Monday, April 30, 2012

चाणक्य नीति-समाज में धनवान की पूजा और गरीब की निंदा करना एक आदत है (samaj meim amri ki izzat aur garib kee beizzati hotee hai)

                  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार तत्वज्ञानी इस संसार में अधिक नहीं होते। सामान्य सांसरिक जीवन तो केवल धन के आधार पर ही चलता है। इसलिये सामान्य मनुष्यों से यह आशा करना एकदम व्यर्थ है कि कि लोग गरीब मगर गुणी आदमी का सम्मान करें। अधिकतर लोग अपनी भौतिक आवश्यकताओं को लेकर परेशान रहते हैं। कई लोग तो उधार की आशा में साहुकारों की चाटुकारिता करते है कि उन्होंने उनसे उधार लिया है या फिर भविष्य में उससे लेना पड़ सकता है। हमेशा ही धन की चाहत में लगे लोगों के लिये धनवान और महल आकर्षण का केंद्र बने रहते हैं। यही कारण है कि समाज का नियंत्रण स्वाभाविक रूप से धनिकों के हाथ में रहता है।
                                   चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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                      यस्याऽर्थातस्थ्य मित्राणि यस्याऽर्थास्तस्य बान्धवाः।
                           यस्याऽर्थाः स पुमांल्लोकेयस्याऽर्था स च पंडितः।।
                  ‘‘यह इस सांसर के समस्त समाजों का सच है कि जिसके पास धन है उसके बंधु बांधव बहुत है। उसे विद्वान और सम्मानित माना जाता है। यहां तक कि अगर व्यक्ति के पास धन अधिक हो तो उसे महान ज्ञानी माना जाता है।’’
                         स्वर्गस्थितनामिह जीवलोके चत्वारि चिह्ननि वसन्ति देहे।
                        दानप्रसङ्गो मधुरा च वाणी देवाऽर्चनं ब्राह्मणतर्पणं च।।
                 "स्वर्ग से इस धरती पर अवतरित होने वाले दिव्य चार गुण पाये जाते हैं-दान देना, मधुर वचन बोलना देवताओं के प्रति निष्ठा तथा विद्वानों को प्रसन्न करना।’’
                     ऐसे में अल्पधनियों को कभी इस बात की चिंता नहीं करना चाहिए कि उनका हर आदमी सम्मान करे। उन्हें अपने सात्विक गुणों का विकास करना चाहिए। मूल बात यह है कि हम अपनी दृष्टि में बेहतर आदमी बने रहें। श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान दूसरों के सामने बघारना आसान है पर उसे धारण कर अपनी जीवन की राह पर चलना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण का गीता में दिया गया संदेश दूसरों को सुधारने की बजाय स्वयं का चेहरा दर्पण में देखने को प्रेरित करता है। वैसे हम धनी हों या अल्पधनी दूसरों से सच्चे सम्मान की अपेक्षा नहीं करना चाहिए। आम मनुष्यों के हृदय में दूसरों के लिये सम्मान की भावना कम ही रहती है। धनिक होने से भले ही समाज सम्मानीय और ज्ञानी माने पर इस कारण अपने स्वाभाविक गुणों का त्याग कर उसका पीछा नहीं करना चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Saturday, April 21, 2012

मलूकदास का दर्शन-प्रभुता को सब मरे जा रहे हैं (malukdas ke dohe-prabhuta ko sab mare ja rahe hain)

