Sunday, January 31, 2010

मनु स्मृति-धर्म धारण करना है, दिखाना नहीं (manu smriti in hindi -religion and men)

दुषितोऽपि चरेद्धर्म यत्रतत्राश्रमे रतः।
समः सर्वेषु भूतेशु न लिंगे धर्मकारणम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे घर में हो या आश्रम में शास्त्रों के ज्ञाता को चाहिए कि सामान्य प्राणियों के दोषों से ग्रसित होने पर भी सभी को समान दृष्टि से देखे। वह धर्म का अनुसरण करते हुए अपना व्यवहार हमेशा शुद्ध रखे पर उसका प्रदर्शन न करे-अभिप्राय यह है कि धर्म का वह पालन करे पर और उसका दिखावा करने से दूर रहे।
फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम्।
न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति।।
हिन्दी में भावार्थ-
निर्मली का वृक्ष जल को शुद्ध करता है भले ही उसकी जानकारी सभी को नहीं है। उसका नाम लेने से जल शुद्ध नहीं होता बल्कि वह स्वयं उपस्थित होकर जल शुद्ध करता है। उसी प्रकार धर्म की जानकारी होना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उसे अन्य जीवों का कल्याण कर प्रमाणित करना चाहिए। नाम लेने से आदमी धार्मिक नहीं हो जाता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे समाज में धर्म का दिखावा करने वालों की संख्या बहुत है पर उस अमल कितने लोग करते हैं यह केवल ज्ञानी लोग ही देख पाते हैं। अगर समूचे भारतीय समाज पर दृष्टिपात करें
तो पूजा, पाठ, तीर्थयात्रा, सत्संग तथा दान करने वाले लोगों की संख्या बहुत दिखाई देती है पर फिर नैतिक और सामाजिक आचरण में निरंतर गिरावट होती दिख रही है। लोग धार्मिक पुस्तकों के ज्ञान की चर्चा करते हुए एक दूसरे को सिखाते खूब हैं पर सीखता कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। लोग दान करते हैं पर कामना के भाव से-उनका उद्देश्य समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करना होता है या फिर प्राप्तकर्ता के कथित आशीर्वाद की चाहत उनके मन में होती है और इसी कारण कारण कुपात्र को भी दान देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म का दिखावा कोई धार्मिक व्यक्ति होने का प्रमाण नहीं है।
उसी तरह धर्म के रक्षा के नाम पर विश्व में अनेक लोग तथा संगठन बन गये हैं-उनका उद्देश्य केवल अपने लिये धन तथा प्रतिष्ठा अर्जित करना होता है न कि वास्तव में सामाजिक कल्याण करना। धर्म नितांत एक निजी विषय है न कि अपने मुंह से कहकर सुनाने का। जिस व्यक्ति को यह प्रमाणित करना है कि वह धार्मिक प्रवृत्ति का है उसे चाहिये कि वह दूसरों की सहायता कर उसे प्रमाण करे। कुछ लोग धर्म के नाम हिंसा को उचित ठहराने का प्रयास करते हैं। अपने घर की रक्षा करने की कर्तव्य क्षमता तक उनमें होती नहीं और धर्म के नाम पर धन और अस्त्र शस्त्र के संचय में लगकर वह हिंसा के व्यापारी बन जाते हैं- राम तथा बगल में छुरी रखने वालों की पहचान इसी तरह की जा सकती है कि कौन आदमी वास्तव में किसका भला करता है और कौन कितना उसकी आड़ में अपना व्यापार करता है।  
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Saturday, January 30, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अकारण उत्पन्न शत्रु से निपटने की चुपके से योजना बनायें (kautilya ka arthshastra in hindi)

