Sunday, May 31, 2009

तंबाकू निषिद्ध दिवस पर कबीर दास के दोहे-तंबाकू खाने वालों की बुद्धि भ्रष्ट होती है

भांग तमाखू छूतरा, आफू और सराब।
कौन करेगा बंदगी, य तो भये खराब।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो भांग, तम्बाकू छूतरा, अफीम तथा शराब जैसे नशीली वस्तुओं का सेवन करते हैं वह भ्रष्ट हैं। उनकी इज्जत कौन करेगा क्योंकि वह तो बेकार हो गये।
भांग भखै बल बुद्धि को, आफू अहमक होय।
दोय अमल औगुन कहा, ज्ञानवंत नर जाये।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं भांग खाने वाले व्यक्ति कि बुद्धि और दैहिक शक्ति नष्ट हो जाती है। अफीम खाने वाला मूर्ख हो जाता है। ज्ञानी लोगों ने इन दोनों पदार्थों के बहुत सारे अवगुण बताये हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पश्चिमी चिकित्सा शास्त्रियों ने तंबाकू, भांग तथा शराब के अनेक दोष बताये हैं। उनके निष्कर्ष तो प्रयोगों पर आधारित होते हैं पर भारतीय विद्वानों ने इनके सेवन करने वालों के चरित्र देखकर यह निष्कर्ष बहुत निकाल लिया था कि इससे मनुष्य की शारीरिक और मानिसक शक्ति का क्षय होता है और धीरे धीरे इनका सेवन करने वाला कायरता, अज्ञानता और आलस्य जैसे विकारों का शिकार हो जाता है। पश्चिमी विशेषज्ञों ने तंबाकू को सेवन इतना खतरनाक माना है कि इसके उपयोग को निरुत्साहित करने के लिये बकायदा एक ‘तंबाकू निषिद्ध दिवस’ घोषित कर दिया है।
इस अवसर पर यह विचार अवश्य करना चाहिए कि जितना हो सके न केवल स्वयं तंबाकू सेवन से बचे बल्कि दूसरों को भी रोकें। वैसे आजकल पाउच के तंबाकू खाने का अधिक प्रचलन हो गया है क्योंकि लोग हाथ में लेकर घिसने की मेहनत से बचना चाहते हैं पर दूसरा यह भी सच है कि उसमें मिले रसायन सामान्य तंबाकू को अधिक खतरनाक बना देेते हैं। सामान्य तंबाकू वाले खाना खाकर उसके बुरे प्रभाव को कम कर लेते हैं पर पाउच खाने वाले तो एक तरह से उनका सेवन रोटी की तरह करते हैं और खाना वगैरह भी कम खाते हैं। विश्लेषणों ये पता लगता है कि युवा वर्ग में इन पाउच से अधिक बीमारिया हो रही है। इस पर प्रतिबंध की मांग सभी करते हैं पर सुनता कोई नहीं। इसका आशय यह नहीं कि सामान्य तंबाकू कोई कम खतरनाक होती है। उससे व्यक्ति का उच्च रक्तचाप बढ़ता है पर इन पाउच वाले तंबाकू को तो कभी खाने की सोचना भी नहीं चाहिए।
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Saturday, May 30, 2009

मनुस्मृति-नाचने-गाने, वाद्य यंत्र बजाने और बिना प्रयोजन कुतूहल से बचें

न कुर्वीत वृथा चेष्टां न वार्य´्जलिना पिबेत्।
नौत्संगे भक्षयेद् भक्ष्यानां जातु स्यात्कुतूहली।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि जिस कार्य को करने से अच्छा फल नहीं मिलता हो उसे करने का प्रयास व्यर्थ है। अंजली में भरकर पानी और गोद में रखकर भोजन करना ठीक नहीं नहीं है। बिना प्रयोजन का कौतूहल नहीं करना चाहिए।
न नृत्येन्नैव गायेन वादित्राणि वादयेत्।
नास्फीट च क्ष्वेडेन्न च रक्तो विरोधयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि नाचना गाना, वाद्य यंत्र बजाना ताल ठोंकना, दांत पीसकर बोलना ठीक नहीं और भावावेश में आकर गधे जैसा शब्द नहीं बोलना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब आदमी तनाव रहित होता है तब वह कई ऐसे काम करता है जो उसकी देह और मन के लिये हितकर नहीं होते। लोग अपने उठने-बैठने, खाने-पीने, सोने-चलने और बोलने-हंसने पर ध्यान नहीं देते जबकि मनुमहाराज हमेशा सतर्क रहने का संदेश देते हैं। अक्सर लोग अपनी अंजली से पानी पीते हैं और बातचीत करते हुए खाना गोद में रख लेते हैं-यह गलत है।
जब से फिल्मों का अविष्कार हुआ है लोगों का न केवल काल्पनिक कुतूहल की तरफ रुझान बढ़ा है बल्कि वह उन पर चर्चा ऐसे करते हैं जैसे कि कोई सत्य घटना हो। फिल्मों की वजह से संगीत के नाम पर शोर के प्रति लोग आकर्षित होते हैं।
मनुमहाराज इनसे बचने का जो संदेश देते है उनके अनुसार नाचना, गाना, वाद्य यंत्र बजाना तथा गधे की आवाज जैसे शब्द बोलना अच्छा नहीं है। फिल्में देखना बुरा नहीं है पर उनकी कहानियों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों को देखकर कौतूहल का भाव पालन व्यर्थ है इससे आदमी का दिमाग जीवन की सच्चाईयों को सहने योग्य नहीं रह जाता।

नाचने गाने और वाद्य यंत्र बजाना या बजाते हुए सुनना अच्छा लगता है पर जब उनसे पृथक होते हैं तो उनका अभाव तनाव पैदा करता है। इसके अलावा अगर इस तरह का मनोरंजन जब व्यसन बन जाता है तब जीवन में अन्य आवश्यक कार्यों की तरफ आदमी का ध्यान नहीं जाता। लोग बातचीत में अक्सर अपना प्रभाव जमाने के लिये किसी अन्य का मजाक उड़ाते हुए बुरे स्वर में उसकी नकल करते हैं जो कि स्वयं उनकी छबि के लिये ठीक नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह है कि उठने-बैठने और चलने फिरने के मामले में हमेशा स्वयं पर नियंत्रण करना चाहिए।
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Friday, May 29, 2009

