Sunday, August 28, 2011

मनुस्मृति-निर्दोष कन्या पर दोषारोपण करने वाला दंड का भागी (nirdosh kanya par dosh nahin lagana chahiye-manu smriti in hindi)

               हमारा भारतीय अध्यात्मिक दर्शन महिलाओं रक्षा तथा सम्मान को लेकर हमेशा ही संवदेनशील विचारधारा का प्रवर्तक माना जाता है। इसी कारण अनेक बुजुर्ग लोग किसी दूसरे की कन्या के दोषों की चर्चा एकांत में भी करने से कतराते हैं। इतना ही नहीं कुछ लोग तो इतने सात्विक होते है कि वह हर किसी की कन्या की मंगल कामना करते हुए यही कहते हैं कि बिटियाऐं तो सांझी होती है। इसका मतलब यह है कि कन्याओं के प्रति हमारे समाज में संवेदनशीलता इस कदर है कि किसी की बेटी पर दोषारोपण करना अपराध समझा जाता है।
             बदलते समय ने लड़कियों के प्रति संवदेनशीलता की भावना को पूरी तरह समाप्त नहीं तो क्षीण अवश्य कर दिया है। लड़कियों के खान पान और पहनावे पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करने वालों की कमी नहीं है। इसके पीछे आज के मनोरंजन के साधन ही जिम्मेदार हैंे जिनमें प्रसारित सामग्री ने नारी की लज्जा सुलभ चंचलता के स्थान पर उसके दैहिक सौदर्य को बाज़ार में लाकर नारी के सम्मान को सस्ता बना दिया है। अब तो नारी सम्मान का नारा इस कदर हमेशा लगता है कि जैसे सारा समाज ने इसे मान लिया है पर वास्तविकता यह है कि आज के भौतिकवादी ने नारी को एक तरह से भोग्य और दर्शनीय वस्तु बना दिया है जबकि वह मनुष्य समाज का पुरुष की तरह समान अस्तित्व रखने वाली जीव है।
इस विषय पर मनुस्मृति में कहा गया है
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अकन्येति तु यः कन्यां ब्रूयाद्द्वेषेण मानवः।
सः शर्त प्राप्तनुयाद्दण्डं तस्या दोषमदर्शवन्।।
     ‘‘यदि कोई मनुष्य केवल शत्रु भाव से किसी निर्दोष कन्या पर दोषापरोपण करता पर उसे साबित नहीं करता तो ऐसी स्थिति में इस अपराध के लिए दंड देना चाहिए।"
यस्तु दोषावर्ती कन्यामाख्याय प्रयच्छति
तस्य कुर्वन्नृपो दण्डं स्वयं क्षण्णवतिं पणान्।।
            ‘‘यदि कोई मनुष्य अपनी कन्या के दोष को छिपाकर उसका विवाह करने वाले व्यक्ति पर भी दंड का भागी कहलाता है।"
        वैसे स्त्री और पुरुष अपने गुणों के कारण स्वतः ही सम्मान पाते हैं पर आधुनिक शिक्षा से ओतप्रोत समाज भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से अनभिज्ञ होने के कारण गुणवान स्त्री भी उसे ही मानता है जो दिखने में सुंदर हो। वार्तालाप और व्यवहार में उच्च स्तर की अपेक्षा आजकल बहुत कम लोग करते हैं जबकि जीवन में उसका ही सबसे अधिक महत्व है। बाह्य सौंदर्य का क्षणिक होता है जबकि व्यवहार और वार्तालाप की वजह से ही जीवन की गाड़ी चलती है। इसलिये आजकल की नयी पीढ़ी को इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि वह अपने जीवन साथी के चुनाव में सतर्कता बरतें।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, August 20, 2011

मनृस्मृति-पराधीन काम प्रारंभ नहीं करना चाहिए (paradhin kam nahin karna chahiye-manu smriti)

