Thursday, December 27, 2012

मनु स्मृति-बिना कुल्ला किये बाहर न जाएँ

         पूरे विश्व में सोना स्त्रियों की कमजोरी है तो अपराधियों के लिये आकर्षण की वस्तु  है।  देखा जाये तो सोना किसी का काम नहीं है पर फिर भी इसकी कीमत का महत्व इतना है कि किसी आदमी की प्रशंसा करनी हो तो उसे सोने के समान कहा जाता है। स्वयं को दूसरों के सामने स्वयं को श्रेष्ठ प्रमाणित करना मनुष्य का स्वभाव होता है। अनेक लोग दूसरे मनुष्यों का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिये उच्छृंखलता का व्यवहार करते हैं। कुछ अपनी उद्दंण्डता से स्वयं को शक्तिशाली साबित करना चाहते है। दरअसल इस प्रयास में अनेक लोग ऐसे निंदनीय कार्य करते हैं जिनका आभास ज्ञान न होने के कारण उनको नहीं होता। आमतौर से सोने का हार पहनना स्त्री जाति के लिये एक धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा रही है। वह भी उसे अपने वस्त्रों के पीछे छिपाये रहती हैं या उसे ऐसे पहनती हैं कि हार का पूरा भाग दूसरे को नहीं दिखाई दे। अब तो पुरुष जाति में भी सोने की चैन पहनने का रिवाज प्रारंभ हो गया है। तय बात है कि यह सब दिखाने के लिये है और इसलिये जो पुरुष सोने की चैन पहनते है उसे वस्त्रों के बाहर प्रदर्शित करते हैं। मनुस्मृति में इसे निंदनीय कार्य बताया गया है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
----------------
न विगृह्य कर्था कुर्याद् बहिर्माल्यं न धारयेत्।
गवां च यानं पृष्ठेन सर्वथैव विगर्हितम्।।
               ‘‘उच्छृ्रंखल पूर्व बातचीत करने, प्रदर्शन के लिये कपड़ो के बाहर सोने की माला पहनना और बैल की पीठ पर सवारी करना निंदनीय कार्य हैं।’’
सर्वे च तिलसम्बद्धं नाद्यादस्तमिते रवी।
न च नग्न शयीतेह च योच्छिष्ट क्वच्तिद्व्रजेत्।
             ‘‘सूर्यास्त होने के बाद तिलयुक्त पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए और न ही नग्न होकर पानी पीना चाहिए। जूठे मुंह यानि बिना कुल्ला किये बाहर भी नहीं जाना चाहिए।’’
          यह तो केवल एक उदाहरण है जबकि हम समाज की दिनचर्या में कई ऐसे तथ्य देख सकते हैं जिसमें लोग आचरणहीनता दर्शाने वाले विषयों को फैशन मानने लगे हैं। बातचीत में अनावश्यक रूप से उग्र भाषा का प्रयोग करना अथवा जोरदार आवाज में बोलकर अपनी बात को सही प्रमाणित करना इसी श्रेणी में आता है। अनेक लोगों की तो यह आदत है वह वार्तालाप के समय हर वाक्य के साथ गाली का प्रयोग करते हैं बिना यह जाने कि इसका उपस्थित श्रोताओं पर विपरीत प्रभाव होता है। मनुस्मृति का अध्ययन करने पर अनेक ऐसे कामों से बचा जा सकता है जिनके दुष्प्रभावों से अवगत न होने पर हम उनको करते हैं।
---------------
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की अमृत संदेश-पत्रिका
6.दीपक भारतदीप की हिन्दी एक्सप्रेस-पत्रिका
7.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
यह ब्लाग/पत्रिका विश्व में आठवीं वरीयता प्राप्त ब्लाग पत्रिका ‘अनंत शब्दयोग’ का सहयोगी ब्लाग/पत्रिका है। ‘अनंत शब्दयोग’ को यह वरीयता 12 जुलाई 2009 को प्राप्त हुई थी। किसी हिंदी ब्लाग को इतनी गौरवपूर्ण उपलब्धि पहली बार मिली थी। ------------------------

Monday, December 24, 2012

मलूकदास का दर्शन-वेश धारण करने से कोई साधु नहीं बन जाता


         हमारे देश के लोगों की प्रकृति इस तरह की है उनकी अध्यात्मिक चेतना स्वतः जाग्रत रहती है। लोग पूजा करें या नहीं अथवा सत्संग में शामिल हों या नहीं मगर उनमें कहीं न कहीं अज्ञात शक्ति के प्रति सद्भाव रहता ही है। इसका लाभ धर्म के नाम पर व्यापार करने वाले उठाते हैं। स्थिति यह है कि लोग अंधविश्वास और विश्वास की बहस में इस तरह उलझ जाते हैं कि लगता ही नहीं कि किसी के पास कोई ज्ञान है। सभी धार्मिक विद्वान आत्मप्रचार के लिये टीवी चैनलों और समाचार पत्रों का मुख ताकते हैं। जिसे अवसर मिला वही अपने आपको बुद्धिमान साबित करता है।
            अगर हम श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों के संदर्भ में देखें तो कोई विरला ही ज्ञानी की कसौटी पर खरा उतरता है। यह अलग बात है कि लोगों को दिखाने के लिये पर्दे या कागज पर ऐसे ज्ञानी स्वयं को प्रकट नहीं करते। सामाजिक विद्वान कहते हैं कि हमारे भारतीय समाज एक बहुत बड़ा वर्ग धार्मिक अंधविश्वास के साथ जीता है पर तत्वज्ञानी तो यह मानते हैं कि विश्वास या अविश्वास केवल धार्मिक नहीं होता बल्कि जीवन केे अनेक विषयों में भी उसका प्रभाव देखा जाता है।
                  संत मलूक जी कहते हैं कि
                      -------------------
भेष फकीरी जे करै, मन नहिं आये हाथ।
दिल फकीरी जे हो रहे, साहेब तिनके साथ।
          ‘‘साधुओं का वेश धारण करने से कोई सिद्ध नहीं हो जाता क्योंकि मन को वश करने की कला हर कोई नहीं जानता। सच तो यह है कि जिसका हृदय फकीर है भगवान उसी के साथ हैं।’’
               ‘‘मलूक’ वाद न कीजिये, क्रोधे देय बहाय।
              हार मानु अनजानते, बक बक मरै बलाय।।
          ‘‘किसी भी व्यक्ति से वाद विवाद न कीजिये। सभी जगह अज्ञानी बन जाओ और अपना क्रोध बहा दो। यदि कोई अज्ञानी बहस करता है तो तुम मौन हो जाओ तब बकवास करने वाला स्वयं ही खामोश हो जायेगा।’’
             हमारे यहां धार्मिक, सामाजिक, कला तथा राजनीतिक विषयों पर बहस की जाये तो सभी जगह अपने क्षेत्र के अनुसार वेशभूषा तो पहन लेते हैं पर उनको ज्ञान कौड़ी का नहीं रहता। यही कारण है कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों के शिखरों पर अक्षम और अयोग लोग पहुंच गये हैं। ऐसे में उनके कार्यों की प्रमाणिकता पर यकीन नहीं करना चाहिए। मूल बात यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान या धार्मिक विश्वास सार्वजनिक चर्चा का विषय कभी नहीं बनाना चाहिए। इस पर विवाद होते हैं और वैमनस्य बढ़ने के साथ ही मानसिक तनाव में वृद्धि होती है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह ब्लाग/पत्रिका विश्व में आठवीं वरीयता प्राप्त ब्लाग पत्रिका ‘अनंत शब्दयोग’ का सहयोगी ब्लाग/पत्रिका है। ‘अनंत शब्दयोग’ को यह वरीयता 12 जुलाई 2009 को प्राप्त हुई थी। किसी हिंदी ब्लाग को इतनी गौरवपूर्ण उपलब्धि पहली बार मिली थी। ------------------------