विदुर नीतिः सज्जनों की याचना पर दुष्ट अपने को प्रसिद्ध मान लेते हैं

विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः।
मदा एतेऽवलिपतनामेत एवं सतां दमः।।
हिंदी में भावार्थ-
विद्या, धन, और ऊंचे कुल का मद अहंकार पुरुष के लिए तो व्यसन के समान है पर सज्जन पुरुषों के लिये वह शक्ति होता है।
असन्तोऽभ्यार्थितताः सद्भिः क्वचित्कायें कदाचन।
मन्यन्ते स्न्तमात्मानमसन्तमपि विश्रुतम्।
हिंदी में भावार्थ-
किसी विशेष कार्य के लिये जब कोई सज्जन पुरुष किसी दुष्ट से मदद की याचना करता है तो अपने को प्रसिद्ध दुष्ट जानते हुए वह अपने को सज्जन समझने लगते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-विश्व में असत्य (माया) के विस्तार के साथ धनाढ्य लोगों की संख्या के साथ आधुनिक शिक्षा से संपन्न बुद्धिमानों की संख्या भी बेतहाशा बढ़ रही है पर उसी अनुपात में अन्याय और हिंसा की वारदातों की संख्या भी बढ़ी है। वजह साफ है कि विद्या और धन वह शक्ति है जो किसी को भी भ्रमित कर सकती है। धन की प्रचुरता जिनके पास है वह उसकी शक्ति दिखाने के लिये ऐसे अनैतिक काम करते हैं जो एक सामान्य आदमी नहीं करता। उसी तरह जिन्होंने तकनीकी ज्ञान-जिसे विद्या भी कहा जाता है-प्राप्त कर लिया है उनमें बहुत कम ऐसे हैं जो उसका रचनात्मक उपयोग करते हैं। अधिकतर तो ऐसे हैं जो उसके सहारे दूसरे को हानि पहुंचाकर अपनी शक्ति दिखाना चाहते हैं। इंटरनेट पर बढ़ते अपराध और ठगी इसी का प्रमाण है कि शिक्षा या विद्या का अहंकार आदमी की बुद्धि भ्रष्ट कर देता है।
यही स्थिति दुष्ट लोगों की है। सज्जन लोगों का समूह नहीं बन पाता पर दुष्ट लोग जल्दी ही समूह बनाकर समाज में वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं। वह ऐसी जगहों पर अपना दबदबा बना लेते हैं जहां सज्जन लोगों को अपने काम से जाना ही पड़ता है। ऐसे में दुष्ट लोगों से अपने काम के लिये वह सहायता की याचना करते हैं पर अपनी प्रसिद्धि के अहंकार में दुष्ट लोग उनको कीड़ा मकौड़ा मान लेते हैं। आप अगर प्रचार माध्यमों को देखें तो वह भी सज्जनों की सक्रियता पर कम दुष्ट लोगों की दुष्टता का प्रचार इस तरह करते हैं जैसे कि वह नायक हों। यही कारण है कि विश्व में अपराध और हिंसा का पैमाना दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
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Wednesday, May 27, 2009

विदुर नीतिः ‘क्षमा’ शक्तिशाली के लिए भूषण और निशक्त के लिये गुण है

एक क्षमवतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते।
यदेनं क्षमया युक्तशक्तं मन्यते जनः।।
सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं यत्नम्।
क्षमा गुणो ह्यशक्तनां भूक्षणं क्षमा।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस मनुष्य में क्षमा करने का गुण है उसका बस एक ही दोष है लोग उसे निशक्त और युक्ति रहित समझने लगते हैं। किन्तु यह समझना गलत है कि क्षमाशील पुरुष कमजोर या निशक्त हैं। क्षमा एक बहुत बड़ी ताकत है। क्षमा का गुण असमर्थ व्यक्ति के लिये गुण तथा शक्तिशाली के लिये भूषण है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह समझना गलत है कि असमर्थ पुरुष अगर क्षमाशील है तो फिर उसका वह गुण नहीं है। याद रखिये गरीब, बेसहारा और कमजोर की आह भी बहुत खतरनाक है। क्षमा का गुण केवल अमीरों और बाहुबलियों द्वारा ही धारण किया जाने वाला गुण नहीं है।
यह बात ठीक है कि क्षमा करने वाले को लोग कमजोर या डरपोक समझते हैं पर फिर भी इस गुण को छोड़ना नहीं चाहिए। अगर आप बाहुबली और धनी हैं तो क्षमा का गुण आपके लिये भूषण हैं पर आप कमजोर हैं और निर्धन हैं तो भी आपका यह गुण हैं। ऐसे में कोई बाहूबली या अमीर आपके प्रति अपराध करता है तो भी उसका हृदय से बुरा न चाहें-उसे बद्दुआ न दें-क्योंकि आह लगती है और दूसरे को सताने वाले को कभी न कभी दंड मिलता है भले ही कोई सांसरिक व्यक्ति यह काम न करें प्रकृत्ति स्वयं दंड प्रदान करती है।
बाहूबलियों ओर धनवानों पर माया का वरदहस्त होता है पर इससे वह संसार के ठेकेदार नहीं हो जाते-यह अलग बात है कि आजकल अनेक बाहुबली और अमीर इसी भ्रम में जीते हैं। उनको अपने से कमजोर और निर्धन के अपराध क्षमा करना चाहिये तभी वह समाज में सम्मान प्राप्त कर सकते हैं। इसके अगर कोई निर्धन या गरीब उनको अपने प्रति किये गये अपराध के लिये क्षमा प्रदान करता है तो उसे कमजोर या युक्तिरहित समझकर उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए।
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Tuesday, May 26, 2009

भर्तृहरि शतकः लोग अपने शास्त्रों से विमुख हो गये हैं

पुरा विद्वत्तासीदुषशमतां क्लेशहेतये गता कालेनासौ विषयसुखसिद्धयै विषयिणाम्।
इदानीं सम्प्रेक्ष्य क्षितितलभुजः शास्त्रविमुखानहो कष्टं साऽप प्रतिदिनमधोऽधः प्रविशति।।
हिंदी में भावार्थ-
प्राचीन समय में विद्या वह लोग प्राप्त करते थे जो सांसरिक क्लेशों से मुक्त होकर मन की शांति चाहते थे। फिर यह विषयासक्त लोगों के लिये विषय और सुख का साधन बन गयी और अब तो राजा और प्रजा दोनों ही प्राचीन शास्त्रों से एकदम विमुख हो गये हैं। यही कारण है कि यह प्रथ्वी रसातल में जा रही है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समय खराब हो गया है-अक्सर हम लोग यह कहते है। यह सब हमारा भ्रम है। जैसे जैसे हमारे ऋषि और मुनि सत्य की खोज कर प्रस्तुत करते गये हमारा समाज वेसे वैसे हमारा समाज माया की तरफ अग्रसर होते गये हैं। अक्सर हम लोग कहते हैं कि लार्ड मैकाले ने भारतीयों को गुलाम बनाने के लिये वर्तमान शिक्षा पद्धति का विकास किया पर सच तो यह है कि उसने तो केवल खाली जगह भरी है। हम लोग कहते हैं कि हमारे गुरुकुल काफी प्रभावी थे पर सच तो यह है कि वह सीमित रूप से शिक्षा प्रदान करने में समर्थ थे। इसके अलावा वहां सात्विक ज्ञान दिया जाता था। दैहिक ज्ञान भी उतना ही दिया जाता जितना किसी मनुष्य के जीवन में आवश्यक था। सत्य का ज्ञान प्राप्त कर अनेक लोग उसको धारण करते हुए जीवन शांति से व्यतीत करते थे पर इस मायावी संसार में समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग हवा में उड़ना चाहता था। वह विकास-जो विनाश का ही एक रूप है-उसे पाना चाहता था। सत्य स्थिर रहता है और माया दौड़ती है-आदमी का मन उसके साथ भागना चाहता है।
माया के गुलाम बनने को तत्पर इस समाज को लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा प्रणाली प्रदान की जो इस मायावी संसार में दौड़ने के लिये शक्ति प्रदान करती है। अतः यह कहना गलत है कि लार्ड मैकाले ने कोई हमारे समाज के प्रति अपराध किया था। डाक्टर, इंजीनियर,वकील,शिक्षक और प्रबंधक बनने की नौकरी की चाहत ने हमारे समाज को शास्त्रों से विमुख किया यह सोचना ही गलत है। सच तो यह है कि अपने धार्मिक ग्रंथों की कथाओं से ऊब चुके लोगों को चाहिये थी अब विदेशी कहानियां जिसमें आदमी रातो रात लखपति या राजा बन जाता है। हमारा समाज अपने सत्य ज्ञान से विमुख तो भर्तृहरि महाराज के समय में ही हो चुका था। अतः समाज का पतन कोई एक दिन में नहीं हुआ बल्कि यह तो पहले ही प्रारंभ हो चुका था।
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Saturday, May 23, 2009

