Wednesday, November 30, 2011

तुलसी दर्शन-वाणी और वेश से किसी को जानना संभव नहीं (tulsi darshan-vani aur vesh aur aadmi)

                  आधुनिक समाज में लोगों की नज़रों में सौंदर्य, चतुराई तथा बुद्धिमानी के मायने ही बदल गये हैं। रसायनिक पदार्थों से व्यक्तियों तथा वस्तुओं का सौंदर्य निखारा जा रहा है। बाज़ार के सौदागर तथा उनके प्रचारक मिलकर समाज की बुद्धि का हरण करते जा रहे हैं। किसी वस्तु के उपभोग को विज्ञापनो से प्रेरित करने के प्रयास में उनको आकर्षक शाब्दिक शोर तथा संगीत से इस तरह भरा जाता है कि उसके माध्यम से आम जनमानस का विवेक तथा बुद्धि का हरण किया जा सके। यही कारण है कि उपभोग की वस्तुओं के उपयोग को चतुराई माना जाता है। लोहे लकड़ी और प्लास्टिक की चीजों के रंगे होने से उनमें जो सौंदर्य उभरकर इस तरह आता है कि लोग उस पर मोहित हो जाते हैं।
संत कवि तुलसी दास जी कहते हैं कि
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बचन बेष क्या जानिए, मनमलीन नर नारि।
सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि।।
         ‘‘वाणी और वेश से किसी मन के मैले स्त्री या पुरुष को जानना संभव नहीं है। सूपनखा, मारीचि, रावण और पूतना ने सुंदर वेश धरे पर उनकी नीचत खराब ही थी।’’
मार खोज लै सौंह करि, करि मत लाज न ग्रास।
मुए नीच ते मीच बिनु, जे इन के बिस्वास।।
          ‘‘वह निबुर्द्धि मनुष्य ही कपटियों और ढोंगियों का शिकार होते हैं। ऐसे कपटी लोग शपथ लेकर मित्र बनते हैं और फिर मौका मिलते ही वार करते हैं। ऐसे लोगों भगवान का न भगवान का भय न समाज का, अतः उनसे बचना चाहिए।
          आधुनिक शिक्षा पद्धति में रचाबसा समाज आपनी बुद्धि तथा विवेक का इस्तेमाल करना फालतू तनाव मोल लेना समझता है। यही कारण है कि हमारे यहां दैहिक विकारों के साथ मानसिक रोगों का भी विस्तार हो रहा है। हम जब देश की जनंसख्या 121 करोड़ होने के दावे पर इतराते हैं तब इस बात की जानकारी एकत्रित नहीं करते कि उसमें शारीरिक तथा मानसिक विकारों से रहित कितने लोग हैं? मानसिक तथा दैहिक स्वास्थ्यय विशेषज्ञ देश में बढ़ रहे रोगियो की संख्या अब चालीस और पचास प्रतिशत से ऊपर बताने लगे हैं। इसका कारण यह है कि हम लोग अपने अध्यात्मिक दर्शन को प्राचीन मानकर उसकी अवहेलना करते हैं जबकि वह प्रकृत्ति तत्वों के सत्य पर आधारित है जो कभी नहीं बदलते भले ही हमारी नज़र में कथित रूप से जमाना बदल जाये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, November 26, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-जहां मित्र पहुंच सकते हैं वह भ्राता नहीं (kautilya ka arthshastra-friend and brother or father,mitra, pita aur bhai)

