Monday, April 6, 2009

भर्तृहरि शतकः अपमान झेलने पर भी तृष्णा कहां शांत होती है?

भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषमं प्राप्तं न किंचित्फलं त्यकत्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला।
भुक्तं मानिववर्जितं परगुहेध्वाशंक्या काकवततृष्णे दुर्गतिपापकर्मनिरते नाद्यापि संतुष्यसि ।।

हिंदी में भावार्थ- राजा भर्तृहरि कहते हैं कि अनेक दुर्गम और कठिन देशों में गया पर वहां कुछ भी न मिला। अपनी जाति और कुल का अभिमान त्याग कर दूसरों की सेवा की पर वह निष्फल गयी। आखिर में कौवे की भांति भयभीत और अपमानित होकर दूसरों के घरों में आश्रय ढूंढता रहा। अपने मन की तृष्णा यह सब झेलने पर भी शांत नहीं हुई।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मन की तृष्णा आदमी को हर तरह का अपमान और दुर्गति झेलने को विवश करती है। कहते हैं कि जिसने पेट दिया है वह उसके लिये भोजन भी देगा पर आदमी को इस पर विश्वास नहीं है। इसके अलावा वह केवल दैहिक आवश्यकताओं से संतुष्ट नहीं होता। उसके मन में तो भोग विलास और प्रदर्शन के लिये धन पाने की ऐसी तृष्णा भरी रहती है जो उसे अपने से कम ज्ञानी और निम्न कोटि के लोगों की सेवा करने को विवश कर देती है जिनके पास धन है। वह उनकी सेवा में प्राणप्रण से इस आशा जुट जाता है कि वह धनी आदमी उस पर प्रसन्न होकर धन की बरसात कर देगा।
आदमी अपने से भी अल्प ज्ञानी बाहुबली और पदारूढ़ व्यक्ति के इर्दगिर्द घूमने लगता है कि वह उसका प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचा देगा। किसी भी आदमी की ऐसी तृष्णा शांत नहीं होती। इस दुनियां में हर बड़ा आदमी अपने से छोटे लोगों की सेवा तो लेता है पर अपने जैसा किसी को नहीं बनाता। छोटा आदमी धन और मान सम्मान पाने की इसी तृष्णा की वजह से इधर उधर भटकता है पर कभी उसके हाथ कुछ नहीं आता। मगर फिर भी वह चलता जाता है। उसकी तृष्ण उसे इस अंतहीन सिलसिले से परे तब तक नहीं हटने देती जब तक वह देह धारण किये रहता है।
जीवन के मूल तत्व को जानने वाले ज्ञानी इससे परे होकर विचार करते हैं और इसलिये जो मिल गया उससे संतुष्ट होकर भगवान की भक्ति में लीन हो जाते हैं। वह अपने तृष्णाओं के वशीभूत होकर इधर उधर नहीं भटकते जो कभी शांत ही नहीं होती।
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