Thursday, May 21, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-बंधु बांधव उपभोग न कर सकें उस धन का क्या लाभ?

लक्षम्या लक्ष्मीवतां लोके विकाशिन्या च किन्तवा।
बंधुभिश्च सुहृद्धिश्च मित्रवधं व न भुज्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-
संसार में उस धनपति का धन का क्या लाभ जो उसके बंधु और सहृदयजन उपभोग न कर सकें।
श्लाभ्या चानन्दनीया च महातामुपाकारिता।
काले कल्याणमाघत्ते स्वल्पापि सुमहोदयम्।।
हिंदी में भावार्थ-
बड़े और महान पुरुषों का उपकार करना आनंदमय होता है। उनका थोड़ा भी कल्याण करना महान उदय का कारण बनता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-संसार में अनेक धनी है पर सभी को सम्मान नहीं प्राप्त होता जैसी कि वह अपेक्षा करते हैं। किसी मनुष्य के पास धन की प्रचुरता हो और वह उसे व्यय करने संकोच करता है तो उसे कंजूस कहा जाता है। धन की महत्ता दान से है। अगर कोई व्यक्ति धनी है पर इसका लाभ उसके परिवार, मित्रों और बंधुओं को नहीं मिलता तो फिर उसे समाज में सम्मान की आशा नहीं करना चाहिए। वैसे भी धनियों के सामने दिखाने के लिये उनका सम्मान हर कोई इस आशा करता है कि भविष्य में शायद कोई लाभ हो? हां, अगर यह निश्चित हो जाये कि वह धनी किसी भी हालत में सहायता करने वाला या दान देने वाला नहीं है तो फिर उसकी मूंह पर भी कोई प्रशंसा नहीं करता।
समाज को बौद्धिक सहायता करने वाले ज्ञानियों की मदद करना कभी निरर्थक नहीं जाता। वह अपने ज्ञान और शिक्षा से समाज की पीढ़ियों तक ज्ञान गंगा बहाने का सामथ्र्य रखते हैं। ऐसे निष्काम और निष्कपट महान लोगों की सहायत कर समाज स्वयं को कृतकृत्य समझना चाहिए। जिन समाजों में ज्ञानियों को आर्थिक, सामाजिक और नैतिक संरक्षण प्रदान नहीं किया जाता वह बहुत जल्दी पतन को प्राप्त होते हैं।
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