Saturday, November 24, 2012

ऋग्वेद से सन्देश-ज्ञान से द्वेष को मार

                      हमारे वेदों में अनेक ऐसी बातें कही गयी हैं जिनका महत्व इस संसार में कभी महत्व नहीं होता।  इसका कारण यह है कि इस संसार में समय के साथ भौतिक स्वरूप के साथ ही लोगों के रहन सहन, चाल चलन तथा कार्य करने के तरीकों में बदलाव तो संभव है पर उसके अंदर की मूल प्रकृतियों का निवास स्थाई रूप से रहता है।  इन मूल प्रकृतियों तथा उनकी निवृति के ज्ञान का (जिसे हम अध्यात्मिक विज्ञान भी कह सकते हैं) जो वर्णन इन वेदों में वर्णित है।  उनकी विषय सामग्री का  अध्ययन चाहे जब किया जाये उनमें नवीनता बनी रहती है।
ऋग्वेद में कहा गया है कि
---------------
ब्रह्माद्विषः अवजहि।
हिन्दी में अर्थ-‘‘ज्ञान से द्वेष करने वाले को मार।’’
अहः अहःशुन्ध्युः परिपदां।।’’
हिन्दी में अर्थ-‘‘नित्य स्वच्छता रखने वाला रोगों को दूर करता है।’’
             अधिकतर लोग धार्मिक कर्मकांडों को ही अपने जीवन का हिस्सा बनाते हैं पर आध्यात्मिक ज्ञान उनके लिये बुढ़ापे में जानने वाला विषय होता है जबकि इसका ज्ञान अगर बचपन से हो जाये तो जिंदगी आराम से बिताई जा सकती है। इसका कारण यह है कि सांसरिक विषयों से संबंध तो बचपन से ही हो जाता है और अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव आम मनुष्य उसमें इस तरह लिप्त हो जाता है कि उसके लिये सुख कम दुःख अधिक प्रकट होते हैं।  अधिकतर मनुष्यों के  अंदर अहंकार मोह तथा लोभ की  प्रकृतियां विद्यमान रहती हैं जो उसे ज्ञान से परे रखती है।  यह प्रकृतियां ज्ञान से द्वेष करती हैं।  ज्ञानी से चिढ़ाती हैं।
           अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में आदमी की न  केवल देह  बल्कि मन तथा विचारों में भी अस्वच्छता का वास हो जाता है।  इस तरह की समस्या से बचने का उपाय यही है कि  हम अपने अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर अपनी बुद्धि, विचार तथा मन को शुद्ध रखने का प्रयास करें।
---------------
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की अमृत संदेश-पत्रिका
6.दीपक भारतदीप की हिन्दी एक्सप्रेस-पत्रिका
7.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

Saturday, November 10, 2012

ऋग्वेद के आधार पर चिंत्तन-द्वेष को ज्ञान से परास्त करो (gyan se dwesh ko parast karo-rigved ke adhar par sandesh)

                      हमारे वेदों में अनेक ऐसी बातें कही गयी हैं जिनका महत्व इस संसार में कभी महत्व नहीं होता।  इसका कारण यह है कि इस संसार में समय के साथ भौतिक स्वरूप के साथ ही लोगों के रहन सहन, चाल चलन तथा कार्य करने के तरीकों में बदलाव तो संभव है पर उसके अंदर की मूल प्रकृतियों का निवास स्थाई रूप से रहता है।  इन मूल प्रकृतियों तथा उनकी निवृति के ज्ञान का (जिसे हम अध्यात्मिक विज्ञान भी कह सकते हैं) जो वर्णन इन वेदों में वर्णित है।  उनकी विषय सामग्री का  अध्ययन चाहे जब किया जाये उनमें नवीनता बनी रहती है।
ऋग्वेद में कहा गया है कि
---------------
ब्रह्माद्विषः अवजहि।
हिन्दी में अर्थ-‘‘ज्ञान से द्वेष करने वाले को मार।’’
अहः अहःशुन्ध्युः परिपदां।।’’
हिन्दी में अर्थ-‘‘नित्य स्वच्छता रखने वाला रोगों को दूर करता है।’’
             अधिकतर लोग धार्मिक कर्मकांडों को ही अपने जीवन का हिस्सा बनाते हैं पर आध्यात्मिक ज्ञान उनके लिये बुढ़ापे में जानने वाला विषय होता है जबकि इसका ज्ञान अगर बचपन से हो जाये तो जिंदगी आराम से बिताई जा सकती है। इसका कारण यह है कि सांसरिक विषयों से संबंध तो बचपन से ही हो जाता है और अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव आम मनुष्य उसमें इस तरह लिप्त हो जाता है कि उसके लिये सुख कम दुःख अधिक प्रकट होते हैं।  अधिकतर मनुष्यों के  अंदर अहंकार मोह तथा लोभ की  प्रकृतियां विद्यमान रहती हैं जो उसे ज्ञान से परे रखती है।  यह प्रकृतियां ज्ञान से द्वेष करती हैं।  ज्ञानी से चिढ़ाती हैं।
           अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में आदमी की न  केवल देह  बल्कि मन तथा विचारों में भी अस्वच्छता का वास हो जाता है।  इस तरह की समस्या से बचने का उपाय यही है कि  हम अपने अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर अपनी बुद्धि, विचार तथा मन को शुद्ध रखने का प्रयास करें।
---------------
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की अमृत संदेश-पत्रिका
6.दीपक भारतदीप की हिन्दी एक्सप्रेस-पत्रिका
7.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

Saturday, October 27, 2012

भर्तृहरि नीति शतक-गुणीजनों में बैठकर ही अपने अज्ञान का पता चलता है

                                अपने ज्ञान पर कभी अहंकार नहीं करना चाहिए। सच तो यह है कि यह संसार अद्भुत है और अध्यात्म ज्ञान साधक जानते हैं कि यहां कोई व्यक्ति संपूर्ण नहीं हो सकता।  संभव है कि कोई बुद्धिमान अपने कार्य को उचित तरह से पूर्ण न कर सके और कोई मूर्ख ही उसे कर जाये।  बुद्धिमान कभी अपना ज्ञान बघारते नहीं है और आवश्यकता पड़ने पर अज्ञानी की त्रुटियों से भी सीख लेते हैं। 
भर्तृहरि महाराज का कहना है कि
वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि
                         हिंदी में भावार्थ - बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।

यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः
                       हिंदी में भावार्थ-जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।                            दमी को अपने ज्ञान का अहंकार बहुत होता है पर जब वह आत्म मंथन करता है तब उसे पता लगता है कि वह तो अभी संपूर्ण ज्ञान से बहुत परे है। कई विषयों पर हमारे पास काम चलाऊ ज्ञान होता है और यह सोचकर इतराते हैं कि हम तो श्रेष्ठ हैं पर यह भ्रम तब टूट जाता है जब अपने से बड़ा ज्ञानी मिल जाता है। अपनी अज्ञानता के वश ही हम ऐसे अल्पज्ञानी या अज्ञानी लोगों की संगत करते हैं जिनके बारे में यह भ्रम हो जाता है वह सिद्ध हैं। ऐसे लोगों की संगत का परिणाम कभी दुखदाई भी होता है। क्योंकि वह अपने अज्ञान या अल्पज्ञान से हमें अपने मार्ग से भटका भी सकते हैं।
हम सभी के सामने कभी अपनी गलती नहीं स्वीकार करते पर कई पर यह अनुभव हमें होता है कि किसी विषय पर अपने को बहुत ज्ञानी समझते थे उससे संबंधित विद्वान से मिलने पर जब कोई नई जानकारी मिलती है तब पता लगता है कि हमारा ज्ञान अधूरा है पर उस समय भी अपने आपको धोखा देते हैं कि नहीं हम पूर्ण हैं। सच तो यह है कि आदमी जितना अहंकार दूसरों को दिखाता है उससे ज्यादा अपने आपको दिखाता है। सच बात तो यह है कि दिन प्रतिदिन नई तकनीकी आती जा रही है और कोई भी आदमी सभी तरह से अपने विषय में पारंगत नहीं हो सकता पर वह मानता नहीं है।
------------------------------------------

लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Writer-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh


संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', ग्वालियर
http://dpkraj.blogspot.कॉम
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की अमृत संदेश-पत्रिका
6.दीपक भारतदीप की हिन्दी एक्सप्रेस-पत्रिका
7.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका





Wednesday, October 24, 2012

प्रशंसनीय कार्य ही धर्म का प्रमाण-कौटिल्य का अर्थशास्त्र (prashansa wala karya karna hi dharma-hindi religion message from economics of kautilya)

        हमारे देश में धर्म को लेकर अनेक प्रकार की बहस होती है। देश में कुछ बुद्धिमान इतने धर्मनिरपेक्ष हैं कि उनको भारतीय अध्यात्म में केवल जातिवाद और स्त्री शोषण के अलावा कुछ नज़र नहीं आता है।  यहां तक तो सब ठीक है पर धर्म को लेकर उनका नजरिया अजीब लगता है।  वह विश्व में अनेक धर्मो की उपस्थिति स्वीकार्य मानते हैं।  उनकी नजर में सभी धर्म समान हैं।  मतलब उनकी दृष्टि में धर्म केवल पूजा पद्धतियां ही हैं।   इसके विपरीत हमारा अध्यात्म दर्शन किसी विशेष पूजा पद्धति का न तो समर्थन करता है न विरोध।  वह तो नैतिक आचरण को ही धर्म मानता है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
-------------------
यमाय्र्याः क्रियामाणं हिः शंसत्यागगमवेदिनः।
स धम्माय विगर्हन्ति तमधम्र्मं परिचक्षते।।
                  हिन्दी में भावार्थ-शास्त्र के ज्ञाता श्रेष्ठ पुरुष जिस कार्य की प्रशंसा करें वही धर्म है और जिसकी निंदा करें वही अधर्म हैं।
       हम जब विदेशी विचाराधाराओं को देखते हैं तो वह पूजा पद्धतियों को ही धर्म माना जाता हैं।  इतना ही नहीं मानवीय जीवन में उनका हस्तक्षेप इतना है कि खानपान, रहन सहन और भाषा को भी धर्म से जोड़ दिया जाता है जबकि उनका आधार प्रकृति के अनुसार तय होता है। इसका सीधा मतलब यह है कि पाश्चात्य विचाराधारायें मनुष्य के बाह्य रूप के आधार पर धर्म का स्वरूप तय करती हैं और इस देह को धारण करने वाला आत्मा जिसे हम अध्यात्म भी कह सकते हैं कोई अर्थ नहीं रखता।  हमारा अध्यात्मिक ज्ञान देह और आत्म दोनों के सत्य को धारण करता है। इतना ही नहीं विदेशी  विचारधाराओं में पूजापद्धति से  मेल न रखने वाले व्यक्तियों को निंदनीय माना जाता है।  यही कारण है कि पूरे विश्व में धर्म के आधार पर वैमनस्य बढ़ता जा रहा हैं इसके विपरीत भारतीय दर्शन अध्यात्म ज्ञान को संचित करता है।  इसमें यह माना जाता है कि मनुष्य अपनी देह और उसमें विराजमान मन, बुद्धि के साथ अहंकार की प्रवृत्ति पर नियंत्रण कर एक सुविधाजनक जीवन बिता सकता है। किसी विशेष प्रकार की पूजा पद्धति अपनाने या वस्त्र पहनने की बात उनमें नहीं है।  भारतीय अध्यात्म दर्शन  मनुष्य को आत्म निर्माण के लिये प्रेरित करता है।  इसके विपरीत विदेशी विचाराधारा समाज निर्माण की बात करती है जबकि व्यक्ति निर्माण के बिना ऐसा करना कठिन है।  यही कारण है कि भारतीय अध्यात्म दर्शन वैज्ञानिक है।  कथित रूप से सभी धर्मों की बात कहना अपने आप में इसलिये अजीब लगता है क्योंकि धर्म का कोई नाम नहीं होता।  नैतिक आचरण में पवित्रता रखना, विचारों में शुद्धता तथा परोपकार की भावना ही धर्म का प्रमाण है। भारतीय अध्यात्म विद्वान इसी आधार पर धर्म और अधर्म का रूप तय करते हैं कि उसके नाम से पहचानते हैं।



दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Saturday, October 6, 2012

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अपनी प्रतिष्ठा के लिये झूठ बोलना अनुचित (kautilya ka arthshastra-apni pratishtha badhane ke liye jhooth bolna anuchit)

         आधुनिक समाज में प्रचार तंत्र का बोलबाला है। फिल्म हो या टीवी इनमें अपना चेहरा देखने और दिखाने के लिये लोगों के मन में भारी इच्छा रहती है।  यही कारण है कि लोग अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये तमाम तरह के पाखंड करते हैं।  हमारे देश में लोग धर्मभीरु हैं इसलिये अनेक पाखंडी धार्मिक पहचान वाले वस्त्र पहनकर उनके मन पर प्रभाव डालते हैं। अनेक गुरु बन गये हैं तो उनके शिष्य भी यही काम कर रहे हैं।  कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इसे बिडाल वृत्ति कहा गया है। मूल रूप से धर्म अत्यंत निजी विषय हैं।  दूसरी बात यह है कि सांसरिक विषयों में लिप्त लोगों से यह अपेक्षा तो करना ही नहीं चाहिये कि वह धर्माचरण का उदाहरण प्रस्तुत करें।  सार्वजनिक स्थानों पर धर्म की चर्चा करना एक तरह से उसका बाजारीकरण करना है।  इससे कथित धर्म प्रचारकों को धन तथा प्रतिष्ठा मिलती है।  सच्चा धार्मिक आदमी तो त्यागी होता है। उसकी लिप्पता न धन में होती है न प्रतिष्ठा पाने में उसका मोह होता है।  उसकी प्रमाणिकता उसके मौन में होती है न कि जगह जगह जाकर यह बताने कि वह धर्म का पालन कर रहा है तो दूसरे भी करें।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है
---------------------
अधोदृष्टिनैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः।
शठो मिथ्याविलीतश्च बक्रवतवरो द्विजः।।
         हिन्दी में भावार्थ-उस द्विज को बक वृत्ति का माना गया है जो असत्य भाव तथा अविनीत हो तथा जिसकी नजर हमेशा दूसरों को धन संपत्ति पर लगी रहती हो जो हमेशा बुरे कर्म करता है सदैव अपना ही कल्याण की  सोचता हो और हमेशा अपने स्वार्थ के लिये तत्पर रहता है।

धर्मध्वजी सदा लुब्धश्छाद्मिका  को लोकदम्भका।
बैडालवृत्तिको ज्ञेयो हिंस्त्र सर्वाभिसन्धकः।।
      हिन्दी में भावार्थ-अपनी प्रतिष्ठा के लिये धर्म का पाखंड, दूसरों के धन कर हरण करने की इच्छा हिंसा तथा सदैव दूसरों को भड़काने के काम करने वाला ‘बिडाल वृत्ति’ का कहा जाता है।

         जैसे जैसे विश्व में धन का प्रभाव बढ़ रहा है धर्म के ध्वजवाहकों की सेना भी बढ़ती जा रही है।  इनमें कितने त्यागी और ज्ञानी हैं इसका आंकलन करना जरूरी है।  अध्यात्मिक और धर्म ज्ञानी कभी अपने मुख से ब्रह्म ज्ञान का बखान नहंी करते। उनका आचरण ही ऐसा होता है कि वह समाज के लिये एक उदाहरण बन जाता है।  उनका व्यक्तित्व और कृतित्व ही धर्म की पोथी का निर्माण करता है।  अगर उनसे आग्रह किया जाये तो वह संक्षिप्त शब्दों में ही अध्यात्मिक ज्ञान बता देते हैं।  जबकि आजकल पेशेवर ज्ञान  प्रवचक घंटों भाषण करने के बादी श्रोताओं को न तो धर्म का अर्थ समझा पाते हैं न उनके शिष्य कभी उनके मार्ग का अनुसरण करते हैं। यही कारण है कि इतने सारे धर्मोदेशक होते हुए भी हमारा समाज भटकाव की राह पर है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Sunday, September 16, 2012

अथर्ववेद से सन्देश-आपस में फूट डालने से बचें (aapas mein foot dalne se bachen)


