Friday, March 26, 2010

मनुस्मृति-अधर्म का प्रतिकार न करना भी अनुचित (manu smriti in hindi-Dharam & adharm)

यत्र धर्मेह्यहृधर्मेण सत्यं यत्राऽनृतेन च।
हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जहां असत्य सत्य को तथा अधर्म धर्म को दबाता है उस सभा में जाने पर सभासद भी नष्ट हो जाता है।
धर्मो विद्धस्त्वधर्मेण सभां यत्रोपतिष्ठते।
शल्यं चास्य न कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस सभा में धर्म को अधर्म दबाता है और अन्य लोग उसे नहीं रोकते तो अधर्म का पाप सभी सदासदों को लगता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यहां सभा का आशय व्यापक करते हुए पूरे समाज को ही लेना चाहिये। हमारे देश में समस्या इस बात की नहीं है कि दुर्जन अधिक सक्रिय है बल्कि सज्जन लोग डरपोक हैं इसलिये ही इस देश में भ्रष्टाचार और दुराचार बढ़ रहा है। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का अध्ययन तथा ब्रिटिश शासन काल में बनाये गये अनेक नियमों का पालन करते हुए हमारा समाज अत्यंत डरपोक हो गया है। अधिकतर लोग यह सोचकर संतोष करते हैं कि हम स्वयं कोई बुरा काम नहीं कर रहे पर उन्हें यह सोचना चाहिये कि यही पर्याप्त नहीं है। अपने सामने कदाचार, दुराचार तथा भ्रष्टाचार होते देखकर उससे मुंह फेरना भी अपराध है। अगर हम ऐसा करते हैं तो वह भी पाप कर्म जैसा है।
देश में व्याप्त बुरी हालत को देखते हुए अनेक लोग बहसें करते हैं पर निष्कर्ष कोई नहीं निकलता। मुख्य बात यह है कि जहां सतर्कता, दृढ़ता और साहस की आवश्यकता है वहां निष्कियता का वातावरण निर्मित कर दिया गया है। सभ्रांत और बुद्धिजीवी देश की हालत पर शाब्दिक शोक ऐसे जताते हैं जैसे कि उनसे कोई उनका प्रत्यक्ष वास्ता ही नहीं है। यह ठीक है कि सारा देश भ्रष्ट, कदाचारी और दुराचारी नहीं है पर यह भी एक तथ्य है कि लोग अपनी तरफ से समस्याओं के प्रतिकार के लिये कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभा रहे जिसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
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