कारणाकरणाक्रुद्धान्बुध्येत स्वपरिग्रहे।
पापानकारणक्रुद्धां द्धांतस्तूष्र्णी दण्डेन साधयेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
जो दुष्ट लोग अपने परिवार के कारण या अकारण क्रोध के वशीभूत होकर शत्रु बनते हैं उनसे निपटने के लिये उपाय चुपचाप करें।
ये तु कारणतः क्रुद्धास्तान्वान्वशी कृत्य संवेसेत्।
शमयेद्दानमानाभ्या छिद्रंच परिपूरयेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
अन्य कोई सज्जन मनुष्य अपने ही किसी कारण से क्रोधित हो गये हों उन्हें अपने वश में करने का उपाय कर उनके शत्रु भाव का दमन करें। दान और मान देकर उनका क्रोध शांत करें अपने लिये उत्पन्न विरोध रूपी छिद्र को बंद करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-व्यवहार कुशल मनुष्य कभी भी शत्रु बनाने में दिलचस्पी नहीं रखते। वह ऐसे कारणों से परे रहते हैं जिससे अन्य मनुष्य उनके शत्रु बनें। वह प्रशंसनीय है पर इस धरती पर सभी कुछ मनुष्यों की इच्छा से नहीं चलता। यहां ऐसे मूर्ख भी है जो अकारण बैर लेते हैं। राह चलते हुए बुद्धिमान आदमी को हिंसा से परे रहने वाला जानकर उस पर शाब्दिक हमला कर अपनी श्रेष्ठता और शक्ति का प्रदर्शन करने उनका आनंद आता है। उनकी यह बदतमीजी असहनीय होती है। ऐसे अकारण बने शत्रु या विरोधी चाहते हैं कि बुद्धिमान आदमी उतावली में अपना धीरज खोकर अपनी बेवकूफी का परिचय दे। उनके जाल में नहीं फंसने वाला ही वास्तव में बुद्धिमान है। ऐसे अकारण उत्पन्न हुए शत्रु या विरोधी से निपटने की चुपके से योजना बनाते हुए समय आने पर अपना असली रूप अवश्य दिखाना चाहिये। ऐसे मूर्ख लोग कभी न कभी विपत्ति में फंसते हैं तब उनसे बदला अवश्य लेना चाहिये ताकि समय ठीक होने पर वह पुनः आक्रमण का विचार भी न करे।
उसी तरह अगर किसी बुद्धिमान सज्जन पुरुष को हमसे नाराजी हो तो उसे प्रसन्न करना चाहिये भले ही उसे कुछ धन या सम्मान देना पड़े। कहा जाता है कि बुद्धिमान की बाहें लंबी होती हैं और समय आने पर जब वह बदला लेता है तो हाथों के तोते उड़ जाते हैं।
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Tuesday, January 26, 2010

मनु स्मृति-कारीगर का हाथ सदैव शुद्ध होता है (hand of workers,always good-manu smruti)

नित्यं शुद्धः कारुहस्तः पण्ये यच्च प्रसारितम्।
ब्रह्मचारिगतं भैक्ष्यं नित्यं मेध्यमिति स्थितिः।
हिन्दी में भावार्थ-
शास्त्रों के अनुसार कारीगर का हाथ, बाजार में बेचने के लिये रखी गयी वस्तु तथा ब्रह्मचार को दी गयी भिक्षा सदा ही शुद्ध है।
नित्यमास्यं शुचिः स्त्रीणां शकुनि फलपातने।
प्रस्त्रवे च शुचर्वत्सः श्वा मृगग्रहणे शुचिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
नारियों का मुख, फल गिराने के लिये उपयेाग में लाया गया पक्षी, दुग्ध दोहन के समय बछड़ा तथा शिकार पकड़ने के लिये उपयोग में लाया गया कुत्ता पवित्र है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में पाश्चात्य सभ्यता के अनुसरण ने लोगों के दिमाग में श्रम की मर्यादा को कम किया है। आधुनिक सुख सुविधाओं के उपभोग करने वाले धनपति मजदूरों और कारीगरों को हेय दृष्टि से देखते हैं। उनके श्रम का मूल्य चुकाते हुए अनेक धनपतियों का मुख सूखने लगता है। जबकि हमारे मनु महाराज के अनुसार कारीगर का हाथ हमेशा ही शुद्ध रहता है। इसका कारण यह है कि वह अपना काम हृदय लगाकर करता है। उसके मन में कोई विकार या तनाव नहीं होता। यह शुद्ध भाव उसके हाथ को हमेशा पवित्र तथा शुद्ध करता रहता है। भले ही सिर पर रेत, सीमेंट या ईंटों को ढोते हुए कोई मजदूर पूरी तरह मिट्टी से ढंक जाता है पर फिर भी वह पवित्र है। उसी तरह मैला ढोले वालों का भले ही कोई अछूत कहे पर यह उनका नजरिया गलत है। मैला ढोले वाले के हाथ भले ही गंदे हो जाते हैं पर उसके हृदय की पवित्रता उनको शुद्ध रखती है।
जो लोग मजदूरों, कारीगरों या मैला ढोले वालों को अशुद्ध समझते है वह बुद्धिहीन है क्योंकि श्रमसाध्य कार्य करना एक तो हरेक के बूते का नहीं होता दूसरे उनको करने वाले अत्यंत पवित्र उद्देश्य से यह करते हैं इसलिये उनके हाथों को अशुद्ध मानना या उनकी देह को अछूत समझना अज्ञानता का प्रमाण है।
यहां बाजार में रखी वस्तु के शुद्ध होने से आशय यह कतई न लें कि हम चाहे जो भी वस्तु रखें वह पवित्र ही होगी। दरअसल इसका यह भी एक आशय है कि आप जो चीज बेचने के लिये रखें वह पवित्र और शुद्ध होना चाहिये।
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Sunday, January 24, 2010