भर्तृहरि शतकः मोहित आदमी को ज्ञान देना कठिन

लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन् पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः।
कदाचिदपि पर्यटंछशविषाणमासादयेत् न तु प्रतिनिविश्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
अगर प्रयास करें तो यह संभव है कि रेत में से तेल निकल आये, मृगतृष्णा से ही मनुष्य अपने गले की प्यास शांत कर ले। यह भी संभव है कि ढूंढने से सींग वाले खरगोश मिल जायें। मगर यह संभव नहीं है कि मूर्ख व्यक्ति अगर किसी वस्तु या व्यक्ति पर मोहित हो गया है तो उसका ध्यान वहां से हटाया जा सके।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर किसी व्यक्ति में किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति मोह उत्पन्न हो जाये तो उसका ध्यान वहां से नहीं हटाया जा सकता। आशय यह है कि भौतिक पदार्थों पर मोहित होना मूर्खता का परिचायक है।
श्रीगीता के संदेश के अनुसार पूरा संसार त्रिगुणमयी माया के प्रभाव से मोहित हो रहा है। मन में यह भाव लाना कि ‘मैं कर्ता हूं’ मोह का प्रमाण है। ‘यह मेरा है’ और ‘मैं उसका हूं’ जैसे विचार मन में मौजूद मोह भाव का प्रमाण है।
अपने दैहिक कर्म से प्राप्त धन और प्रतिष्ठा को ही फल मान लेना मोह की चरम सीमा है। विचार करें कि हमें जब कहीं नौकरी या व्यवसाय से धन प्राप्त होता है उसका हम क्या करते हैं?
उस धन को हम परिवार के पालन पोषण के साथ सामाजिक दायित्वों के निर्वाह में ही व्यय करते हैं। अधिक धन है तो उसका संचय कर बैंक आदि में रख देते हैं। वहां उसका उपयोग दूसरे करते हैं। ऐसे में हमारे लिये वह फल कैसे हो सकता है।
फल है आत्मा की तृप्ति। आत्मा की तृप्ति तभी संभव है जब भक्ति, दान और परमार्थ करते हुए हम परमात्मा को इस बात का प्रमाण दें कि उसने हमारी आत्मा को जो देह प्रदान की उसका उपयोग हम उसके द्वारा निर्मित संसार के संचालन में निष्काम भाव से योगदान दे रहे हैं। हमारा पेट कोई दूसरा भर रहा है तो हम दूसरे को भी रोटी प्रदान करें न कि अपने लिये रोटी का जुगाड़ कर उसे फल मान लें।
इस मोह भाव से विरक्त होना आसान नहीं है। इस मूर्ख मन को कोई ज्ञानी भी भारी परिश्रम के बाद ही संभाल पाता है।
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Friday, May 22, 2009

विदुर नीति-सांसरिक सुख के छह प्रकार

आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः सदिभर्मनुष्यैः सह सम्प्रभोग।
स्वर्पत्यया वृत्तिरभौतवासः यह जीवलोकस्यं सुखानि राजन्््।।
हिंदी में भावार्थ-
निरोगी काया, किसी का ऋण न होना, विदेश में न रहना, सज्जन लोगों से संपर्क, अपने दम पर ही जीविकोपार्जन और निडरता के साथ जीना-यह छह प्रकार के सुख हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोग भौतिक सुख और सुविधाओं के पीछे तो भागते हैं पर यह जानते ही नहीं कि सुख होता क्या है? यही कारण है कि वह सुख के नाम पर इतने भौतिक साधन जुटा लेते हैं कि उनमें से कई तो काम के ही नहीं रहते और कई दुःख का कारण भी बनते हैं। इस भागदौड़ में न उनकी मानसिक, शारीरिक तथा आर्थिक का ऊर्जा का क्षरण होता है बल्कि अध्यात्मिक साधना का समय ही नहीं मिल पाता और पूरा जीवन मानसिक तनाव में बीत जाता है।
सुख के बारे में निम्न प्रकार विचार करना चाहिए।
1. शरीर अगर स्वस्थ है तो उसके लिये किसी प्रकार की सुविधा की आवश्यकता नहीं है। जितना हो सके उससे काम लेना चाहिए। शरीर से पसीना निकलता है तो परवाह न करें वह शरीर में से निकलने वाली बीमारी है।
2.घर और शहर में रहते हुए ही अगर हमारा जीवन शांति से व्यतीत हो रहा है और आवश्यकताओं की पूर्ति हो रही है तो फिर यह सोचकर संतोष करना चाहिए कि हमें विदेश जाकर दूसरे लोगों की शरण नहीं लेनी पड़ी।
3.गुणवान, ज्ञानी और दयालू लोगों से निरंतर संपर्क होता है तो यह मान लेना चाहिए कि यह भी एक बहुत बड़ा सुख है। वरना तो आजकल सभी जगह अहंकारी, पाखंडी और काली नीयत वाले लोग मिलते हैं।
4.हमारे घर का खर्च अपने ही परिश्रम से चल रहा है तो समझ लें कि यह एक बहुत बड़ा सुख है और किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ रहा है। दूसरे के सामने हाथ फैलाना मृत्यु के समान हैं।
5.किसी का ऋण नहीं होना भी एक बहुत बड़ा सुख है। इस बात की चिंता नहीं होती कि किसी का पैसा देना है और उसे जुटाने का प्रयास करने की आवश्यकता नहीं हैं।
6. जहां हम रह रहे हैं वहां किसी प्रकार का भय नहीं है यह भी एक बहुत बड़ा सुख है। अपने रोजगार के लिये किसी ऐसे स्थान पर नहीं जाना पड़ रहा है जहां हमारे लिये लिये दैहिक या मानसिक प्रताड़ना की आशंका है-इस बात पर संतोष करना चाहिए।
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Thursday, May 21, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-बंधु बांधव उपभोग न कर सकें उस धन का क्या लाभ?

लक्षम्या लक्ष्मीवतां लोके विकाशिन्या च किन्तवा।
बंधुभिश्च सुहृद्धिश्च मित्रवधं व न भुज्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-
संसार में उस धनपति का धन का क्या लाभ जो उसके बंधु और सहृदयजन उपभोग न कर सकें।
श्लाभ्या चानन्दनीया च महातामुपाकारिता।
काले कल्याणमाघत्ते स्वल्पापि सुमहोदयम्।।
हिंदी में भावार्थ-
बड़े और महान पुरुषों का उपकार करना आनंदमय होता है। उनका थोड़ा भी कल्याण करना महान उदय का कारण बनता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-संसार में अनेक धनी है पर सभी को सम्मान नहीं प्राप्त होता जैसी कि वह अपेक्षा करते हैं। किसी मनुष्य के पास धन की प्रचुरता हो और वह उसे व्यय करने संकोच करता है तो उसे कंजूस कहा जाता है। धन की महत्ता दान से है। अगर कोई व्यक्ति धनी है पर इसका लाभ उसके परिवार, मित्रों और बंधुओं को नहीं मिलता तो फिर उसे समाज में सम्मान की आशा नहीं करना चाहिए। वैसे भी धनियों के सामने दिखाने के लिये उनका सम्मान हर कोई इस आशा करता है कि भविष्य में शायद कोई लाभ हो? हां, अगर यह निश्चित हो जाये कि वह धनी किसी भी हालत में सहायता करने वाला या दान देने वाला नहीं है तो फिर उसकी मूंह पर भी कोई प्रशंसा नहीं करता।
समाज को बौद्धिक सहायता करने वाले ज्ञानियों की मदद करना कभी निरर्थक नहीं जाता। वह अपने ज्ञान और शिक्षा से समाज की पीढ़ियों तक ज्ञान गंगा बहाने का सामथ्र्य रखते हैं। ऐसे निष्काम और निष्कपट महान लोगों की सहायत कर समाज स्वयं को कृतकृत्य समझना चाहिए। जिन समाजों में ज्ञानियों को आर्थिक, सामाजिक और नैतिक संरक्षण प्रदान नहीं किया जाता वह बहुत जल्दी पतन को प्राप्त होते हैं।
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Wednesday, May 20, 2009