           इस संसार में सभी प्रकार के पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधों की सीमा है। पारिवारिक संबंध जन्म के आधार पर बनते हैं तो सामाजिक लोगों के साथ बनाये जाते हैं, पर मित्रता या आत्मीय रिश्ता मनुष्य के व्यवहार, कार्य तथा विचारों से प्रकृति के अनुसार बनता है। आत्मीय या मित्रता संबंध न बनते हैं न बनाये जाते हैं बल्कि प्रकृति ही मनुष्य के सामने उनको उपस्थित करती है। जहां पारिवारिक संबंध सामाजिक आधारों पर कभी इच्छा से तो कभी मन की बाध्यता की वजह से निभाये जाते हैं वही प्रकृति निर्मित मित्रता तथा आत्मीय संबंध निभाने की कोई अनिवार्यता नहीं होती। इसके बावजूद आदमी जिससे मित्रता करता है उसके प्रति बिना किसी फल के मित्रता का निर्वाह करने को तैयार रहता है। कई बार स्थिति यह होती है कि विपत्ति आने या विशेष काम उपस्थित होने पर जहां परिवार के सदस्य या रिश्तेदार सहयोग करने नहीं पहुंच सकते वहां मित्र अपनी भूमिका निभाने के लिये तत्पर हो जाते हैं।
           फिर आज के समय जब भौतिकता का बोलबाला है और लोग अपनी रोटी रोटी कमाने के लिये अपने शहरों से पलायन कर दूसरी जगह बस रहे हैं। इससे उनके पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधों से दूरी बन जाती है। कहा भी जाता है कि जो देह से दूर है वह दिल से भी दूर है। इसके अलावा महिलाओं के विवाह भी अपने शहरों से दूर दूसरे शहरों में काम कर रहे पुरुषों होते हैं, तब परिवार और रिश्तेदार उनसे दूर हो जाते हैं। इसलिये  उनको प्रकृत्ति निर्मित बाह्य संबंधों पर निर्भर होना पड़ता है। जब किसी खास अवसर पर पारिवारिक लोग उनको महत्व अधिक मिलते देखते हैं तो दुःखी हो जाते हैं। कुछ लोग ताने भी देते हैं पर वह इस सत्य को नहीं समझते कि आदमी अपनी देह की आवश्यकताओं के कारण उन मैत्री और आत्मीय संबंधों पर निर्भर रहता है जहां पारिवारिक तथा सामाजिक रिश्तेदार काम नहीं करते।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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न तत्र विष्ठति भ्राता न पितोऽयोऽपि वा जनः।
पुंसामापत्प्रत्तीकार सन्मित्रं यत्र तिष्ठति।।
          ‘‘जहां किसी आदमी पर आपत्ति आने पर मित्र पास आकर उसे दूर कर सकता है वहां भ्राता, पिता तथा अन्य आत्मीय जन पहुंच भी नहीं सकता।
प्रकाशपक्षग्रहणं न कुर्यात्सहृदां स्वयंम्।
अन्योन्यमत्सरंवषा स्वयमेवाशं धारवेत्।।
           ‘‘अपने प्रियजनों का पक्ष कहीं भी स्वयं प्रकट रूप से न लें बल्कि गुप्त रूप से किसी को इसके लिये प्रेरित कर इस कार्य को संपन्न करें।’’
            वैसे संबंध चाहे पारिवारि हो या सामजिक हों या मैत्री वाले उनका कहीं अगर पक्ष रखना हो तो स्वयं यह काम न करें बल्कि किन्हीं अन्य लोगों से परस्पर सहयोग के आधार पर उनसे यह काम करवायें। बदल में आप उनका ऐसा ही काम करें। कहीं वाद विवाद या किसी अनुबंध के अवसर पर आप अपने आदमी का पक्ष रखेंगे तो यह माना जायेगा कि आप तो उसका पक्ष लेंगे ही इसलिये उसका महत्व कम हो जाता है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Tuesday, November 22, 2011

तुलसीदास के दोहे-दूसरे की अपकीर्ति करने वाले के मुख पर कालिख लगी नजर आती है (tulsidas ke dohe-doosre ke ninda karne valon ka munh kala)