संत कबीर दास-हृदय में समान भाव से ही शीतलता की अनुभूति संभव (shitalta ki anubhuti-kabir vani)

सीतलता तब जानिये, समता रहै समाय।
विष छोड़ै निरबिस रहै, सब दिन दूखा जाय।।
संत शिरोमणि कबीरदास के अनुसार अपने हृदय में शीतलता तभी अनुभव कर सकते हैं जब मन वचन तथा प्रत्येक कर्म के प्रति समता का भाव मन में आ जाये। अपने अंदर यह दृढ़ भाव रखते अहंकार रूप विष का त्याग कर देना चाहिये भले ही हमारे दिन दुःख में बित रहे हों।
खोद खाद धरती सहै, काट कूट बनराय।
कुटिल वचन साधू सहै, और से सहा न जाय।
संत कबीरदास जी का कहना है कि इस धरती पर कितने भी फावड़े चलाओ पर सहन कर जाती है। कितने भी कुल्हाड़े चलाओ पर वन सह जाते हैं। उसी प्रकार दुर्जनों के वचन साधु और संत सह जाते हैं जबकि  अज्ञानी पुरुष वाद विवाद करने लगते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर व्यक्ति चाहता है कि उसका हृदय शांत रहे पर ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि अंदर अहंकार का विष इस तरह रहता है जो कभी भी सहजत का अमृत पान नहीं करने  देता।  हमारे अंदर किसी व्यक्ति या कर्म के छोटे बड़े होने का आभास इस कदर रहता है जो स्वयं के लिये कष्टकारक होता है।  कोई व्यक्ति छोटा है उसकी उपेक्षा करनी है और कोई काम छोटा है उसे करने से हम छोटे हो जायेंगे-यह सोच हमारे अंदर अनेक प्रकार के तनावों को जन्म देता है।   अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने समाज में अनेक तरह के भेद पैदा कर दिये हैं-मंत्री, अधिकारी, लिपिक और चपरासी, उच्च, निम्न, अमीर तथा गरीब जैसी संज्ञाओं को अपने साथ चिपकाये लोग हमेशा अपने भविष्य को लेकर आशंकित रहते हैं।  समाज में पहले से भी अनेक प्रकार के भेद है जिस कारण आपसी वैमनस्य रहता है। भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर बने समाज अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में जीते हैं।  यही कारण है कि लोगों में तनाव बढ़ रहा है।
हृदय में शीतलता का भाव तो आदमी तब अनुभव करे जब उसे इस बात का ज्ञान हो कि यह मायावी संसार है और वह स्वयं ही अपनी दैहिक आवश्यकताओं के अधीन है।  वह जान ले कि इंद्रियों के अपने गुण हैं जिनसे वह संचालित हैं।  छोटा बड़ा मनुष्य तो होता ही नहीं क्योंकि यह तो माया का खेल है-किसी के पास कम है तो किसी के पास ज्यादा।  उसी तरह हम बुद्धि से करें या श्रम से, कोई भी काम हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये है।  हमें दिमागी काम के साथ ही शारीरिक श्रम भी करना चाहिये।  इसके विपरीत अगर हम भेदात्मक बुद्धि धारण करते हैं तो वह हमारे लिये ही  चिंता का कारण बनेगा। जहां हमने सोचा कि हम बड़े हैं वहां छोटे होने का भय सतायेगा और जब हम अपने को श्रेष्ठ समझेंगे तो अपनी छवि धूमिल हो की आशंका घेर लेगी। इससे बचने का एक ही उपाय है कि जीवन में सहरसता का भाव धारण करें।
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Saturday, January 23, 2010

