Thursday, July 31, 2014

मनुस्मृति-जब लाचार हों शांत आसन करें(manua smriti-jab lachar hon shant aasna karen)




            म देख रहे हैं कि समाज में लोग एक भारी तनाव के बीच जीवन व्यतीत कर रहे हैं।  प्रदूषित वायु, अशुद्ध भोजन तथा आर्थिक संकट के कारण लोगों की मनस्थिति बिगड़ रही है।  जरा जरा सी बात पर हिंसा हो जाती है।  जब समस्याओं से जूझने के लिये मन को शांत रखने की आवश्यकता हो तब लोग आक्रामक होकर अपने तनाव के विसर्जन के दूसरों को पीड़ा देने के लिये तैयार रहते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि दूसरों को शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले अनेक विद्वान भी आत्मसंयम रखने में असमर्थ दिखते हैं।  स्थिति यह है कि आजकल कोई भी आदमी अपनी बात धीरज से कहने की बजाय चीख कर इस तरह कहना चाहता है जैसे कि लोग बहरे या नासमझ हों।
मनु स्मृति में कहा गया है कि

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क्षीणस्य चैव क्रमशो दैवात् पूर्वकृतेन वा।
मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम्।।


           
हिन्दी में भावार्थ-जब शक्ति क्षीण हो जाने पर या अपनी गलतियों के कारण चुप बैठना तथा मित्रों की बात का सम्मान करते हुए उनसे विवाद न करना यह दो प्रकार के शांत आसन हैं।

यदावगच्छेदायत्वयामाधिक्यं ध्रृवमात्मनः।
तदा त्वेचाल्पिकां पीर्डा तदा सन्धि समाश्चयेत्।।


           
हिन्दी में भावार्थ-भविष्य में अच्छी संभावना हो तो वर्तमान में विरोधियों और शत्रुओं से भी संधि कर लेना चाहिए।
            किसी भी मनुष्य के जीवन में दुःख, सुख, आशा और निराशा के दौर आते हैं। आवेश और आल्हाद के चरम भाव पर पहुंचने के बाद किसी भी मनुष्य का अपने पर से नियंत्रण समाप्त हो जाता है। भावावेश में आदमी कुछ नहीं सोच पाता। मनु महाराज के अनुसार मनुष्य को अपने विवेक पर सदैव नियंत्रण करना चाहिये। जब शक्ति क्षीण हो या अपने से कोई गलती हो जाये तब मन शांत होने लगता है और ऐसा करना श्रेयस्कर भी है। अनेक बार मित्रों से वाद विवाद हो जाने पर उनके गलत होने पर भी शांत बैठना एक तरह से आसन है। यह आसन विवेकपूर्ण मनुष्य स्वयं ही अपनाता है जबकि अज्ञानी आदमी मज़बूरीवश ऐसा करता है। जिनके पास ज्ञान है वह घटना से पहले ही अपने मन में शांति धारण करते हैं जिससे उनको सुख मिलता है जबकि अविवेकी मनुष्य बाध्यता वश ऐसा करते हुए दुःख पाते हैं।
            कहने का अभिप्राय यह है कि जीवन में ऐसे अनेक तनावपूर्ण क्षण आते हैं जब आक्रामक होने का मन करता है पर उस समय अपनी स्थिति पर विचार कना चाहिए। अगर ऐसा लगता है कि भविष्य में अच्छी आशा है तब बेहतर है कि शत्रु और विरोधी से संधि कर लें क्योंकि समय के साथ यहां सब बदलता है इसलिये अपने भाव में सकारात्मक भाव रखते स्थितियों में बदलाव की आशा रखना चाहिए।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Tuesday, July 22, 2014

संभावित क्लेश की आशंका हृदय में न लायें-पतंजलि योग साहित्य पर आधारित चिंत्तन लेख(sanbhavit klesh ko dridya mein sthaan n len-A Hindu hindi religion thought basd on patanjali yog sahitya)