चाणक्य नीतिः गुस्सा अपनी ताकत के अनुसार ही करें

सुसिद्धमौषधं धर्म गृहच्द्रिं मैथुनम्।
कुभुक्तं कुश्रुतं चैव मतिमान्न प्रकाशयेत्।।
हिंदी मे भावार्थ-
बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिऐ कि वह छह बातें किसी को भी न बताये। यह हैं अपनी सिद्ध औषधि, धार्मिक कृत्य, अपने घर के दोष, संभोग, कुभोजन तथा निंदा करने वाली बातें।
प्रस्तावसदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं पिय्रम!
आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः।
हिंदी में भावार्थ-
जैसा प्रस्ताव देखें उसी के अनुसार प्रभावपूर्ण विचार मधुर वाणी में व्यक्त करे और अपनी शक्ति के अनुसार ही क्रोध करे वही सच्चा ज्ञानी है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य के अनुसार मनुष्य को अपने जीवन में वाक्पटु होना चाहिये। समय के अनुसार ही किसी विषय को महत्व को देखते हुए अपना विचार व्यक्त करना चाहिए। इतना ही नहीं किसी विषय पर सोच समझ कर प्रिय वचनों में अपना बात रखना चाहिए। इसके अलावा अपने पास किसी सिद्ध औषधि का ज्ञान हो तो उसे सभी के सामने अनावश्यक रूप से व्यक्त करना ठीक नहीं है। अपने घर के दोष, तथा स्त्री के साथ समागम की बातें सार्वजनिक रूप से नहीं करना चाहिए। इसके अलावा जो भोजन अच्छा नहीं है उसके खाने का विचार तक अपने मन में न लाना ही ठीक है-दूसरे के सामने प्रकट करने से सदैव बचना चाहिए। किसी भी प्रकार के निंदा वाक्य किसी के बारे में नहीं कहना चाहिये।

अगर इतिहास देखा जाये तो वही विद्वान समाज में सम्मान प्राप्त कर सके हैं जिन्होंने समय समय पर कठिन से कठिन विषय पर अपनी बात इस तरह सभी लोगों के के सामने रखी जिसके प्रभाव से न केवल उनका बल्कि दूसरा समाज भी लाभान्वित हुआ। अधिक क्रोध अच्छा नहीं है और जब किसी के बात पर अपना दिमाग गर्म हो तो इस बात का भी ख्याल करना चाहिए कि अपने क्रोध के अनुसार संघर्ष करने की हमारी क्षमता कितनी है। अविवेकपूर्ण निर्णय न केवल हमारे उद्देश्यों की पूर्ति बाधक होते हैं बल्कि उनसे समाज में प्रतिष्ठा का भी हृास होता है।
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Monday, May 18, 2009

चाणक्य नीतिः नीम के वृक्ष को घी और दूध से सींचा जाये तो भी मधुर नहीं होता

गृहाऽसक्तस्य नो विद्या नो दया मांसभोजिनंः।
द्रव्ययालुब्धस्य नो सत्यं स्त्रेणस्य न पवित्रता।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य महाराज के मतानुसार जिसकी घर में आसक्ति अधिक है उसे कभी विद्या प्राप्त नहीं होती। मांस का सेवन करने वाले में कभी दया नहीं होती। जिसके मन में धन का लोभ है वह कभी सत्य की सहायता नहीं लेता। दुराचारी, व्याभिचारी तथा भोग विलास वाले व्यक्ति से पवित्रता की आशा करना व्यर्थ है।
न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः।
आमूलसिक्तः पया घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति।।
हिंदी में भावार्थ-
दुर्जन व्यक्ति को कितना भी प्रेम से समझाया जाये पर वह किसी भी हालत में सज्जन भाव को प्राप्त नहीं होता, जैसे नीम का वृक्ष दूध और घी से सींचा जाये पर उसमें मधुरता नहीं आती।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य महाराज कहते हैं कि जिस व्यक्ति को अपने घर के मामलों में अधिक रुचि है वह कोई अन्य विद्या या ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता।
मांसाहार के विषय में अनेक प्रकार की बहस होती है। अब तो यह पश्चिमी स्वास्थ्य और मनोचिकित्सक भी मानने लगे है कि मांसाहार से व्यक्ति में हिंसा की प्रवृ त्ति आती है। भारतीय अध्यात्मिक संदेश भी यही कहता है कि मनुष्य देह पंचतत्वों से बनी है और उनके गुणों के प्रभाव से ही उसका संचालन होता है। इसका सीधा आशय यह कि जिस तरह का खानपान मनुष्य ग्रहण करेगा उसके गुण दोषों के अनुसार ही उसकी सोच का निर्माण होगा। अगर मनुष्य सात्विक भोजन ग्रहण करेगा तो उसमें स्वाभाविक रूप से दया, प्रेम और अहिंसा के भाव आयेंगे। यदि वह तामसिक पदार्थों का भक्षण और सेवन करेगा तो उसकी मूल प्रवृत्ति में क्रोध, हिंसा और घृणा के भाव स्वयं ही आयेंगे। इस विषय में किसी तर्क वितर्क की गुंजायश नहीं है भले ही कहने वाले कुछ भी कहते रहें। जैसे गुण हम बाहर से अपने अंदर ग्रहण करेंगे वैसे ही बाहर विसर्जन भी होगा।
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Sunday, May 17, 2009

मनु स्मृति: ज्ञान के बिना मन पर नियंत्रण संभव नहीं

नीति विशारद मनु महाराज कहते हैं कि
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वशे कृत्वेन्दिियग्रामं संयम्य च मनस्तथा।
सर्वान्संसाधयेर्थानिक्षण्वन् योगतस्तनुम्।।

हिंदी में भावार्थ-मनुष्य के लिये यही श्रेयस्कर है कि वह अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण रखे जिससे धर्म,अर्थ,काम तथा मोक्ष चारों प्रकार का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके।
न तथैंतानि शक्यन्ते सन्नियंतुमसेवया।
विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यशः