           सामान्य मनुष्य अपनी प्रकृतियों के वशीभूत होकर काम करता है, जबकि ज्ञानी मनुष्य उनको पहचानते हुए अपने विवेक से किसी काम को करने या न करने का निर्णय लेता है। देखा जाये तो समाज में ज्ञानी मनुष्य अत्यंत कम होते हैं पर दूसरे की अपकीर्ति के माध्यम से स्वयं की कीर्ति अपने मुख से बखान करने वालों की संख्या बहुत होती है। उससे भी अधिक संख्या तो दूसरों की निंदा करने वालों की होती है जो यह मानकर चलते हैं कि दूसरे के दोष गिनाकर हम यह साबित कर सकते हैं कि हमारे पास गुण है।
          आपसी वार्तालाप में लोग एक दूसरे से कहते हैं कि ‘‘अमुक आदमी में वह दोष है’, ‘अमुक आदमी यह बुरा काम करता है’, अमुक आदमी इस तरह का गंदा विचार पालता है’, या फिर ‘अमुक आदमी गंदा भोजन खाता है या पानी पीता है’। इस तरह आदमी यह साबित करना चाहता है कि अमुक बुराई ये वह स्वयं दोषमुक्त है। ज्ञानी आदमी अपना आत्ममंथन करता है। वह दूसरों की बजाय अपनी कमियां ढूंढकर उनको दूर करने का प्रयास करता है।
महाकवि तुलसीदास कहते हैं कि
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‘तुलसी’ जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।।
         ‘‘दूसरों की निंदा कर स्वयं प्रतिष्ठा पाने का विचार ही मूर्खतापूर्ण है। दूसरे की अपकीर्ति कर अपनी कीर्ति गाने वालों के मुंह पर ऐसी कालिख लगेगी जो कितना भी धोई जाये मिट नहीं सकती।’’
तनु गुन धन महिमा धरम, तेहि बिनु जेहि अभियान।
तुलसी जिअत बिडम्बना, परिनामहु गत जान।।
        ‘‘सौंदर्य, सद्गुण, धन, प्रतिष्ठा और धर्म भाव न होने पर भी जिनको अहंकार है उनका जीवन ही बिडम्बना से भरा है। उनकी गत भी बुरी होती है।
          सच बात तो यह है कि आधुनिक समय में आदमी धन, प्रतिष्ठा और बाहुबल अर्जित करने के प्रयास में लगा रहता है। न उसके व्यक्तित्व में आकर्षण न व्यवहार में गुण दिखता हैं और न ही व्यसनों की वजह से प्रतिष्ठा और धन भी उसके स्थिर रहता है। इसके बावजूद अधिकतर लोगों के पास अहंकार होता है। जो लोग जुआ, शराब या यौन अपराधों में लिप्त होते हैं उनको अगर नैतिकता का उपदेश दिया जाये तो वह उत्तेजित होते हैं। इतना ही नहीं अनेक लोग तो ऐसे हैं जो अपने में ढेर सारे दोष होने के बावजूद दूसरों की निंदा में लगकर अपनी स्थिति हास्यास्पद बना देते हैं।
ज्ञानी आदमी इन सबसे परे होकर जीवन व्यतीत करता है। उसे मालुम होता है कि गुण और ज्ञान के संचय के लिये समय कम होता है तब परनिंदा में उसे नष्ट करना बेकार है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, November 19, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मद्यपान मनुष्य को पशु बना देता है