रहीम के दोहे-प्रेम का पंथ अत्यंत कठिन (love and life-rahim ke dohe in hindi)

प्रेम पंथ ऐसी कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं।
रहिमन मैन-तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माहिं।।
कविवर रहीम जी का कहना है कि प्रेम का पंथ इतना कठिन है कि उस पर हर कोई नहीं चढ़ सकता। कामदेव के घोड़े पर सवारी कर अग्नि के मध्य यात्रा करने जैसा होता है।
बड़ माया को दोष यह, जो कबहूं घटि जाय।
तो रहीम मरिबो भलो, दुख सहि जिय बलाय।
कविवर रहीम के मतानुसार माया अत्यंत चंचला है। कभी मनुष्य के पास बढ़ती है तो कभी घट जाती है। जब मनुष्य के पास माया का भंडार अत्यंत अल्प होता है तो दुख इतना असहनीय लगता है कि उसे मृत्यु ही श्रेयस्कर प्रतीत होती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-उर्दू शायरी और अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव हमारे देश में अधिक ही रहा है जिनमें दैहिक संबंधों में ही प्रेम तलाशा जाता है। दरअसल यह प्रेम केवल स्त्री और पुरुष संबंधों में इर्द गिर्द ही केंद्रित होता है पर यह वासना का प्रतीक भी है। इसमें जब तक कामदेव का प्रभाव है तब तक तो सभी अच्छा लगता है पर जैसे ही वासना शांत होने लगती है वैसे ही वह संबंध अग्नि की तरह जलाने लगते हैं जो कथित प्रेम करने के कारण बने थे। इस प्रेम के कारण अनेक युवक युवतियां प्रेम विवाह तो कर लेते हैं पर जब घर गृहस्थी चलाने की बात आती है तो दोनों का प्रेम हवा हो जाता है। कहीं कहीं प्रेम विवाह होने के कारण समाज और परिवार से समर्थन नहीं मिलता तो मुश्किल हो जाती है। समाज और परिवार की उपेक्षा कर प्रेम विवाह करना आसान है पर गृहस्थी के लिये उनका समर्थन न मिलने पर मुश्किल हो जाती है। कहने का अभिप्राय है कि यह प्रेम दैहिक है और सच्चा प्रेम केवल परमात्मा से किया जा सकता है पर मुश्किल यही है कि सांसरिक विषय इस तरह उलझाये रहते हैं कि मनुष्य अन्य जीवों के प्रेम को ही वास्तविक समझने लगता है।
खेलती माया है और आदमी सोचता है कि ‘मैं खेल रहा हूं’। धन आता है तो सभी को लगता है कि हमारे प्रताप से आ रहा है पर जब जाता है तो तमाम तरह के दर्द छोड़ता है। माया को कोई पकड़ नहीं पाया। आम मनुष्य माया के पीछे दौड़ता है और माया आगे चलती है। संतों के पीछे माया जाती है। उनकी सेविका बनकर उनको इस तरह लुभाती है कि वह उसको स्वामिनी हो जाती है और फिर वह भी उसके पीछे भागते हैं। सच है यह माया महाठगिनी है।
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Sunday, January 17, 2010

