Sunday, January 9, 2011

काला दूषित धन देश के लिए खतरा-हिन्दी चिंत्तन लेख (black money in india danger for country-hindi chitan lekh)

हम जब अपने देश की स्थिति को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि चारों तरफ जो विकास की चकाचौंध है वह केवल दूषित या कालेधन की वजह से ही है। अंग्रेजी का विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ कहता है कि बिना बेईमानी के कोई भी अमीर नहीं बन सकता। वैसे उसने यह बात पाश्चात्य सभ्यता को देखकर कही थी पर चूंकि हमने भी राज्य, समाज तथा शिक्षा व्यवस्था में उसी पश्चिमी संस्कृति को स्वीकार कर लिया है इसलिये हमारे देश पर भी यही सिद्धांत या फार्मूला लागू होता है। ऐसे में हम जहां भी बड़े धन के लेनेदेन देखते हैं तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या वह दूषित धन का प्रताप नहीं है।
हमारे देश में कालाधन अब समस्या नहीं रही क्योंकि शायद ही कोई ऐसा अमीर हो जिसके पास सफेद धन अधिक हो। इसलिये यह कह सकते हैं कि यह तो हमारे समाज का एक भाग बन गया है। कालेधन में हमारी पूरी व्यवस्था के साथ ही समाज भी संास ले रहा है। एक तरह से आदत हो गयी है दूषित धन में सांस लेने की। जिस तरह हंस की आदत होती है कि वह मोती चुगता है और चिड़िया दाना उसी तरह हमारे समाज के कुछ लोगों को काला धन ही अपना सर्वस्व दिखता है। अब शिखर पुरुष हंस नहीं चिड़िया की तरह हो गये हैं। वह धन उनको दूषित नहीं बल्कि पवित्र दिखाई देता है। एक बात सच है कि मेहनत के दम पर केवल रोटी से पेट भरा जा सकता है पर ऐशोआराम केवल कालेधन या दूषित धन से ही अब संभव रह गया है। हम टीवी चैनलों पर विलासिता से भरी खबरों को देखते हैं जिनके पीछे केवल कालेधन का ही महिमा मंडन होता है। महान राजनीतिशास्त्री कौटिल्य महाराज ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि-
दूष्यस्यादूषणर्द्यंव परित्यागो महयतः।
ऋते राज्यापह्यरातु युक्तदण्डा प्रशस्यते।।
‘‘दुष्य तथा दूषित अर्थ का अवश्य त्याग करना चाहिए। नीति ज्ञाताओं ने अर्थ हानि को ही अर्थ दूषण बताया है।’’
कितनी मज़ेदार बात है कि हम अक्सर यह सुनते हैं कि हमारे देश का बहुत अधिक धन स्विस बैंकों में पहुंच गया है। दरअसल यह हमारे देश की हानि है और इसी कारण हुई है कि वह पूरा धन काला या दूषित है। विश्व में अमीर देश की तरफ प्रतिष्ठित हो रहे देश की आम जनता महंगाई तथा अपराधों की मार से चीत्कार कर रही है। आज भी देश की जनता का एक बहुत बड़ा भाग गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहा है। नये वर्ष पर जब देश के टीवी चैनल देश में हो रही मस्ती दिखा रहे थे तब देश का एक बहुत बड़ा भाग सदी की ठिठुरन से लड़ते हुए अपनी सांसे बचा रहा था। यह विरोधाभास इसी दुषित धन का प्रमाण है। हम जब देश के खुशहाल होने की बात सोचते हैं तब इस दूषित धन के दुष्प्रभाव को नहीं भूला सकते। जिस पर विदेश मजे कर रहे हैं और देश गरीब झेल रहा है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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