Saturday, August 30, 2014

अपनी देह के अंदर स्थित गंदगी का अवलोकन करें-मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख(apne deh ke andar sthit gandagi ka avlokan karen-A Hindu hindu religion thought or article)




            कहा जाता है कि भौतिक विकास के कारण समाज में विभिन्न आयुवर्ग के लोगों में एक पीढ़ीगत अंतर स्वाभाविक रूप से होता है। आजकल तो यह भी कहा जाता है कि बच्चे अक्षर ज्ञान से पहले ही टीवी, मोबाइल और अन्य आधुनिक उपभोग के सामानों का चलाना सीख लेते हैं।  इस बहिर्मुखी जानकारी को अब बौद्धिक विकास का प्रतीक माना जाने लगा है जबकि आंतरिक ज्ञान से-जिसके बिना जीवन में हमेशा ही आनंद उठाने का अवसर मिलता है-सभी परे हो गये हैं। यही कारण है कि समाज में तनाव की प्रवृत्ति बढ़ रही है।  सबसे बड़ी बात यह कि जिस देह को धारण कर इस संसार में गुजारना है उसके बारे में कोई नहीं जानता।
            हमारे शरीर के विकार मन को प्रभावित करते हैं जिससे बुद्धि संचालित होती है।  अक्सर अनेक बुद्धिमान और विद्वान समाज के लोगों को नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने का सुझाव देते हैं पर जिसकी देह और मन में विकार होंगे वह किस तरह सकारात्मक दृष्टिकोण अपना सकता है भारतीय अध्यात्म ज्ञान के अभाव में वह स्वयं भी नहीं जानते।


मनुस्मृति में कहा गया है कि

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वसाशुक्रमसृङ्मज्जरमूत्रविङ्घ्राणकर्णविट्।

श्लेषामाश्रृदूषिकास्वेदा द्वाशैते नृणां मलाः।।

            हिन्दी में भावार्थ-चर्बी, वीर्य, रक्त, मज्जा, मूत्र, मल, आंखों का कीचड़, नाक की गंदगी, कान का मैल, आंसू, कफ तथा पसीना यह बारह प्रकार के मल हैं।

ऊर्ध्व नाभेर्यानि खानि तानि मेध्यानि सर्वशः।

यान्यधस्तान्यमेध्यानि देहाच्चैव मलाश्चयुताः।।

            हिन्दी में भावार्थ-नाभि के ऊपर स्थित इंद्रियां-हाथ, कान, नाक, आंख तथा जीभ पवित्र मानी जाती हैं। नाभि के नीचे की इंद्रियां-गुदा, लिंग, तथा पैर एवं शरीर से निकलने वाले मल, मूत्र, विष्टा पसीना, खोट आदि अपवित्र हैं।

            महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपनी नाभि के ऊपर स्थित इंद्रियों के उपयोग करते समय यह नहीं जानते कि नीचे की इंद्रियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? उच्च इंद्रियां ग्रहण करती हैं और निम्न इंद्रियां उसके संपर्क से  मिले कचड़े का निवारण करती हैं। हमारी देह में सात चक्र हैं-सहस्त्रात, आज्ञा, विशुद्धि, अनहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मूलाधार-जो निरंतर घूमते रहते हैं। हम अपनी इंद्रियों से बाहरी विश्व का उपभोग करते हैं पर इसमें नियमितता तभी तक संभव रह पाती है जब तक यह सभी चक्र काम करते हैं।
            इसलिये हम उच्च इंद्रियों से केवल उन्हीं व्यक्तियों, वस्तुओं और विषयों से संपर्क करें जिनसे हमारी देह का कोई चक्र दृष्प्रभाव का शिकार न हो। हम इन्हीं इंद्रियों से अपने कर्म फल का निर्माण करते हैं यह नहीं भूलना चाहिये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Friday, August 15, 2014

प्रजा से अधिक कर लेने पर राज्य मे अशांति की आंशका रहती है-मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख(praja se adhik kar lene par rajya mein ashanti ki aashanka rahatee hai-A Hindu hindi religion thought based on manusmriti)