हम जब भारतीय राजनीतिक इतिहास का बात करते हैं तो यह देखकर दुःख होता है को हमारे देश में विदेशी आक्रान्ताओं को  यहीं के लोगों ने आक्रमण के लिये आमंत्रण दिया। इसका कारण यह है कि राजनीति, समाज, अर्थ, और धर्म के शिखर पर बैठे लोगों अपने अहंकाशवश  यहां हमेशा ही आम इंसान को तुच्छ समझा। यही कारण है कि विदेशी आक्रांताओं ने यहां जब इन्हीं लोगों का राज्य, समूह, तथा संगठन ध्वस्त कर उनके प्राणों का हरण किया तब भी समाज का समर्थन  कभी उनको नहीं मिला।  ऐसे शिखर पुरुषों को भले ही आज भी सम्मान से याद किया जाता है पर इतिहास ने कभी तत्कालीन हालातों को दर्ज करते हुए यह नहीं बताया  कि क्या वाकई तत्कालीन  समाज इनसे हमदर्दी रखता था।
अथर्ववेद मे कहा गया है कि
-----------------
अदारसृद भवतु
                          हिन्दी में भावार्थ-आपस में कोई फूट डालने वाला न हो।

ब्राह्म्ण स्पतेऽन्मि राष्ट्र वर्घव।
                                 हिन्दी में भावार्थ-सभी ज्ञानी मिलकर राष्ट्र का उत्थान करें।
             सच बात तो यह है कि धर्म, अर्थ, राज्य तथा समाज के सिर पर बैठै लोगों ने आमजन को पांव की जुती समझा। भौतिकता से संपन्न होने पर विपन्न को कीड़ा मकौड़ा समझा यही कारण है कि यहां के आमजनों ने विदेशी आक्रांताओं के हाथों से उनके कुचले जाने पर भी हमदर्दी नहीं दिखाई।  इतिहास से सबक लेना चाहिए पर लगता नहीं है कि हमारे देश में  सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा आर्थिक शिखरों पर वर्चस्व के लिये अपास में द्वेरथ  करा  रहे लोगों ने ऐसा किया है।  धन, बल और पद को जहां शक्ति का पर्याय मान लिया गया है वहां ज्ञानियों की हैसियत केवल लिपिक या अनुवादक जितनी बन गयी है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग मौन होकर सब देखते हैं।  हालांकि होना तो यह चाहिए कि सभी ज्ञान मिलकर देश के लिये काम करें पर इसके लिये आमजन को भी अपनी प्रतिबद्धता दिखानी होगी।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Sunday, September 9, 2012

भर्तृहरि नीति शतक-ज्ञान न हो तो मुनियों जैसा काम करने पर भी वैसा फल नहीं मिलता (bhartri hari neeti shatak-sajah yog, rajyog and asahaj yoga)

         हमारे देश में श्रीमद्भागवत गीता की चर्चा एक पवित्र ग्रंथ की तरह होती है।  अनेक संत और साधु इसके ज्ञान का प्रचार भी करते हैं पर फिर भी लगता है कि बहुत कम लोग इस समझ पाये हैं।  इसका कारण यह है कि भले ही गीता का अध्ययन कर उसका ज्ञान रट लिया जाये पर जब तक हृदय में वह स्थापित नहीं होगा किसी आचरण मे दृष्टिगोचर न हो वह गीता सिद्ध नहीं माना जा सकता।  दरअसल गीता का नाम लेकर कोई राजयोग का प्रचार करता है तो कोई सहज योग की धारणा व्यक्त करता है। इससे आम भक्तों में यह भाव आता है कि योग केवल सिद्ध लोग ही कर सकते हैं अथवा योग एक कठिन विषय है।
      लोगों ने गीता ज्ञान में सिद्ध हैं या उसकी साधना करत हैं उनको यह बात समझ में तो आ जाती है कि योग एक महत्वपूर्ण विधा है पर उनमें भी बहुत कम लोग बाह्य स्थितियों पर चिंतन या मनन कर यह जान पाते हैं कि योग तो हर आदमी चाहे अनचाहे कर रहा है।  योग का सीधा मतलब यह है कि अपनी इंद्रियों को परमात्मा से जोड़ा जाये।  यह योग ज्ञान होने पर ही किया जा सकता है।  अगर ज्ञान न हो तो आदमी दुर्योग को प्राप्त होता है। मनुष्य की इंद्रियां वह चाहे या न चाहे संसार के विषयों से जुड़ती हैं अंतर यह है कि जो ज्ञानी या साधक हैं वह स्वविवेक से सहजता पूर्वक योग करता है पर अज्ञानी आदमी जहां उसके मन जोड़ दे वहीं बैठ जाता है।  ज्ञानी या साधक परमात्मा का स्मरण करते हुए अपनी इंद्रियों को सांसरिक विषयों से स्वयं जुड़ते हुए सहज स्थिति में ही रहता है जबकि अज्ञानी कभी अपने मन तो कभी दूसरे की राय पर अपने सारे काम करने के कारण क्षणिक सुख प्राप्त करने के बाद दुःख की स्थिति में होता है।
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि
......................................
क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषत।
सोढो दुस्सहशीतापपवनक्लेशो न तप्तं पदं।।
ध्यातं वित्तमहर्निश नियमितप्राणैर्न शंभौः पदं।
     हिन्दी में भावार्थ-हमने दान तो किया किन्तु धर्मपूर्वक नहीं, हमने सुख का त्याग किया पर संतुष्ट होकर
नहीं, कष्ट सहन किये पर तप के लिये नहीं, ध्यान तो किया पर अपने प्राण भगवान शंकर की बजाय धन में फंसाये। यही कारण है कि मुनियों की तरह काम करने पर भी फल उन जैसा नहीं मिला।
               हम अगर पतंजलि योग   विज्ञान के साथ ही श्रीमद्भागवत गीता भी  अध्ययन करें तो यह पायेंगे कि ज्ञानी और ज्ञान साधक सहज योग करते हैं पर जिन लोगों के पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं है वह असहज योग को प्राप्त होते हैं।  इंद्रियों अच्छे विषय से भी जुड़ती है तो हमारा कभी उनको दुःखद स्थितियों की तरफ धकेल देता है।  ऐसे में अच्छे विषयों से जुड़ने पर भी अज्ञानी को वह सुख नहीं मिलता तो जो ज्ञानी को मिलता है।  दुःख के साथ  सुख तो जीवन में आते हैं पर ज्ञानी और अज्ञानी  अपने विवेक के अनुसार उसे अलग अलग दृष्टिकोण से देखते हैं।   ज्ञानी सहजयोग करते है जबकि अज्ञानी असहज योग में फंसा रहता है।
लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Writer-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh


संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की अमृत संदेश-पत्रिका
6.दीपक भारतदीप की हिन्दी एक्सप्रेस-पत्रिका
7.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

Thursday, August 30, 2012

ऋग्वेद से सन्देश-मन में पवित्रता का भाव हो तो सफलता मिल जाती है (man mein pavitrata jaroori-rigved se sandesh)


              आशा निराशा जीवन में आती जाती रहती हैं।  मुख्य बात यह है कि आदमी खुशी में अधिक आनंद होकर चुप नहीं बैठ सकता तो गम उसे खामोश कर देते हैं।  अपने जीवन की सफलता के लिये आदमी अपनी शक्ति और पराक्रम को श्रेय देता है तो असफलता के लिये दूसरों को जिम्मेदार ठहराता है। सच बात तो यह है कि हर आदमी अपने कर्म का स्वयं ही जिम्मेदार होता है।
ऋग्वेद में कहा गया है कि
------
यादृश्मिन्धपि तमपस्याया विदद् यऽस्वयं कहते सो अरे करत्

                    हिन्दी में भावार्थ- मनुष्य का हृदय जिस वस्तु में लगा रहता है वह उसे प्राप्त कर ही  लेता है। परिश्रम करने सारे पदार्थ प्राप्त किये जा सकते हैं।
अत्रा ना हार्दि क्रवणस्य रेजते यत्र मकतिर्विद्यते पूतबन्धीन।
हिन्दी में भावार्थ-जहां पवित्र बुद्धि का वास है वह हृदय के मनोरथ कभी व्यर्थ नहीं जाते।
         जब आदमी किसी विषय विशेष में हृदय लगाकर काम करता है तो उसे सफलता मिल ही जाती है। कुछ लोग अच्छे काम में भी अपना मन पवित्र नहीं रखते तब उनका परेशानी का सामना करना पड़ता है।  यह जीवन संकल्पों का खेल है इसलिये जब तक हम अपना हृदय, लक्ष्य तथा साधन पवित्र रखकर कार्य नहीं करेंगे तब तक सफलता नहीं मिलेगी।  सफलता का मूल मंत्र पवित्र तथा विचार की शुद्धता है। हमारे वेद शास्त्र इसी बात का संदेश देते हैं। जब भी कोई परिश्रम, ईमानदारी तथा पवित्रता से किया जाता है तो उसमें सफलता अवश्य मिलती है।  उसमें देर हो सकती है पर नाकामी मिलने की संभावना नहीं रहती।
लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Friday, August 24, 2012

सामवेद से सन्देश- -कर्मशील मनुष्य से देवता खुश होते हैं (samdev se sandesh-karmashil manushya se devta prasann hote hain.)

         ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना की तो देवता तथा मनुष्यों की उत्पति हुई।  उन्होंने कहा कि मनुष्य देवताओं की आराधना करें तो देवता मनुष्य को उसका  फल देंगे। अध्यात्म और सांसरिक विषयों के बीच जीव की देह पुल का काम करती है। सांसरिक विषयों में सहजता से संबंध रखना आवश्यक है। इसलिये आवश्यक है कि उन विषयों से संबंधित कार्य करते हुए हृदय में शुद्धि हो। सांसरिक विषयों में फल की कामना का त्याग नहीं किया जा सकता  पर उसके लिये ऐसे गलत मार्ग का अनुसरण भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे बाद में संकट का सामना करना पड़े।  दूसरी बात यह भी है कि अपने कर्म के परिणाम की आशा दूसरे का दायित्व नहीं मानते हुए आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करना चाहिए।। 
सामवेद में कहा गया है कि
..................................
देवाः स्वप्नाय न स्पृहन्ति।
                    
देवाः सुन्वन्तम् इच्छान्ति। 
हिन्दी में भावार्थ-देवता कर्मशील मनुष्य को ही  प्रेम करते हैं।
           जीवन को सुचारु रूप से चलाने क्रे लिये कर्मशील होना आवश्यक है। आलस्य मनुष्य का शत्रु माना जाता है। देह से परिश्रम न करना ही आलस्य है यह सोचना गलत है वरन् मस्तिष्क को सोचने के ले कष्ट देने से बचना भी इसी श्रेणी में आता है। आधुनिक सुविधाभोगी जीवन ने आदमी की देह के साथ ही उसके मस्तिष्क की सक्रियता पर भी बुरा प्रभाव डाला है। लोग प्रमाद तथा व्यसन में अधिक रुचि इसलिये लेते हैं कि उनके मस्तिष्क को राहत मिले। यही राहत आलस्य का रूप है।  इससे बचना चाहिए। अध्यात्म ज्ञान प्राप्त करने यह आलस्य स्वमेव दूर होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Wednesday, August 15, 2012

विदुर नीति-जैसे सा साथ तैसा व्यवहार ही धर्मं (vidru neeti-jaise ke sath taisa vyavahar)

    मनुष्य जीवन में समय का बहुत महत्व है।  समय का विभाजन समझने वाले अपने कर्म का सहजता से संपन्न कर सकते हैं।  प्रातःकाल का समय धर्म, दोपहर का अर्थ, सांयकाल का ध्यान चिंतन  तथा रात्रि को मो़क्ष यानि निद्रा के लिये हैं।  जब हम अर्थ के लिये कार्य करते हैं तब उस समय हमारे अंदर राजस कर्म के भाव होता है तब  उसके नियमों का पालन करना आवश्यक है।   राजस कर्म में जीवन यापन  के लिये धन कमाना होता है। उस समय हमारे अंदर अपनी देह के लिये भौतिक साधन जुटाना ही लक्ष्य होता है। ऐसे में हमारा वास्ता ऐसे लोगों से पड़ता है जो राजस बुद्धि से काम करते हैं जिनका लक्ष्य भी वही होता है।  उनसे सात्विकता की आशा व्यर्थ हैं।  उस समय जो कपट करे उसका प्रतिवाद करना चाहिये। जो ईमानदारी से पेश आये तो उसकी प्रशंसा करना चाहिए।
यस्मिन यथ वर्तते यो मनुष्यस्तस्मिस्तथा वर्तित्व्यं स धर्मेः।
मायाचारी मायया वर्तितव्यः साध्वाचारः साधुना प्रत्युपेयः।।

           हिन्दी में भावार्थ-जैसा व्यवहार दूसरा मनुष्य करे वैसा ही हमें भी करना चाहिए यही धर्म है। अगर कोई कपट से पेश आये तो उसका प्रत्युत्तर भी उसी तरह देना चाहिए। जिसका व्यवहार अच्छा हो उसे सम्मान देना चाहिए।
न निह्नवं मन्त्रतस्य गच्छेतफ संसृष्टमन्त्रस्य कुसङ्गतस्य।
न च ब्रुयान्नश्वसिमि त्वयीति सकारणं व्यपदेशं तु कुर्यात्।।

        हिन्दी में भावार्थ-जब कोई राजा दुष्ट सहायकों के साथ मंत्रणा कर रहा हो तब उस समय उसकी बात का प्रतिवाद न करे। उसके सामने अपना अविश्वास भी न जताये तथा कोई बहाना बनाकर वहां से निकल आयें।
           समाज में राज्य, अर्थ तथा धर्म के शिखर पुरुषों पर बैठे लोगों के साथ व्यवहार करते समय अपनी तथा उनकी स्थिति पर विचार करना चाहिए।  आजकल हर क्षेत्र में तामसी प्रवृत्ति के लोग सक्रिय हैं।  प्रकृति का नियम है कि सज्जन लोगों का संगठन सहजता से नहीं बनता क्योंकि उसकी उनको आवश्यकता भी नहीं होती। इसके विपरीत दुष्ट तथा स्वार्थी तत्वों का संगठन आसानी से बन जाता है।  ऐसे में अपने सार्वजनिक जीवन में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारे व्यवहार में आने वाले लोगों का कर्म किस प्रकृत्ति के हैं।  जहां दुष्ट लोगों का समूह हो वहां अपनी बुद्धिमानी, चातुर्य तथा ज्ञान बघारना ठीक नहीं है।  चुपचाप वहां से निकल जायें।  ऐसे लोगों केवल अपना काम निकालने के लिये तत्पर होते हैं।  उनसे सात्विकता और सहृदय की आशा करना स्वयं को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, August 11, 2012

विदुर नीति-अपराध करने वाला ही दंड का भागी बनता है (vidur niti-apradha aur insan

        मनुष्य अकेला  पैदा होता है और उसकी मृत्यु भी अकेले ही होती है।  परिवार, रिश्तेदार और संगी साथियों में न कोई साथ पैदा होता है न ही मरता है।  इस बात तो तत्वज्ञानी जानते हैं इसलिये अपने पूरे जीवन में वह हर स्थिति में सात्विक मार्ग पर ही चलते हैं जबकि सामान्य मनुष्य परिवार, रिश्तेदार तथा संगीसाथियों से मान पाने के लिये नित्य कर्म में इस तरह लिप्त रहता है जैसे कि वह वह उसके साथ ही पैदा हुए और आसमान तक उसके साथ चलेंगे।
विदुरनीति में कहा गया है कि
-------------