      मनुष्य शब्द का विश्लेषण करें तो वह मन और उष्णा स्वर का बोध होता है।  वैसे तो सभी जीवों में मन होता है पर मनुंष्य में उसकी उष्णा-जिसे हम तीर्व्र अिग्न का प्रतीक कह सकते हैं-अधिक होती है।  मनुष्य का मन ही उसका वास्तविक स्वामी है। कभी वह प्रफुल्लित होता है कभी आत्मग्लानि को बोध से ग्रस्त होकर शांत बैठ जाता है। कभी आर्थिक, सामाजिक या रचना के क्षेत्र में अपनी भारी सफलता का सपने देखता है।  यही मन मनुष्य को भौतिक संपदा के संचय में इसलिये भी फंसाये रहता है कि कभी विपत्ति आ जाये तो उसका सामना माया की शक्ति से किया जाये।  हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि खाने धन जरूरी है पर खाने के लिये बस दो रोटी चाहिये।  मनुष्य का मन भूख, बीमारी तथा दूसरे के आक्रमण को लेकर हमेशा चिंतित रहता है।  उसे लगता है कि पता नहीं कब कहां से दुःख आ जाये। इस तरह मन की यात्रा चलती है पर सामान्य मनुष्य इसे समझ नहीं पाता। संसार में सुख और दुःख आता जाता है पर मनुष्य का मानस हमेशा ही उसे संभावित आशंकाओं भयभीत रखता है।
महर्षि पतंजलि के योगशास्त्र में कहा गया है कि
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हेयं दुःखमनागतम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जो दुःख आया नहीं है, वह हेय है।
      योग साधक और अध्यात्मिक ज्ञान के छात्र इस मन पर नियंत्रण करने की कला जानते हैं।  योग तथा ज्ञान साधक हमेशा ही सामने आने पर ही समस्या का निवारण करने के लिये तैयार रहते हैं। देह, मन तथा विचारों पर उनका नियंत्रण रहता है इसलिये वह संभावित दुःखों से दूर होकर अपनी जीवन यात्रा करते हैं।  देखा जाये तो अनेक लोग तो भविष्य की चिंताओं में अपनी देह, विचार तथा मन में बुढ़ापा लाते हैं।  एक बात तो यह है कि लोग अपने  अध्यात्मिक दर्शन का यह संदेश अपने मस्तिष्क में धारण नहीं करते कि समय कभी एक जैसा नहीं रहता।  दूसरी बात यह कि भगवान उठाता जरूर भूखा  है पर सुलाता नहीं है।  इसके बावजूद लोग यह भावना अपने मन में धारण किये रहते हैं कि कभी उनके सामने रोटी का संकट न आये इसलिये जमकर धन का संचय किया जाये।
      योग दर्शन की दृष्टि से जो दुःख आया नहीं है उसकी परवाह नहीं करना चाहिये।  धन या अन्न का संग्रह उतना ही करना जितना आवश्यक हो पर उसे देखकर मन में यह भाव भी नहीं लाना चाहिये कि वह भविष्य के किसी संकट के निवारण का साथी है। हमारे पास भंडार है यह सोच जहां आत्मविश्वास बढ़ाती है वहीं भविष्य की आशंका उससे अधिक तो देह का खून जलाती है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, July 13, 2014

रहीम दर्शन-बुरे काम को अधिक समय तक छिपाना कठिन(rahim darshan-bure kam ko adhik samay tak chhipana kathin)



      आधुनिक लोकतंत्र में जहां यह पूरे विश्व में एक अच्छी परंपरा बनी है कि लोग अपने देश, प्रदेश और शहर के लिये राज्य व्यवस्था की देखरेख करने वाले प्रमुख का चयन स्वयं ही कर सकते हैं वही इस तरह की बुरी प्रवृत्ति भी चालाक लोगों में आयी है कि वह जनमानस को अपने पक्ष में करने के लिये अनेक तरह के प्रपंच तथा स्वांग रचते हैं।  अपने प्रचार में वह स्वयं की छवि एक ईमानदार, समझदार तथा उच्च विचारों वाले व्यक्ति की बनाते हैं। इससे प्रभावित होकर लोग उन्हें अपना नायक भी मान लेते हैं पर जब बाद में पता चलता है कि वह तो पद पर बैठने के लिये एक बुत की तरह सज कर आये थे तब उनके प्रति निराशा का भाव पलता है। ऐसा भी देखा गया है कि अनेक लोगों ने अपनी छवि महान नायक की बनाई पर कालांतर में जब भेद खुला तो वह खलनायक कहलाने लगे।

कविवर रहीम कहते हैं कि

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रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि।

गांठ युक्ति की खुलि गई, अंत धूरि की धूरि।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह ठहरी हुई धूल हवा के रहने पर स्थिर नहीं रहती वैसे ही यदि किसी व्यक्ति के कुकृत्य या बुरे विचार का रहस्य खुल जाये तो उसकी सभी निंदा करते हैं।

      चुनावी वैतरणी पार करने के लिये प्रचार की नाव का सहारा सभी लेते हैं।  जो सौम्य व्यक्तित्व के स्वामी हैं उनके प्रति लोग वैसे ही सहृदयता का भाव रखते हैं पर जिनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है उसके प्रति प्रचार देखकर ही अपना दृष्टिकोण बनाते हैं। यही वजह है कि जिन्होंने अपने जीवन में कोई परमार्थ नहीं किया होता वही उच्च पद की लालसा में प्रचार के माध्यम से अपनी छवि भव्य बनाने का प्रयास करते हैं।  कई बार प्रचार के दौरान ही उनकी पोल खुल जाती है पर अनेक लोग समाज की आंखें बचाकर अपना लक्ष्य ही पा लेते हैं।  ऐसे राजसी पुरुषों का निजी कार्यों तक सीमित रहने के कारण किसी को उनकी स्वार्थ वृत्ति का अनुभव नहीं होता पर सार्वजनिक पदों पर उनका चरित्र जाहिर होने लगता है तब लोग हताश हो जाते हैं।  वैसे तो पूरे विश्व में अनेक छद्म समाज सेवकों ने उच्च पद प्राप्त कर अपनी प्रतिष्ठा गंवाई है पर जिन्होंने बहुत प्रचार से लोकप्रियता अर्जित की पर अपना दायित्व निभाने में नाकाम रहे उन्हें उतने ही बड़े अपमान का भी सामना उनको करना पड़ा।
      उच्च पद पर बैठने का प्रयास करना बुरा नहीं है पर इसके लिये लोगों के साथ कोई ऐसी बात नहीं करना चाहिये जो बाद में निरर्थक सिद्ध हो। न ही ऐसे वादे करना चाहिये जिनको पूरा करना स्वयं को ही संदिग्ध लगे। लोगों को यह बात स्पष्ट रूप से समझाना चाहिये कि उनकी समस्याओं का वह निराकरण का पूरा प्रयास करेंगे। उच्च पद पर आने के बाद ईमानदारी से प्रयास भी करना चाहिये वरना लोगों में निराशा का भाव पैदा होता है जो कालांतर में घृणा में बदल जाता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, July 5, 2014