        आजकल उधार लेकर घी पीने की प्रवृत्ति पूरे विश्व में बढ़ रही है। हमारे देश में तो भौतिकता का मायाजाल इस कदर फैला है कि अनेक लोग अपनी आय की क्षमता से अधिक ऋण लेकर फंस जाते हैं और भुगतान न करने के कारण उनका जीवन दूभर होता है। अनेक लोग तो निराशा और अवसाद में अपनी देह लीला समाप्त कर लेते हैं।
          लोग अपनी क्षमता से अधिक का लक्ष्य निर्धारित करते हैं इसलिये नाकाम होने पर विलाप करते हैं। खान पान और रहन सहन की आधुनिक वस्तुओं और साधनों के उपयोग से जहां मानव देह की क्षमता कम हुई है वहीं अधिकतर लोग अपने बड़े और जटिल लक्ष्य निर्धारित करने लगे हैं जिसमें नाकामी के अलावा कुछ नहीं मिलता।
इस विषय पर मनुस्मृति में कहा गया है कि
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यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः।
त्तप्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जवेत्।।
          ‘जिस काम को करने से मन में अशांति हो उसे तो कभी करना ही नहीं चाहिए। जिससे मन में शांति होने के साथ ही आत्मा प्रसन्न हो उसे त्वरित करने के लिये तत्पर होना बहुत अच्छा है।’’
सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।
            ‘‘अपना जो काम दूसरे के अधीन हो उनको न करना ही श्रेयस्कर है। केवल उन्हीं कार्यों को करना चाहिए जो अपने कर्म शक्ति के अधीन संपन्न हो सकते हैं।’’
        इसका सबसे अच्छा उदाहरण हम आधुनिक शिक्षा पद्धति को ले सकते हैं। छात्र छात्रायें अपनी शिक्षा इस आशा से ग्रहण करते हैं कि उनको कहीं नौकरी मिल जायेगी। अनेक लोगों को मिल भी जाती है पर सभी ऐसे अवसर नहीं पाते कि अपने स्तर के अनुकूल रोजगार प्राप्त करें। इसी कारण बेरोजगारी बढ़ रही है और अनेक युवकों की युवावस्था बीत जाती है पर उनको काम नहीं मिल पाता। इसका कारण यह है कि उनका लक्ष्य पराधीन है। वह अंधेरे में अपने तीर चलाते हैं। सभी को यही लगता है कि उनको बैठकर काम करने वाला काम मिल जायेगा। उनकी कमीज की कालर हमेशा सफेद रहेगी और पेट की तो चिंता ही नहीं रहेगी।
कहने का अभिप्राय यह है कि हमें अपने लक्ष्य अपने पर निर्भर होकर रहना चाहिए। केवल कल्पना या अनुमान में बहकर अपना काम करना हमेशा ही सुखद नहीं रहता।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Tuesday, August 16, 2011

मनुस्मृति-राज्य प्रमुख का आग्नेय व्रत (manusmriti-agneya vrat of state chief)