          पंचतत्वों से बनी मनुष्य देह में जितनी बुद्धि और विवेक की शक्ति है उतना ही उसमें अहंकार भरा पड़ा है जिससे प्रेरित हर कोई अपने आपको श्रेष्ठ कहलाना चाहता है। देखा जाये तो अध्यात्म को विषय जहां अकेले में चिंत्तन करने का विषय है तो धार्मिक कर्मकांड भी किसी स्थान विशेष पर करने के लिये होते हैं। अगर कोई व्यक्ति अकेले में करे तो बात समझ में आती है पर देखा यह जाता है कि कुछ श्रेष्ठता के मोह में फंसे कुछ लोग गुरु की पदवी धारण कर सार्वजनिक रूप से यह काम करते हैं। कोई यज्ञ करा रहा है तो कोई प्रवचन का आयोजन कर रहा है। इतना ही नहीं कहीं गरीबों को सामूहिक रूप से खाना खिलाने का पाखंड भी हो्रता है जो कि अधर्म का ही प्रमाण है। कहा जाता है कि अपने दान और धर्म का प्रचार नहीं्र करना चाहिए। इतना ही नहीं दान देते समय आंखें झुका लेना चाहिए ताकि लेने वाले व्यक्ति के मन में हीनता न आये। जबकि सार्वजनिक रूप से धर्म का विषय बनाने वाले इन सब बातों से दूर रहकर आत्मप्रचार में लिप्त दिखते हैं।  
दास मलुक कहते हैं कि 
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प्रभुता ही को सब मरै, प्रभु को मरै न कोय। 
जो कोई प्रभु को मरै, तो प्रभुता दासी होय।। 
           ‘‘इस संसार में सभी लोग प्रभुता को मरे जा रहे हैं पर प्रभु के लिये किसी के मन में जगह नहीं है। जिस मनुष्य के मन में परमात्मा विराजते हैं प्रभुता उसकी दासी हो जाती है।’’ 
सुमिरन ऐसा कीजिए, दूजा लखै न कोय। 
ओंठ न फरकत देखिये, प्रेम राखिये गोय।। 
‘‘प्रभु के नाम का स्मरण दिखावे के लिये न करें।  इस तरह नाम जपिये कि कोई ओंठ का फड़कना भी न देख सके और हृदय के अंदर प्रभु का प्रकाशदीप जलता रहे।’’ 
           लाउडस्पीकरों के साथ भीड़ में परमात्मा के नाम का जोर जोर से स्मरण करना भी एक तरह का पाखंड है। नाम हमेशा मन में लिया जाना चाहिए। इस तरह कि कोई ओंठों का हिलना भी न देख सके। कहने का अभिप्राय यह है कि अध्यात्म और धर्म नितांत निजी विषय हैं और इनसे दैहिक और मानसिक लाभ तभी मिल सकता है जब हम उसका दिखावा न करें। यहां तक कि अपनी गतिविधि दूसरों को न बतायेे। अगर ऐसा करते हैं तो सारा लाभ अहंकार की धारा में बह जाता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, April 15, 2012

मलूकदास का दर्शन-धर्म को लेकर वाद विवाद न करें (malukdas ka darshan-dharma par vivad n karen)

         हमारे देश के लोगों की प्रकृति इस तरह की है उनकी अध्यात्मिक चेतना स्वतः जाग्रत रहती है। लोग पूजा करें या नहीं अथवा सत्संग में शामिल हों या नहीं मगर उनमें कहीं न कहीं अज्ञात शक्ति के प्रति सद्भाव रहता ही है। इसका लाभ धर्म के नाम पर व्यापार करने वाले उठाते हैं। स्थिति यह है कि लोग अंधविश्वास और विश्वास की बहस में इस तरह उलझ जाते हैं कि लगता ही नहीं कि किसी के पास कोई ज्ञान है। सभी धार्मिक विद्वान आत्मप्रचार के लिये टीवी चैनलों और समाचार पत्रों का मुख ताकते हैं। जिसे अवसर मिला वही अपने आपको बुद्धिमान साबित करता है।
            अगर हम श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों के संदर्भ में देखें तो कोई विरला ही ज्ञानी की कसौटी पर खरा उतरता है। यह अलग बात है कि लोगों को दिखाने के लिये पर्दे या कागज पर ऐसे ज्ञानी स्वयं को प्रकट नहीं करते। सामाजिक विद्वान कहते हैं कि हमारे भारतीय समाज एक बहुत बड़ा वर्ग धार्मिक अंधविश्वास के साथ जीता है पर तत्वज्ञानी तो यह मानते हैं कि विश्वास या अविश्वास केवल धार्मिक नहीं होता बल्कि जीवन केे अनेक विषयों में भी उसका प्रभाव देखा जाता है।
               संत मलूक जी कहते हैं कि
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               भेष फकीरी जे करै, मन नहिं आये हाथ।
             दिल फकीरी जे हो रहे, साहेब तिनके साथ।
            ‘‘साधुओं का वेश धारण करने से कोई सिद्ध नहीं हो जाता क्योंकि मन को वश करने की कला हर कोई नहीं जानता। सच तो यह है कि जिसका हृदय फकीर है भगवान उसी के साथ हैं।’’
               ‘‘मलूक’ वाद न कीजिये, क्रोधे देय बहाय।
              हार मानु अनजानते, बक बक मरै बलाय।।
          ‘‘किसी भी व्यक्ति से वाद विवाद न कीजिये। सभी जगह अज्ञानी बन जाओ और अपना क्रोध बहा दो। यदि कोई अज्ञानी बहस करता है तो तुम मौन हो जाओ तब बकवास करने वाला स्वयं ही खामोश हो जायेगा।’’
             हमारे यहां धार्मिक, सामाजिक, कला तथा राजनीतिक विषयों पर बहस की जाये तो सभी जगह अपने क्षेत्र के अनुसार वेशभूषा तो पहन लेते हैं पर उनको ज्ञान कौड़ी का नहीं रहता। यही कारण है कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों के शिखरों पर अक्षम और अयोग लोग पहुंच गये हैं। ऐसे में उनके कार्यों की प्रमाणिकता पर यकीन नहीं करना चाहिए। मूल बात यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान या धार्मिक विश्वास सार्वजनिक चर्चा का विषय कभी नहीं बनाना चाहिए। इस पर विवाद होते हैं और वैमनस्य बढ़ने के साथ ही मानसिक तनाव में वृद्धि होती है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, April 8, 2012