             शराब पीना एक ऐसा व्यसन है जिससे अनेक दोष पैदा हो जाते हैं। आजकल शादी तथा अन्य कार्यक्रमों पर शराब का फैशन आम हो गया है। अध्यात्मिक ज्ञान से परे समाज इसके दोषों को नहीं जानता। इससे जो मानसिक और शारीरिक विकार पैदा होते हैं इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। वैसे तो हमारे देश में मद्यपान प्राचीनकाल से प्रचलित रहा है पर इस तरह कभी समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग इसकी चपेट में रहा होगा यह कल्पना करना कठिन है। हमारे यहां पाश्चात्य सभ्यता के आगमन के साथ ही इसका प्रचलन बढ़ता जा रहा है। अंग्रेजी शराब और दवाओं के बीच फंसे भारत के अधिकतर लोग अध्यात्मिक ज्ञान के बिना यह नहीं जान सकते कि इस शरीर में ही वह तत्व मौजूद हैं जो कोई विकार नहीं आने देते और आ भी जायें तो उनका निवारण भी वही करते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि योग विज्ञान का अध्ययन किया जाये
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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गमनं विह्वलत्बञ्व संज्ञानाशो विवस्त्रता।
असम्बंधप्रलापित्वकस्माद्वयसनं मुहुः।।
प्राणाग्लानि सहृदन्नाशः प्रजाश्रृतिमतिभ्रमः।
सद्धिर्वियोगोऽसद्धिश्व संगोऽनर्ष्टोन संगमः।।
स्खलनं वेपथुस्तन्द्र नितांतस्त्रीन्विेषणं।
इत्यादिपानव्यसनम्तयंतं सद्विगर्हितं।।
          ‘‘चलते और घूमते रहना, व्याकुलता,संज्ञानाश वस्त्ररहित होना, वृथा, बकवास या प्रलाप करना और अकस्मात् व्यसन में पड़ना’’
       ‘‘अपने मन में ग्लानि करना, मित्रों का नाश, बुद्धि, शास्त्र और मति में भ्रम होना, तत्पुरुषों से वियुक्त रहना, असत्पुरुषों की संगति करना, अनर्थो की संगत में पड़ना’’
         "पद
पद पर स्खलित होना, शरीर में कपंना होना, तन्द्रा तथा स्त्रियों के प्रति अत्यधिक आकर्षित होना, यह सब मद्यपान के व्यसन है। इनकी इसलिये निंदा की जाती है।
        अनेक लोग तो ऐसे हैं जो शराब पीना नहीं छोड़ना चाहते वह इससे उत्पन्न शारीरिक दोषों के निवारण के लिये ऐसे पदार्थों का सेवन करते है जो अधिक विषैले होते हैं। इससे जो मानसिक हानि होती हैं इसका आभास किसी को नहीं है। इतना ही नहीं जिस समाज को दिखाने के लिये वह शराब पीते हैं उसमें उनकी छवि कितनी खराब हो रही है यह भी नहीं जानते। हमारे अध्यात्म ग्रंथ इस बात की जानकारी देते हैं कि अंततः मद्यपान मनुष्य का मनुष्यत्व लीलकर उसे पशु बना देते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Wednesday, November 16, 2011