             हमारे देश के अनेक अर्थशास्त्री हैं जिन्होंने आधुनिक शिक्षा पद्धति के आधार पर अध्ययन कर उपाधियां प्राप्त की हैं। हमारे देश में अर्थशास्त्र विषय के अंतर्गत अधिकतर पश्चिमी विद्वानों के सिद्धांतों का अध्ययन करते हैं जबकि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में केवल भक्ति ही नहीं वरन् अर्थशास्त्र के सिद्धांतों का भी प्रतिपादन किया गया है। इसमें राज्य व्यवस्था को किस तरह प्रजा के लिये संचालित करते हुए उससे कर वसूल किया जाय यह बताया गया है। हम देख रहे हैं कि पूरे विश्व में कर की वसूली और मुद्रा प्रचलन के जो नियम हैं वह अपूर्ण हैं और इसी कारण अनेक देश संकटों का सामना करते हैं तो अनेक जगह प्रजा त्रस्त और गरीब रहती है। राज्य कर्म के लिये पद पाने के मोह में लोग राजनीति के अर्थशास्त्र के नियमों का अध्ययन नहंी करते। इसके विपरीत हमारे प्राचीन विद्वान मनु, कौटिल्य तथा चाणक्य ने राजनीति और अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की जो व्याख्या की है वह आज भी प्रासंगिक है।
हमारे महान मनीषी मनु की रचित मनुस्मृति में कहा गया है कि
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अष्टौमासान्यथादित्रूतोयं रश्मिभिः।
तथा हरेत्करंराष्ट्रान्नित्यर्कव्रतं हि तत्।।
           ‘‘राज्य प्रमुख को प्रजा से वैसे ही कर प्राप्त करना चाहिए जैसे सूर्य धरती से आठ माह तक अपनी किरणों के माध्यम से जल प्राप्त करता है।
प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः।
तथा हरेत्करंराष्ट्रान्नित्यमर्क हि तत्।।
              ‘‘राज्य प्रमुख को अपने गुप्तचरों के माध्यम से प्रजा की मनोवृत्ति की जानकारी उसी प्रकार रखनी चाहिए जिस प्रकार हवा सभी जीवों में प्रविष्ट होकर घूमती रहती है।’’
प्रतापयुक्तस्तेजस्वी नित्यं स्वात्पापकमेंसु।
दुष्टसामन्तहिंस्त्रश्च तदाग्नेयं व्रतं स्मृतम्।।
                ‘‘राज्य प्रमुख का आग्नेय व्रत यही है वह अपराधियों को दंड देने के लिये प्रतापयुक्त रहे तथा दुष्ट संपन्न लोगों के लिये हिंसक।’
           पूरे विश्व में यह देखा जा रहा है कि धनपति तथा अपराधी अपनी शक्ति के बल पर राज्य व्यवस्था को आतंकित किये रहते हैं। इसका कारण है कि राज्य कर्म के लिये पद पाने वाले न तो राजनीतिक सिद्धांतों का जानते हैं और न ही अर्थशास्त्र के नियमों का उनको ज्ञान होता है। किसी भी राज्य प्रमुख का सिंहासन प्रजा की प्रसन्नता से ही स्थिर रहता है। राज्य कर्म राजस भाव वाले लोग करते हैं उनसे सात्विकता की आशा तो नहीं करना चाहिए पर उनको भी अच्छे काम करने पर ही प्रजा से सम्मान की इच्छा करना चाहिए। राजसवृत्ति के लोग फल की आशा में ही अपना काम करते है अतः उनके लिये अपने कर्म फल का भी विचार करना आवश्यक है इतना ही नहीं जनता पर कर लगाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसका आर्थिक आधार समाप्त न हो। राज्य व्यवस्था के लिये होने वाले व्यय में मितव्ययता का प्रदर्शन करे। एक बात याद रखना चाहिए कि राज्य धर्म का पालन करने वाले ही राज्य प्रमुख को जनता भगवत् स्वरूप मानती है अन्यथा उसकी दृष्टता से दुःखी होकर उसके अनिष्ट की कामना करती है।
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Sunday, August 14, 2011

अथर्ववेद से स्वतंत्रता दिवस पर विशेष लेख-राष्ट्र और मातृभूमि की रक्षा गुणी नागरिकों के बल पर ही संभव (atharva ved se swatantrata diwas or indepandent day 15 august par vishesh hindi lekh-good citizen can security self nation or matrabhumi)

