Sunday, May 29, 2011

सामवेद से संदेश-मनुष्य को प्रतिदिन युद्ध करना चाहिए (man must always reddy for war in his life)

         अपनी प्रकृति के अनुसार हर जीव संघर्ष कर जिंदा रहता है। संघर्ष का आशय स्वाभाविक कर्म से ही है। जब श्रीमद्भागवत गीता की बात आती है तो अक्सर लोग यह सोचते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने का उपदेश दिया है जिसका सामान्य कर्म से कोई संबंध नहीं है। यह सोच अज्ञान का प्रमाण है। दरअसल अर्जुन का उस समय स्वाभाविक कर्म ही युद्ध करना था। उन्होंने द्रोणाचार्य से युद्ध कौशल की ही शिक्षा प्राप्त की थी। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट कहा था कि ‘तू अभी अज्ञानवश विरक्त होकर युद्ध छोड़ देगा पर बाद में तेरा स्वभाव तुझे इसके लिये प्रेरित करेगा।’’
          सामवेद में कहा गया है कि
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         दिवे दिवे वाजं सरिनः।
        ‘‘प्रतिदिन युद्ध करों।’’
         मो घु ब्रह्मोव तन्द्रर्भवो।
         ‘‘आत्म ज्ञानी होकर आलसी न होना।’’
        अधा हिन्वान इंद्रिय ज्यायो महित्वमानशे।
          अभिष्टकृद्विचर्षणि।
         ‘‘विशेष ज्ञान धारण करने वाला इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर अपना लक्ष्य प्राप्त करता है।
             आज के आधुनिक युग में प्राचीन इतिहास की तरह युद्ध नहीं लड़े जाते पर मनुष्य के स्वाभाविक कर्म भी अब युद्ध की तरह संपन्न करने पड़ते हैं। इसके विपरीत मनुष्य स्वभाव आलस्य की तरफ बहुत आसानी से प्रवृत्त होता है। आज नहीं कल नहीं कल नहंी परसों तक काम टालने की बात उसके दिमाग में आ ही जाती है। आलस्य की वजह से लोग अपने हाथ से ऐसा अवसर खो देते हैं जिसका लाभ उठाने से उनके जीवन का धारा बदल सकती है।
         अगर हम अपने जीवनकाल के सफल लोगों की तरफ देखकर उनके कर्म का विश्लेषण करें तो यह बात सामने आयेगी कि उन्होंने अपने पास आये अवसरों का जमकर लाभ उठाया। हमें प्रतिदिन अपने कर्म के लिये ऐसे ही तैयार होना चाहिए जैसे युद्ध के लिये योद्धा तैयार होता है। अपने विषय से संबंधित हर सामग्री का अवलोकन उसें पारंगत होना चाहिए। जीवन में सफलता मूलमंत्र सतत युद्ध करना ही है। इसके लिये हमेशा तत्पर रहना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Saturday, May 28, 2011

अथर्ववेद से संदेश-संसार में अभयतापूर्वक विचरण करें (atharvaved se sandesh-sansar mein bhayrahit rahen-live without tension))

         अगर देखा जाये तो मनुष्य पर शासन उसका भय ही करता है इसी कारण सभी मनुष्य हिंसक नहीं होते। यह भय आत्मसंयम के रूप में होना चाहिए न कि अपने कर्म के फल की आशंकाओं के कारण मन में बैठना चाहिए। राजकर्म में लोग पूरे मानव समाज पर नियंत्रण करने के लिये भय पैदा करते हैं। आज के आधुनिक लोकतंत्र में तो भय आम आदमी के सामने खड़ा किया जाता है ताकि लोगों को समूबबद्ध कर उन पर शासन किया जा सके। राजकर्म में लगे अनेक लोग समाज को निर्भय पूर्वक रहने की व्यवस्था प्रदान करने का दाव करते हैं पर इसके लिये पद पाने के लिये वह अव्यवस्था का भय पैदा करते है। अनेक बुद्धिमान लोग आतंक और भ्रष्टाचार से समाज के बिखरने का भय पैदा कर एकता के लिये प्रयास करते हैं। दरअसल यह उनका व्यवसाय है कि किसी भी तरह समाज पर नियंत्रण करें ताकि सामाजिक तथा असामाजिक व्यवसायिक की गतिविधियां चलती रहें। ऐसे लोग जानते हैं कि आदमी पर केवल भय ही शासन कर सकता है इसलिये नित्य नये भयों का निर्माण कर उनका प्रचार किया जाता है।
         भय और अभय के विषय पर अथर्ववेद में कहा गया है कि
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           अभयं मित्रादभयममित्रदभयं ज्ञातादभवं पुरो यः।
            अभयं तक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम् मित्रम्।।
               ‘‘मित्र और शत्रु से हम अभय हो, जाने हुए से अभय हों, भविष्य से अभय हों, रात और दिन के साथ ही सारी दिशायें हमारे लिये अभय हों। सब आशायें हमारी मित्र बनें।
               अगर हम आत्ममंथन करें तो हम भय के कारण ही शांत रहते हुए कई ऐसे कर्मों से विमुख हो जाते हैं जो कि करना चाहिए। इतना ही नहीं कई बार भयग्र्रस्त होकर ऐसे लोगों से संपर्क बनाते हैं जिनसे हानि की आशंका होती है। हम विचार करें तो इतने  संकट  जिंदगी में नहीं आते जितने की आशंका हम करते हैं। ज्ञान के अभाव में कई बार ऐसे काम भी करते हैं जो वाकई भय पैदा करने वाले होते हैं। इसलिये किसी काम को न करने से पहले उसके गुण दोषों पर विचार अवश्य करना चाहिए। साथ ही अगर कोई सात्विक और सार्थक कार्य हो तो उसे निर्भयतापूर्व संपन्न करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, May 22, 2011