भर्तृहरि नीति शतक-चीजों का मोल गरीब और अमीर के लिए अलग अलग होता है

             इस संसार में अनेक वस्तुएं हैं और धनी और निर्धन दोनों ही उसे पाना चाहिते हैं पर समय और हालात के अनुसार उनका मोल के साथ महत्व में भी अंतर होता है। मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अगर धनार्जन करता है तो उसे व्यय के लिये भी तत्पर रहता है। जैसे जैसे उसके पास धन संपदा बढ़ती है अपना वैभव दिखाने के लिये वह उतना ही उतावला होता हैै। अगर कोई अल्पधनी अपनी मेहनत से धनवान हो जाता है तो उसे इस बात की प्रसन्नता कम होती है बल्कि वह इस चिंता को अधिक पाल लेता है कि वह अपने वैभव का प्रदर्शन समाज के सामने कर अपनी गरीब की छवि से मुक्ति पाये।
         नवधनाढ्य आदमी समाज के सामने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने कें लिये अनेक पदार्थों का संचय करता है। अपनी चाल ढाल से वह यह सिद्ध करने का प्रयास करता है कि वह अब धनवान हो गया है। यही कारण है कि हमारे देश में धनवानों की बढ़ती संख्या के कारण भौतिक पदार्थों के संचय के साथ ही विलासिता का प्रदर्शन भी तेज हो गया है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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परिक्षीणः कश्चित्स्पृहयति यवानां प्रसृतये स पश्चात्सम्पूर्णः कलयति धरित्रीं तृणसमाम्।
अतश्चानैकान्त्याद् गुरु लघुतयाऽर्थेषु धनिनामवस्था वस्तुनि प्रथयति च संकोचयति च।।
         ‘‘जब मनुष्य गरीब होता है तब वह अपने रहने के लिये एक गज जमीन की चाहत करता है पर जब अमीर होने पर वही पूरे भूमंडल की कामना करने लगता है। इस संसार में अनेक पदार्थ हैं और अमीरी गरीबी के अनुसार उनको पाने की कामना बदलती रहती है। वस्तुओं का महत्व भी मनुष्य की आर्थिक स्थिति के अनुसार बदलता रहता है।"
            जहां तक धन कम या ज्यादा होने का सवाल है तो यह त्रिगुणमयी माया अपने रंग रूप इंसान को इस तरह दिखाती है कि वह उसी को ही सत्य मानकर उसके इर्दगिर्द घूमता रहता है। अपनी आत्मा और परमात्मा विषयक अध्यात्म ज्ञान उसके लिये सन्यासियों का विषय होता है। धन न होने पर आदमी अपने सांसरिक संघर्ष में निरंतर व्यस्त रहता है इसलिये सत्संग तथा ज्ञान चर्चा उसके लिये दूर की कौड़ी हो जाती है तो धन आने पर आदमी ऐसे सात्विक स्थानों पर भी अपने राजस भाव का प्रदर्शन बहुत उत्तेजना के साथ करता है जहां अध्यात्मिक विषयक विचार हो रहा है। मजे की बात यह है कि धनवान लोगों को यह भ्रम रहता है कि उनके पास अध्यात्मिक ज्ञान है वह उसका बखान भी करते हैं। यह अलग बात है कि उनकी वाणी के पीछे ज्ञान का नहीं  वरन् धन का ओज होता है। उनके सामने प्रस्तुत लोग ज्ञान बघारते समय भले कुछ न कहें पर पीठ पीछे  उन पर हंसते हैं। वजह साफ है, ज्ञान का प्रमाण भौतिक पदार्थों की उपलिब्ध नहीं वरन! उनका त्याग है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, November 13, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-घमंड या मजाक में भी प्रकृति व्यसन की उपेक्षा नहीं करना चाहिए

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
प्रकृतिव्यसनानि भूतिकामः समुपेक्षेत नहि प्रमाददर्पात।
प्रकृतिव्यसनान्युपेक्षते यो न चिरातं रिपवःपराभतवन्ति।।
           ‘‘भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति से आने मस्तिष्क में आने वाले प्रमाद या अपनी स्थिति से उत्पन्न होने वाले दर्प के कारण प्रकृति के व्यसनों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए। प्रकृति के व्यसनों की अपेक्षा करने वालों की स्थिति खराब हो जाती है।
राजा स्वयव्यसनी राज्यव्यसनापीह्न्क्षमः।
न राज्यव्यसनापोहसमर्थ राज्यपूर्जितम्।।
"जो राज्य प्रमुख स्वयं व्यसनों से रहित हो वही प्रजा के व्यसनों को दूर कर सकता है अन्यथा वह अपने अपने विशाल राज्य को विपत्तियों और व्यसनों से बचा नहीं सकता।"
                वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कौटिल्य का अर्थशास्त्र एक बृहद राजनीतिक सिद्धांतों का भंडार है। हम में से अधिकतर लोग राजनीति को केवल राजकाज से जुड़ा विषय मानते हैं जबकि राजनीति का अर्थ है राजस कर्म की प्रक्रिया से जुड़ना। देखा जाये तो इस संसार में फल की इच्छा से किया गया हर कर्म राजस प्रवृत्ति से जुड़ा है इसलिये शायद पहले के अनेक महान ऋषियों ने राजस बुद्धि के उपयोग तथा उस पर नियंत्रण के सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हुए इस बात का ध्यान रखा कि उसका राजा और प्रजा दोनों ही पालन करें। जिस तरह राज अपनी प्रजा को अपनी प्रजा पर नियंत्रण करना होता है उसी तरह परिवार के मुखिया को भी अपने आश्रित सदस्यों को भी पालना होता है। ऐसे में दोनों को ऐसे सिद्धांतों का पालन करना पड़ता है जो राजस कर्म को भली प्रकार संपन्न करने में सहायक होते हैं। उनके अनुसार राज्य या परिवार प्रमुख को अपनी आदतों, विचारों तथा बुद्धि पर नियंत्रण करना चाहिए तभी वह अपने अंतर्गत रहने वाले लोगों पर नियंत्रण कर सकते हैं।
           देखा यह गया है कि शक्ति के मद में आदमी अनियंत्रित होकर मदमस्त होकर चलता है। ऐसे में हादसें होने की संभावना बढ़ जाती है पर इस विषय पर कोई नहीं सोचता। इतना ही नहीं धन, बल और प्रतिष्ठा अधिक होने पर आदमी पागल तक हो जाते हैं और अपनी बकवास को ब्रह्म वाक्य की तरह व्यक्त करते हैं। धन संग्रह तथा मनोरंजन की चाहत से आजकल लोगों ने अपनी निद्रा तक का त्याग कर दिया है। प्रातः उठना तो एक तरह से पुराना फैशन हो गया है। परिणाम यह हुआ है कि हमारे देश का अभिजात्य वर्ग राजरोगों का शिकार हो गया है। ऐसे में मनुष्य दिखने में भले ही मनुष्य लगता है पर उसका जीवन पालतु पशुओं की तरह हो गया है। जिस तरह पशु पालतु अपने मालिक की मर्जी से चलते हैं वैसे ही आजकल लोग उपभोग की वस्तुओं के दास हो गये हैं। राजा हो या प्रजा, पिता हो या पुत्र या मात हो या पुत्री सभी अनियंत्रित हो गये हैं। फिर भी सभी को ऐसा नहीं माना जा सकता। ऐसे ज्ञानी लोग जिनको पता है कि किसी वस्तु का उपभोग करना और उसे व्यसन की तरह उपयोग में लाने की प्रक्रिया में अंतर है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Tuesday, November 8, 2011

