Sunday, December 6, 2009

संत कबीरदास वाणी-पांच तत्वों और तीन गुणों के आगे मुक्ति धाम (paanch tatva teen gun-hindu dharm sandesh)

पांच तत्व गुन तीन के, आगे मुक्ति मुकाम
तहां कबीरा घर किया, गोरख दत्त न राम
संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि पांच तत्वों और तीन गुणों से आगे तो मुक्ति धाम है। जहां हमने अपना घर बनाया है गोरख, दत्तात्रय और राम में कोई भेद नहीं रह जाता।
मैं लागा उस एक सों, एक भया सब माहिं।
सब मेरा मैं सबन का, तहां दूसरा नांहि।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मैं तो केवल उस एक परमात्मा के साथ लगा हुआ था। वह सभी में समाया हुआ है। इसलिये मैं सभी का हूं और सब मेरे हैं। कोई दूसरा नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-संत कबीरदास जी न केवल हिन्दी भाषा के वरन् भारतीय अध्यात्म के सबसे पुख्ता स्तंभ माने जाते हैं। उनकी रचनायें न केवल भाषा वरन् अध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। सबसे बड़ी बात यह कि उनके दोहों का अर्थ नहीं बल्कि भावार्थ समझने की आवश्यकता है। वह कहते हैं कि यह संसार पांच तत्वों प्रथ्वी, अग्नि, जल, आकाश और वायु से निर्मित हुआ है। इसका संचालन तीन गुणों-सात्विक, राजस तथा तामस-से ही होता है। सच तो यह है कि उन्होंने अपने दोहों में उस विज्ञान की चर्चा भी की है जो श्रीमद्भागवत गीता में बताया गया है। हम लोग अक्सर मेरा, मैं मुझे शब्दों के फेरे में पड़े रहते हैं और यह नहीं जानते कि यह देह तो पांच तत्वों से बनी हैं जिसमें परमात्मा से बिछड़ा आत्मा ही वास करता है। वही हम हैं और अगर दृष्टा की तरह अपनी देह को देखें तो पायेंगे कि हमारे रहन सहन तथा विचारों का आधार उसमें स्थित मन बुद्धि और अहंकार की प्रकृत्तियों से बनता है। खान पान तथा लोगों की संगत का हमारी देह पर बाहरी तथा आंतरिक दोनों दृष्टि से प्रभाव पड़ता है। आप देखिये जिस देह को हम आग पानी तथा वायु से बचाते हैं उसे अंत में जलाते है या फिर वह जमीन में गाढ़ दी जाती है। यह सब हमारे परिजन और सहयोगी देखते हैं पर क्या जीवित व्यक्ति के मामले में यह संभव है? यकीनन नहीं! इसका सीधा मतलब यह है कि आत्मा रूपी पंछी के निकल जाने के बाद यह देह एक बिना काम का पिंजरा रह जाता है जिसे दूसरा कोई रखना नहीं चाहता।
यहां अमर होकर कोई नहीं आया। इसके बावजूद लोग जीवन भर इस सत्य जानते हुए भी भ्रम में रहते हैं। कहने को तो कहा जाता है कि कि जीवन में कर्म तो करना ही है। यह सच भी है पर हमारे अध्यात्मिक दर्शन का मानना है कि उनमें लिप्त नहीं होना है। हमारे कर्म का परिणाम हमारे सामने आता है पर हम उसे समझ नहीं पाते। हम कर्तापन के अहंकार में यही सोचते हैं कि हमने यह और वह किया। हाथ, पांव,नाक,कान तथा अन्य इंद्रिया अपना काम कर रही हैं न कि हम! इन इंद्रियों का संचालन भी तीनों गुण ही करते हैं फिर इसमें हमारी यानि आत्मा की भूमिका कहां है? यह जगत मिथ्या है तो देह भी। अगर यह देह है तो इस जगत में कर्म भी करना है। हां, इसके साथ ही योगासन, प्राणायाम, ध्यान, तथा मंत्र जाप के साथ भक्ति भी करनी है ताकि हम अपनी आत्मा को देखकर पहचाने और जीवन में एक दृष्टा की तरह रहें। उससे जीवन का आनंद दोगुना हो जाता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anantraj.blogspot.com
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