         हमारे यहां स्वतंत्रता संग्राम में दौरान आज़ादी तथा देश भक्ति का नारा इस तरह लगा कि हमारे यहां पेशेवर अभियान संचालक लोगों की भीड़ को एकत्रित करने के लिये आज भी लगाते हैं। लोगों   के राष्ट्रप्रेम की धारा इस तरह बह रही है कि आज भी स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस तथा गांधी जयंती पर भाव विभोर करने वाले गीत लोगों को लुभाते हैं। जब कोई आंदोलन या प्रदर्शन होता है तो उस समय मातृभूमि का नारा देकर लोगों को अपनी तरफ आकृष्ट करने के प्रयास होते हैं जिनसे प्रभावित होकर लोगों की भीड़ जुटती भी है।
         देश को स्वतंत्रता हुए 64 वर्ष हो गये हैं और इस समय देश की स्थिति इतनी विचित्र है कि धनपतियों की संख्या बढ़ने के साथ गरीबी के नीचे रहने वालों की संख्या उनसे कई गुना बढ़ी है। आर्थिक उदारीकरण होने के बाद तो यह स्थिति हो गयी है कि उच्च मध्यम वर्ग अमीरों में आ गया तो गरीब लोग अब गरीबी की रेखा के नीचे पहुंच गये हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश में करोड़पतियों की संख्या में बढ़ोतरी हो गयी है तो समाज के हालत बता रहे हैं कि रोडपति उससे कई गुना बढ़े हैं। इसी कारण विकास दर के साथ अपराध दर भी तेजी बढ़ी है। आधुनिक तकनीकी जहां विकास में योगदान दे रही है तो उसके सहारे अपराध के नये नये तरीके भी इजाद हो गये हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि हमारा देश आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विरोधाभासों के बीच सांसे ले रहा है। स्थिति यह है कि अनेक लोग तो 64 वर्ष पूर्व मिली आजादी पर ही सवाल उठा रहे हैं। अनेक लोग तो अब दूसरे स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ करने की आवश्यकता बता रहे हैं। मातृभूमि की रक्षा के नारे की गूंज इतनी तेज हो उठती है कि सारा देश खड़ा होता है। तब ऐसा लगता है कि देश में बदलाव की बयार बहने वाली है पर बाद में ऐसा होता कुछ नहीं है। वजह साफ है कि राष्ट्र या मातृभूमि की रक्षा नारों से नहीं होती न ही तलवारें लहराने या हवा में गोलियां चलाने से शत्रु परास्त होते हैं।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
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सत्यं बृहदृत्तामृग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति।
सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्पुरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु्।।
                ‘‘सत्य पथ पर चलने की प्रवृत्ति, हृदय का विशाल भाव, सहज व्यवहार, साहस, कार्यदक्षता तथा प्रत्येक मौसम को सहने की शक्ति, ज्ञान के साथ विज्ञान में समृद्धि तथा विद्वानों का सम्मान करने के गुणों से ही राष्ट्र और मातृभूमि की रक्षा की जा सकती है।’’
           राष्ट्र और मातृभूमि की रक्षा के लिये सतत और गंभीर प्रयास करने होते हैं। अपने नागरिकों को ज्ञान और विज्ञान से परिपूर्ण करना होता है। उनका नेतृत्त करने वालों को न केवल शारीरिक रूप से सक्षम होना चाहिए बल्कि उनमें साहस भी होना चाहिए। समाज के नागरिक वर्ग के लोग आर्थिक रूप से उत्पादक, भेदभाव से रहित तथा सत्यमार्गी होना चाहिए। हम देख रहे हैं कि अभी तक विकसित कहलाने वाले पश्चिमी राष्ट्र अब लड़खड़ाने लगे हैं क्योंकि उनके यहां अनुत्पादक नागरिकों का वर्ग बढ़ रहा है। इसके विपरीत हमारे देश की आर्थिक स्थिति मजबूत हो रही है पर जिस तरह हमने पश्चिमी के विचारों को स्थान दिया है उसके चलते हमारे यहां भी अनुत्पादक नागरिक वर्ग बढ़ने की संभावना हो सकती है। कहने का अभिप्राय यह है कि राष्ट्र या मातृभूमि की रक्षा का नारा लगाना अलग बात है पर उसके लिये सतत और गंभीर प्रयास करते रहना अलग बात है और इस बात को समझना चाहिए।
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Thursday, August 11, 2011

भारतीय अध्यात्मिक दर्शन-आत्महत्या करने वाले श्रद्धांजलि के भागी नहीं (indian religion massage-sucide or atmahatya hi andy religion activity)