यजुर्वेद से संदेश-नारी को पुरुष से न डरना चाहिए न कांपना (yajurved se sandesh-nari ko purush se darana nahin chahiye

             कहा जाता है कि हमारे वेदों में नारी को हेय समझा गया है। इतना ही नहीं कुछ लोग तो इसी कारण वेदों को पठनीय मानकर उनका तिरस्कार करते हैं।  जबकि इस बात ज्ञानी ही जानते हैं कि वेदों में ही स्त्री के बिना पुरुष और पुरुष के बिना स्त्री का संसार नीरस होने की बात बताई गयी है। वेदों में स्त्री को छुईमुई बने रहने की बजाय शक्तिशाली और पराक्रमी बनने की बात कहीं जाती है। धर्म का आधार स्त्री और पुरुष दोनों एक ही समान है इसलिये किसी भी पुरुष के साथ योग्य स्त्री होने पर उसे जीवन संघर्ष में पार लगा देती है। जो पुरुष अपनी स्त्री को हेय मानकर उनको पराक्रमी या शक्तिशाली नहीं बनने देते वह स्वयं ही कष्ट उठाते हैं।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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मां भेर्मा सं विवस्था उर्ज हात्स्व धिषणे वीड्वी सती वीऽयेथासूर्ज दधाधाम्।
पाम्पा हतो न सोमः।।
            ‘‘हे नारी, तुम दैहिक शक्ति से युक्त हो जाओ, पति से न डरो न कांपो बल्कि पराक्रम धारण कर। तुम दोनों स्त्री पुरुष पराक्रमी होकर बल धारण करो। उत्तम व्यवहार से दोनों अपने दोष दूर कर चंद्रमा के समान गुणी बनकर अपना जीवन आनंदित करो।’’    
          आजकल हम नारी जाति में आये बदलाव के लिये पश्चिमी संस्कृति को श्रेय देते नहीं थकते जबकि सच यह है कि यह हमारे खून में ही है कि समय के अनुसार हमारा समाज विकास के पथ पर चलता है।  यह अलग बात है कि हमारे देश के समाज पर नियंत्रित करने वाले समूह चाहते हैं कि भारतीय समाज वेदों, उपनिषदों तथा अन्य महाग्रंथों से दूर रहे ताकि वह पश्चिम का ज्ञान यहां बघारकर अपने आधुनिक होने के साथ ही शक्ति केंद्रों पर अपना नियंत्रण बनाये रखें।  कहा जाता है कि इन वेदों की रचनाऐं ऋषियों ने की तो पर यह भी  कहा जाता है कि इसमें स्त्रियों का भी योगदान रहा है। इसी कारण इसमें लिखे गये श्लोंको ऋचायें कहा जाता है। ऋषि शब्द पुरुष के लिये तो ऋचायें शब्द स्त्रियों के लिये प्रयुक्त हुआ है। महर्षियों के कथनों को ऋचाओं ने लिखा इसी कारण संस्कृत में रचे गये इन रचनाओं को ऋचायें भी कहा जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि वेदों में कही गयी बातों का गूढ़ अर्थ है पर इसे सहजता से ज्ञानी लोग ही समझ पाते हैं। अज्ञानियों के लिये तो यह काला अक्षर भैंस बराबर है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, November 6, 2011

