Sunday, November 13, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-घमंड या मजाक में भी प्रकृति व्यसन की उपेक्षा नहीं करना चाहिए

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
प्रकृतिव्यसनानि भूतिकामः समुपेक्षेत नहि प्रमाददर्पात।
प्रकृतिव्यसनान्युपेक्षते यो न चिरातं रिपवःपराभतवन्ति।।
           ‘‘भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति से आने मस्तिष्क में आने वाले प्रमाद या अपनी स्थिति से उत्पन्न होने वाले दर्प के कारण प्रकृति के व्यसनों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए। प्रकृति के व्यसनों की अपेक्षा करने वालों की स्थिति खराब हो जाती है।
राजा स्वयव्यसनी राज्यव्यसनापीह्न्क्षमः।
न राज्यव्यसनापोहसमर्थ राज्यपूर्जितम्।।
"जो राज्य प्रमुख स्वयं व्यसनों से रहित हो वही प्रजा के व्यसनों को दूर कर सकता है अन्यथा वह अपने अपने विशाल राज्य को विपत्तियों और व्यसनों से बचा नहीं सकता।"
                वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कौटिल्य का अर्थशास्त्र एक बृहद राजनीतिक सिद्धांतों का भंडार है। हम में से अधिकतर लोग राजनीति को केवल राजकाज से जुड़ा विषय मानते हैं जबकि राजनीति का अर्थ है राजस कर्म की प्रक्रिया से जुड़ना। देखा जाये तो इस संसार में फल की इच्छा से किया गया हर कर्म राजस प्रवृत्ति से जुड़ा है इसलिये शायद पहले के अनेक महान ऋषियों ने राजस बुद्धि के उपयोग तथा उस पर नियंत्रण के सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हुए इस बात का ध्यान रखा कि उसका राजा और प्रजा दोनों ही पालन करें। जिस तरह राज अपनी प्रजा को अपनी प्रजा पर नियंत्रण करना होता है उसी तरह परिवार के मुखिया को भी अपने आश्रित सदस्यों को भी पालना होता है। ऐसे में दोनों को ऐसे सिद्धांतों का पालन करना पड़ता है जो राजस कर्म को भली प्रकार संपन्न करने में सहायक होते हैं। उनके अनुसार राज्य या परिवार प्रमुख को अपनी आदतों, विचारों तथा बुद्धि पर नियंत्रण करना चाहिए तभी वह अपने अंतर्गत रहने वाले लोगों पर नियंत्रण कर सकते हैं।
           देखा यह गया है कि शक्ति के मद में आदमी अनियंत्रित होकर मदमस्त होकर चलता है। ऐसे में हादसें होने की संभावना बढ़ जाती है पर इस विषय पर कोई नहीं सोचता। इतना ही नहीं धन, बल और प्रतिष्ठा अधिक होने पर आदमी पागल तक हो जाते हैं और अपनी बकवास को ब्रह्म वाक्य की तरह व्यक्त करते हैं। धन संग्रह तथा मनोरंजन की चाहत से आजकल लोगों ने अपनी निद्रा तक का त्याग कर दिया है। प्रातः उठना तो एक तरह से पुराना फैशन हो गया है। परिणाम यह हुआ है कि हमारे देश का अभिजात्य वर्ग राजरोगों का शिकार हो गया है। ऐसे में मनुष्य दिखने में भले ही मनुष्य लगता है पर उसका जीवन पालतु पशुओं की तरह हो गया है। जिस तरह पशु पालतु अपने मालिक की मर्जी से चलते हैं वैसे ही आजकल लोग उपभोग की वस्तुओं के दास हो गये हैं। राजा हो या प्रजा, पिता हो या पुत्र या मात हो या पुत्री सभी अनियंत्रित हो गये हैं। फिर भी सभी को ऐसा नहीं माना जा सकता। ऐसे ज्ञानी लोग जिनको पता है कि किसी वस्तु का उपभोग करना और उसे व्यसन की तरह उपयोग में लाने की प्रक्रिया में अंतर है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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