चाणक्य नीति से संदेश-एकता में होती है भारी शक्ति (chankya neeti-ekta mein shakti)

                 पाश्चात्य संस्कृति के प्रवाह तले हमारे देश की अध्यात्मिक संस्कृति मान्यताऐं रौंदी जा रही हैं। अंग्रेजी शिक्षा से ओतप्रोत देश की शिक्षा और नियम बनाने वाले विधाता कुछ विदेशी तो कुछ देशी मान्यताओं के मिक्चर से समाज को नमकीन की तरह सजा रहे हैं। ऐसे में संयुक्त परिवार को विघटन हुआ है। सभी लोगों ने स्वयं के विकास को ही आत्मनिर्भरता का प्रमाण मान लिया है। दूसरे के साथ संयुक्त उपक्रम सभी को गुलामी जैसा लगता है। परिवार की परिभाषा या सीमा माता पिता और बच्चे तक ही सिमट गयी है। दादा, दादी और चाचा चाची अब परिवार के बाहर हो गये हैं। भाई और भाई का संयुक्त उपक्रम में काम करना अब उस पुरानी परंपरा का हिस्सा मान लिया गया है जिसकी आवश्यकता अब अनुभव नहीं की जाती। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कि पिता के साथ पुत्र का संयुक्त उपक्रम होना उसके कमजोर व्यक्तित्व का प्रमाण माना जाता है। हर कोई यह चाहता है कि उसका दामाद स्वतंत्र उपक्रम वाला हो। भाई या पिता के साथ संयुक्त उपक्रम होने पर उसे गुलाम की तरह देखा जाता है।
           यही स्थिति आधुनिक महिलाओं की भी है। वह पति को स्वतंत्र उपक्रम का स्वामी या फिर किसी कार्यालय में अधिकारी के रूप में देखना चाहती हैं। इसके अलावा भी ढेर सारे कारण है जिससे हमारा समाज और राष्ट्र कमजोर हो रहा है।
          एकता के विषय पर चाणक्य नीति में कहा गया है कि 
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             बहुनां चैव सत्वानां समवायो रिपुंजयः।
             वर्षधाराधरो मेधस्तृणैरपि निवार्यते।।
           ‘‘बहुत लोगों के समूह में एकता होने की वजह अपने शत्रुओं को परास्त करने की शक्ति होती है। उसी तरह जैसे वर्षा की धारा प्रवाहित करने वाला बादल को तिनकों का समूह झौंपड़ी में प्रवेश से रोक लेता है।
                एक बात निश्चित रूप से तय है कि व्यक्ति अपने परिवार या समाज से मिलकर ही शक्तिशाली होता है और साथ ही यह भी सच है कि व्यक्ति के मजबूत होने से परिवार, परिवार से समाज, और समाज से राष्ट्र मजबूत होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति से राष्ट्र और राष्ट्र से व्यक्ति शक्तिशाली होता है पर इसके लिये जरूरी है कि लोगों की आपस में एकता है जो कि निज स्वार्थ पूर्ति के भाव तथा अहंकार के चलते नहीं हो पाती। यही कारण है कि आज हम अपने राष्ट्र में लोगों में अकेलेपन का तनाव बढ़ता देख रहे हैं।
            अगर हम चाहते हैं कि राष्ट्र शक्तिशाली हो तो व्यक्तियों को मजबूत होना पड़ेगा जिसके लिये यह जरूरी है कि लोग स्वयं में एकता के साथ काम करे।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, May 21, 2011