वेदांत दर्शन-परमात्मा के स्वरूप पर कोई विरोध नहीं (vedant darshan-parmatma ke swaroop ka virodh nahin)

              विश्व में अनेक धर्म हैं। इनसे जुड़े धर्म समुदायों में भी विभाजन हो चुका है। विदेशों में प्रवर्तित धर्म और उसके समुदाय को वर्तमान में अध्ययन करें तो पायेंगे कि वह दो तीन तो कहीं चार भागों में बंट गये हैं। उनके धर्मगुरु अपने अनुयायियों को दूसरे धर्म के लोगों का भय दिखाकर भले ही अपने पाले में रखते हैं पर फिर भी उनके आपसी हिंसक संघर्ष होते रहते हैं। एक ही धर्म का एक समुदाय अपने को असली एवं शुद्ध बताता है तो दूसरे समुदाय को दुष्ट कहता है। इसके विपरीत भारतीय धर्मों में विभिन्न समुदाय होने के बावजूद कहीं आपसी संघर्ष का इतिहास नहीं है। सभी धर्म और उनके प्रवर्तक यह मानते हैं कि परमात्मा अनंत है। उसको साकार रूप से भले ही न देखा जाये पर ध्यान, योग तथा भक्ति के माध्यम से उसकी उपस्थिति की अनुभूति अपने हृदय में की जा सकती है। यह बात सही है कि लोग अपनी सुविधा के अनुसार साकार तथा निराकार भक्ति करते हैं पर एक दूसरे के प्रति उनमें आदरभाव रहता है। यहां तक कि एक ही परिवार में अनेक सदस्यों का अलग अलग इष्ट देव होता है पर मूल रूप से यह सभी मानते हैं कि परमात्मा एक है। इस पर कहीं कोई विवाद न होता है न होना चाहिए।
हमारे वेदांत दर्शन में कहा गया है कि
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साक्षादष्विरोधं जैमिनि।
            ‘‘शब्द को साक्षात् परब्रह्म मानने में भी कोई विरोध नहीं है ऐसा जैमिनि आचार्य मानते हैं।
अभिव्यक्तेरित्याश्मरथ्यः।
              ‘‘देश विशेष में ब्रह्म का प्रकट रूप होता है इसलिये इसमें कोई विरोध नहीं है।’’
‘‘अनुस्मृतेर्बादरिः।
             ‘‘ऐसा बादरि नामक आचार्य मानते हैं।
         कहने का अभिप्राय यह है कि भक्ति के स्वरूप या परमात्मा के अस्तित्व को लेकर भले ही आपस में मतभेद हों पर मनभेद नहीं होना चाहिए। इसके अलावा किसी की भक्ति की प्रक्रिया और परमात्मा के रूप पर भी प्रतिकूल टिप्पणियां न करना ही उचित है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन मानव मन की व्यापकता का चिंतन करते हुए नित नये सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है। हमारे यहां समय समय पर ऐसे महापुरुष भी इस धरती पर प्रकट होते हैं जो भले ही किसी धर्म या समुदाय के हों पर उनको सारा देश बाद में देवत्व का दर्जा प्रदान करता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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2.शब्दलेख सारथि
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६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Thursday, November 3, 2011