हिन्दी में भावार्थ-जब तक इंद्रियों और विषयों के बारे में जानकारी नहीं है तब तब उन पर निंयत्रण नहीं किया जा सका। इंद्रियों पर नियंत्रण करना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिये यह आवश्यक है कि विषयों की हानियों और दोषों पर विचार किया जाये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इंद्रियों पर नियंत्रण और विषयों से परे रहने का संदेश देना आसान है पर स्वयं उस पर नियंत्रण करना कोई आसान काम नहीं है। आप चाहें तो पूरे देश में ऐसे धार्मिक मठाधीशों को देख सकते हैं जो श्रीगीता का ज्ञान देते हुए निष्काम भाव से कर्म करने का संदेश देते हैं पर वही अपने प्रवचन कार्यक्रमों के लिये धार्मिक लोगों से सौदेबाजी करते हैं। लोगों को सादगी का उपदेश देने वाले ऐसे धर्म विशेषज्ञ अपने फाइव स्टार आश्रमों से बाहर निकलते हैं तो वहां भी ऐसी ही सुविधायें मांगते हैं। देह को नष्ट और आत्मा को अमर बताने वाले ऐसे लोग स्वयं ही नहीं जानते कि इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए विषयों से परे कैसे रहा जाता है। उनके लिये धार्मिक संदेश नारों की तरह होते हैं जिसे वह लगाये जाते हैं।
दरअसल ऐसे लोगों से शास्त्रों से अपने स्वार्थ के अनुसार संदेश रट लिये हैं पर वह इंद्रियों और विषयों के मूलतत्वों को नहीं जानते। इंद्रियों पर नियंत्रण तभी किया जा सकता है जब विषयों से परे रहा जाये। यह तभी संभव है जब उसके दोषों को समझा जाये। वरना तो दूसरा कहता जाये और हम सुनते जायें। ढाक के तीन पात। सत्संग सुनने के बाद घूम फिरकर इस साँसससिक दुनियां में आकर फिर अज्ञानी होकर जीवन व्यतीत करें तो उससे क्या लाभ?
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Saturday, May 16, 2009

विदुर नीतिः धर्म का संचय हमेशा करें

उत्सृत्न्य विनिवर्तन्ते ज्ञातयः सह्दः सुताः।
अपुष्पानफलान् वृक्षान् यथातत पतित्रणः।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह फल और फूल से हीन वृक्ष को पक्षी त्याग कर चले जाते हैं वैसे इस शरीर से आत्मा निकल जाने पर उसे जाति वाले, सहृदय और पुत्र चिता में छोड़कर लौट जाते हैं।
अग्नी प्रास्तं पुरुषं कर्मान्वेति स्वयंकृतम्।
तस्मातु पुरुषो यत्नाद् धर्म संचितनुयाच्छनैः।।
हिंदी में भावार्थ-
इस देह के अग्नि में जलकर राख हो जाने के बाद मनुष्य का अच्छा और बुरा कर्म ही उसके साथ जाता है अतः जितना हो सके धर्म के संचय का प्रयत्न करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस देह को लेकर अभिमान पालना व्यर्थ है। एक न एक दिन इसे नष्ट होना है। इस देह से बने जाति, धर्म, परिवार और समाज के रिश्ते तभी तक अस्तित्व में हैं जब तक यह इस धरती पर विचरण करती है। मनुष्य मोहपाश में फंसकर उनको ही सत्य समझने लगता है। इसमें मेहमान की तरह स्थित आत्मा का कोई सम्मान नहीं करता जिसकी वजह से यह देह रूपी शरीर प्रकाशमान है।
आपने देखा होगा कि आजकल हर जगह विवाहों के लिये बहुत सारी इमारतें बनी हुईं हैं। वहां जिस दिन कोई वैवाहिक कार्यक्रम होता है उस दिन वह रौशनी से जगमगाता है। जब विवाह कार्यक्रम नहीं होता उस दिन वहां अंधेरा रहता है। यह विचार करना चाहिये कि जब उस इमारत में बिजली और उससे चलने वाले उपकरण तथा सजावट का सामान हमेशा विद्यमान रहता है तब क्यों नहीं उसे हमेशा रौशन किया जाता? स्पष्ट है कि विवाह स्थलों के मालिक विवाह कार्यक्रम के आयोजकों से धन लेते हैं और इसी कारण वहां उस स्थान पर रौशनी की चकाचौंध रहती है। आयोजक भी धन क्यों देता है? उसके रिश्तेदार, मित्र और परिवार के लोग उस कार्यक्रम में शामिल होते हैं। अगर दूल्हा दुल्हन के माता पिता अकेले ही विवाह कार्यक्रम करें तो उनको व्यय करने की आवश्यकता ही नहीं पर तब ऐसे विवाह स्थल जगमगा नहीं सकते। तात्पर्य यह है कि मेहमानों की वजह से ही वहां सारी सजावट होती है। जब सभी चले जाते हैं तब वहां सन्नाटा छा जाता है। यही स्थिति इस देह में विद्यमान आत्मा की है। यह देह तो बनी यहां मौजूद पंच तत्वों से ही है पर उसको प्रकाशमान करने वाला आत्मा है। इस सत्य को पहचानते हुए हमें अपने जीवन में धर्म का संचय करना चाहिये। हमारे अच्छे काम ही इस आत्मा को तृप्त करते हैं।
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Thursday, May 14, 2009

विदुर नीतिः अपने मन के भावों से बनता है दृष्टिकोण

द्वेषो न साधुर्भवति न मेधावी न पण्डित।
प्रिये शुभानि कार्याणि द्वेष्ये पापानि चैव ह।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य के हृदय में अगर किसी के प्रति द्वेष भाव का निर्माण होता है तो-भले ही वह साधु या विद्वान हो-उसमें दोष ही दोष दिखाई देते हैं। उसी तरह अगर किसी के प्रति स्नेह या प्रेम पैदा हो तो-चाहे भले ही वह दुष्ट और पापी हो- उसमें गुण ही गुण दिखाई देते हैं।
न वृद्धिबंहु मन्तव्या या वृद्धि क्षयमावहेत्।
क्षयोऽपि बहु मन्तव्यो यः क्षयो वृद्धिमावहेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो विकास या वृद्धि अपने लिये भविष्य में घातक होने होने की आशंका हो उससे अधिक महत्व नहीं देना चाहिये। साथ ही अगर ऐसा पतन या कमी हो रही हो जिससे हमारा अभ्युदय होने की संभावना है तो उसका स्वागत करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-एक दृष्टा की तरह अगर हम अपने भौतिक स्वरूप देह का अवलोकन करें तो पायेंगे कि सारी दुनियां के प्राणी एक समान हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जिनके प्रति हमारे मन में प्यार या स्नेह होता है उनके दोषों पर हमारा ध्यान नहीं जाता। उसी तरह जिनके प्रति द्वेष या नाराजी है उनमें कोई गुण हमें दिखाई नहीं देता-कभी कभी ऐसा होता है कि उनका कोई गुण हमारे दिमाग में आता भी है तो उसे अपने चिंतन से जबरन दूर हटाने का प्रयास करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि हमारा मन और मस्तिष्क हमारी पूरी देह पर नियंत्रण किये रहता है। इसका आभास तभी हो सकता है जब योग साधना और ध्यान के द्वारा हम अपने अंदर बैठे दृष्टा के दृष्टिकोण को आत्मसात करें।
नीति विशारद विदुर यह भी कहते हैं कि हमें अपने आसपास हो रहे भौतिक तत्वों में विकास या वृद्धि बहुत अच्छी लगती है पर उनमें से कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो भविष्य में हमारे लिये घातक हों उसी तरह उनमें पतन या कमी ऐसी भी हा सकती है जो अच्छा परिणाम देने वाली हो। अतः अपने अंदर समबुद्धिरूप से विचार करने की शक्ति विकसित करना चाहिये।
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Wednesday, May 13, 2009