भर्तृहरि शतक-इष्ट,भार्या,घर तथा मित्र एक होना चाहिये (god,wife,house and friend-hindi lekh)

एको देवः केशवो वा शिवो वा ह्येकं मित्रं भूपतिवां यतिवां।
एको वासः पत्तने वने वा ह्येकं भार्या सुन्दरी वा दरी वा।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य को अपना आराध्य देव एक ही रखना चाहिये भले ही वह केशव हो या शिव। मित्र भी एक ही हो तो अच्छा है भले ही वह राजा हो या साधु। घर भी एक ही होना चाहिये भले ही वह जंगल में हो या शहर में। स्त्री भी एक होना चाहिये भले ही वह वह सुंदरी हो या अंधेरी गुफा जैसी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में दुःख बहुत हैं पर सुख कम। भले लोग कम स्वार्थी अधिक हैं। इसलिये अपनी कामनाओं की सीमायें समझना चाहिये। हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो एक ही निरंकार का प्रवर्तन करता है पर हमारे ऋषियों, मुनियों तथा विद्वानों साकार रूपों की कल्पना इसलिये की है ताकि सामान्य मनुष्य सहजता से ध्यान कर सके। सामन्य मनुष्य के लिये यह संभव नहीं हो पाता कि वह एकदम निरंकार की उपासना करे। इसलिये भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिव तथा अन्य स्वरूपों की मूर्ति रूप में स्थापना की जाती है। मुख्य ध्येय तो ध्यान के द्वारा निरंकार से संपर्क करना होता है। ध्यान में पहले किसी एक स्वरूप को स्थापित कर निरंकार की तरफ जाना ही भक्ति की चरम सीमा है। अतः एक ही रूप को अपने मन में रखना चाहिये चाहे वह राम जी हो, कृष्ण जी हों या शिव जी।
उसी तरह मित्रों के संचय में भी लोभ नहीं करना चाहिये। दिखाने के लिये कई मित्र बन जाते हैं पर निभाने वाला कोई एक ही होता है। इसलिये अधिक मित्रता करने पर कोई भी भ्रम न पालें। अपने रहने के लिये घर भी एक होना चाहिये। वैसे अनेक लोग ऐसे हैं जो अधिक धन होने के कारण तीर्थो और पर्यटन स्थलों पर अपने मकान बनवाते हैं पर इससे वह अपने लिये मानसिक संकट ही मोल लेते हैं। आप जिस घर में रहते हैं उसे रोज देखकर चैन पा सकते हैं, पर अगर दूसरी जगह भी घर है तो वहां की चिंता हमेशा रहती है।
उसी तरह पत्नी भी एक होना चाहिये। हमारे अध्यात्मिक दर्शन की यही विशेषता है कि वह सांसरिक पदार्थों में अधिक मोह न पालने की बात कहता है। अधिक पत्नियां रखकर आदमी अपने लिये संकट मोल लेता है। कहीं तो लोग पत्नी के अलावा भी बाहर अपनी प्रेयसियां बनाते हैं पर ऐसे लोग कभी सुख नहीं पाते बल्कि अपनी चोरी पकड़े जाने का डर उन्हें हमेशा सताता है। अगर ऐसे लोग राजकीय कार्यों से जुड़े हैं तो विरोधी देश के लोग उनकी जानकारी एकत्रित कर उन्हें ब्लेकमेल भी कर सकते हैं। कहने का अभिप्राय यही है कि अपना इष्ट, घर, मित्र और भार्या एक ही होना चाहिये।
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Saturday, January 16, 2010

संत कबीर वाणी-दूसरे के अच्छे लक्षणों की प्रशंसा करें (achche lakshno ki prashansa karen-kabir wani)