ऋग्वेद से संदेश-दृष्ट और मूर्ख ही समाज की हानि करते हैं (rigved se sandesh-dusht aur moorkh log karte hain samaj ki hani)

           इस भौतिकवादी युग ने लोगों को अंधा कर दिया है। वह अपनी संपत्ति संचय के लिये अनेक लोग किसी भी हद तक चले जाते हैं। वह यह नहीं सोचते कि कालांतर में न केवल समाज बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियों को भी हानि होगी। हम देख रहे हैं कि देश के अनेक धनपति लोग अपने ही देश से कमाकर विदेशों में भेज रहे हैं तो अनेक उच्च पदस्थ लोग भ्रष्टाचार में लिप्त होकर देश की व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर देते हैं। ऐसे लोग अपने परिवार की वर्तमान पीढ़ी का ही विचार करते हैं। उनको यह ज्ञान नहीं है कि समय एक जैसा कभी नहीं रहता और लक्ष्मी अत्यंत चंचल है और एक दिन उनके परिवार का पतन होना ही है और अंततः उनकी भावी पीढ़ी को भी बिगड़ी व्यवस्था के दुष्परिणाम भोगने होंगे। इसके बावजूद वह समाज का आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक शोषण करने के लिये किसी भी हद तक चले जाते हैं चाहे भले ही भविष्य में वह सब स्त्रोत सूख जायें जिससे वह धन कमा रहे हैं।
         यह अनैतिकता इस हद तक हो गयी है कि लोग अपने पद के अभिमान के साथ ही धर्म को भी बेच देते हैं। अपनी सात पीढ़ियों के लिये कमाने वाले लोग यह विचार नहीं करते कि जब यह भी तय है कि उनकी भावी पीढ़ी तक उनकी संपत्ति पहुंचेगी कि नहीं। संचय की प्रवृत्ति नें लोगों को हिंसक और दृष्ट प्रवृत्ति बना दिया है।
             ऋग्वेद में कहा गया है कि 
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               दुराध्यो अदिति स्त्रेवयन्तोऽचेतसो विजगृभे परुणीम्।।
               ‘‘दुष्ट बुद्धि वाले मूढ़ लोग अन्नदायी परुष्णी नदी के तट को तोड़ते रहे।
दुष्ट व्यक्ति मूर्ख भी होते हैं और सदैव विनाश के लिये प्रयत्नशील रहते हुए सभी के हित में आने वाली वस्तुओं को नष्ट करते हैं। 
              ऐसे दुष्ट, हिंसक और मूर्ख लोग समाज की बजाय अपने स्वार्थ को ही सर्वोपरि मानते हैं। अनेक लोग अंततः वह समाज के विद्रोह का शिकार भी हो जाते हैं। इसी कारण कहा जाता है कि धनवान को दानी भी होना चाहिए। यह दान पुण्य देने के साथ ही सुरक्षा देता है। उसी तरह बड़े आदमी को उदार तथा सदाचारी होना चाहिए। ऐसा होने पर उसके विराट व्यक्तित्व की रक्षा होती है। सदाचार और उदारता एक तरह किले की दीवार है जिसमें आदमी आराम से रह सकता है।
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Tuesday, May 17, 2011

तृष्णाओं का त्याग करना ही श्रेयस्कर-हिन्दू धार्मिक विचार (trishna ka tyag hi shreyaskar-hindu religion thought)