चमचागिरी में अपना जीवन न गंवायें-भर्तृहरि नीति शतक(chamachagiri mein jiwan vyarth n karen-bhartrihari neeti shatak)



            वर्तमान भौतिक युग में जिनके पास अधिक धन, उच्च पद और प्रतिष्ठा है उनका आभा मंडल समाज में इतना व्यापक होता है कि हर सामान्य आदमी उनके पास पहुंचकर अपना कल्याण पाना चाहता है।  यह अलग बात है कि ऐसे कथित महापुरुष सामान्य लोगों से कहीं अधिक डरपोक, लालची तथा अहंकारी होते हैं।  अपनी उपलब्धि का मद उन्हें हमेशा ही धेरे रहता है। यह समाज का शोषण कर सारी सफलता प्राप्त करते हैं पर सामान्य आदमी फिर उनसे दयालुता दिखाने की आशा करता है।  देखा यही जा रहा है कि वही शिखर पुरुष समाज में प्रतिष्ठ प्राप्त करता है जो अपने इर्दगिर्द चाटुकारों की सेना एकत्रित करता है।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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दुरारध्याश्चामी तुरचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं
तु स्थूलेच्छाः सुमहति बद्धमनसः

जरा देहं मृत्युरति दयितं जीवितमिदं
सखे नानयच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।

     हिंदी में भावार्थ- जिन राजाओं का मन घोड़े की तरह दौड़ता है उनको कोई कब तक प्रसन्न रख सकता है? हमारी अभिलाषाओं  और आकांक्षाओं  की तो कोई सीमा ही नहीं है। सभी के मन में अधिक धन, बड़ा पद तथा प्रतिष्ठत छवि  पाने की लालसा स्वाभाविक रूप से होती  है। इधर शरीर बुढ़ापे की तरह बढ़ रहा होता है। मृत्यु पीछे पड़ी हुई होती  है। इन सभी को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि भक्ति और तप के अलावा को अन्य मार्ग ऐसा नहीं है जो हमारा कल्याण कर सके।

     लोगों के मन में धन पाने की लालसा बहुत होती है और इसलिये वह धनिकों, उच्च पदस्थ एवं बाहुबली लोगों की और आशा भरी दृष्टि स ताकते हुए  उनकी चमचागिरी करने के लिये तैयार रहते हैं। उनकी चाटुकारिता में कोई कमी नहीं करते। चाटुकार लोगों  को यह आशा रहती है कि कथित ऊंचा आदमी उन पर रहम कर उनका कल्याण करेगा। यह केवल भ्रम है। जिनके पास वैभव है उनका मन भी हमारी तरह चंचल होता है और वह अपना काम निकालकर भूल जाते हैं या अगर कुछ देते हैं तो केवल चाटुकारिता  के कारण नहीं बल्कि कोई सेवा करा कर। वह भी जो प्रतिफल देते हैं तो वह भी न के बराबर। इस संसार में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो धन, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त कर उसके मद में डूबने से बच पाते हैं।  अधिकतर लोग तो अपनी शक्ति के अहंकार में अपने से छोटे आदमी को कीड़े मकौड़े जैसा समझने लगते हैं और उनकी चमचागिरी करने पर भी कोई लाभ नहीं होता।  अगर ऐसे लोगों की निंरतर सेवा की जाये तो भी सामान्य से कम प्रतिफल मिलता है।
      सच तो यह है कि आदमी का जीवन इसी तरह गुलामी करते हुए व्यर्थ चला जाता हैं। जो धनी है वह अहंकार में है और जो गरीब है वह केवल बड़े लोगों की ओर ताकता हुआ जीवन गुंजारता है। जिन लोगों का इस बात का ज्ञान है वह भक्ति और तप के पथ पर चलते हैं क्योंकि वही कल्याण का मार्ग है।इस संसार में प्रसन्नता से जीने का एक ही उपाय है कि अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए ही जीवन भर चलते रहें।  अपने से बड़े आदमी की चाटुकारिता से लाभ की आशा करना अपने लिये निराशा पैदा करना है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’ 
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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