सातो सागर मैं फिर, जम्बुदीप दै पीठ।
परनिंदा नाहीं करै, सो कोय बिरला दीठ।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि मैं सारा संसार फिरा पर ऐसा कोई नहीं मिला जो परनिंदा न करता हो। ऐसा तो कोई विरला ही होता है।
काहू को नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय।
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय।।
संत कबीरदास का कहना है कि चाहे व्यक्ति अच्छा हो या बुरा उसकी निंदा न करिये। इसमें समय नष्ट करने की बजाय उस आदमी की बार बार प्रशंसा करिये जिसके लक्षण साधुओं की तरह हों।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य का स्वभाव है परनिंदा करना। सच बात तो यह है कि हर मनुष्य अपने घर संसार के कामों में व्यस्त रहता है पर यह चाहता है कि लोग उसे भला आदमी कहें। ऐसा सम्मान तभी प्राप्त हो सकता है जब अपने जीवन से समय निकालकर कोई आदमी दूसरों का काम करे और सुपात्र को दान देने के साथ ही असहाय की सहायत के लिये तत्पर रहे। यह काम विरले ही लोग करते हैं और सामान्य मनुष्य उनको फालतु या बेकार कहकर उनकी अनदेखी करते हैं अलबत्ता उनको मिलने वाली इज्जत वह भी पाना चाहते हैं। ऐसे में होता यह है कि लोग आत्मप्रचार करते हुए दूसरों की निंदा करते हैं। अपनी लकीर खींचने की बजाय थूक से दूसरे की लकीर को छोटा करते हैं। दुनियां में ऐसे लोग की बहुतायत है पर संसार में भले लोग भी कम नहीं है। सच बात तो यह है ऐसे ही परोपकारी, दानी, ज्ञान और कोमल स्वभाव लोगों की वजह से यह संसार भले लोगों की भलाई के कारण चल रहा है। सामान्य मनुष्य तो केवल अपना घर ही चला लें बहुत है।
अधिकतर मनुष्य अपने काम में व्यस्त हैं पर सम्मान पाने का मोह किसे नहीं है। कहीं भी किसी के सामने बैठ जाईये वह आत्मप्रवंचना करता है और उससे भी उसका मन न भरे तो किसी दूसरे की निंदा करने लगता है। कबीरदास जी के कथनों पर विचार करें तो यह अनुभव होगा कि हम ऐसी गल्तियां स्वयं ही करते हैं। अतः अच्छा यही है कि खाली समय में कोई परोपकार करें या अध्ययन एवं भक्ति के द्वारा अपना मन शुद्ध करें। दूसरों की निंदा से कुछ हासिल नहीं होने वाला। हां, अगर कोई भला काम करता है तो उसकी प्रशंसा करें। एक बार नहीं बार बार करें। संभव है उसके गुण अपने अंदर भी आ जायें। याद रखिये दूसरे के अवगुणों की चर्चा करते हुए वह हमारे अंदर भी आ जाते हैं।

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Saturday, January 9, 2010

संत कबीर वाणी-प्रेम प्रसंग कभी न कभी प्रकट होते हैं (prem prasang aur samaj-kabir vani)

