Friday, October 14, 2011

अथर्ववेद से संदेश-ब्रह्मज्ञानी कभी आलस्य नहीं करते (atharvaved se sandesh-brahmagyani ko alsya nahin karna chahiey)

             हमारे देश में धर्मभीरु व्यक्तियों की कमी नहीं है मगर अध्यात्मिक ज्ञान को समझने वालों का टोटा है। अक्सर कुछ लोग ऐसे हैं जो अध्यात्मिक ज्ञान की बात करने वाले से कहते हैं कि ‘तू सन्यासी हो जा‘ या फिर कहते हैं कि ‘तुम्हें तो सब छोड़कर सन्यासी होना चाहिए अगर तुम्हारे पास ज्ञान है तो फिर संसार का काम क्यों करते हो’। इतना ही नहीं अगर कोई मनुष्य शांत भाव से नैतिकता के आधार पर काम करता है तो उससे यह तक कह दिया जाता है कि तुम इस संसार को नहीं जानते जिसमें केवल दुष्टता और चालाकी से ही काम चल सकता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि आम लोगों के लिये धर्म का आशय केवल कर्मकांडों तक ही सीमित है। लोग मनोरंजन के लिये सत्संग में जाते हैं और वहां ज्ञान की बात सुंनकर दूसरे लोगों को भी सुनाते हैं पर जब व्यवहार में नैतिकता स्थापित करने की बात आये तो लोग कहते हैं कि सामान्य जीवन में सात्विकता का कोई स्थान नहीं है। शायद यही कारण है कि जिन लोगों को समाज में संत की तरह स्थापित होना है वह गेरुए या सफेद वस्त्र पहनकर शिष्य का समुदाय बनाने लगते हैं। सांसरिक काम को करना वह अपनी व्यवसायिक छवि के विरुद्ध समझते हैं क्योंकि उनको पता है कि अगर वह सामान्य जन की तरह काम करेंगे तो समाज का कोई भी आदमी कभी उनको सिद्ध स्वीकार नहीं करेगा।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
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मो षु ब्रह्मोव तन्द्रयुर्भवो।
            ‘‘ब्रह्मज्ञान पा्रप्त करने को बाद ज्ञानी को कभी आलस्य नहीं करना चाहिए।’’
अधा हिन्वान इन्द्रियं ज्यायो महित्वमानशे।
अभिष्टकृद्विर्षणिः।
           ‘तत्वज्ञानी अपनी शक्ति के सदुपयोग से परम लक्ष्य प्राप्त करके सर्वश्रेष्ठ स्थिति में पहुंच जाता है।’’
             यही कारण है कि हमारे देश में पेशेवर संतों की भरमार है। यह अलग बात है कि समय के साथ उनकी चमक खत्म हो जाती है पर जिन लोगों ने सामान्य जीवन बिताते हुए समाज का मार्गदर्शन किया वह अमरत्व प्राप्त कर गये। कविवर रहीम, संत शिरोमणि कबीरदास और रविदास को आज कौन नहीं जानता? दरअसल सच्चा ज्ञानी वह है जो तत्वज्ञान जाने लेने के बाद अपने कर्म के फल से विरक्त होकर काम करता है। भेदरहित होकर सारे समाज को अपना परिवार मानता है। सबसे बड़ी बात यह है कि ज्ञानी संसार से विरक्त होने की बजाय अधिक सक्रिय हो जाते हैं। वह जानते हैं कि यह देह नश्वर है और इससे पहले कि वह साथ छोड़े उससे पूरा काम लेना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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