----------------------------
पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चैतदकुत्सन्।
दृष्टया हृध्येत्प्रसींदेच्च प्रतिनदेच्य सर्वेशः।
हिंदी में भावार्थ-थाली में सजकर जैसा भी भोजन प्राप्त हो उसे देखकर अपने मन में प्रसन्नता का भाव लाना चाहिये। ऐसा अच्छा भोजन हमेशा प्राप्त हो यह कामना हृदय में करना चाहिए।
अनारोगयमन्तयुरूयमस्वगर्यं चारिभोजनम्।
अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्त्परिर्जयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-मनुमहाराज कहते हैं कि भूख से अधिक भोजन करना देह के लिये अस्वास्थ्यकर है। इससे आयु कम होने के साथ ही पुण्य का भी नाश होता है। दूसरे लोग अधिक खाने वाले की निंदा करते या मजाक उड़ाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब सामने थाली में भोजन आता है तो उसे देखकर हमारे मन में कोई न कोई भाव अवश्य आता है। सब्जी मनपंसद हो तो अच्छा लगता है और न हो तो निराशा घेर लेती है। भोजन पसंद का न होने पर परोसने वाला कोई बाहर का आदमी हो तो हम उससे कुछ नहीं कहते पर मन में उपजा वितृष्णा का भाव उस भोजन से मिलने वाले अमृत को विष तो बना ही देता है। घर का आदमी या पुरुष हो तो हम उसे डांटफटकार देते हैं और इससे उसी भोजन को विषप्रद बना देते हैं जो अमृत देने वाला होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मन के भावों से भोजन से मिलने वाली ऊर्जा का स्वरूप निर्धारित होता है।
भोजन खाते समय केवल उसी पर ध्यान रखना चाहिये। न तो उस समय किसी से बात करना चाहिये और न ही मन में अन्य विचार लाना चाहिये। इससे भोजन सुपाच्य हो जाता है। चिकित्साविज्ञान ने अब इस बात की पुष्टि कर दी है कि भोजन करते समय तनाव रहित व्यक्ति विकार रहित भी हो जाते हैं। वैसे
हमें कुछ लोग ऐसे भी देखें होंगे जिनको देखकर लगता है कि वह खाने के लिए ही जीते हैं। ऐसे लोगों की मानसिकता को ध्यान से देखने तो वह किसी की बात सुनने और समझने के बजाय अपनी ही बात कहते और सुनते हैं।
संकलक एवं व्याख्याकार-दीपक भारतदीप
http://rajlekh.blogspot.com
..............................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप