Friday, April 30, 2010

रहीम संदेश-मनुष्य नाचता है कठपुतली की तरह (manushya kathputli hai-rahim sandesh)

ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपुने हाथ
कविवर रहीम कहते हैं कि जैसे नट कठपुतली को नचाता है वैसे ही मनुष्य को उसके कर्म नाच करने के लिऐ बाध्य करते हैं। जिन्हें हम अपने हाथ समझते हैं वह भी अपने नियंत्रण में नही होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जब हम  रहीम के दोहे देखते हैं तो सोचते हैं  कि इस संत ने जीभर कर जीवन का आनंद लिया होगा क्योंकि उन्होंने जीवन के रहस्यों को समझ लिया और भ्रमों से परे रही । किसी प्रकार के भ्रम में नहीं जीना ही मनुष्य की पहचान है और रहीम हमेशा सत्य के साथ जिये।  अज्ञानी लोग किस तरह भ्रम में जीवन गुजरते हैं   यह उनके दोहे पढ़कर समझा जा सकता है। सभी लोग और आपको कर्ता समझते है जबकि सभी जीवों का शरीर पांच तत्वों से बना वह पुतला है जिसमें तीन प्रकृतियां-मन, बुद्धि और अहंकार -अपना काम करती हैं। आंख है तो देखेगी, कान है तो सुनेंगे, नाक है तो सूंघेगी, पांव है तो चलेंगे और हाथ हैं तो हिलेंगे। मन विचार करता है, बुद्धि योजना बनाती है और अहंकार उकसाता है। हम सोचते हैं कि हम करते हैं जबकि हम तो एक तरह से सोये हुए हैं। अपने आपको देखते ही नहीं। हमारी आत्मा तो परमार्थ से प्रसन्न होती है पर हम अपने कर्मों के अधीन होकर स्वार्थ में लगे रहते हैं जबकि यह काम तो हमारी इंद्रियां तब भी करेंगी जब इन पर नियंत्रण करेंगे। मतलब हम जो कर रहे हैं वह तो करेंगे ही पर जो हमें करना चाहिए परमार्थ वह करते नहीं। सत्संग और भक्ति केवल दिखावे की करते है। कुल मिलाकर कठपुतली की तरह नाचते रहते हैं।
हमने काम, क्रोध,.मोह, लोभ, तथा अहंकार का भाव नाचता है पर हम सोचते हैं कि हम अपने विवेक से चल रहे हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति तथा भौतिक संपन्नता को जीवन का ध्येय बना लेते  हैं।
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Tuesday, April 27, 2010

रहीम संदेश-समय कभी एक जैसा नहीं रहता (samay ms saman nahit rahta-rahim ke dohe)

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय
सदा रहे नहिं एक सौ, का रहीम पछिताय
कविवर रहीम कहते हैं कि समय आने पर अपने अच्छे कर्मों के फल की प्राप्ति अवश्य होती है। वह सदा कभी एक जैसा नहीं रहता इसीलिये कभी बुरा समय आता है तो भयभीत या परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।
समय परे ओछे बचन, सब के सहे रहीम
सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम
कविवर रहीम कहते हैं कि बुरा समय आने पर तुच्छ और नीच वचनों का सहना करना पड़ा। जैसे भरी सभा में देशासन ने द्रोपदी का चीर हरण किया और शक्तिशाली भीम अपनी गदा हाथ में लिए रहे पर द्रोपदी की रक्षा नहीं कर सके।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में सभी के पास कभी न कभी अच्छा समय आता है ऐसे में अपना काम करते रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है। आजकल लोग जीवन में बहुत जल्दी सफलता हासिल करने को बहुत आतुर रहते हैं और कुछ को मिल भी जाती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है।
कई लोग जल्दी सफलता हासिल करने के लिये ऐसे मार्ग पर चले जाते हैं वहां उन्हें शुरूआत में बहुत अच्छा लगता है पर बाद में वह पछताते है।
यह सही है कि कुछ लोगों के लिये जीवन का संघर्ष बहुत लंबा होता है पर उन्हें अपना धीरज नहीं खोना चाहिए। कई बार ऐसा लगता है कि हमें जीवन में किसी क्षेत्र मे सफलता नहीं मिलेगी पर सत्य तो यह है कि आदमी को अपने अच्छे कर्मों का फल एक दिन अवश्य मिलता है।
जिस तरह दिन रात हैं और धूप छांव है वैसे ही जीवन में समय का फेर आता है। कभी दुःख तो कभी सुख की अनुभूति के साथ ही जीवन आगे बढ़ता है। जब आदमी तकलीफ में होता है तो संसार वाले उसका मजाक बनाते हुए कटु वचन तक कहते हैं। जब आदमी शक्तिशाली होता है तब सभी उसके सामने नतमस्तक होते हैं। ऐसे में जीवन में आये हर पल को सहजता से स्वीकार करना चाहिए।
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Saturday, April 24, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-भंवरा मरने के लिये ही हाथी के कान में ध्वनि करता है (hathi aur bhavra-kautilya darshan)

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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स्निग्धदीपशिखालोकविलेभितक्लिचनः।
मृत्युमृच्छत्य सन्देहात् पतंगः सहसा पतन्।।

     हिन्दी में भावार्थ-दीपक की स्निग्ध शिखा के दर्शन से जिस पतंगे के नेत्र ललचा जाते हैं और वह उसमें जलकर जान देता है। यह रूप का विषय है इसमें संदेह नहीं है।

गन्धलुब्धो मधुकरो दानासवपिपासया।
अभ्येत्य सुखसंजवारां गजकर्णझनज्झनाम्||

     हिन्दी में भावार्थ-गंध की वजह से लोभी हो चुका दान मद रूपी आसव पीने की इच्छा करने वाला भंवरा सुख का अनुभव कराने वाली झनझन ध्वनि हाथी के कान के समीप जाकर मरने के लिये ही करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में रहकर विषयों से परे तो रहा नहीं जा सकता। देह तथा मन की क्षुधायें इस बात के लिये बाध्य करती हैं जीवन में निरंतर सक्रिय रहा जाये। विषयों से परे नहीं रहा जा सकता पर उनमें आसक्ति स्थापित करना अपने लिये ही कष्टकारक होता है। यही आसक्ति मतिभ्रष्ट कर देती है और मनुष्य गलत काम कर बैठता है।
सच बात यह है कि पेट देने वाले ने उसमें पड़ने वाले अन्न की रचना भी कर दी है पर मनुष्य का यह भ्रम है कि वह इस संसार के प्राणियों द्वारा ही दिया जा रहा है। जो ज्ञानी लोग दृष्टा की तरह इस जीवन को देखते हैं वह विषयों से लिपटे नहीं रहते। कथित रूप से अनेक संत मनुष्यों को विषयों से परे रहने का उपदेश जरूर देते हैं पर स्वयं भी उससे मुक्त नहीं हो पाते। दरअसल विषयों से दूर रहने की आवश्यकता नहंी बल्कि उनमें लिप्त नहीं होना चाहिये। अज्ञानी लोग आसक्ति वश ऐसे काम करते हैं जिनमें उनकी स्वयं की हानि होती है। धनी, बाहूबली, तथा उच्च पदारूढ़ लोगों के पास जाकर चाटुकारिता इस भाव से करते हैं जैसे कि कोई उन पर मुफ्त में कुपा करेगा। नतीजा यह होता है कि उनके हाथ निराशा हाथ लगती है और कभी कभी तो अपमानित भी होना पड़ता है।
      इस संसार में सुंदर दिखने वाली हर चीज एक दिन पुरानी पड़ जाती है। सुखसुविधाओं के साधन चाहे जितने जुटा लो एक दिन कबाड़ में बदल जाते हैं। अलबत्ता यह साधन मनुष्य को आलसी बना देते हैं जो समय आने पर मनुष्य को तब शत्रु लगता है जब विपत्ति आती है क्योंकि उनका सामना करने का सामर्थ्य नहीं रह जाता। अतः जीवन की इन सच्चाईयों को समझते हुए एक दृष्टा की तरह समय बिताना चाहिये।संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior http://anant-shabd.blogspot.com
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Thursday, April 22, 2010

मनुस्मृति-वेद मंत्रों के जाप से इच्छित फल प्राप्त होता है (manu smriti-ved mantra ka jap)

इदं शरणमज्ञानामिदमेव विजानताम्।
इदमन्विच्छतां स्वर्गमिदमानन्त्यमिच्छताम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य ज्ञानी हो या अज्ञानी वेद मंत्रों को जपने से उसे इच्छित फल प्राप्त होता है। उसी तरह इनके जाप से स्वर्ग की इच्छा करने वालो को स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा करने वाले को मोक्ष प्राप्त करता है।
अधियज्ञं ब्रह्म जपेदाधिदैविकमेव च।
आध्यात्मिकं च सतत। वेदान्ताभिहितं च यत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
वेदों में वर्णित यज्ञ तथा पूजा से संबंधित, आत्मा के विषय में संबंधित तथ वेदांत से संबंधित मंत्रों का धार्मिक मनुष्य को हमेशा जाप करते रहना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वेदों का विषय बहुत व्यापक है। यह किसी एक काल में नहीं लिखे गये और न ही उनका कोई एक रचनाकार है। वेदों में उस हर कथन को स्थान दिया गया है जो विद्वानों द्वारा व्यक्त किया गया है। अतः अनेक जगह विरोधाभास है। इसके अलावा विभिन्न विद्वानों द्वारा अपनी तात्कालिक मनस्थिति क अनुसार प्रस्तुत विचारों के कारण वर्तमान समय में वह अप्रासंगिक भी दिखार्इ्र देते हैं। एक तरफ वेदों में दूसरों से कर्ज लेने का विरोध किया गया है तो वहीं चार्वाक ऋषि द्वारा कर्ज लेकर घी पियो जैसा संदेश भी दिखाई देता है-यह अलग बात है कि कुछ लोग उसका मजाक उड़ाते हैं पर उसका रहस्य कम लोग ं ही समझ पाये।
कहा जाता है कि वेदों में अस्सी फीसदी श्लोक सकाम भक्ति (अर्थात स्वर्ग दिलाने का लाभ)तथा बीस प्रतिशत मोक्ष (निष्काम भक्ति) से संबंधित हैं। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वर्ग से प्रीति रखने वाले वेदवाक्यों का उल्लंघन करने का संदेश देते हैं। समाज ने जिस तरह श्रीमद्भागवत गीता को स्वीकार किया उससे केवल बीस फीसदी वेदवाक्य ही उपयुक्त रह जाते हैं। उसके अलावा भी दैहिक जीवन सुविधा से गुजारने के लिये उसमें अनेक मंत्र है जिनके जाप से इस भौतिक संसार में लाभ होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि श्रीमद्भागवत ने सभी जाति, वर्ण, तथा स्त्री पुरुष में भेद से दूर रहने का संदेश दिया है इसलिये जाति, वर्ण तथा स्त्रियों के विषय में जो विरोधाभासी कथन है उनका महत्व अब नहीं रह गया है। भारतीय अध्यात्म दर्शन के विरोधी अभी भी उन संदेशों को गा रहे हैं जबकि श्रीमद्भागवत गीता ने उनके उल्लंधन करने का आदेश दिया गया है और समाज भी ऐसे विरोधाभासी संदेशों से दूर हो गया है। अतः आलोचकों की परवाह न करते हुए अपने जीवन के लिये उपयुक्त वेदमंत्रों का जाप करते रहना चाहिये जिनसे मन को शांति के साथ ही इच्छित फल भी प्राप्त होता है।
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Sunday, April 18, 2010

संत कबीर वाणी-खोटी हाट में गांठ का हीरा न खोलें (sant kabir vani-heera aur hat)

हीरा परखै जौहरी, शब्दहि परखै साध।
कबीर परखै साधु को, ताका मता अगाध।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि हीरे की परख जौहरी करता है तो शब्द की परख साधु ही कर सकता है। जो साधु को परख लेता है उसका मत अगाध हो हो जाता है।
हीरा तहां न खोलिए, जहं खोटी है हाट।
कसि करि बांधो गांठरी, उठि करि चलो वाट।
संत शिरोमणि कबीर दास जी के मतानुसार हीरा वहां न खोलिये जहां दुष्ट लोगों का वास हो। वहां तो अपनी गांठ अधिक कस कर बांध लो और वह स्थान ही त्याग दो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यहां कबीर दास जी अपनी बात व्यंजना विधा में कह रहे हैं-भारतीय अध्यात्म ग्रंथों की यह खूबी रही है कि उसमें व्यंजना विधा में बहुत कुछ लिखा गया है।
सामान्य अर्थ तो इसका यह है कि आपके पास अगर धन या अन्य कीमती सामान है तो उसे वहां कतई न दिखाओ जहां दुष्ट या बेईमान लोगों की उपस्थिति का संदेह हो। दूसरा यह कि आप अपने ज्ञान और भक्ति की चर्चा वहां न करें जहां केवल सांसरिक विषयों की चर्चा हो रही हो। इसके अलावा उन लोगों से अपनी भक्ति के बारे में न बतायें जो केवल निंदात्मक वचन बोलते हैं या दूसरों में दोष देखते हैं।
आजकल तो यह देखा जा रहा है कि अनेक कथित शिक्षित लोग अपने आपको आधुनिक ज्ञानी साबित करने के लिये भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का मजाक उड़ाते हैं। आप उनको कितना भी समझायें वह समझेंगे नहीं। अतः ऐसे लोगों के सामने जाकर अपने ज्ञान या भक्ति की चर्चा करना सिवाय समय नष्ट करने के अलावा कुछ नहीं है। ऐसे लोगों से किसी भी प्रकार की चर्चा अपने मन तथा विचारों में तनाव पैदा कर सकती है। अतः सत्संगी लोगों के साथ ही विचार विमर्श करना चाहिए।
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Saturday, April 17, 2010

मनुस्मृति-तस्करों और करचोरों को कठोर दंड दिया जाये (manusmriti-taskar air karchoron ko dand)

राज्ञः प्रख्यातभाण्डानि प्रतिधिद्धानि यानि च।
तानि निर्हरतो लोभार्त्स्वहारं हरेन्नृपः।।
हिन्दी में भावार्थ-
अगर राज्य का कोई बेईमान व्यावसायी राजा के निजी पात्रों व विक्रय के लिये प्रतिबंधित पात्रों को लोभवश दूसरे स्थान पर जाकर व्यापार करता है तो उसकी सारी संपत्ति अपने नियंत्रण में कर लेना चाहिए।
शुल्कस्थानं परिहन्नकाले क्रयविक्रयी।
मिथ्यावादी संस्थानदाष्योऽष्टगुणमत्ंययम्।
हिन्दी में भावार्थ-
यदि कोई व्यवसायी या व्यक्ति कर न देकर अपना धना बचाता है, छिपकर चोरी की वस्तुओं को खरीदता और बेचता है, मोल भाव करता है एवं माप तौल में दुष्टता दिखाता है तो उस पर बचाये गये धन का आठ गुना दंड देना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह देखकर आश्चर्य होता है कि भारत के प्राचीन ग्रंथों का जमकर विरोध होता है। देश में जिस तरह व्यवसाय और अपराध का घालमेल हो गया है उसे देखकर तो ऐसा लगता है जैसे कि तस्करी, करचोरी तथा अन्य गंदे धंधे करने वाले लोग अपने ही चेले चपाटों से इन ग्रंथों विरोध कराते हैं क्योंकि उनमें अपराध के लिये कड़े दंड का प्रावधान है। राज्य द्वारा प्रतिबंधित वस्तुओं का व्यापार तथा कर चोरी करने वालों के लिये यह दंड डराने का काम करते हैं। जिस तरह आजादी के बाद देश में अपराधिक व्यापार बढ़ा है और गंदे धंधों में पैसा अधिक आने लगा है उसे देखकर लगता है कि जैसे धनवानों और बुद्धिमान लोगों का एक गठजोड़ बन गया है जो आधुनिक सभ्यता के नाम पर मानवीय दंडों की अपने ढंग से व्याख्या करता है।
तस्करी, जुआ, सट्टा तथा अवैध शराब के कारोबार करने वालों के पास जमकर धन आता है। इसके अलावा करचोरों के लिये तो पूरा विश्व स्वर्ग हो गया है। उदारीकरण के नाम पर एक देश से दूसरे देश में धन लगता है जिनके बारे आर्थिक विशेषज्ञ यह संदेह करते हैं कि वह अपराध से ही अर्जित है। विदेशी धन का अर्जन की स्त्रोत कोई नहीं पूछता और समझदार व्यवसायी अपने देश में विनिवेश करता नहीं है। आधुनिक सभ्यता में अवैध व्यापार तथा धन की प्रधानता हो गयी है इसका कारण यही है कि मानवता के नाम पर अनेक अपराधों को हल्का मान लिया गया है तो समाज सेवा और धर्म के नाम पर छूट भी दी जाने लगी है। जिनके पास धन है उनके पास बुद्धिजीवी चाटुकारों की सेना भी है जो भारतीय धर्म ग्रंथों में वर्णित कठोर दंडों से भयभीत अपने स्वामियों को खुश करने के लिये उसके कुछ ऐसे श्लोकों और दोहों का विरोधी करती है जो समय के अनुसार अप्रासंगिक हो गये हैं और समाज में उनकी चर्चा भी कोई नहीं करता।
मनुस्मृति का विरोध तो जमकर होता है। जैसे जैसे समाज में अवैध धनिकों की संख्या बढ़ रही है वैसे वैसे ही भारत के वेदों के साथ ही मनुस्मृति का विरोध बढ़ रहा है। स्पष्टतः यह ऐसे धनिकों के बुद्धिजीवियों द्वारा प्रायोजित है जो तस्करी, करचोरी, तथा सट्टा जुआ तथा अन्य कारोबार से जमकर धन कमा रहे हैं। ऐसे में स्वतंत्र और मौलिक बुद्धिजीवियों का यह दायित्व बनता है कि वह अपने प्राचीन धर्म ग्रंथों के अप्रासंगिक विषयों को छोड़कर वर्तमान में भी महत्व रखने वाले तथ्यों को मानस पटल पर स्थापित करने का प्रयास करें। यह जरूरी नहीं कि मनुस्मृति या वेदों का विरोध करने वाले सभी प्रायोजत हों पर इतना तय है कि उनमें ऐसे कुछ लोग सक्रिय हो सकते हैं जो जाने अनजाने उनका हित साधते हों।
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Friday, April 16, 2010

मनुस्मृति-जुआ और सट्टा राष्ट्र में डकैती के समान (juaa aur satta desh ke liye bura-manu smruti)

प्रकाशमेतत्तास्कर्य यद्देवनसुराहृयौ।
तयोर्नित्यं प्रतीवाते नृपतिर्यत्नवान्भवेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
द्युत और समाहृय (जुआ और सट्टा)दिनदहाड़े डकैती के समान माने जाने चाहिए। यह देवता और असुर दोनों का विनाश कर देते हैं। अतः राज्य को इन पर रोक लगाने का प्रयास करना चाहिए।
एते राष्ट्रे वर्तमाना राज्ञः प्रच्छन्नतस्कराः।
विकर्म क्रियवानित्य वाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः।
हिन्दी में भावार्थ-
जुआ तथा सट्टे में लोग राज्य के लिये एक तरह से प्रच्छन्न डाकू की तरह होते हैं। इससे खिलाड़ियों में शत्रुता बढ़ती है। अतः विवेकवान लोगो को ऐसे खेलों से दूर रहना चाहिए जिसमे जुआ या सट्टा खेला जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पश्चिम की आधुनिक सभ्यता को शायद यहां लाया ही इसलिये आ गया है कि यहां की प्राचीन संस्कृति, संस्कार तथा राजकीय नीति को विलोपित कर असुरों का राज्य कायम किया जाये। पश्चिम के अनेक देशों में जुआ और सट्टा वैध माना जाता है। इतना ही नहीं अनेक शहर तो अपने जुआघरों के कारण ही विश्व में लोकप्रिय हैं। इससे पूंजीपति वर्ग आसानी से पैसा कमाता है। यही कारण है कि धीरे धीरे भारत के प्राचीन ग्रंथों के संदेशों को अप्रासंगिक कहकर उनको आम शिक्षा से बाहर कर दिया गया। विदेशों की विचारधारायें यह लायी गयी जो कि मनुष्य में आत्म नियंत्रण पैदा करने की बजाय उसे डंडे के जोर पर नियंत्रित करने की प्रवर्तक हैं। राज्य के लिये वैचारिक स्वरूप कैसा भी हो पर उसमें ईमानदारी का कोई स्थान नहीं रह गया है। ऐसा लगता है कि विदेशी आक्रांता यहां पहले चरित्र को तहस नहस कर यहां के लोगों का आर्थिक दोहन करने के लिये ऐसे विचारक लाये जो आम आदमी को केवल हाथ उठाकर भगवान की तरफ ताकने के लिये प्रेरित करे रहे और समाज सुधार और कल्याण का जिम्मा राज्य पर छोड़ दिया। कहने को तो कहते हैं कि मुगल और अंग्रेज यहां पर आधुनिक सभ्यता लाये पर सच यह है कि इनके आने के बाद इस देश में शोषण, जुआ तथा हिंसा की मनोवृत्ति बढ़ी है क्योंकि उसके बाद ही भारत के प्राचीन ग्रंथों से यहां के लोगों के विरक्त करने की योजनायें बनीं
आजकल तो हालत यह है कि अनेक खेलों में सट्टे का बोलाबाला हो गया है। टेनिस, फुटबाल, कार रेस, घुड़दौड़, कुश्ती तथा क्रिकेट में अनेक बार सट्टे की बात सुनाई देती है। अनेक विदेशी खिलाड़ी तो स्वयं ही सट्टा चलाने वाली कंपनियों से जुड़े हैं। हैरानी की बात यह है कि भारत में उनकी पैठ हो गयी है। जुआ और सटटे के लिये मनुस्मृति में कठोर प्रावधान है और शायद इसलिये ही इसके कुछ विवादास्पद श्लोक(कुछ लोग मानते हैं कि वह मनु द्वारा रचित नहीं है) रटकर सुनाये जाते हैं कि उसमें महिलाओं, दलितों तथा अन्य कमजोर वर्गों के लिये अपमान भरा पड़ा है ताकि लोग इसे पढ़कर यह न समझें कि जुआ और सट्टा कितने बड़े अपराध है। आधुनिक शिक्षा के बाद जिस तरह भारत में अपराध बढ़े हैं उससे तो यही लगता है कि उसको जारी रखने के लिये वह वर्ग प्रयत्नशील है जो बुरे धंधों में लिप्त रहकर आसानी से पैसा कमाना चाहता है। सट्टा और जुआ को डकैती जैसा जुर्म माना गया है पर पाश्चात्य सभ्यता को अंगीकार कर चुका हमारा समाज उसे एक फैशन मानकर उसके दुष्परिणामों से अनभिज्ञ हो गया है।
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Thursday, April 15, 2010

मनुस्मृति-गायत्री मंत्र का जाप सुबह शाम करना चाहिए (manu smirit-gyatri mantra ka jaap)

पूर्वी संध्या जपंस्तिष्ठनैशमेनो व्यपोहति।
पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम्।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रातःबेला में गायत्री मंत्र का जाप करने से रात्रिभर के तथा सायंकाल में जाप करने से दिन भर के पाप नष्ट होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-गायत्री मंत्र की हमारे भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में बहुत महिमा है। यह गायत्री मंत्र इस प्रकार है
ॐ  भूर्भवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
इसका हिन्दी में अनुवाद है कि ‘हम उस देवस्वरूप, दुःखनाशक तथा सुखस्वरूप परमात्मा को अपने हृदय में धारण करें जो हमारा मार्ग प्रशस्त करें।’
इस श्लोक को संस्कृत में कहने के बाद हिन्दी में भी कहा जा सकता है। श्रीमद्भागवत गीता में गायत्री मंत्र की को सर्वोत्तम बताया गया है। इसके अलावा शब्दों में ॐ (ओम) शब्द को सबसे पवित्र बताया गया है। अधिकतर लोग मंत्रों का महत्व नहीं समझते। अनेक लोग मंत्रों के जाप को जादू टाईप की सिद्धियों से जोड़ते हैं। यह उनका एक वहम है। ओम शब्द या गायत्री मंत्र के जाप से मनुष्य के मन में शुद्धि होती है तथा जीवन में काम करने के प्रति आत्मविश्वास बढ़ता है। जब मन शुद्ध होता है तब बौद्धिब तीक्ष्णता तथा आत्मबल की वृद्धि होने पर सारे काम स्वयं ही सिद्ध होते हैं और इसमें जादू जैसा कुछ नहीं है। मुख्य बात संकल्प करने की है। जैसा संकल्प होता है वैसे ही मनुष्य की जिंदगी होती जाती है।
इसलिये ओम शब्द तथा गायत्री मंत्र का जाप सुबह शाम अवश्य करना चाहिये। मनुष्य न भी चाहे तो पंचभूत के वशीभूत उसकी देह से कुछ आप अनजाने हो ही जाते हैं। जिनका निवारण इन मंत्रों से हो जाता है।
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Wednesday, April 14, 2010

मनुस्मृति-धर्म की हत्या करने वाले का नाश होता है

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नोधर्मोहतोऽवधीत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य धर्म की हत्या करता है, धर्म उसका नाश करता है। इसलिये धर्म की रक्षा करना चाहिए ताकि हमारी रक्षा हो सके।
यद्राष्टं शूद्रभूयिष्ठं नास्तिकाक्रान्मद्धजम्।
विनश्यत्याशु तत्कृत्प्नं दुर्भिक्षव्याधिपीडितम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस राज्य में आस्तिक विद्वानों के स्थान पर निम्न कोटि तथा नास्तिक लोगों की अधिकता के साथ उनका प्रभाव होता है वह शीघ्र ही भुखमरी तथा रोग आदि जैसी प्राकृतिक विपत्तियों का शिकार हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- धर्म की नाम से कोई पहचान नहीं है, बल्कि उसका आधार कर्म समूह है। अपना कर्म करते हुए परमात्मा की भक्ति निष्काम भाव से करना, गरीब, मजदूर तथा लाचार के प्रति सम्मान का भाव रखना, किसी भी काम को छोटा नहीं समझना, दूसरों पर निष्प्रयोजन दया करना तथा अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए जीवन व्यतीत करना वह लक्षण है जो धर्म के कर्मसमूह का मुख्य भाग है।
जो मनुष्य लोभ, लालच, क्रोध तथा अहंकार वश दूसरे व्यक्ति को कष्ट पहुंचाता है उसे अंततः उसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है। कहने का अभिप्राय यह है कि अगर हम सत्कर्म करते हुए अपना धर्म निभायेंगे तो वह हमारी रक्षा करेगा। इसके विपरीत अधर्म का मार्ग पकड़ेंगे तो वह तबाही की तरफ ले जायेगा। कहा जाता है कि ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ यह वाक्य धर्म का मूल मंत्र है तो अधर्म का भी। अगर सत्कर्म करेंगे तो वह धर्म होगा जिसका परिणाम अच्छा होगा और अगर दुष्कर्म करेंगे तो वह अधम्र है जिसकी सजा भी जरूर मिलेगी।
जिस समाज या राष्ट्र में धार्मिक विद्वानों को संरक्षण नहीं मिलता वहां लालची, लोभी तथा अहंकारी लोग अपना नियंत्रण कायम कर लेते हैं। नास्तिक लोग अपनी ताकत वहां दिखाते हैं। एक तरफ नास्तिक दुनियां में भगवान के न होने की बात करते हैं तो दूसरी तरफ वह कथित रूप से गरीब तथा बेबस लोगों के हित की बात करते हैं। उनका लक्ष्य इस आड़ में अपना प्रभाव करने के अलावा अन्य कुछ नहीं होता। जब वह भगवान को नहीं मानते तो फिर किसको खुश करने के लिये किसी भी प्रकार का सत्कर्म करते हैं। तय बात है कि उनका लक्ष्य केवल शक्ति प्राप्त कर उसका दुरुपयोग करना ही होता है। जहां धर्मज्ञ तथा सत्पुरुषों को हतोत्साहित कर अच्छे काम करने से उनको उन्मुख किया जाता है वहां नास्तिक लोग समाज हित का दिखावा करते हुए नियंत्रण कायम कर लेते हैं और फिर उनसे जीतना कठिन हो जाता है।
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Monday, April 12, 2010

भर्तृहरि शतक-जब तक काम का हमला न हो तभी तक रहती है सज्जनता (sex and religion-hindi sandesh)

संसार! तव पर्यन्तपदवी न दवीयसी।
अन्तरा दुस्तराः न स्युर्यदि ते मदिरेक्षणा।।
हिन्दी में भावार्थ-
यहां भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि ‘ओ संसार, तुझे पार पाना कोई कठिन काम नहीं था अगर मदिरा से भरी आखों में न देखा होता।
तावन्महत्तवं पाण्डितयं केलीनत्वं विवेकता।
यावज्जवलति नांगेषु हतः पंचेषु पावकः।।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी भी मनुष्य में सज्जनता, कुलीनता, तथा विवेक का भाव तभी तक रहता है जब उसके हृदय में कामदेव की ज्वाला नहीं धधकी होती। कामदेव का हमला होने पर पर सारे अच्छे भाव नष्ट हो जाते है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीमद्भागवत गीता में लिखा हुआ है कि ‘गुण ही गुणों में बरतते है।’ इस सूत्र में बहुत बड़ा विज्ञान दर्शन अंतर्निहित हैं। इस संसार में जितने भी देहधारी जीव हैं सभी को रोटी और काम की भूख का भाव घेरे रहता है अलबत्ता पशु पक्षी कभी इसे छिपाते नहीं पर मनुष्यों में कुछ लोग अपने को सचरित्र दिखने के लिये अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण का झूठा दावा करते है। सच तो यह है कि पंचतत्वों से बनी इस देह मे तन और मन दोनों प्रकार की भूख लगती है। भूख चाहे रोटी की हो या कामवासना की चरम पर आने पर मनुष्य की बुद्धि और विवेक को नष्ट कर देती है। मनुष्य चाहे या नहीं उसे अपनी भूख को शांत रखने का प्रयास करना पड़ता है। जो लोग दिखावा नहंी करते वह तो सामान्य रूप से रहते हैं पर जिनको इंद्रिय विेजेता दिखना है वह ढेर सार नाटकबाजी करते हैं। देखा यह गया है कि ऐसे ही नाटकबाज धर्म के व्यापार में अधिक लिप्त हैं और उन पर ही यौन शोषण के आरोप लगते हैं क्योंकि वह स्वयं को सिद्ध दिखाने के लिये छिपकर अपनी भूख मिटाने का प्रयास करते हैं और अंतत: उनका रास्ता अपराध की ओर जाता है।
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Saturday, April 10, 2010

मनुस्मृति-क्रोध आने पर भी डंडा न उठायें (manu smriti-krodh par kabu rakhen)

परस्यं दण्डं नोद्यच्छेत्क्रुद्धोनैनं।
अन्यत्र पुत्राच्छिष्याद्वा शिष्टयर्थ ताडयेत्तु तौ।।
हिन्दी में भावार्थ-
कभी क्रोध भी आये तब भी किसी अन्य मनुष्य को मारने के लिये डंडा नहीं उठाना चाहिये। मनुष्य केवल अपने पुत्र या शिष्य को ही पीटने का हक रखता है।
ताडयित्त्वा तृपोनापि संरम्भान्मतिपूर्वकम्।
एकविंशतिमाजातोः पापयेनिषु जायसे।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपनी जाग्रतावस्था में जो व्यक्ति अपने गुरु या आचार्य को तिनका भी मारता है तो वह इक्कीस बार पाप योनियों में जन्म लेता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। अनेक बार यह क्रोध इतना बढ़ जाता है कि मनुष्य स्वयं ही अपने अपराधी को दंड देने के लिये तैयार हो जाता है। यह अपराध है। किसी भी मनुष्य को दंड देने का अधिकार केवल राज्य के पास है। मनुष्य केवल अपने शिष्य या पुत्र को पीट सकता है। अन्य व्यक्ति को सजा दिलाने के लिये उसे राज्य या अदालत की शरण लेना चाहिए। दूसरी बात यह है कि किसी भी व्यक्ति से वाद विवाद होने पर अपने पास कोई अस्त्र या शस्त्र नहीं रखना चाहिये क्योंकि जब क्रोध आता है तब उसकी उपस्थिति के कारण वह अपना विवेक खो बैठता है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि जब आदमी के पास अन्य पर प्रहार करने वाली कोई वस्तु होती है तो वह क्रोध आने पर उसका उपयोग कर ही बैठता है। अगर वह अपने पास वैसी वस्तु ही न रखे तो वह स्वयं ही एक ऐसे अपराध से बच जाता है जिसके करने पर बाद में पछतावा होता है।
अगर हम अपने आसपास हो रही हिंसक घटनाओं को देखें तो वह होती इसी कारण है क्योंकि मनुष्यों के पास हथियार होता है और उनका उपयोग अनावश्यक रूप से हो जाता है जबकि मामला शांति से भी सुलझ सकता था। अतः दूसरे व्यक्ति पर क्रोध होने पर अपने पास डंडा या हथियार होने पर भी उसके उपयोग से बचना चाहिए।
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Friday, April 9, 2010

मनुस्मृति-वेदों की निंदा न करें (ved ninda n karen-manu smruti in hindi)

नास्तिक्यं वेदनिंदा च देवतानां च कुत्सनम्।
द्वेषं दम्भं च मानं च क्रोधं तैक्ष्ण्यं च वर्जयेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
भगवान के अस्तित्व पर अविश्वास, वेदों की निंदा, देवताओं का अपमान, अन्य लोगों से शत्रुता तथा विरोध रखना, पाखंड, अहंकार, क्रोध तथा स्वभाव में उग्रता होना ऐसे दोष हैं जिनका त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
न पाणिपादचपलो नेत्रचपलोऽनृजुः।
न स्वाद्वाक्वंपलश्चैव न परद्रोहकर्मधीः।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने शरीर और आंखों को अकारण नहीं मटकाना चाहिये। स्वभाव से कुटिल तथा दूसरों की निंदा करने वाला भी नहीं बनना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में कुछ लोगों को केवल इसलिये ही प्रसिद्धि मिली है क्योंकि वह वेदों की निंदा करते हैं। इससे भी अधिक यह बात कि करते हो वह सभी धाार्मिक विचाराधाराओं के सम्मान की बात पर भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों-खासतौर से वेद-की आलोचना करने के अलावा उनको कोई काम नहीं है। विदेशों में पनपी धार्मिक विचाराधाराओं की आलोचना में उनको घबड़ाहट होती है और तब वह सभी धार्मिक विचाराधाराओं के सम्मान का नारा लगाकर बचकर निकल लेते हैं। यह हमारे समाज की कमजोरी है कि यहां निंदा और स्तुति में ही लोग अपना समय खराब करते हैं। एक तो वह है जो स्वयं करते हैं दूसरे वह लोग हैं जो स्वयं ही इन कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।
मुख्य बात यह है कि आप किसी भी धार्मिक विचारा धारा को माने या सभी को अस्वीकार कर दें पर आपको किसी के ग्रंथ पर टीका टिप्पणियां नहीं  करना चाहिए। उसी तरह किसी के इष्ट का मजाक उड़ाना भी भारी पाप है। आप भगवान के किसी स्वरूप का न माने पर अपने आपको नास्तिक बताकर अपनी श्रेष्ठता न बघारें-यह पाखंड, अहंकार और मक्कारी की श्रेणी में आता है। संभव है कि किसी के सामने उसके इष्ट की आप निंदा करें तो उसे क्रोध में आकर अपमानित करे। तब आप भी क्रोध में आयेंगे।
सच बात तो यह है कि नास्तिकता तथा आस्तिकता का विचार अपने मन में रखने लायक है। दोनों ही स्थितियों में जब आप उसे बाहर व्यक्त करते हैं तो इसका आशय यह है कि आप अहंकार तथा पाखंड का शिकार हो रहे हैं। ऐसी बुराई को त्याग करना ही श्रेयस्कर है ताकि समाज में वैमनस्य न फैले। कहा भी जाता है कि धर्म एकदम निजी विषय है इसलिये उसके बारे में जो विचार है उनकी अभिव्यक्ति करना ढोंग करने जैसा ही है।
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Wednesday, April 7, 2010

श्रीगुरु ग्रंथ साहिब-दहेज में केवल हरि का नाम दान दें (dahej men hari ka nam-shriguru granth sahib)

‘हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
दहेज प्रथा पर ही प्रहार करते हुए यह भी कहा गया है कि
होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
इसका आशय यह है कि ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो मिटने नहीं चाहे कोई भी धर्म हो? समाज कथित रूप से इसी पर इतराता है।
इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने यहां धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं।
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Sunday, April 4, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-शत्रुओं पर दंड का प्रयोग अवश्य करें (kautilya darshan-shatru aur dand)

उत्साहदेशकालेस्तु संयुक्तः सुसहायवान्।
युधिष्ठिर इवात्यर्थ दण्डेनास्तन्रयेदरन्।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने अंदर उत्साह का निर्माण तथा देश काल का ज्ञान प्राप्त करते हुए बलवान युधिष्ठर के समान शत्रु को परास्त करें।
आत्मनः शक्तिमुदीक्ष्य दण्दमभ्यधिकं नयेत्।
एकाकी सत्वसंपन्नो रामः क्षत्रं पुराऽवधीत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपनी शक्ति को देखते हुए दण्ड का प्रयोग अवश्य करना चाहिये। शक्ति संपन्न होने पर ही अकेले परशुराम ने इक्कीस बार क्षत्रियों को नष्ट किया था।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर सामान्य मनुष्य शांति से जीवन बिताना चाहता है पर मनुष्यों मे भी कुछ तामस प्रवृत्ति के होते हैं जिनका दूसरे व्यक्ति को परेशान करने में मजा आता है। ऐसे दुष्टों का सामना जीवन में करना ही पड़ता है। आजकल पूरे विश्व में आतंकवाद और अन्य अपराध इसलिये फैल रहे हैं क्योंकि राजकाज से जुड़े व्यक्तियों में उनका सामना करने की इच्छा शक्ति नहीं है। अधिकतर देशों में आधुनिक लोकतंत्र है। राजशाही में कहा जाता था कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’ पर आधुनिक लोकतंत्र में तो यह कहा जाना चाहिये कि ‘जैसी प्रजा वैसा ही राज्य’। एक तरफ हम कहते हैं कि भारत में अंग्रेजों की शिक्षा ऐसी रही जिससे यहां का आदमी कायर हो गया तो दूसरी तरफ हम देखते हैं कि इसी शिक्षा पद्धति को अपनाने वाले ब्रिटेन और अमेरिका में भी कोई अधिक अच्छी स्थिति नहीं है। सच बात तो यह है कि इस विश्व में खतरा दुष्टों की हिंसा से अधिक सज्जनों की कायरता के कारण बढ़ा है। लोग अपनी रक्षा के लिये न तो प्रारंभिक सतर्कता बरतते हैं और न ही चालाकी कर पाते हैं। दूसरी बात यह है कि दुष्टों के कमजोर होने के बावजूद उनके विरुद्ध कदम उठाने से घबड़ाते हैं।
यदि सभी यह चाहते हैं कि विश्व में शान्ति  का वर्चस्व रहे और लोग आजादी से सांस ले सकें तो दुष्टों का संहार तो करना ही पड़ेगा। उनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही करना जरूरी है ताकि सज्जन लोगों में आत्म विश्वास आये। जो लोग राजकाज से जुड़े हैं उनको यह बात समझ लेना चाहिये कि दुष्ट व्यक्तियों या राष्ट्रों के विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही के बिना अपनी राज्य की प्रजा को सुखी नहीं रखा जा सकता और न ही उसका विश्वास मिल सकता है।
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Saturday, April 3, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-उपाय करने से सफलता मिलती है

सहस्त्रात्पृलुत्य दुष्टेभ्यो दुष्करं सम्पदर्ज्जनम्।
उपायेन पदं मूघर्िल् न्यस्यते मतहस्तिनाम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
हजार दुष्टों पर आक्रमण कर भी संपत्ति प्राप्त करना कठिन है पर उपाय किया जाये तो मतवाले हाथी पर भी अपना पैर रखा जा सकता है।
वाळ्मानमयः खण्डं स्कन्धनैवापि कृन्तति।
तदल्पमपि धारावभ्दवतीप्सितसिद्धये।।
हिन्दी में भावार्थ-
कोई मनुष्य कंधे पर बोझा ले जाता है पर वह उसे नहीं काटता पर अगर वह धारवाले लोहे को छू भी ले तो खरोंच आ जाती है। इतना ही नहीं धारवाले से किसी की भी गर्दन काटी जा सकती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या--जीवन संघर्ष में बहुत बार मनुष्य को अपने धीरज का परिचय देना होता है। किसी व्यक्ति से विवाद होने पर या कोई संकट सामने आने पर अपनी धीरज कभी नहीं खोना चाहिए। उतावले पन से अपना कार्य या अन्य के साथ व्यवहार करने पर हमेशा आशंका रहती है। बांहों की शक्ति की बजाय वैचारिक अभ्यास के आधार पर अपने कार्य का उपाय ढूंढना चाहिये। अगर सही ढंग से लादा जाये तो आदमी अपने कंधे पर पेड़ खींचकर ले जाता है पर अगर उसी पर बैठकर डालियां काटी जाये तो अपने गिरने का खतरा भी रहता है। किसी एक पेड़ की लकड़ी से इंसान को मारा भी जा सकता है पर जबकि किसी एक पूरे पेड़ को युक्ति पूर्वक घसीटा भी जा सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि किसी लक्ष्य या अभियान को पूर्ण करने के लिये आर्थिक, दैहिक तथा बौद्धिक शक्ति होेते हुए भी उसका योजना पूर्वक उपयोग करने पर ही सफलता मिल सकती है। जहां अतिआत्मविश्वास में सीधे अपना काम शुरु कर दिया वहां सफलता का दावा नहीं किया जा सकता। अतः अपने शिक्षा, व्यवसाय तथा रचनाकर्म के दौरान उत्तेजना अथवा जल्दबाजी से काम करने की बजाय योजना के साथ आगे बढ़ना चाहिए।
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Friday, April 2, 2010