पर नारी पैनी छुरी, विरला बांचै कोय
कबहुं छेड़ि न देखिये, हंसि हंसि खावे रोय।
संत कबीर दास जी कहते हैं कि दूसरे की स्त्री को अपने लिये पैनी छुरी ही समझो। उससे तो कोई विरला ही बच पाता है। कभी पराई स्त्री से छेड़छाड़ मत करो। वह हंसते हंसते खाते हुए रोने लगती है।
पर नारी का राचना, ज्यूं लहसून की खान।
कोने बैठे खाइये, परगट होय निदान।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि पराई स्त्री के साथ प्रेम प्रसंग करना लहसून खाने के समान है। उसे चाहे कोने में बैठकर खाओ पर उसकी सुंगध दूर तक प्रकट होती है
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पाश्चात्य सभ्यता के प्रवेश ने भारत के उच्च वर्ग में जो चारित्रिक भ्रष्टाचार फैलाया उसे देखते हुए संत कबीरदास जी का यह कथन आज भी प्रासंगिक लगता है। फिल्मों और टीवी चैनलों के धारावाहिकों में एक समय में दो बीबियां रखने वाली कहानियां अक्सर देखने को मिलती हैं, भले ही कुछ फिल्मों में हास्य के साथ दो शादियों की मजबूरी बड़ी गंभीर नाटकीयता के साथ प्रस्तुत की जाती है पर उनका सीधा उद्देश्य समाज में चारित्रिक भ्रष्टाचारी को आदर्श की तरह प्रस्तुत करना ही होता है। फिल्म हों या टीवी चैनल उन पर नियंत्रण तो उच्च वर्ग का ही है और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को फिल्म और टीवी चैनलों के धारावाहिकों में आदर्श की तरह प्रस्तुत करने का उद्देश्य अपने धनिक प्रायोजकों को प्रसन्न करना ही होता है।
हमारे महापुरुषों ने न केवल सृष्टि के तत्व ज्ञान का अनुसंधान किया है बल्कि जीवन रहस्यों का बखान किया है। चाहे अमीर हो गरीब दो पत्नियां रखने वाला पुरुष कभी भी जीवन में आत्मविश्वास से खड़ा नहीं रह सकता। इसके अलावा पाश्चात्य सभ्यता के चलते पराई स्त्री के साथ कथित मित्रता या आत्मीय संबंधों की बात भी मजाक लगती है। यहां एक वर्ग ऐसे गलत संबंधों को फैशन बताने पर तुला है पर सच तो यह है कि पश्चिम में भी इसे नैतिक नहीं माना जा सकता। जब इस तरह के संबंध कहीं उद्घाटित होते हैं तो आदमी के लिये शर्मनाक स्थिति हो जाती है। कई जगह तो पुरुष अपनी पत्नी की सौगंध खाकर संबंधों से इंकार करता है तो कई जगह उसे सफाई देता है। भारत हो या पश्चिम अनेक घटनाओं में तो अनेक बार पति के अनैतिक संबंधों के रहस्योद्घाटन पर बिचारी पत्नी सब कुछ जानते हुए भी पति के बचाव में उतरती हैं। साथ ही यह भी एक सच है कि ऐसे अनैतिक संबंध बहुत समय तक छिपते नहीं है और प्रकट होने पर सिवाय बदनामी के कुछ नहीं मिलता। इसलिये पुरुष समाज के लिये यही बेहतर है कि वह न तो दूसरा विवाह करे न ही दूसरी स्त्री से संबंध बनाये। ऐसा करना अपराध तो है ही अपने घर की नारी का सार्वजनिक रूप से तिरस्कार करने जैसा भी है।
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Thursday, January 7, 2010

विदुर नीति-एक भी इंद्रिय में दोष होने पर बुद्धि कुंठित हो जाती है (indriya aur buddhi-vidur niti)

पंचेन्द्रियश्च मत्र्यश्च छिद्र चेदेकामिनिद्रयम्।
लतोऽस्य स्त्रवति प्रज्ञा दृतैः पात्रादिवोदकम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पांच ज्ञानेन्द्रियों वाले मनुष्य में यदि एक इंद्रिय में भी छिद्र या दोष उत्पन्न हो जाये तो उसकी बुद्धि इस प्रकार बाहर निकल जाती है, जैसे मशक के छेद से पानी।
षड् दोषाः पुरुषेणेह हात्व्या, भूतिमिच्छता।
निन्द्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिन मनुष्यों को जीवन में विकास करना है उनके नींद, तन्द्रा (बैठे बैठे सोना या ऊंधना), डर, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घसूत्रता (थोड़ समय में होने वाले काम पर अधिक देर लगाना) जैसे छह गुणों से परे होना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह देह है तो सभी कुछ है। अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा आर्थिक दायित्वों का निर्वहन करने के लिये उसका हमेशा स्वस्थ रहना जरूरी है। यदि कहीं उसमें दोष उत्पन्न हुआ तो फिर न तो मनुष्य अपने दायित्व निर्वाह कर पाता है और न ही लोग उसे सम्मान देते हैं। उल्टे वह अपने परिवार पर बोझ बन जाता है। अक्सर हम लोग कहते हैं कि हमें समय नहीं मिल पाता कुछ सोचने या करने के लिये! इसलिये व्यायाम या योग साधना नहीं कर पाते। मगर यह केवल मोह में लिप्पता का भाव है जो मनुष्य को व्यायाम से परे रखता है। जब यही देह बिगड़ती है तब चिकित्सकों के पास जाने का समय तो निकालना ही पड़ता है। जब वह आराम करने को कहता है तब घर भी बैठना पड़ता है। इससे वही लोग परेशान भी होते हैं जिनके लिये हम सदैव कुशलता चाहते हैं।
आज पूरे विश्व में भारतीय योग साधना का प्रभाव इसलिये बढ़ रहा है क्योंकि शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक शुद्धता में उससे जो सहायता मिलती है वह आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रमाणित है। सामान्य व्यायाम से अधिक कहीं अधिक योगसाधना स्थाई और लाभप्रद है। इससे अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रहता है। दरअसल इ्रद्रियों का हम उपयोग खूब करते हैं पर उनकी शुद्धता का विचार नहीं करते। जब उनमें किसी एक में दोष पैदा होता है तो हमारी बुद्धि और मन उसी में केद्रित हो जाता है और फिर दूसरा काम तब तक नहीं कर सकते जब तक उस दोष से मुक्त न हो जायें।
कहने का तात्पर्य यही है कि योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान से अपने को स्वस्थ रखने का प्रयास करना चाहिये तभी जीवन का आंनद पूरी तरह से ले सकते हैं। एक बार अगर देह में मौजूद कोई एक भी इंद्रिया दोषयुक्त हुई तो फिर जीवन में नकारात्मक प्रभाव दिखाने लगती है।
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Tuesday, January 5, 2010