मनुस्मृति-स्त्री को अपनी शक्ति पर ही मिलती है सुरक्षा

न कश्चिद्योषितः शक्तः प्रसहय परिक्षितुम्।
एतैरुपाययोगैस्तु शक्यास्ताः परिरिक्षितम्।।
हिंदी में भावार्थ-
कोई भी पुरुष स्त्री को बलपूर्वक अनुचित कार्य करने से रोक नहीं सकता। उसके पास बस यही उपाय है कि वह स्त्री को केवल समझाये। तात्पर्य यह है कि स्त्री को किसी काम से रोकने के लिये शारीरिक प्रताड़ना की बजाय प्यार से समझाया जा सकता है और वह इतनी सहृदय होती है कि प्रेम से कही गयी बात को सहजता से समझ लेती हैं।
अरक्षिता गृहे रुद्धाः पुरुषैराताकरिभिः।
आत्मानमात्मना वास्तु रक्षेयुस्तः सुरक्षिताः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिन स्त्रियों को सज्जन पुरुष का सानिध्य प्राप्त है वह उस घर में सुरक्षित हैं। वह स्त्रियां अधिक सुरक्षित हैं जो अपनी रक्षा स्वयं करती हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब भी स्त्रियों की रक्षा की बात आती है तो तमाम तरह के तर्क दिये जाते हैं। इस संबंध में मनुमहाराज का कहना है कि जो स्त्रियां सज्जन पुरुषों के घर में रहती हैं उनको तो स्वाभाविक रूप से सुरक्षा प्राप्त हैं पर अंततः स्त्रियों को अपनी रक्षा अपनी शक्ति और बुद्धि से ही प्राप्त होती है। प्रायः देखा गया है कि पुरुष पहले प्रेमजाल में स्त्री को फंसा लेता है फिर उसका दैहिक और आर्थिक शोषण करता है। जहां भी स्त्री संकट में आती है वह अपनी सादगी या लालच के कारण आती है। कोई अनजान पुरुष आमतौर से स्त्री पर हमला नहीं करता। आंकड़े इस बात का प्रमाण है कि स्त्रियां अपनो का ही शिकार बनती हैं। शायद यही कारण है कि मनु महाराज भी इस बात को मानते हैं कि स्त्री को अपने विवेक, बुद्धि और चतुराई से अपनी रक्षा करना चाहिये।
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Tuesday, May 12, 2009

विदुर नीतिः धन कभी बुद्धि और दरिद्रता बुद्धिहीनता का प्रमाण नहीं होती

न बुद्धिर्धनलाभाय न जाह्यमसद्धये।
लोकपर्यावृतांत प्राज्ञो जानाति नेतरः।।
हिंदी में भावार्थ-
धन केवल बुद्धि से ही प्राप्त होता है या मूर्खता के कारण आदमी दरिद्र रहता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। इस संसार के नियमों को केवल विद्वान पुरुष ही जानते हैं।
असंविभागो दुष्टात्मा कृतघ्नो निरपत्रपः।
तादृंनारिधपो लोके वर्जनीवो नारधिपः।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने व्यक्ति अपने आश्रितां में अपनी धन संपत्ति को ठीक से बंटवारा नहंी कर तो दुष्ट कृतघ्न और निर्लज्ज है उसे इस लोक में त्याग देना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिन लोगों के पास धन नहीं है या अल्पमात्रा में है उन्हें धनवान लोग मूर्ख और अज्ञानी मानते हैं। अक्सर धनवाल लोग कहते हैं कि ‘अक्ल की कमी के कारण लोग गरीब होते हैं।’

उनका यह तर्क गलत और बेहूदा है। अगर ऐसा है तो अनेक धनवान गरीब क्यों हो जाते हैं? जिनके पास धन और संपत्ति विपुल मात्रा में वह अपने व्यवसाय में हानि उठाने या अपने बच्चों की गलत संगत के कारण उनके द्वारा किये जा रहे अपव्यय के से संकटग्रस्त हो जाने से निर्धनता को प्राप्त हो जाते हैं। तब उनके बारे में क्या यह कहना चाहिये कि ‘वह अक्ल के कारण ही अमीर हुए और अब उसके न रहने से गरीब हो गये।’ या ‘अब धन नहीं है तो उनके पास अक्ल भी नहीं होगी।’

कहने का तात्पर्य है कि यह धारणा भ्रांत है कि बुद्धि या अक्ल के कारण कोई अमीर या गरीब बनता है। संसार का अपना एक चक्र है। शाश्वत सत्य कभी नहीं बदलता पर माया तो महाठगिनी है। आज इस घर में सुशोभित है तो कल वह किसी दूसरे दरवाजे पर जायेगी। लक्ष्मी के नाम का एक पर्यायवाची शब्द ‘चंचला’ भी है। वह हमेशा भ्रमण करती हैं। अतः हमेशा ही अमीरों को बुद्धिमान और गरीबों को बुद्धिहीन मानने वालों को अपने विचार बदलना चाहिए।
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Sunday, May 10, 2009

श्री गुरु ग्रंथ साहिब से-जिसके मन में भ्रम नहीं है वह निडर हो जाता है

‘‘जाकै बिनसिउ मन ते भरमा।
ताकै कछु नाहीं डर जमा।।’’
हिंदी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार जिस मनुष्य के मन में कोई भ्रम नहीं रहता उसे मौत का भी डर नहीं रहता।
‘‘मनि मैले सभ किछु मैला तनि धोतै मनु हछा न होइ।‘
हिंदी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार जिस मनुष्य के मन में कुविचार और मैल है वह पूरी तरह से स्वयं ही मैला है। चाहे कितना भी वह तन धो ले पर उसका पवित्र नहीं होगा।
‘मनि जीतै जगु जीतु।‘
हिंदी में भावार्थ
-श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार जिसने मन जीत लिया उसे सारा जग ही जीत लिया।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-हमारे अध्यात्म दर्शन में मनुष्य को मन का पंछी बताया जाता है। सच तो यह है कि मनुष्य एक आत्मा है पर देह में स्थित मन उसकी बुद्धि को अपने होने का आभास देता है। इस त्रिगुणमयी माया में मनुष्य का मन उसे इस तरह फंसाये रहता है कि उसकी बुद्धि को वही सच लगता है।
देह का अस्तित्व आत्मा से है पर मन उसे पशु की तरह हांकता चला जाता है और मनुष्य बुद्धि में यह अहसास तक नहीं होता। मन कभी साफ नहीं होता जब तक अध्यात्मिक ज्ञान या भक्ति से आदमी अपनी बुद्धि, मन और अहंकार पर नियंत्रण कर ले। लालच,लोभ,क्रोध और मोह के जाल में फंसा मनुष्य अपना अस्तित्व उस मन से ही अनुभव करता है जो कि उसकी देह का हिस्सा है। अगर कोई मनुष्य ईश्वर की भक्ति दृढ़ भाव से करे तो उसकी बुद्धि स्थिर हो जायेगी और फिर मन काबू में आयेगा। काबू में आने पर ही उसमें शुद्धता लायी जा सकती है वरना तो वह मनुष्य देह में मौजूद अहंकार को बढ़ाकर उसके बंधन में मनुष्य का बांध देता है और फिर पशु की तरह हांकता चला जाता है-मनुष्य को यही भ्रम रहता है कि मैं चल रहा हूं। इस प्रकार के भ्रम पर भक्ति और ज्ञान से विजय पायी जा सकती है अन्यथा नहीं।
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Saturday, May 9, 2009