            आमतौर से भारत की लंबे समय तक पूरे विश्व में एक अच्छी यह पहचान रही है कि यहां के लोग आत्महत्या जैसी वारदात से दूर रहते थे। इसका कारण यही था कि भारत में अधिकांश लोेग अपने आध्यात्मिक ग्रंथों के ज्ञान से परिपूर्ण थे। यहां तक कि उनका अध्ययन न करने वाले लोग भी इधर उधर प्रवचन सुनकर या चर्चाओं के माध्यम से इतने ज्ञानी तो हो ही जाते हैं कि सुख दुःख को जीवन का हिस्सा समझकर उनका सेवन और सामना करते हैं। भले ही भारतीय शिक्षा पद्धति में अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन शामिल नहीं है पर लोग अपने परिवार के बड़े सदस्यों के माध्यम से इनकी विषय सामग्री से परिचित रहते हैं। अब स्थिति बदल रही है। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के चलते आज की बुजुर्ग पीढ़ी भी अपने अध्यात्मिक ग्रंथ से दूर हो गयी है तो फिर नयी पीढ़ी से से कोई अपेक्षा करना व्यर्थ ही है।
         फिर जिस तरह पाश्चात्य सभ्यता, अर्थव्यवस्था और संस्कृति का अनुसरण किया गया है तो वहां के दुष्परिणामों का प्रकटीकरण भी हो रहा है। पहले यह खबरे आती थीं कि वहां त्यौहारों के अवसर अपने अनेक लोग आत्महत्या करते हैं। दुनियां के सबसे संपन्न देशों में जापान माना जाता है पर वहां के लोगों की हाराकिरी पद्धति प्रसिद्ध है जिसमें आदमी अपनी देह को त्याग देता है। भौतिकता की तरफ बढ़ चुके हमारे समाज मेें भी अब आत्महत्या की घटनायें बढ़ रही हैं। इसका कारण कारण यह है कि भौतिकता का पर्वत सभी नहीं चढ़ सकते पर लोगों  का मन केवल यही चाहता है कि उसे वह सारी सुविधायें मिलें जो दूसरे अमीरों को मिलती हैं। न मिलने पर आत्महत्या जैसी घटनायें हो जाती हैं।
भारतीय धर्मग्रंथों में कहा गया है कि
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आत्मत्यागनि पतिताश्च नाशौचोदकभाजः।
               ‘‘आत्म हत्या करने वाला तथा पतित जीवन बिताने वाले मनुष्य का न तो अशौच होता है न ही वह जलांजलि और श्राद्ध के भागी होते हैं।’’
          आत्महत्या करना प्रकृति के प्रति कितना बड़ा अपराध है इस बात से भी समझा जा सकता है कि ऐसा करने वालों को जलांजलि देना या उनका श्राद्ध करना भी धर्म से परे माना जताा है। मूल बात यह है कि समय के अनुसार सुख दुःख आते जाते हैं उनके लिये प्रसन्न होना या दुःखी होना अज्ञानियों का काम है। परमातमा के आस्था रखने वाले बड़ी दृढ़ता से स्थितियों का सामना करते हैं। हमारे देश के सामाजिक विशेषज्ञ देश में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति से चिंतित हैं पर उसके हल के लिये कोई उपाय नहीं सुझा जा सकता है। हमारा मानना है कि इसका सबसे अच्छा उपाय यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों से उचित सामग्री इन पाठ्यक्रमों में शामिल करना चाहिए।
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Sunday, August 7, 2011

भारतीय वेद शास्त्रों से-वायु भी औषधि का काम करती है (ved shastra-air is a great medisin)