                     मनुष्य की देह का विकास स्वाभाविक रूप से होता है, उसे अपने मानसिक विकास के लिये स्वयं प्रयास करने होते हैं। उसका मन हमेशा ही तृष्णा की गोद में सोया रहता है। उनकी पूर्ति करने में ही मनुष्य अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है। फिर भी न तो कभी उसके मन की तृष्णायें मरती हैं न मनुष्य को कभी चैन आता है। एक वस्तु आती है तो दूसरे की तृष्णा पैदा होती है। परमात्मा के कृपा से इस संसार में विचर रहे देहधारियों की बजाय मनुष्य में स्वाजातीय बंधुओं के हाथ से निर्मित प्राणहीन वस्तुओं को पाने और संजोने की इच्छा रहती है।
                इस विषय पर हमारे धर्मग्रंथो में कहा गया है कि
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               तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता।
               अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबंधिनी।।
               ‘‘मनुष्य मन में विचरने वाली तृष्णाऐं ही पाप की जन्मदात्री हैं। वही आदमी को अधर्म के लिये प्रेरित करती हैं। अतः उनका त्याग ही श्रेयस्कर है।’’
             या दुस्यतजा दुर्मतिभियां न जीर्यति जीर्यतः।
            योऽसि प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्।।
            ‘‘जो बुद्धिहीन के लिये त्याग योग्य नहीं है और जो देह के जीर्ण शीर्ण होने पर ही खत्म नहीं होती वह तृष्णायें न केवल आदमी को बीमार बनाती हैं बल्कि उसके सुख का भी हरण कर लेती है। ऐसी तृष्णाओं का त्याग ही श्रेयस्कर है।
             मनुष्य देह और मन के संयोग को नहीं जानता। मन कही भीं बिना लगाम होने पर भटक सकता है पर देह की कार्य करने की अपनी सीमाऐं हैं। अनेक लोग अपने सामर्थ्य से अधिक तृष्णाऐं पाल लेते हैं। उनको पाने के लिये वह अधिक से अधिक श्रम करते हैं पर मन कहीं भी चला जाय पर सामर्थ्य से बाहर भला किसकी देह जाकर काम सकती है। नतीजा यह होता है कि देहधारी को अंततः बीमारियों और दुर्घटनाओं का शिकार बनना पड़ता है। ऐसी तृष्णाओं का त्याग ही श्रेयस्कर है जिनकी वजह से मनुष्य स्वतंत्र होते हुए भी भौतिक वस्तुओं का दास बन जाता है। जिनसे विकार उत्पन्न होने के साथ ही जीवन का अतिशीध्र क्षय होता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Thursday, May 12, 2011

तनाव से जीवन में विकृति आती है-हिन्दू धार्मिक विचार (tanav se jeevan mein vikruti aatee hai-hindu dharmik vichar)

               हम अपने जीवन में तनाव इतना अपने सिर पर लेते हैं कि इसका आभास ही नहीं रहता कि शांति पूर्ण जीवन होता क्या है? अनेक लोग तो तनावरहित जीवन को अरुचिकर मानते हैं। उनका कहना होता है कि ‘अगर जीवन में तनाव नहीं है तो फिर मजा ही किस बात का?’
              यह एक खोखला विचार है। दरअसल जीवन का आनंद कर्म है और उसका आशय यह कतई नहीं है कि हर कर्म तनाव का कारण हो। कर्म हमारी देह और मन को व्यस्त रखता है पर उसे तनाव का प्रतीक मानना ठीक नहीं है। तनाव हर स्थिति में शरीर के नाश का कारण बनता है। यह तनाव जब हम अनिच्छा से कोई काम करते हैं या फिर हमारा काम किसी दूसरे पर निर्भर होता है तब बढ़ जाता है। यह स्थितियां कभी सुखद नहीं मानी जाती हैं।
              इस विषय पर मनुस्मृति में कहा गया है कि
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                    यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यलेन वर्जयेत्।
                    यद्यदात्मवशं तु स्यात्तत्तत्सेवेत यत्नतः।
                    "जिस काम के लिये दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है उनका त्याग कर देना चाहिये तथा अपने हाथ से ही संपन्न होने वाले अनुष्ठान करना चाहिए।"
                   यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्म्न्ः।
                    तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।।
                  "जिस कार्य से मन को शांति तथा अंतरात्मा को खुशी हो वही करना चाहिये। जिस काम से मन को अशांति हो उसे न ही करें तो अच्छा।"
                   जीवन का आनंद सहजता के साथ उठना ही ठीक है। तनाव अंततः हमारी मानसिकता तथा स्वास्थ्य में विकार पैदा करता है। वर्तमान भौतिक जीवन ने लोगों की सुख सुविधाओं में वृद्धि की है जिससे लोग विलासी जीवन को अधिक महत्व देने लगे हैं। दैहिक सक्रियता के अभाव में शरीर स्थूल हो जाते हैं जिससे विकार पैदा होते हैं। उनसे मानसिक तनाव बढ़ता है जो कि अब हमारे जीवन का एक नकारात्मक पक्ष बन रहा है। लोगों ने अपनी आवश्यकतायें इतनी बढ़ा ली हैं कि उनकी पूर्णता दूसरे पर निर्भर हो गयी है। अगर दूसरा काम न करे तो हम लाचार हो जाते हैं। ऐसे में खिसियाहट तो आती है। इसके अलावा लोग अपनी ताकत से अधिक का लक्ष्य तय कर उसके पीछे लग जाते हैं जिसके न मिलने से उनमें हताशा आती है।
               इस प्रकार के तनाव से बचने का एकमात्र उपाय यही है कि हम अपनी आवश्यकतायें सीमित रखें। इसके अलावा अपने जीवन का आधार अपने ऊपर ही बनायें जिससे दूसरे की निष्क्रितयता हमारे संकट और तनाव का कारण न बने।