एकः पापनि कुकते फलं भुङक्ते महाजनः।
भोक्तासे विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते।।
           हिन्दी में भावार्थ-मनुष्य स्वयं पाप करता है पर उसका लाभ अनेक लोग लेते हें।  जब दण्ड का समय होता है तो लाभ लेने वाले अन्य प्राणी तो बच जाते हैं जबकि पाप करने वाला स्वयं फंस जाता है।’’
         हमारे देश में भारी भ्रष्टाचार है।  इसके विरुद्ध अगर आंदोलन चल रहे हैं तो सरकारी प्रयास भी उसे रोकने के लिये होते हैं।  ऐसे में अनेक भ्रष्टाचारियों को जेल की कोठरियों में जाना पड़ता है जबकि उनके पद, पैसे और प्रतिष्ठा का उपयोग जिन लोगों ने किया होता है वह बाहर बैठे पूर्ववत आरामदायक जीवन बिताते हैं।  कहने को तो लोग कहते हैं कि वह अपने परिवार के लिये सब कर रहै हैं पर जब पापों के लिये दंड का समय आता है तो जेल की हवा परिवार को नहीं केवल पालनहार को ही मिलती है।  वैसे इस प्रसंग में महात्मा वाल्मीकि की कथा प्रचलित हैं।  वह उन लोगों के लिये बहुत बड़ा प्रमाण है जो अपराध या भ्रष्टाचार के लिये अपनी पारिवारिक स्थितियों को जिम्मेदार बताते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Tuesday, August 7, 2012

यजुर्वेद से संदेश-हम प्रेम से रहें (yajurved se sandesh-hum prem se rahen)

                     आजकल पूरे विश्व में ऋण लेकर अपने लिये सुख साधन जुटाने की प्रवृत्ति बढ़ी गयी है।  दूसरे के घर की रोशनी देखकर आदमी अपने घर में कर्ज लाकर आग लगाने को तैयार दिखता है।  सुख किश्तों पर मिलता है पर दुःख कभी एकमुश्त चला आता है।  कर्ज लेकर सामान लेने वाले जब ब्याज और मूलधन नहीं चुका पाते तब उनके पास सिवाय भारीसंताप में फंसे रहने  अलावा  कोई चारा नहीं रहता।  विलाप करते रहने के सिवाय उनके पास अन्य  मार्ग नहीं रहता।  आदमी अब दूसरों पर अपनी निर्भरता इस कदर बढ़ा चुका है कि सड़क पर सिर उठाकर चलने की उसकी मनःस्थिति नहीं रही।  आवश्यकताओं ने आदमी को मजबूर बना दिया है और वह कभी किसी सामाजिक संघर्ष में जमकर लड़ नहीं सकता।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
---------------
दृते छोड़ मां ज्योवते सांदृशि जीव्यासं ज्योवते सदृशि जीष्यासम्।।
                    हिन्दी में प्रार्थना का भावार्थ-‘‘हे समर्थ! मुझे शक्तिशाली बनाओ ताकि सब मुझे मैत्री भाव प्रदान करें।  हम सभी एक दूसरे को प्रेममयी दृष्टि से देखें।
मयि त्यांदिन्द्रियं बृहन्मयि दक्षो मयि क्रतुः।।
                   हिन्दी में इस प्रार्थना का अर्थ--‘‘मुझे महान शक्ति प्रदान करो। दक्षता प्रदान करो ताकि अपने कर्तव्य का निर्वाह कर सकूं।’’ 
                      इतना ही नहीं ईश्वर से प्रार्थना करते समय हर आदमी केवल अपने लिये लोकोपयोगी  सामान की याचना करता है।  कोई भी आदमी अपने लिये बल और बुद्धि नहीं मांगता जिससे इस संसार की समस्याओं से निपटा जा सकता है।  कहा जाता है कि जैसा आदमी  के हृदय में संकल्प रहता है वैसा ही उसके लिये यह संसार हो जाता है। आजकल लोग भोग प्रवृत्तियों को तो धारण कर लेते हैं पर योग संस्कार के अभाव में उनकी तृप्ति दूसरे की सहायता से कर्ज, दान या उधार लेकर ही होती है।  यह सब ग्रहण करना अशक्त आदमी का प्रमाण है इसलिये जहां तक हो सके ईश्वर से अपने लिये बल और बुद्धि की याचना करना चाहिए। किसी दूसरे के आगे हाथ फैलाने से अच्छा है उसके आगे हाथ फैलाया जाये जो सभी का दाता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Saturday, August 4, 2012

संत कबीर दास के दोहे-अपने लिये संकट को आमंत्रित न करें

                                 मनुष्य अपने सुख के पल तो एकदम सहजता से गुजार लेता है पर जब दुःख आता है तो भगवान को याद करता है।  सच बात तो यह है कि मनुष्य अपने संकटों को स्वयं ही आमंत्रित करता है।  कई बार तो ऐसे वाद विवादों को जन्म देता है जिसके मूल में सिवाय अहंकार के कुछ अन्य नहीं होता।  हंसी मजाक में झगड़े होते हैं।  कुछ पुरुषों की आदत होती है वह अपने साथ वार्तालाप करने वाली स्त्रियों के साथ हंसी मजाक कर अपना दिल बहलाते हैं।  वह समझते हैं कि अपने आपको बुद्धिमान साबित कर अपने लिये प्रतिष्ठा अर्जित कर रहे हैं पर होता उसका उल्टा है।  उनको लोग हल्का या अगंभीर मानते हैं। कभी कभी इस बात पर झगड़े तक हो जाते हैं।
इस विषय पर संत कबीर कहते हैं कि
------------------------
दीपक झोला पवन का, नर का झोला नारि।
साधू झोला शब्द का, बोलै नाहिं बिचारि।।
                   वायु का झौंका दीपक के लिये भय देने वाला होता है तो नारी का संकट पुरुष के लिये परेशानी का कारण होता है।  उसी तरह यदि ठीक से विचार कर शब्द व्यक्त न किया जाये तो वह साधुओं के लिये संकट का कारण बनता है।
पर नारी पैनी छुरी, विरला बांचै कोय।
कबहूं छेड़ि न देखिये, हंस हंसि खावे रोय।
                     दूसरे आदमी की नारी से कभी कोई हंसी या मजाक न करो क्योंकि वह उस छुरी के समान है जो आदमी को हंसकर या रोकर अंततः काट देती है।
                    अनेक पुरुष दूसरे की स्त्रियों से वार्तालाप कर अपने मनोरंजन की प्राप्ति करते हैं। यह मनोरंजन अंततः उनको महंगा पड़ता है।  देखा तो यह जा रहा है कि आधुनिक समाज में केवल इसी बात पर अनेक झगड़े हो जाते हैं कि किसी ने परस्त्री के साथ मजाक किया। अनेक लोग इस चक्कर में बदनाम हो जाते हैं कि वह परस्त्रियों से अपने संबंध बनाते हैं। ऐसा नहीं है कि समाज में पहले ऐसा नहीं होता था।  अगर यह बात होती तो हमारे संत महापुरुष इस बुराई की तरफ प्राचीनकाल से सचेत नहीं करते पर वर्तमान आधुनिक समय में परस्त्रियों से से अश्लील अथवा द्विअर्थी संवाद के साथ वार्तालाप करना एक फैशन हो गया है जो कि देश की सांस्कृतिक परंपराओं के भी विरुद्ध है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग

Sunday, July 29, 2012

संत कबीर के दोहे-ज्ञान प्राप्त करने वाले रात को सोते भी नहीं है (sant kabir ke dohe-gyai log rat ko bhee nahin sote hain)