        वर्षा के मौसम में अक्सर अनेक प्रकार की बीमारियां फैलती हैं। इसका कारण यह है कि इस मौसम मेंएक तो मनुष्य की पाचन क्रिया इस समय अत्यंत मंद पड़ जाती है जबकि जीभ स्वादिष्ट मौसम के लिये लालायित हो उठती है। दूसरा यह है कि जल में अनेक प्रकार के विषाणु अपना निवास बना लेते हैं। इस तरह स्वाभाविक रूप से इस समय बीमारी का प्रकोप यत्र तत्र और सर्वत्र प्रकट होता है। बरसात के मौसम में जहां चिकित्सकों के द्वार पर भीड़ लगती है वहीं योग साधक अधिक सतर्कता पूर्वक प्राणायाम करने लगते हैं ताकि वह बीमारियों से बचे रहें।
            जल और वायु न केवल जीवन प्रवाह में सहायक होती है बल्कि रोगनिदान में औषधि के रूप में इनसे सहायता मिलती है। वर्षा ऋतु में दोनों का प्रवाह बाधक होता है पर नियम, समय और प्राणयाम के माध्यम से अपनी देह को उन विकारों से बचाया जा सकता है जो इस मौसम में होती है।
वेद शास्त्रों में कहा गया है कि
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वात ते गृहेऽमृतस्य निधिर्हितः।
ततो नो देहि जीवसे।।
           ‘‘इस वायु के गृह में यह अमरत्व की धरोहर स्थापित है जो हमारे जीवन के लिये आवश्यक है।’’
अ त्वागमं शन्तातिभिरथे अरिष्टतातिभिः दक्षं ते भद्रमाभार्ष परा यक्ष्मं सुवामित ते।।
        ऋग्वेद की इस ऋचा अनुसार वायु देवता कहते हैं कि ‘‘हे रोगी मनुष्य! मैं वैद्य तेरे पास सुखदायक और अहिंसाकर रक्षण लेकर आया हूं। तेरे लिये कल्याणकारी बल को शुद्ध वायु के माध्यम से लाता हूँ  और तेरे रोग दूर करता हूं।’’
वातु आ वातु भेषजं शंभु मयोभु नो हृदे।
प्र ण आयूँरिर तारिषत्।।
             ‘‘याद रखें कि शुद्ध ताजी वायु अमूल्य औषधि है जो हमारे हृदय के लिये दवा के समान उपयोगी है, आनंददायक है। वह आनंद प्राप्त करने के साथ ही आयु को बढ़ाता है।
          हमने देखा होगा कि जब कोई मरीज नाजुक हालत में अस्पताल पहुंचता है तो सबसे पहले चिकित्सक उसकी नाक में आक्सीजन का प्रवाह प्रारंभ करते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि सबसे प्रथम दवा तो वायु ही होती है। इसके अलावा जो दवायें मिलती हैं उनके जल का मिश्रण होता है या फिर उनका जल से सेवन करने की राय दी जाती है। हम यहां वायु के महत्व को समझें। हमने देखा होगा जहां जहां घनी आबादी हो गयी है वहां अधिकतर लोग चिढ़चिढ़े, तनाव ग्रस्त और हताशा जनक स्थिति में दिखते हैं। अनेक लोग घनी आबादी में इसलिये रहना चाहते हैं कि उनको वहां सुरक्षा मिलेगी दूसरा यह कि अपने लोग वहीं है पर इससे जीवन का बाकी आनंद कम हो जाता है उसका आभास नहीं होता।
        श्रीमद्भागवत गीता में ‘गुणों के गुणों में ही बरतने’ और ‘इंद्रियों के इंद्रियों मे बरतने’ का जो वैज्ञानिक सिद्धांत दिया गया है उसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जहां प्राणवायु विषाक्त है या जहां उसकी कमी है वहां के लोगों के मानसिक रूप से स्वस्थ या सामान्य रहने की अपेक्षा करना भी व्यर्थ है। आमतौर से सामान्य बातचीत में इसका आभास नहीं होता पर विशेषज्ञ इस बात को जानते हैं कि शुद्ध और अधिक वायु के प्रवाह में रहने वाले तथा इसके विपरीत वातावरण में रहने वाले लोगों की मानसिकता में अंतर होता है।
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Friday, August 5, 2011