संत कबीर के दोहे-दूसरे का काम करने पर ही यश मिलना संभव (sant kabir vani-propkar aur yash)

स्वारथ सूका लाकड़ा, छांह बिहना सूल।
पीपल परमारथ भजो, सुख सागर को मूल।।
संत कबीरदास जी का कहना है कि स्वार्थ तो सूखी लकड़ी के समान हैं जिसमें न तो छाया मिलती है और न ही सुख। एक तरह से वह कांटे की तरह है। इसके विपरीत परमार्थ पीपल के पेड़ के समान हैं जो सुख प्रदान करता है।
धन रहै न जोबन रहे, रहै न गांव न ठांव।
कबीर जग में जस रहे, करिदे किसी का काम।
संत कबीर दास जी कहते हैं कि एक दिन यह न धन रहेगा न यह यौवन ही साथ होगा। गांव और घर भी छूट जायेगा पर रहेगा तो अपना यश, यह तभी संभव है कि हमने किसी का काम किया हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह लोगों की गलतफहमी है कि वह भौतिक उपलब्धियों के कारण सम्मान पा रहे हैं। लोग अपनी आर्थिक उपलब्धियों, परिवार की प्रतिष्ठा और अपने कर्म का बखान स्वयं करते हैं। मजा तो तब है जब दूसरे आपकी प्रशंसा करेें और यह तभी संभव है कि आप अपने काम से दूसरे की निस्वार्थ भाव से सहायता कर उसको प्रसन्न करें।
आप कहीं किसी धार्मिक स्थान, उद्यान या अन्य सार्वजनिक स्थान पर जाकर बैठ जायें। वहां आपसे मिलने वाले लोग केवल आत्मप्रवंचना में लगे मिलेंगे। हमने यह किया, वह किया, हमने यह पाया और हमने यह दिया जैसे जुमले आप किसी के भी श्रीमुख से नहीं सुन पायेंगे।
दरअसल बात यह है कि सामान्य मनुष्य पूरा जीवन अपने और परिवार के लिये धन का संचय कर यह सोचता है कि वह सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित कर रहा है और परमार्थ करना उसके लिये एक फालतू विषय है। जब उससे धन और यौवन विदा होता है तब वह खाली बैठे केवल अपने पिछले जीवन को गाता है पर सुनता कौन है? सभी तो इसमें ही लगे हैं। इसलिये अगर ऐसा यश पाना है जिससे जीवन में भी सम्मान मिले और मरने पर भी लोग याद करें तो दूसरों के हित के लिये काम करें। जब समय निकल जायेगा तब पछताने से कोई लाभ नहीं होगा।
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