Sunday, July 13, 2014

रहीम दर्शन-बुरे काम को अधिक समय तक छिपाना कठिन(rahim darshan-bure kam ko adhik samay tak chhipana kathin)



      आधुनिक लोकतंत्र में जहां यह पूरे विश्व में एक अच्छी परंपरा बनी है कि लोग अपने देश, प्रदेश और शहर के लिये राज्य व्यवस्था की देखरेख करने वाले प्रमुख का चयन स्वयं ही कर सकते हैं वही इस तरह की बुरी प्रवृत्ति भी चालाक लोगों में आयी है कि वह जनमानस को अपने पक्ष में करने के लिये अनेक तरह के प्रपंच तथा स्वांग रचते हैं।  अपने प्रचार में वह स्वयं की छवि एक ईमानदार, समझदार तथा उच्च विचारों वाले व्यक्ति की बनाते हैं। इससे प्रभावित होकर लोग उन्हें अपना नायक भी मान लेते हैं पर जब बाद में पता चलता है कि वह तो पद पर बैठने के लिये एक बुत की तरह सज कर आये थे तब उनके प्रति निराशा का भाव पलता है। ऐसा भी देखा गया है कि अनेक लोगों ने अपनी छवि महान नायक की बनाई पर कालांतर में जब भेद खुला तो वह खलनायक कहलाने लगे।

कविवर रहीम कहते हैं कि

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रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि।

गांठ युक्ति की खुलि गई, अंत धूरि की धूरि।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह ठहरी हुई धूल हवा के रहने पर स्थिर नहीं रहती वैसे ही यदि किसी व्यक्ति के कुकृत्य या बुरे विचार का रहस्य खुल जाये तो उसकी सभी निंदा करते हैं।

      चुनावी वैतरणी पार करने के लिये प्रचार की नाव का सहारा सभी लेते हैं।  जो सौम्य व्यक्तित्व के स्वामी हैं उनके प्रति लोग वैसे ही सहृदयता का भाव रखते हैं पर जिनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है उसके प्रति प्रचार देखकर ही अपना दृष्टिकोण बनाते हैं। यही वजह है कि जिन्होंने अपने जीवन में कोई परमार्थ नहीं किया होता वही उच्च पद की लालसा में प्रचार के माध्यम से अपनी छवि भव्य बनाने का प्रयास करते हैं।  कई बार प्रचार के दौरान ही उनकी पोल खुल जाती है पर अनेक लोग समाज की आंखें बचाकर अपना लक्ष्य ही पा लेते हैं।  ऐसे राजसी पुरुषों का निजी कार्यों तक सीमित रहने के कारण किसी को उनकी स्वार्थ वृत्ति का अनुभव नहीं होता पर सार्वजनिक पदों पर उनका चरित्र जाहिर होने लगता है तब लोग हताश हो जाते हैं।  वैसे तो पूरे विश्व में अनेक छद्म समाज सेवकों ने उच्च पद प्राप्त कर अपनी प्रतिष्ठा गंवाई है पर जिन्होंने बहुत प्रचार से लोकप्रियता अर्जित की पर अपना दायित्व निभाने में नाकाम रहे उन्हें उतने ही बड़े अपमान का भी सामना उनको करना पड़ा।
      उच्च पद पर बैठने का प्रयास करना बुरा नहीं है पर इसके लिये लोगों के साथ कोई ऐसी बात नहीं करना चाहिये जो बाद में निरर्थक सिद्ध हो। न ही ऐसे वादे करना चाहिये जिनको पूरा करना स्वयं को ही संदिग्ध लगे। लोगों को यह बात स्पष्ट रूप से समझाना चाहिये कि उनकी समस्याओं का वह निराकरण का पूरा प्रयास करेंगे। उच्च पद पर आने के बाद ईमानदारी से प्रयास भी करना चाहिये वरना लोगों में निराशा का भाव पैदा होता है जो कालांतर में घृणा में बदल जाता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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