चाणक्य नीति से संदेश-कौवे, गधे, कुत्ते, शेर और मुर्गे से भी आदमी को सीखना चाहिए (chnakya neeti-aadmi, kauva,sher,murga,gadhaa aur bagula)


               अक्सर लोग आपसी वार्तालाप में एक दूसरे के लिये उपहास या घृणावश कौआ, गधा, बगुला या मुर्गा जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जबकि शेर शब्द का उपयोग सम्मान या प्रशंसा के लिये किया जाता है। माया के चक्कर में फंसा आदमी शायद ही कोई आदमी हो जो अपने साथ ही इस धरती पर विचर रहे पशु, पक्षियों तथा अन्य जीवों के गुणों की पहचान कर उनसे सीखना चाहता है। चूंकि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से परे लोगों को रखा गया है शायद इसलिये हम देख रहे हैं कि हमारे यहां खिचड़ी संस्कृति का निर्माण हो गया है जिसमें आदमी आनंद अंदर नहीं बाहर ढूंढ रहा है। प्रेम नाम की जीव हृदय में नहीं है पर वासना का प्रदर्शन सरेआम कर उसे ईश्वर उपासना का प्रतीक बना दिया गया है।
                   कौआ पक्षी होने के बावजूद छिपकर अपनी प्रेमलीला करता है पर आजकल हम देख रहे हैं कि विद्यालयों और महाविद्यालयों में सार्वजनिक रूप से छात्र छात्रायें अपनी प्रेमलीला का प्रदर्शन करते हैं। इससे अन्य लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है इसकी परवाह नहीं करते। कहीं कहीं तो ऐसी घटनायें भी हुई हैं एक युवक से प्रेम करने वाली युवती पर दूसरे ने नाराज होकर हमला कर दिया। लोग कहते हैं कि प्यार करने की आजादी होना चाहिए पर हमारा दर्शन कहता है कि उसके सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन करने के खतरे को भी समझना चाहिए।
आचार्य चाणक्य का कथन है कि
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सिंहादेकं वकादेकं शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्
वायसात्पञ्च शेक्षेच्च षट् शुनस्वीणि गर्दभात्।।
          ‘‘मनुष्य को शेर से एक, बगुले से एक तथा मुर्गे से चार, कौऐ से पांच, कुत्ते से छह और गधे से तीन गुण ग्रहण करना चाहिए।’
प्रभूतं कार्यमल्पं चन्नर, कर्तुमिच्छति।
सर्वारम्भेण तत्कार्य सिंहादेकं प्रचक्षते
             ‘‘बड़ा हो या छोटा कार्य उसे संपन्न करने के लिये पूरी शक्ति लगाना शेर से सीखना चाहिए।’’
इंद्रियाणि च संयम्य वकवत् पण्डितो नरः।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत्।।
             ‘‘बगुले की भांति अपनी इंद्रियों को वश मे कर देश काल अपने बल को जानकर ही अपने सारे कार्य करना चाहिए।’
‘‘प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागं च बंधुषु
स्वयमाक्रम्य भुक्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।।
      ‘‘ठीक समय पर जागना, सदैव युद्ध के लिये तैयार रहना, बंधुओं को अपना हिस्सा देना और आक्रामक होकर भोजन करना मुर्गे से सीखना चाहिए।
गूढमैथनचरित्वं च काले काले च संग्रहम।
अप्रमत्तमविश्वासं पञ्च शेक्षेच्च वायसात्।।
               ‘‘छिपकर प्रेमालाप करना, ढीठता दिख्.ाना, नियम समय पर संग्रह करना सदा प्रमादरहित होकर जागरुक रहना तथा किसी पर विश्वास न करना ये पांच गुण कौऐ से सीखना चाहिए’’
बह्वाशी स्वल्पसंतुष्टः सुनिद्रो लघुचेतनः
स्वामिभक्तश्च शूरश्च षडेते श्वानतो गुणाः।।
          ‘‘बहुत खाने की शक्ति रखना, न मिलने पर भी संतुष्ट हो जाना, खूब सोना पर तनिक आहट होने पर भी जाग जाना, स्वामीभक्ति और शूरता यह छह गुण कुत्ते से सीखना चाहिए।
सुश्रान्तोऽपि वहेद् भारं शीतोष्णं न च पश्यति।
संतुष्टश्चरते नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात्।।
       ‘‘बहुत थक जाने पर भी भार उठाना, सर्दी गर्मी से बेपरवाह होन और सदा शांतिपूर्ण जीवन बिताना यह तीन गुण गधे से सीखना चाहिए।
              एक बात याद रखने लायक है। आदमी गुणों के वशीभूत होकर वैसे ही काम करता है जैसे कि अन्य जीव! हम आदमी से देवता होने की अपेक्षा हमेशा नहीं कर सकते। अपने जीवन में सतर्कता, दृढ़ता, और नैतिकता के साथ जीने का प्रयास करना है तो हमें पशु पक्षियों से भी सीखना चाहिए। इसके अलावा अपने किस काम को सार्वजनिक रूप से दिखायें और किसे नहीं इस पर भी विचार करना चाहिए। जब हम अपने वैभव, प्रेम और गूढ़ रखने वाले रहस्यों को सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं तो इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि देखने वालों में कोई पशुवृत्ति को प्राप्त होकर हमें हानि भी पहुंचा सकता है।
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Tuesday, August 2, 2011