      हमारे देश में लोकतांत्रिक प्रणाली अवश्य है पर यहां की राज्य प्रबंध व्यवस्था वही है जो अंग्रेजों ने प्रजा को गुलाम बनाये रखने की भावना से अपनायी थी। उन्होंने इस व्यवस्था को इस सिद्धांत पर अपनाया था कि राज्य कर्मीं ईमानदार होते हैं और प्रजा को दबाये रखने के लिये उन्हें निरंकुश व्यवहार करना ही  चाहिये।  राजनीतिक रूप से देश स्वतंत्र अवश्य हो गया पर जिस तरह की व्यवस्था रही उससे देश में राज्य प्रबंध को लेकर हमेशा ही एक निराशा का भाव व्याप्त  दिखता रहा है।  इसी भाव के कारण  देश में अनेक ऐसे आंदोलन चलते रहे हैं जिनके शीर्ष पुरुष देश में पूर्ण स्वाधीनताा न मिलने की शिकायत करतेे है।



मनुस्मृति में कहा गया है कि

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शरीकर्षात्प्राणाः क्षीयन्ते प्राणिनां यथा।

तथा राज्ञामपि प्राणाः क्षीयन्ते राष्ट्रकर्षणात्।।

     हिन्दी में भावार्थ-जिस प्रकर शरीर का अधिक शोषण करने से प्राणशक्ति कम होती उसी तरह जिस राज्य में प्रजा का अधिक शोषण होने वहां अशांति फैलती है।

राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादयिनः शठाः।

भृत्याः भवन्ति प्रायेण तेभ्योरक्षेदियाः प्रजाः।।

     हिन्दी में भावार्थ-प्रजा के लिये नियुक्त कर्मचारियों में स्वाभाविक रूप से धूर्तता का भाव आ ही जाता है। उनसे निपटने का उपाय राज्य प्रमुख को करना ही चाहिए।

      देश की अर्थव्यवस्था को लेकर अनेक विवाद दिखाई देते हैं।  यहां ढेर सारे कर लगाये जाते हैं।  इतना ही नहीं करों की दरें जिस कथित समाजवादी सिद्धांत के आधार पर तय होती है वह कर चोरी को ही प्रोत्साहित करती है।  इसके साथ ही  कर जमा करने तथा उसका विवरण देते समय करदाता  इस तरह  अनुभव करते हैं जैसे कि उत्पादक नागरिक होना जैसे एक अपराध है।  देश के कमजोर, गरीब तथा अनुत्पादक लोगों की सहायता या कल्याण करने का सरकार को करना चाहिये पर इसका यह आशय कतई नहीं है कि उत्पादक नागरिकों पर बोझ डालकर उन्हें करचोरी के लिये प्रोत्साहित किया जाये।      यह हैरानी की बात है कि कल्याणकारी राज्य के नाम करसिद्धांत अपनाये गये कि गरीब लोगों की भर्लाइै के लिये उत्पादक नागरिकों पर इतना बोझ डाला जाये कि वह अमीर न हों पर इसका परिणाम विपरीत दिखाई दिया जिसके अनुसार  पुराने पूंजीपति जहां अधिक अमीर होते गये वहीं मध्यम और निम्न आय का व्यक्ति आय की दृष्टि से नीचे गिरता गया।  इतना ही नहीं  ऐसे नियम बने जिससे निजी व्यवसाय या लघु उद्यमों की स्थापना कठिन होती गयी।
            हालांकि अब अनेक विद्वान यह अनुभव करते हैं कि राज्य प्रबंध की नीति में बदलाव लाया जाये। इस पर अनेक बहसें होती हैं पर कोई निर्णायक कदम इस तरह उठाया नहीं जाता दिख रहा है जैसी कि अपेक्षा होती है।  हालांकि भविष्य में इसकी तरफ कदम उठायेंगे इसकी संभावना अब बढ़ने लगी है।  एक बात तय है कि कोई भी राज्य तभी श्रेष्ठ माना जाता है जहां प्रजा के अधिकतर वर्ग खुश रहते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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