चाणक्य नीति-दूसरों की विपत्ति पर प्रसन्न होने वाले दुष्ट होते हैं

हस्ती अंकुशमात्रेण वाजी हस्तेन ताडयते।
श्रृङगी लगुडहस्तेन खङगहस्तेन दुर्जनः।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह अंकुश से हाथी तथा चाबुक से घोड़ा, बैल तथा अन्य पशु नियंत्रित किये जाते हैं वैसे ही दुष्ट से निपटने के लिये खड्ग हाथ में लेना ही पड़ता है।
तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा धनगर्जिते।
साधवः परसम्पतिौ खलः परविपत्तिषुः।।
हिंदी में भावार्थ-
विद्वान अच्छा भोजन, मेघों की गर्जना से मोर तथा साधु लोग दूसरों की संपत्ति देखकर प्रसन्न होते हैं वैसे ही दुष्ट लोग दूसरों को संकट में फंसा देखकर हंसते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में भांति भांति प्रकार के लोग हैं। जो ज्ञानी और विद्वान है उनको रहने, खाने,पीने और पहनने के लिये अच्छी सुविधा मिल जाये तो वह संतुष्ट हो जाते हैं। जो सच्चे साधु और सज्जन हैं वह दूसरों की भौतिक उपलब्धियों देखकर प्रसन्न होते हैं क्योंकि उनकी मान्यता होती है कि आसपास के लोग प्रसन्न होंगे तो उनके स्वयं के पास अच्छा वातावरण रहेगा और वह शांति से रह सकेंगे। इसके विपरीत कुछ लोग दुष्ट प्रवृत्ति के भी होते हैं जो स्वयं तो विपत्ति में पड़े रहते हैं पर उनका खेद तब कम हो जाता है जब कोई दूसरा भी विपत्ति मेें पड़ता है। ऐसे लोग अपने दुःख से अधिक दूसरे के सुख से अधिक दुःखी होती हैं। इसके अलावा अपने सुःख से अधिक दूसरे का दुःख उनको अधिक प्रसन्न करता है।
वैसे तो जीवन में हिंसा कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि फिर प्रतिहिंसा का सामना करने पर स्वयं को भी कष्ट उठाना पड़ा सकता है, पर इस संसार में कुछ ऐसे दुष्ट लोग भी हैं जिनको कितना भी समझाया जाये वह दैहिक आक्रमण से बाज नहीं आते। उनसे शांति और अहिंसा की अपील निरर्थक साबित होती है। ऐसे लोगों से मुकाबला करने के लिये अपने अस्त्रों शस्त्रों तथा अन्य साधनों उपयोग करने में कोई झिझक नहीं करना चाहिये। ऐसे लोगों के लिये धर्म और ज्ञान एक निरर्थक वस्तु हैं। देहाभिमान से ग्रस्त ऐसे लोगों के विरुद्ध लड़ना पड़े तो संकोच त्याग देना चाहिए।
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Wednesday, May 6, 2009

चाणक्य नीतिः अपनी भौतिक उपलब्धियों पर संतोष करना ही उचित

संतोषाऽमृत-तुप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम्।
न च तद् धनलूब्धानामितश्चयेतश्च धावताम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मनुष्य संतोष रूप अमृत से तुप्त है उसका ही हृदय शांत रह सकता है। इसके विपरीत जो मनुष्य असंतोष को प्राप्त होता है उसे जीवन भर भटकना ही पड़ता है उसे कभी भी शांति नहीं मिल सकती।
संतोषस्त्रिशु कत्र्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
त्रिषु चैव न कत्र्तव्योऽध्ययने तपदानयोः।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य को अपनी पत्नी, भोजन और धन से ही संतोष करना चाहिये पर ज्ञानार्जन, भक्ति और दान देने के मामले में हमेशा असंतोषी रहे यही उसके लिये अच्छा है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य के संदेशों के ठीक विपरीत हमारा देश चल रहा है। जिन लोगों के पास धन है उनके पास भी संतोष नहीं है और जिनके पास नहीं है उनसे तो आशा करना ही व्यर्थ है। अपनी पत्नी और घर के भोजन से धनी लोगों को संतोष नहीं है। जीभ का स्वाद बदलने के लिये ऐसी वस्तुओं का सेवन बढ़ता जा रहा है जो स्वास्थ्य के लिये हितकर नहीं है। कहा जाता है कि खाने पीने की वस्तुओं को स्वच्छता होना चाहिये पर होटलों और बाजार की वस्तुओं में कितनी स्वच्छता है यह हम देख सकते हैं। किसी रात एक साफ रुमाल घर में रख दीजिये और सुबह देखिये तो उस पर धूल जमा है तब बाजार में कई दिनों से रखी चीजों में स्वच्छता की अपेक्षा कैसे रखी जा सकती है। घर में गृहिणी सफाई से भोजन बनाती है पर क्या वैसी अपेक्षा होटलों के भोजन में की जा सकती है। ढेर सारे ट्रक, ट्रेक्टर,बसेें, मोटर साइकिलें तथा अन्य वाहन सड़कों से गुजरते हुए तमाम तरह की धूल और धूंआ उड़ाते हुए जाते हैं उनसे सड़कों पर स्थित दुकानों,चायखानों और होटलों में रखी वस्तुओं के विषाक्त होने की आशंका हमेशा बनी रहती है। ऐसे में बाजारों में खाने वाले लोगों के साथ अस्पतालों में मरीजों की संख्या भी बढ़ रही है तो आश्चर्य की बात क्या है?
इसके विपरीत लोगों की आध्यात्मिक ज्ञान और भक्ति के भाव के प्रति कमी भी आ रही है। लोगों को ऐसा लगता है कि यह तो पुरातनपंथी विचार है। असंतोष को बाजार उकसा रहा है क्योंकि वहां उसे अपने उत्पाद बेचने हैं। प्रचार के द्वारा बैचेनी और असंतोष फैलाने वाले तत्वों की पहचान करना जरूरी है और यह तभी संभव है कि जब अपने पास आध्यात्मि ज्ञान हो।
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Tuesday, May 5, 2009

मनु स्मृति: ज्ञान देने वाला छोटो होने पर भी सम्मानीय

उत्पादकब्रह्मदात्रोर्गरीयान् ब्रह्मदः पिता।
ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य चेह च शाश्वतम्।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य को जन्म और शिक्षा देने वाले दोनों ही पिता होते हैं पर पर विद्या और ज्ञान देने से मनुष्य लोक तथा परलोक दोनों ही सुधारता है इसलिये उसका ही महत्व अधिक है। अतः ज्ञान देने वाले का ही अधिक महत्व है।
अध्यापयामास पितृन् शिशुरङिगरस कविः
पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिगृह्म तान्।।
हिंदी में भावार्थ-
अङिगरस ऋषि ने अपने बुजुर्गों को अध्ययन कराते हुए ‘हे पुत्रों’ कहकर ज्ञान दिया था। इस तरह अपने से छोटा होने पर भी ज्ञान देने वाला गुरु कहलाता है।
संपादकीय व्याख्या -भारतीय अध्यात्म में माता पिता तथा गुरु को परम आदरणीय माना जाता है पर जीवन और व्यवहार का ज्ञान देने वाले गुरु का विशेष स्थान होता है। माता पिता तो अपने पुत्र को परिवार तथा व्यवसायों की परंपराओं से अवगत स्वाभाविक रूप से कराते हैं क्योंकि वह देह के निकट होते हैं पर गुरु तो निष्काम भाव से अपने शिष्यों को जीवन और अध्यात्म का ज्ञान देते हैं जो कि न केवल इस लोक में बल्कि परलोक में भी सहायक होता है। गुरु का अपने शिष्य से कोई दैहिक संबंध नहीं होता इसलिये उसकी शिक्षा का अधिक महत्व है।
अङिगरस ऋषि ने भी अपने पिता, चाचा और ताउओं को ब्रह्मज्ञान दिया और उस समय उनको ‘हे पुत्रों’ कहकर संबोधित किया था। कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञान देने वाला अपने से छोटी आयु का भी क्यों न हो उसका गुरु की तरह सम्मान करना चाहिये। उसी तरह अपने से बड़े को ज्ञान देते समय भी उसे अपना शिष्य समझना चाहिये। यही कारण है कि हमारे संत और ऋषि गुरु महिमा का बखान करते हैं।
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Sunday, May 3, 2009