अपने कर्म का तर्क की कसौटी के आधार पर विचार करें-हिन्दी चिंत्तन

             मनुष्य अपने जीवन में संबंध बढ़ाकर आनंद प्राप्त करना चाहता है। अधिक से अधिक मित्र बनाकर अपने आपको ही इस बात की तसल्ली देता है कि वह शत्रुओं से बचा रहेगा। उसी तरह अनेक लोग अपने घर की स्त्री से बाहर की स्त्रियों से संपर्क रखकर यह सोचता है कि वह जीवन आनंद से बितायेगा। ऐसे अनेक भ्रम हैं जिनके चक्कर में पढ़कर आदमी अपना जीवन कष्टप्रद बना लेता है। उसी तरह मनुष्य अनेक स्थानों पर संपत्ति का निर्माण भी यही सोचकर करता है कि एक जगह से परेशान होकर दूसरी जगह आराम से जाकर रहेगा। लालची, लोभी और अहंकार मनुष्य तर्क की कसौटी पर काम न कर केवल काल्पनिक सुखों के आधार पर चलता है जो कि उसे नहीं मिल पाते। इसी कारण उसे आनंद की जगह तनाव की प्राप्ति होती है।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि
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कुराज्यनेकृतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽस्ति निवृत्तिः।
कुदारदारैश्च केतो गृहे रतिः कुशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः।।
            ‘दुष्ट राजा के राज्य से प्रजा को सुख नहीं मिलता। धोखा देने वाले मित्र की संगत में दुःख ही मिलता है उसी तरह दुष्ट स्त्री को भार्या बनाने से प्रेम मिलना मुश्किल है। किसी गुरु को भी कुठित मानसिकता वाले शिष्य को शिक्षा देने से यश नहीं मिलता।"
             जितना भी हम अपने संबंधों और संपत्ति का विस्तार करते हैं कालांतर में उनको निभाने और संभालने का भी संकट उत्पन्न होता है। इसके अलावा जो अपेक्षाऐं हम करते हैं वह सभी पूर्ण हो जायें यह संभव नहीं है। उम्र और समय के साथ आदमी की शक्ति कभी कभी क्षीण भी होती है तब जीवन में विस्तारित कृत्य अत्यंत कष्टकारक हो जाते हैं। इसलिये जहां तक हो सके सीमित साधनों के साथ सीमित लक्ष्यों की पूर्ति का प्रयास करना चाहिए। अधिक अपेक्षाऐं करना ठीक नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी वस्तु की प्राप्ति की इच्छा हो या किसी व्यक्ति से संबंध स्थापित करने का भाव मन में हो तब तर्क की कसौटी पर विचार करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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