            भारतीय दर्शन में अध्यात्म का अत्यंत महत्व है।  पंचतत्वों से बनी हमारी देह में मन, बुद्धि और अहंकार तीन ऐसी प्रकृतियां स्वतः आती हैं जिनसे हम संचालित होते दिखते हैं पर इसे धारण करने वाला आत्मा है जिससे हम परिचित नहीं होते। यही आत्मा अध्यात्म भी कहा जाता है।  इसका ज्ञान ही अध्यात्मिक ज्ञान है। कहने को यह सरल लगता है कि हम अपने आत्मा को जानते हैं पर अगर विषयों में हमारी लिप्तता इतनी अधिक रहती है कि कभी हम यह अनुभव ही नहीं कर पाते कि हम स्वयं ही आत्मा है और यह क्षणभंगुर देह धारण की है जो विषयों में लिप्त होने से हमेशा कष्ट झेलती है।
         सांसरिक विषयों में जो अनुभव होता है उसे ही हम अध्यात्म ज्ञान मान  लेते हैं। यह भ्रम अनेक लोगों पूरी जिंदगी रहता है कि वह बहुत ज्ञानी हैं। जिन लोगों को ज्ञान प्राप्त करने की ललक है वह समय मिलते ही अपना काम शुरु कर देते हैं।  अनेक लोग तो अपना समय निकालकर यह प्रयास करते हैं कि उनको आत्म ज्ञान मिल जाये।
संत कबीर कहते हैं कि
-------------
अनराते सुख सोचना, रातें नींद न आय।
ज्यों जल छूटो भाछरी, तलफत रैन बिहाय।।
               जो लोग आत्मज्ञान प्राप्त करने की सोचते हैं वह रात को सोते भी नहीं है। जो जल में मछली की तरह विषयों मे लिप्त हैं वह रात को आराम से सोते हैं यह अलग बात है कि अंततः वह तकलीफदेह साबित होगा।
मुख आवै सोई कहै, बोलै नहीं विचार।
हते पराई आत्मा, जीभ बांधि तलवार।।
                 जिनके पास ज्ञान नहीं है वह मुख में जो आता है बोल देते हैं।  उनकी बातों से दूसरों की आत्मा आहत होती है। वह अपनी जीभ में एक तरह से तलवार बांधकर चलते हैं।
               आजकल के आधुनिक युग में अध्यात्म की बातें बहुत होती हैं पर उसके ज्ञान का मूल स्वरूप क्या है यह विरले ही जानते हैं। प्रगति के साथ कृत्रिम रौशनी, रंग तथा रवैया बदला है।  लोग इस संसार के आकर्षक पक्ष में मन इस तरह फंसाये हुए हैं कि उनके लिये अध्यात्म ज्ञान एकदम गूढ़ है और वह तो केवल फालतू लोगों के लिये बना है। यही कारण है कि समाज में परस्पर विद्वेष, निंदा तथा शत्रुता के माहौल में सांस ले रहा है। लोगों के लिये कठोर और मजबूत व्यवहार में अंतर नहंी रहा है।  कायरता और धैर्य  की समझ नहीं है।
             हालांकि एकदम निराशाजनक स्थिति भी नहीं है। देश में अभी भी अध्यात्म में रुचि रखने वालों की कमी नहीं है हालांकि जनंसख्या की दृष्टि से यह स्थिति अधिक संतोषजनक मान लेना गलत होगा। आजकल समाज  में आधुनिक सुविधाओं, वस्तुओं तथा संपति का संग्रह करने की होड़ लगी हुई है।  इस स्थित से उबरने के लिये आवश्यक है अध्यात्म ज्ञान प्राप्त करने का अधिक से अधिक लोग प्रयास करें।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, July 8, 2012

ख़ामोशी में बहुत बड़ी ताकत-चाणक्य नीति

            इस संसार में मनुष्यों को अन्य जीवों की अपेक्षा बुद्धि तथा विवेक की अथाह शक्ति प्राप्त है। इसके परिणामस्वरूप उसमें अहंकार का भाव भी बहुत है। अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिये उसे वाणी के रूप में एक ऐसा हथियार मिला है जिसका उपयोग करते हुए वह कभी नहीं थकता। सच बात तो यह है कि जीभ के साथ कान भी सुनने को मिले हैं पर बहुत कम लोग उसका सार्थक उपयोग करते है। कहीं आप अपने खेत की बात करिये तो दूसरा भी अपने खेत की सुनाने लगेगा। आप अपने व्यापार की चर्चा करें दूसरा बात पूरी से होने पहले ही अपनी कहने लगेगा। अपनी बात को शोर के साथ कहने के आदी मनुष्यों के बीच में बैठकर मौन तो एक बहुत बड़ा शत्रु लगता है। स्थिति यह है कि उत्सवों के अवसर पर भोजन करते हुए लोग भी अपनी वाणी का उपयोग करने से बाज नहीं आते।
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
----------------
ये तु संवत्सरं पूर्ण नित्यं मौनेन भुंजते।
युगकोटिसहस्त्रं तु स्वर्गलोके महीयते।।
‘‘जो मनुष्य एक वर्ष तक मौन रहकर बिना बोले भोजन करता है, वह अवश्य ही जीवन में मान सम्मान प्राप्त करने के अलावा बाद में भी स्वर्ग भोगता है।’’
आधुनिक चिकित्साशास्त्री कहते हैं कि भोजन करते समय मौन रहना चाहिये जिससे पेट का हाजमा ठीक रहता है। हालांकि चाणक्य का मानना है कि मनुष्य को अपने जीवन में एक वर्ष मौन भी रखना चाहिए पर हमारा मानना है कि अगर यह संभव नहीं हो तो कम से कम भोजन, स्नान तथा कोई अन्य काम करते समय जहां तक हो सके अपनी इंद्रियों  की शक्ति बढ़ाने के लिये मौन रहना ही श्रेयस्कर है। कुछ विद्वान तो यह भी मानते हैं कि जीवन में जितना मौन रहा जाये उतनी ही शक्ति का अपव्यय कम होता है जिससे सृजनात्मक कार्य करने में सुविधा होती है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की अमृत संदेश-पत्रिका
6.दीपक भारतदीप की हिन्दी एक्सप्रेस-पत्रिका
7.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

Sunday, May 13, 2012

मनुष्य में आरोग्य का गुण होना जरूरी-विदुर नीति

        एक तरफ हमारे संचार माध्यम जहां अपने देश के आर्थिक विकास का ढिंढोरा पीट रहे हैं दूसरी तरफ विश्व के स्वास्थ्य विशारद भारतीय समाज में मधुमेह, हृदय रोग, वायुविकार जैसे दैहिक संकट तथा मनोरोगों के बढ़ते आंकड़ों को प्रस्तुत कर रहे हैं। पश्चिमी शिक्षा से ओतप्रोत देश के बुद्धिजीवी इससे बेखबर लगते हैं। देश में स्वास्थ्य की चिंता करने वाले व्यवसायिक विशेषज्ञ भी रोगों के निवारण का प्रचार कर आर्थिक हित साध रहे हैं। ऐसे बहुत कम अध्यात्मिक चिंतक हैं जो रोगों के निवारण से अधिक आरोग्य रूपी धन का संचय करने के लिये लोगों को प्रेरित करें।
            पिछले कुछ समय से हमारे देश में योग का प्रचार बढ़ा है। यह अच्छी बात है पर इसके साथ ही अध्यात्मिक ज्ञान हो तो आनंद अधिक ही लिया जा सकता है। इसके लिये यह आवश्यक है कि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया जाये। दरअसल जो लोग योगासन और प्राणायाम करने वाले हैं उनके दैहिक विकास न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाते है पर तत्वज्ञान के अभाव में वह जीवन का पूरा आनंद नहीं उठा पाते। ऐसे में उनका मन रुचिकर विषयों की तरफ लगता है। वह चाहते हैं कि उनसे मिलने वाले लोग भी उन जैसे हों। मगर उनको तब निराशा का सामना करना पड़ता है जब बहुतायत रोगग्रस्त लोगों वाले समाज में केवल विकारों वाले विषयों से सामना होता है। तब उनको असहजता का अनुभव होता है। फिर दैहिक विकारों से ग्रसित लोग तो प्रत्यक्ष दिखते हैं पर मानसिक विकारों वाले लोगों की पहचान नहीं होती। मानसिक रोगों से ग्रसित लोग अपने विचार,, वाक्या तथा व्यवहार से अपने आसपास के लोगों को क्षुब्ध कर देते हैं। उनके इस कर्म से अध्यात्मिक ज्ञान रखने वाले विचलित नहीं होते।
                     विदुरनीति में कहा गया है कि 
                         --------------- ------------------
              रोगार्दिता न फलान्याद्वियन्ते न वै लभन्ते विषयेषु तत्वम्।
               दुःखोपेता रोगिणी नित्यमेव न बुध्यन्ते धनभौगान्न सोख्यम्।
           ‘‘बीमार मनुष्य कभी अमृतदायी फलों का आदर नहीं करता। विषयों में भी आसक्ति से भी उनको कोई सुख नहीं मिलता। रोगी सदा ही कष्ट में रहते हैं उनके लिये भोग और सुख व्यर्थ हो जाते हैं।
              न मनुष्ये गुणः कश्चिद् राजन् सधनतामृते।
              अनातुरत्वाद् भद्रं ते मृतकल्या हि रोगिणः।।
             ‘‘मनुष्य और धन और और आरोग्य को छोड़कर कोई दूसरा गुण नहीं है क्योंकि रोगी मनुष्य तो मृतक समान है।‘‘
                जिस तरह बबूल के पेड़ से आम की अपेक्षा करना व्यर्थ है उसी तरह विकारों से ग्रसित लोगों से सद्व्यवहार की अपेक्षा करना मूर्खता और अज्ञान का प्रमाण है। हम जब किसी व्यक्ति के व्यवहार, विचार या वाक्य से निराश हों तो यह समझना चाहिए कि वह विकार से ग्रसित है। अपने अंदर निराशा या क्रोध का भाव लाने की बजाय उसकी बात को अनसुना करना श्रेयस्कर है। सच बात तो यह है कि हम दूसरों की बात से अपने अंदर गुस्सा लाकर स्वयं को तकलीफ देते हैं। जो विकार से ग्रसित है उसके लिये मधुर वचन बोलना तथा सद्व्यवहार करना कठिन है। तब क्यों अपना खून जलाया जाये।