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Sunday, May 1, 2011

साकार भक्ति भी निष्काम भाव से करना चाहिए-हिन्दू धार्मिक चिंतन (sakar,nirakar bhakti aur nishkam bhakti-hindu dharmik chittan)

               हमारे अध्यात्मिक दर्शन मे भक्ति के प्रकारों को लेकर कोई विवाद नहीं है यह अलग बात है कि कुछ लोग अनावश्यक रूप से इस पर विवाद होता दिखाते हैं। हमारे वेदशास्त्रों में अस्सी फीसदी से ज्यादा सकाम भक्ति पर लिखा गया है तो बीस फीसदी निष्काम भक्ति पर चर्चा की गयी है। श्रीगीता चूंकि समस्त वेदों का सार माना जाता है इसलिये उसका महत्व बहुत है। उसमें स्पष्ट रूप से निराकार तथा निष्काम भक्ति को श्रेष्ठ बताया गया है पर सकाम और साकार भक्ति की महत्ता को भी स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि हमारे यहां भक्तों में परमात्मा के स्परूप को लेकर विवाद नहीं होता। अनेक इतिहासकारों के साथ विदेशी संस्कृति और धर्म के देशी समर्थक भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का मखौल उड़ाते हुए कहते हैं कि उनका कोई एक ग्रंथ या भगवान नहीं है। उनकी इस आलोचना का भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान समर्थक अधिक प्रतिकार नहीं करते हुए समाज में एकरसता लाने की वकालत करते हैं। दरअसल ऐसे लोगों ने श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन नहीं किया होता। यदि अध्ययन किया होता है तो समझा नहीं होता।
            हमारे अध्यात्मिक दर्शन में सकाम तथा सगुण भक्ति का महत्व स्वीकार किया गया है पर भाव निष्काम होने की बात कही गयी है। इस विषय पर हमारे ग्रंथो में कहा गया है कि--
सम्प्रीतिभोज्यान्यन्ननि आपभ्दोन्यानि वा पुनः।
न च सम्प्रीयस राजन् न चैवायद्गता वयम्।।
                    पूर्णकाम होने के कारण भगवान किसी भी वस्तु की चाहत नहीं रखते। वह तो प्रेम के भूख हैं। भगवान कहते हैं कि पत्र, पुष्प, फल अथवा जल जैसी वस्तुऐं मनुष्यों को बिना परिश्रम के बड़ी सरलता से मिल जाती हैं इसलिये उनको मुझे अर्पण करना कोई बड़ी बात नहीं है। इस अर्पण में प्रेम का भाव होना चाहिए। जो भक्त प्रेम से यह वस्तुऐं अर्पण करता है उसके निष्काम भाव को देखकर में सगुण रूप में प्रकट होकर खाता हूं।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो में भक्तया प्रयच्छति।
तदहं भवत्युपतमनश्नामि प्रयतात्मनः।।
                 जिस मनुष्य का हृदय शुद्ध न हो तो वह चाहे बाहर से कितना भी शिष्टाचार दिखाते हुए पत्र, पुष्प, फल तथा जल जैसे वस्तुऐं प्रदान करे उसे भगवान स्वीकार नहीं करते।
                   श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण योगासन, प्राणयाम तथा मंत्र जाप करने वाले भक्त को ंसर्वश्रेष्ठ बताते हैं पर साथ ही सकाम भक्ति को राजस भाव से उत्पन्न होने के कारण स्वभाविक भी मानते हैं। निष्काम तथा निर्गुण भक्ति में व्यक्ति को अंतर्मुखी होना पड़ता है जो कि कठिन होता है क्योंकि उससे बाहर प्रतिक्रिया दिखाई नहीं देती जबकि सकाम तथा सगुण भक्ति में लोगों को उसका बाहरी प्रदर्शन बहुत अच्छा लगता है। इसलिये सामान्य लोग उसी तरफ आकर्षित होते है। यह भी बुरा नहीं है पर उसमें भाव निष्काम होना चाहिये यही हमारे धर्मग्रंथों का कहना है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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