Saturday, February 23, 2013

विदुर नीति-ईर्ष्या जैसी बीमारी का कोई इलाज नहीं(vidur neeti-eershya jaise bimari ko koyee ilaz nahin)

                 विश्व  समाज में अधिकतर लोगों की सहनशीलता कम ही होती है। इसका कारण मनुष्य में व्याप्त अहंकार का भाव है जिससे वह कहीं अपने को कमतर रूप में नहीं देखना चाहता। अनेक लोग कोई बड़ा लक्ष्य अपने हाथ में लेते हैं पर उसमें समय अधिक लगता है।  इस दौरान उन्हें अन्य लोगों के मुख से निकलने वाले व्यंग्य बाणों का सामना करना पड़ता है।  दूसरी बात यह कि लक्ष्य मिलने तक मनुष्य की उज्जवल छवि नहीं बन पाती इस कारण लोग मजाक भी बनाते है।  तब कुछ हल्की प्रवृत्ति के लोग आत्मप्रवंचना कर अपना लक्ष्य, उसकी प्राप्ति के साधन तथा सहायकों के नाम दूसरों को बताकर यह आशा करते हैं कि उनका काम पूरा होने तक सभी चुप रहेंगे।  वह इस बात का अनुमान नहीं कर पाते कि अपनी योजना जब दूसरों को बता देंगे तो फिर कोई भी उनकी लक्ष्य प्राप्ति में संकट उत्पन्न कर सकता है।  होता यही है और अधिकतर लोग अपनी नाकामी झेलते हैं।
          दूसरी बात यह कि कुछ लोग अपने लक्ष्य तो ऊंचे बनाते हैं पर साथ ही दूसरों का धन, रूप, पराक्रम, सुख और कुल देखकर अपने अंदर ईर्ष्या का भाव पाल लेते हैं।  यह ईर्ष्या का भाव मनुष्य की पराक्रम क्षमता के साथ ही मस्तिष्क की एकाग्रता को नष्ट करता है।  जिससे मनुष्य अपने लक्ष्य के पास तक नहीं पहुंच पाता है।  ईर्ष्या और आत्मप्रवंचना दोनों तरह की स्थिति मनुष्य को पतन की तरफ ढकेलती है।
         विदुर नीति में कहा गया है कि
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   य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्य कुलान्वये।
सुखभौभाग्यसतकरि तस्य व्याधिरन्नतकः।।
             हिन्दी में भावार्थ-जिस मनुष्य में दूसरे का धन, रूप, पराक्रम, सुख और कुल देखकर ईर्ष्या होती है उसका कोई इलाज नहीं हो सकता।

अकार्यकरणाद् भीतःकार्यालणां च विवर्जनात्।
अकाले मन्त्रभेदाच्च येन माद्येत ततफ पिवेत्।।
             हिन्दी में भावार्थ-न करने योग्य काम करना, करने योग्य काम में प्रमाद का प्रदर्शन और कार्य को सिद्ध करने से पहले ही उसका मंत्र दूसरों का बताने से डरना चाहिए।     
   हम जब समाज की स्थिति को देखते हैं तो हास्यास्पद दृश्य सामने आता है। लोग अपने दुःख से कम दूसरे के सुख से अधिक दुःखी लगते हैं।  अपने अंदर कोई गुण न होने की कुंठा उन्हें दूसरे की निंदा करने के लिये प्रेरित करती है।  इसका मुख्य कारण यह है कि लोग अपने ही अध्यात्मिक ज्ञान से परे हैं।  अशांत मन लेकर मस्तिष्क को सहज मार्ग पर चलाना कठिन है। असहज मार्ग पर चलते हुए मनुष्य के विचार नकारात्मक हो जाते हैं। ऐसे में धन, वैभव और प्रतिष्ठा  के अधिक होने का सुख भोगना भी असहज हों जाता है। बड़े पद पर बड़ी जिम्मेदारी निभाना तो दूर छोटे पद की छोटी जिम्मेदारी निभाना भी मुश्किल लगता है।  ईर्ष्या से प्रतिस्पर्घा और प्रतिस्पर्धा से वैमनस्य पैदा होता है।  यही वैमनस्य हमारे समाज के बिखराव का कारण है। इसका समाधान यही है कि हम अपने अंदर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के सिद्धांतों को समझें।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Saturday, February 16, 2013

