद रखना चाहिये कि दीन उनको देखते हैं और उनके व्यवहार से ही उन पर अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में अगर वह स्वयं ही उन पर दया करें तो उनके लिये भगवान बन जायेंगे क्योंकि दीन तो बिचारे सभी तरफ देखते हैं पर उनकी तरफ अगर कोई देखे तो उनका मन प्रसन्न हो जाता है।
      दान करने से आशय यह नहीं है कि कहीं भिखारियों को खाना खिलाया जाये या किसी मंदिर में दान डाला जाये। यह अपने आसपास ही निर्धन और जरूरतमंद लोगों लोगों की सहायत कर भी किया जा सकता है। किसी मजदूर से काम कराकर उसके मांगे गये मेहनताने से थोड़ा अधिक देकर या अपने घर की अनावश्यक पड़ी वस्तु उनको देखकर भी उनका मन जीता जा सकता है। यह संदेश साफ है कि अगर आप धनी है तो आप अपने आसपास के निर्धन लोगों पर कृपा करते रहें तभी आप भी अमन से रह पायेंगे वरन आपको स्वयं ही अकेलापन और असुरक्षा का अनुभव होगा। मतलब यह कि आप दीनबंधु बने तभी आप दीनबंधु को पा सकते हैं। दान देते समय भी अपने अंदर दीन भाव रखना चाहिये और भक्ति करते समय भी। तभी परमानंद की प्राप्त हो सकती है।
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