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-उपेक्षा के भाव से भी हित होता है (kautilya ka arthshastra-upeksha ka bhav hitkar)


         यह जीवन अनेक रंगों से भरा हुआ है। मनुष्य का स्वामी है उसका मन है जिस पर नियंत्रण कर लिया जाये तो फिर उसकी सारी देह हाथ आ जाती है। ज्ञानी लोग अपने मन पर नियंत्रण रखते हैं तो विषयों के व्यवसायी उनको अपने जाल में फंसा नहीं पाते पर सामान्य लोगों के चंचल मन का वश करना आसान है इसलिये अनेक लोग मनोरंजन का व्यापार कर उससे मालामाल हो जाते हैं। आजकल के आधुनिक युग में हम यह देखते हैं कि सभी प्रकार के प्रचार माध्यम हास्य, श्र्रृंगार, वीभत्स, करुणा धर्म तथा सनसनी से सजी विषय सामग्री प्रस्तुत करते हैं। अनेक प्रकार की कल्पित कहानयों से मनोरंजन के कार्यक्रमों का निर्माण जाता है। उसका परिणाम यह है कि पूरा विश्व समुदाय आज प्रचार तंत्र के मार्गदर्शन को मोहताज हो गया है। सही और गलत का निर्णय तर्क के आधार पर नहीं बल्कि शोर के आधार पर होने लगा है।
               कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है
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              अन्याये व्यसने युद्धे प्रवृत्तास्यान्त्विरणम्।
               इत्युपेक्षार्थकुशलैरुपेक्षा विविधा स्मृता।।
             ‘‘जब अन्याय, व्यसन तथा युद्ध के लिये तत्पर व्यक्ति से सामना हो तो कुशल पुरुष के लिये उसकी उपेक्षा करना ही एक मार्ग है।’’
              अकायसज्जमानस्तु विषयान्धीकृतेक्षणः।
                 कीचकस्तु विराटेन हन्यतामित्युपेक्षितः।।
           ‘‘जब अकार्य में फंसे होने के साथ ही जिसके नेत्र विषयासक्ति में अंधे हो रहे हो रहे थे उस कीचक की जब द्रोपदी बुरी दृष्टि पड़ी भीमसेन ने उसका वध कर दिया। उसे मरता देख राजा विराट ने उपेक्षा का भाव दिखाया और चुप बैठे रहे।’’
            अनेक लोग सवाल करते हैं कि आजकल के मनोरंजन के साधनों के दुष्प्रभाव से आखिर किस प्रकार बचा जाये? दरअसल हमारे अंदर जब मनोरंजन, उत्सकुता और द्वंद्व देखने की इच्छा का भाव चरम पर होता है तब उपेक्षा करने की प्रवत्ति समाप्त हो जाती है। इसका कारण यह है कि हम बहिमुर्खी होने के कारण यह चाहते हैं कि हमारी आंखों के सामने हमेशा कुछ न कुछ चलता रहे। इसका लाभ लोग उठाते हैं जिनका लक्ष्य ही मनुष्य मन का हरण करना है। इससे बचने का उपाय यह है कि थकान या ऊब होने पर ध्यान लगाकर अपने मन पर नियंत्रण किया जाये। जिन लोगों ने ध्यान की कला को नहीं समझा वह शायद यह पढ़कर हंसेंगे कि इससे हम अपने मन को विराम देकर जो मनोरंजन प्राप्त कर सकते हैं वह अन्यत्र संभव नहीं है। यह विराम जहां संसार के विषयों के प्रति उपेक्षा का भाव पैदा कर मन को शांति प्रदान करता है वहीं तन और मन की थकावट को भी हरता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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