मनुस्मृति-इंद्रियों पर कुशल सारथी की तरह नियंत्रण करने वाला ही विद्वान

इंद्रियाणां विचरतां विषयेस्वपहारिषु।
संयमे यलमातिष्ठेद्विद्वान्यन्तेव वाजिनाम्।।
हिंदी में भावार्थ-
एक विद्वान अपने मन और इंद्रियों पर वैसे ही लगाम से नियंत्रण करता है जैसे कि कोई कुशल सारथी अपने घोड़ों पर करता है।
जप्येनैव तु संसिध्येद् ब्राह्मणो नात्र संशयः।
कुर्यादन्यन्नवा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते।
हिंदी में भावार्थ-
इसमें कोई संदेह नहीं है कि जाप यज्ञ से ही किसी को भी लाभ हो सकता है। परमात्मा का नाम जाप करने वाला अगर कोई अन्य यज्ञ नहीं करे तो भी उसे सिद्धि मिल जाती है और उसे समाज में भी सम्मान प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुमहाराज ने भी समाज में कर्मकांडों को महत्व को नकारते हुए यह विचार व्यक्त किया है कि अगर कोई मनुष्य हृदय से भगवान का जाप करे तो उसे पूरी तरह भक्ति का लाभ होगा। मनुमहाराज को भारतीय समाज का पथप्रदर्शक कहा जाता है। आलोचक तो उन पर समाज में अंधविश्वास फैलाने का आरोप लगाते हैं जबकि उनका यह स्पष्ट मत है कि अगर मनुष्य भगवान का नाम हृदय से जाप करे तो उसे कोई अन्य यज्ञ या हवन करने की आवश्यकता नहीं है। यह अलग बात है कि मनुमहाराज के प्रशंसक होने का दावा करने वाले अन्य प्रकार के कर्मकांडों पर ही अधिक जोर देते हैं और हृदय से जाप करने की बजाय न बल्कि स्वयं बल्कि दूसरों को भी प्रेरित करते हैं-कहीं कहीं तो बाध्य भी करते हैं।
उसी तरह मनु महाराज यह भी कहते हैं कि विद्वान वही है जो अपनी इंद्रियों पर अपना शासन करता है न कि उनसे शासित होता है। कितनी विचित्र बात है कि हमारे देश में शिक्षा का विस्तार होने के साथ ही लोगों में व्यसनों की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। शराब पीना तथा अनैतिक संबंध स्थापित करना शिक्षित लोगों के लिये एक फैशन बन गया है। असंयमित जीवन जीने वाले अधिकतर वही लोग हैं जिन्होंने शिक्षा प्राप्त की है और अपने आपको विद्वान कहने में उनको गौरव की अनुभूति होती है। सबसे अधिक लालच, लोभ और अहंकार की प्रवृत्ति का शिकार पढ़ा लिखा तबका ही हुआ है। मनुमहाराज के संदेश के अनुसार तो वह साक्षर और शिक्षित हैं पर विद्वान नहीं है। विद्वान तो उसी व्यक्ति को कहा जा सकता है जो अपनी इंद्रियों पर संयम रखता हो।
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Saturday, May 2, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मणि के आगे कांच का महत्त्व नहीं होता

निरालोके हिः लोकेऽस्मिन्नासते तत्रपण्डिताः।
जात्यस्य हिं मणेयंत्र काचेन समता मताः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति ज्ञान के अंधेरे में रहते हैं उनके समीप विद्वान लोग नहीं बैठते। जहां भला मणि हो वहां कांच के साथ कैसा व्यवहार किया जा सकता है।
उतमाभिजनोपेतानम न नीचैः सह वर्द्धयेतु।
कृशीऽपि हिवियेकहो याति संश्रयणीयाताम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो उत्तम गुणों वाले हों उनको नीच गुणों वालों से मेल नहीं करना चाहिये। इसमें संदेह नहीं है कि संकट में आये उत्तम गुणी विद्वान को राज्य का आश्रय अवश्य प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आदमी को अपने गुणों की पहचान करते हुए समान गुणों वाले लोगों से ही मेल मिलाप करना चाहिये। अगर कोई व्यक्ति अधिक शिक्षित व्यक्ति है और वह अशिक्षितों में बैठकर अपने ज्ञान का बखान करता है तो वह लोग उसकी मजाक बनाते हैं। कई तो कह देते हैं कि ‘पढ़े लिखे आदमी किस काम के?’
उसी तरह अशिक्षित व्यक्ति जब शिक्षितों के साथ बैठता है तो वह उसकी मजाक उड़ाते हैं कि देखोे बेचारा यह पढ़ नहीं पाया। इस तरह समान स्तर न होने पर आपस में एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति मनुष्य में स्वाभाविक रूप से होती है।
कहने को कहा जाता है कि यहां झूठे आदमी का बोलबाला है पर यह एक वहम है। अगर व्यक्ति शिक्षित, ज्ञानी और कर्म में निरंतर अभ्यास में रत रहने वाला है तो विपत्ति आने पर उसे राज्य का संरक्षण अवश्य प्राप्त होता है। बेईमानी, भ्रष्टाचार और अनैतिक व्यापार करने वालों को हमेशा राज्य से भय लगा रहता है। उनके पास बहुत सारा धन होने के बावजूद उनका मन अपने पापों से त्रस्त रहता है। कहते हैं कि पाप की हांडी कभी न कभी तो फूटती है। यही हालत अनैतिक आचरण और कर्म से कमाने वालों की है। वह अगर इस प्रथ्वी के दंड से बचे भी रहें तो परमात्मा के दंड से बचने का उनके पास कोई उपाय नहीं है। वह अनैतिक ढंग से धन कमाकर अपने परिवार का भरण भोषण करते हैं पर उनके साथ शारीरिक विकार लगे रहते हैं। इसके अलावा उनके काले धन के प्रभाव से उनके परिवार के सदस्यों का आचरण भी निकृष्टता और अहंकार से परिपूर्ण हो जाता है जिसका बुरा परिणाम आखिर उनकेा ही भोगना पड़ता है।
उसी तरह जो लोग अपने जीवन में नैतिकता और ईमानदारी के सिद्धांतों का पालन करते हैं उनके परिवार सदस्यों पर भी उसका अच्छा प्रभाव पड़ता है। चाहे लाख कहा जाये सत्य के आगे झूठ की नहीं चल सकती जैसे मणि के आगे कांच का कोई मोल नहीं रह जाता।
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