चाणक्य नीति-विद्वान एकाग्रता से अपना काम स्वयं करते हैं (kam aur dhyan-chankya neeti)

इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकायणि साधयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
ज्ञानी मनुष्य को बगुले की तरह एकाग्रता के साथ अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए अपनी शक्ति के अनुसार ही अपना काम करना चाहिये।
प्रभूतं कार्यमल्पं वा यन्नरः कर्तुमिच्छति।
सर्वारम्भेण तत्कार्य सिंहादकं प्रचक्षते।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य को चाहिये कि वह सिंह की तरह किसी कार्य को छोटा या बड़ा न मानकर अपनी पूरी शक्ति से अपना दायित्व संपन्न करे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वैसे तो किसी भी चालाक या धूर्त व्यक्ति को बगुला भगत कहकर उसका अपमान किया जाता है। बगुले को धूर्तता का प्रतीक भी माना जा सकता है, पर लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उसकी एकाग्रता और धीरज का गुण मनुष्य को अपनाना चाहिये। समय बलवान है इसलिये हर मनुष्य को अपने संक्रमण काल में भी पथभ्रष्ट न होते हुए अपना धैर्य बनाये रखना चाहिये। लक्ष्य पवित्र हो और उस पर से अपनी दृष्टि तब तक न हटायें जब तक वह प्राप्त न हो जाये। आजकल संक्षिप्त मार्ग अपनाने की जो प्रवृत्ति निर्मित होती है वह आत्मघाती है और उससे कोई बड़ी सफलता नहीं मिल पाती।
उसी तरह किसी काम को छोटा या निम्न कोटि का नहीं समझना चाहिये। इतना ही नहीं किसी भी प्रकार के श्रम करने वाले व्यक्ति को भी छोटा नहीं मानना चाहिये। सिंह तो सिंह है पर वह हर काम स्वयं ही करता है। किसी का झूठा नहीं खाता-उसके बारे में कहा जाता है कि वह अपना शिकार कर ही भोजन खाता है। उसी तरह हर मनुष्य को चाहिये कि वह अपना काम स्वयं करे। सच बात तो यह है कि स्वयं काम करने से जीवन में आत्मविश्वास बढ़ता है। जो व्यक्ति श्रम से बचते हैं वह धीरे धीरे भय तथा कुंठा का शिकार हो जाते हैं।
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Thursday, April 1, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-विष के प्रतिदिन दर्शन से मन कलुषित होता है (hindi adhyamik gyan sandesh-vish darshan)

चकोरस्य विरज्येत नयने विषदर्शनात्।
सुव्यक्तं माघति क्रोंचो प्रियते कोकिलः किल।
हिन्दी में भावार्थ-
विष को देखने मात्र से चकोर पक्षी की आंख लाल हो जाती है और कोकिल तो मृत्यु के गाल में ही समाज जाता है।
नित्यं जीवस्य च ग्लानिर्जायते विषदर्शनात्।
एषामन्यतमेनापि समश्नीयत्परीक्षितम्।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रतिदिन विष को देखने से ही मन में ग्लानि हो जाती है इसलिये इनके सहयोग से भोजन की परीक्षा करें।
वर्तमानं संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कौटिल्य का अर्थशास्त्र राजाओं के लिये लिखा गया है पर एक बात याद रखने लायक है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में व्यंजना विद्या में ही विषय प्रस्तुत किया जाता है जिससे हर वर्ग के मनुष्य के लिये उसका कोई न कोई अर्थ निकले। उनके राजा और प्रजा के लिये समान अर्थ हैं पर उनका भाव प्रथक हो सकता है। हर मनुष्य कहीं न कहीं राजा या प्रमुख पद पर प्रतिष्ठत होता है। आखिर परिवार भी तो राज्य की तरह चलते हैं। यहां कौटिल्य महाराज के विष को अन्य विषयों के साथ व्यापक रूप में लेना चाहिये।
यह विष खाने के साथ अन्य सांसरिक विषयों से संबंधित भी है। कुछ विषय विष प्रदान करते हैं-जैसे परनिंदा, ईर्ष्या तथा दूसरे का दुःख देकर मन में हंसना। कुछ ऐसे स्थान भी होते हैं जहां जाकर हमारा मन खराब होता है। उसी तरह कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनसे मिलने पर हमारे अंदर विकार पैदा होते हैं जिससे दुष्कर्म करने की प्रेरणा आती है। कहने का अभिप्राय यह है कि मन में विष पैदा करने वाले विषयों से संपर्क नहीं रखना चाहिये।
इसलिये समय समय पर आत्म मंथन अवश्य करते हुए यह देखना चाहिये कि कौनसे व्यक्ति, विषय या स्थान हमारी मनस्थिति को डांवाडोल करते हैं। जहां तक हो सके उनसे दूर रहें। प्रतिदिन उनसे संपर्क रखने से न केवल अपना मन कलुषित होता है जिससे जीवन में आचरण में कलुषिता आती है और जो अंततः कर्ता के लिये ही संकट का कारण बनती है। जहां मन में प्रसन्नता रूपी अमृत मिलता हो वहीं जाना चाहिये। जिससे हृदय में पवित्रता, निर्मलता तथा दृढ़ता का भाव बना रहे उन्हीं विषयों की संगति करना ही उचित है। जिनसे विष का अनुभव हो उनसे दूर रहना ही अच्छा है।
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