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की अमृत संदेश-पत्रिका
6.दीपक भारतदीप की हिन्दी एक्सप्रेस-पत्रिका
7.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

Monday, April 30, 2012

चाणक्य नीति-समाज में धनवान की पूजा और गरीब की निंदा करना एक आदत है (samaj meim amri ki izzat aur garib kee beizzati hotee hai)

                  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार तत्वज्ञानी इस संसार में अधिक नहीं होते। सामान्य सांसरिक जीवन तो केवल धन के आधार पर ही चलता है। इसलिये सामान्य मनुष्यों से यह आशा करना एकदम व्यर्थ है कि कि लोग गरीब मगर गुणी आदमी का सम्मान करें। अधिकतर लोग अपनी भौतिक आवश्यकताओं को लेकर परेशान रहते हैं। कई लोग तो उधार की आशा में साहुकारों की चाटुकारिता करते है कि उन्होंने उनसे उधार लिया है या फिर भविष्य में उससे लेना पड़ सकता है। हमेशा ही धन की चाहत में लगे लोगों के लिये धनवान और महल आकर्षण का केंद्र बने रहते हैं। यही कारण है कि समाज का नियंत्रण स्वाभाविक रूप से धनिकों के हाथ में रहता है।
                                   चाणक्य नीति में कहा गया है कि
                                            -----------------------
                      यस्याऽर्थातस्थ्य मित्राणि यस्याऽर्थास्तस्य बान्धवाः।
                           यस्याऽर्थाः स पुमांल्लोकेयस्याऽर्था स च पंडितः।।
                  ‘‘यह इस सांसर के समस्त समाजों का सच है कि जिसके पास धन है उसके बंधु बांधव बहुत है। उसे विद्वान और सम्मानित माना जाता है। यहां तक कि अगर व्यक्ति के पास धन अधिक हो तो उसे महान ज्ञानी माना जाता है।’’
                         स्वर्गस्थितनामिह जीवलोके चत्वारि चिह्ननि वसन्ति देहे।
                        दानप्रसङ्गो मधुरा च वाणी देवाऽर्चनं ब्राह्मणतर्पणं च।।
                 "स्वर्ग से इस धरती पर अवतरित होने वाले दिव्य चार गुण पाये जाते हैं-दान देना, मधुर वचन बोलना देवताओं के प्रति निष्ठा तथा विद्वानों को प्रसन्न करना।’’
                     ऐसे में अल्पधनियों को कभी इस बात की चिंता नहीं करना चाहिए कि उनका हर आदमी सम्मान करे। उन्हें अपने सात्विक गुणों का विकास करना चाहिए। मूल बात यह है कि हम अपनी दृष्टि में बेहतर आदमी बने रहें। श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान दूसरों के सामने बघारना आसान है पर उसे धारण कर अपनी जीवन की राह पर चलना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण का गीता में दिया गया संदेश दूसरों को सुधारने की बजाय स्वयं का चेहरा दर्पण में देखने को प्रेरित करता है। वैसे हम धनी हों या अल्पधनी दूसरों से सच्चे सम्मान की अपेक्षा नहीं करना चाहिए। आम मनुष्यों के हृदय में दूसरों के लिये सम्मान की भावना कम ही रहती है। धनिक होने से भले ही समाज सम्मानीय और ज्ञानी माने पर इस कारण अपने स्वाभाविक गुणों का त्याग कर उसका पीछा नहीं करना चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की अमृत संदेश-पत्रिका
6.दीपक भारतदीप की हिन्दी एक्सप्रेस-पत्रिका
7.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

Saturday, April 21, 2012

मलूकदास का दर्शन-प्रभुता को सब मरे जा रहे हैं (malukdas ke dohe-prabhuta ko sab mare ja rahe hain)

          पंचतत्वों से बनी मनुष्य देह में जितनी बुद्धि और विवेक की शक्ति है उतना ही उसमें अहंकार भरा पड़ा है जिससे प्रेरित हर कोई अपने आपको श्रेष्ठ कहलाना चाहता है। देखा जाये तो अध्यात्म को विषय जहां अकेले में चिंत्तन करने का विषय है तो धार्मिक कर्मकांड भी किसी स्थान विशेष पर करने के लिये होते हैं। अगर कोई व्यक्ति अकेले में करे तो बात समझ में आती है पर देखा यह जाता है कि कुछ श्रेष्ठता के मोह में फंसे कुछ लोग गुरु की पदवी धारण कर सार्वजनिक रूप से यह काम करते हैं। कोई यज्ञ करा रहा है तो कोई प्रवचन का आयोजन कर रहा है। इतना ही नहीं कहीं गरीबों को सामूहिक रूप से खाना खिलाने का पाखंड भी हो्रता है जो कि अधर्म का ही प्रमाण है। कहा जाता है कि अपने दान और धर्म का प्रचार नहीं्र करना चाहिए। इतना ही नहीं दान देते समय आंखें झुका लेना चाहिए ताकि लेने वाले व्यक्ति के मन में हीनता न आये। जबकि सार्वजनिक रूप से धर्म का विषय बनाने वाले इन सब बातों से दूर रहकर आत्मप्रचार में लिप्त दिखते हैं।  
दास मलुक कहते हैं कि 
------------ 
प्रभुता ही को सब मरै, प्रभु को मरै न कोय। 
जो कोई प्रभु को मरै, तो प्रभुता दासी होय।। 
           ‘‘इस संसार में सभी लोग प्रभुता को मरे जा रहे हैं पर प्रभु के लिये किसी के मन में जगह नहीं है। जिस मनुष्य के मन में परमात्मा विराजते हैं प्रभुता उसकी दासी हो जाती है।’’ 
सुमिरन ऐसा कीजिए, दूजा लखै न कोय। 
ओंठ न फरकत देखिये, प्रेम राखिये गोय।। 
‘‘प्रभु के नाम का स्मरण दिखावे के लिये न करें।  इस तरह नाम जपिये कि कोई ओंठ का फड़कना भी न देख सके और हृदय के अंदर प्रभु का प्रकाशदीप जलता रहे।’’ 
           लाउडस्पीकरों के साथ भीड़ में परमात्मा के नाम का जोर जोर से स्मरण करना भी एक तरह का पाखंड है। नाम हमेशा मन में लिया जाना चाहिए। इस तरह कि कोई ओंठों का हिलना भी न देख सके। कहने का अभिप्राय यह है कि अध्यात्म और धर्म नितांत निजी विषय हैं और इनसे दैहिक और मानसिक लाभ तभी मिल सकता है जब हम उसका दिखावा न करें। यहां तक कि अपनी गतिविधि दूसरों को न बतायेे। अगर ऐसा करते हैं तो सारा लाभ अहंकार की धारा में बह जाता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


इस लेखक की लोकप्रिय पत्रिकायें

आप इस ब्लॉग की कापी नहीं कर सकते

Text selection Lock by Hindi Blog Tips

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

विशिष्ट पत्रिकायें

Blog Archive

stat counter

Labels