यजुर्वेद से संदेश-अज्ञानी लोग ज्ञान अधिक बघारते हैं (yajurved se sandesh-agyani log gayn gagharte hain)

         हमारे देश का अध्यात्म ज्ञान अनेक ग्रंथों में वर्णित है। इन ग्रंथों में सकाम तथा निष्काम दोनों प्रकार की भक्ति के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। कर्म और फल के नियमों का उल्लेख किया गया है। यह अंतिम सत्य है कि हर मनुष्य को अपने ही कर्म का फल स्वयं भोगना पड़ता है। कोई व्यक्ति भी किसी की नियति और फल को बदल नहीं सकता। यह अलग बात है कि समस्त ग्रंथों का अध्ययन करने के बावजूद अनेक लोग उसका ज्ञान धारण नहंी कर पाते पर सुनाने में सभी माहिर हैं।
        हमारे देश का तत्वज्ञान प्रकृत्ति और जीवन के मूल सिद्धांतों पर आधारित एक विज्ञान है। इस संबंध में हमारे अनेक प्राचीन ग्रंथ पठनीय है। यह अलग बात है कि उनका रटा लगाने वाले अनेक लोग अपने आपको महान संत कहलाते हुए मायापति बन जाते हैं। उनके आश्रम घास फूस के होने की बजाय पत्थर और सीमेंट से बने होते हैं। उसमें फाइव स्टार होटलों जैसी सुविधायें होती हैं। गुरु लोग एक तरह से अपने महल में महाराज की तरह विराजमान होते हैं और भक्तों की दरबार को सत्संग कहते हैं। तत्वज्ञान का रट्टा लगाना उसे दूसरों को सुनाना एक अलग विषय है और उसे धारण करना एक अलग पक्रिया है।
               इस विषय पर यजुर्वेद में कहा गया है कि
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            नीहारेण प्रवृत्त जल्प्या चासुतृप उम्थ्शासरचरन्ति
‘‘जिन पर अज्ञान की छाया है जो केवल बातें बनाने के साथ ही अपनी देह की रक्षा के लिये तत्पर हैं वह तत्वज्ञान का प्रवचन बकवाद की तरह करते हैं।’’
        तत्वज्ञानी वह नहीं है जो दूसरे को सुनाता है बल्कि वह है जो उसे धारण करता है। किसी ने तत्वज्ञान धारण किया है या नहीं यह उसके आचरण, विचार तथा व्यवहार से पता चल जाता है। जो कभी प्रमाद नहीं करते, जो कभी किसी की बात पर उत्तेजित नहीं होते और सबसे बड़ी बात हमेशा ही दूसरे के काम के लिये तत्पर रहते हैं वही तत्वाज्ञानी हैं। सार्वजनिक कार्य के लिये वह बिना आमंत्रण के पहुंच कहीं भी मान सम्मान की परवाह किये बिना पहंच जाते हैं और अगर कहीं स्वयं कोई अभियान प्रारंभ करना है तो बिना किसी शोरशराबे के प्रारंभ कर देते हैं। लोग उनके सत्कर्म से प्रभावित होकर स्वयं ही उनके अनुयायी हो जाते हैं।
        इसके विपरीत अज्ञानी और स्वार्थी लोग तत्वज्ञान बघारते हैं पर उसे धारण करना तो दूर ऐसा सोचते भी नहीं है। किसी तरह अपने प्रवचन करते हुए आम लोगों को भ्रम में रखते हैं। वह उन कर्मकांडों को प्रोत्साहित करते हैं जो सकाम भक्ति का प्रमाण माने जाने के साथ ही फलहीन माने जाते हैं। अतः जिन लोगों को अध्यात्म में रुचि है उनको अज्ञानी और अज्ञानी की पहचान उस समय अवश्य करना चाहिए जब वह किसी को अपना गुरु बनाते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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