अथर्ववेद के आधार पर चिंत्तन-हृदय में सदैव पवित्र विचार रखें(thought on based on atharvaved-hridya mein hamesha pavitra vichar rakhen)

                 हमारी देह में स्थित इंद्रियों का अत्यंत महत्व हैं। इसमें कान, नाक, मुख, आंख तथा बुद्धि अत्यंत चंचल तथा विलासिताप्रिय होती हैं। उनमें उपभोग की प्रवृत्ति तो होती है पर रचनात्मक कार्यों के प्रति आलस्य का भाव रहता है।  इसे समझना जरूरी है। हम लोग भले ही यह सोचते हैं कि यह संसार ईश्वर के अनुसार चलता है पर सच यह है कि हमारे संकल्पों के अनुसार ही हमारा जीवन क्रम निर्मित होता है। जैसे हमारा विचार या संकल्प है वैसा ही हमारे सामने दृश्य घटित होता है। अगर दृश्य हमारे प्रतिकूल है तो हम दूसरों को दोष देते हैं। कभी भाग्य तो कभी भगवान की मर्जी बताकर आत्ममंथन से बचने का प्रयास करते हैं। कभी मित्र, कभी रिश्तेदार तो कभी परिवार के सदस्यों पर दोषारोपण कर यह मानते हैं कि हम और हमारा संकल्प तो हमेशा ही पवित्र रहता है। यह अज्ञान का प्रमाण है। आत्ममंथन की प्रक्रिया से दूर अज्ञानी लोग इसी कारण ही अपने जीवन में भारी कष्ट उठाते हैं।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
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सुश्रतौ कर्णो भद्रश्रतौ कर्णो भद्र श्लोकं श्रुयासम्।
‘‘हमारे दोनो कान उत्तम विचार सुने। कल्याणकारी वचन तथा कल्याणकारी प्रशंसा सुनने को मिले।’’
बृहसपतिर्म आत्मा तृमणा यनाम हृद्यः।।
‘‘हमारी आत्मा ज्ञान युक्त हो और मनुष्य में मनन करने वाला हृदय पवित्र हो।’’
                जब हम परमात्मा का स्मरण करते हैं तो उससे सांसरिक विषयों में सफलता की ही मांग करते हैं जबकि यह संसार कर्म और फल के सिद्धांत के आधार पर यंत्रवत चलता है। आम बोयेंगे तो आम पैदा होगा और बबूल बोने पर कांटों का झाड़ हमारे सामने खड़ा होगा। ज्ञानी लोग यह जानते हैं पर अज्ञानियों का झुंड इससे बेखबर होकर सुख में प्रसन्न हेता है और दुःख में विलाप करता है। अपने मुख से अच्छी वाणी बोलना चाहिए तो अपने कानों से ऐसी बातें सुनना चाहिए जो सुख देने के साथ ही मन स्वच्छ करने वाली हो। अपनी आंखों से किसी के संताप का दृश्य देखने की चाहत की बजाय प्रकृति और संसार के विषयों में विराजमान सौंदर्य की तरफ अपनी दृष्टि रखना चाहिए। दूसरों की निंदा या दोष का अध्ययन करने की बजाय सभी के गुण देखकर उसकी प्रशंसा करने से मन पवित्र होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि जैसी कल्पना और हमारा विचार होता है वैसी ही हमारे सामने घटनायें होती हैं। इसलिये जहां तक हो सके अच्छा देखो, अच्छा खाओ और अच्छा सोचो।
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