Friday, June 27, 2014

दीन पर दया करे वही दीनबंधु-रहीम दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(deenbandhu par jo daya kare vahi deenbandhu-A hindu hindi religion thought based on rahim darshan)



            पाश्चात्य संस्कृति तथा शिक्षा के प्रभाव में हमारे यहां समाज सेवा करना एक फैशन बन गया है। जहां पहले लोग दान आदि जैसे काम धार्मिक भावना से ओतप्रोत होकर स्वभाविक रूप से करते थे वहीं अब स्थिति यह है कि समाज सेवा करने वाले एक हाथ से चंदा लेते हैं तो दूसरे हाथ से गरीबों और असहायों की मदद का दावा करते हैं। एक तरह से पूर्णकालिक पेशेवर समाज सेवकों की जमात बन गयी है जिनका दावा यह होता है कि वह निष्काम भाव से परमार्थ कर रहे हैं।  इतना ही नहीं यह समाज सेवक अपनी छवि एक देवपूरुष की बनाकर सम्मान भी प्राप्त करते हैं।  अपनी छवि के लिये चंदे के रूप में प्राप्त धन का उपयोग वह प्रचार माध्यमों में बनाये रखने के लिये भी करते हैं।  इतना ही नहीं उनका कोई व्यवसाय नहीं होता इसलिये वह इसी चंदे से अपना घर भी चलाते हैं।

कविवर रहीम कहते हैं

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दिव्य दीनता के रसहि, का जाने जग अंधु
भली बिचारी दीनता, दीनबंधु से बंधु

      हिंदी में भावार्थ-भगवान की भक्ति दीन भाव से करने पर जो रस और आनंद मिलता है उसे अहंकार में अंधे लोग नहीं समझ सकते। दीनता में जो सोंदर्य है उससे ही दीनबंधु आकर्षित होते हैं।

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय
जो रहीम दीनहि लखै, दीनबंधु सम होय

      हिंदी में भावार्थ-जो दीन है वह सबकी तरफ देखता है पर उसे कोई नहीं देखता। जो दीन की ओर देखकर उस पर दया करता है उसके लिये वह भगवान तुल्य हो जाता है।

     पहले समाज की एक स्वचालित व्यवस्था थी जिसमें धनी व्यक्ति के लिये दान का कर्तव्य निश्चित किया गया ताकि जिनके पास धन नहीं है उन्हें प्राप्त होता रहे और समाज में समरसता का भाव बना रहे मगर  अब लोग दान के नाम पर नाक भौं सिकोड़ते हैं या फिर ढिंढोरा पीटकर देते हें जिससे उनको आर्थिक लाभ और सामाजिक प्रतिष्ठा मिले। कुछ धनिक और उनकी संतानों के लिये तो माया शक्ति प्रदर्शन का एक हथियार बन गयी है। जिनके पास धन है उनको समाज में दीन और दरिद्र की तकलीफों का ख्याल नहीं होता और न ही इस बात का विचार होता है कि वह उनकी तरफ अपेक्षित भाव से देख रहे हैं। माया उनको अंधा बना देती हैं और फिर इन्हीं दीनों में से कोई अपराधी बनकर उनकी इसी माया का हरण तो कर ही लेता है और कहीं न कहीं तो शारीरिक हानि भी पहुंचा देता हैं।
      एक बात धनिकों को याद रखना चाहिये कि दीन उनको देखते हैं और उनके व्यवहार से ही उन पर अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में अगर वह स्वयं ही उन पर दया करें तो उनके लिये भगवान बन जायेंगे क्योंकि दीन तो बिचारे सभी तरफ देखते हैं पर उनकी तरफ अगर कोई देखे तो उनका मन प्रसन्न हो जाता है।
      दान करने से आशय यह नहीं है कि कहीं भिखारियों को खाना खिलाया जाये या किसी मंदिर में दान डाला जाये। यह अपने आसपास ही निर्धन और जरूरतमंद लोगों लोगों की सहायत कर भी किया जा सकता है। किसी मजदूर से काम कराकर उसके मांगे गये मेहनताने से थोड़ा अधिक देकर या अपने घर की अनावश्यक पड़ी वस्तु उनको देखकर भी उनका मन जीता जा सकता है। यह संदेश साफ है कि अगर आप धनी है तो आप अपने आसपास के निर्धन लोगों पर कृपा करते रहें तभी आप भी अमन से रह पायेंगे वरन आपको स्वयं ही अकेलापन और असुरक्षा का अनुभव होगा। मतलब यह कि आप दीनबंधु बने तभी आप दीनबंधु को पा सकते हैं। दान देते समय भी अपने अंदर दीन भाव रखना चाहिये और भक्ति करते समय भी। तभी परमानंद की प्राप्त हो सकती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Thursday, June 12, 2014

सभी के हित की सोचना राज्य का दायित्व-रहीम दर्शन पर आधारित चिन्तन लेख(sabhi ke hit ki sochana rajya ka kam-A hindu hindi religion thoght based on rahim darshan)


                      हमारे देश में राजपद पाने की लालसा अनेक लोग राजनीति में सक्रिय करते हैं।  जिनके पास पैसा, प्रतिष्ठा और पराक्रम है वह आधुनिक लोकतंत्र में पद पाकर समाज में अपना प्रभाव बढ़ने को उत्सुक रहते हैं।  यह पद की चाहत अपने मन में पूज्यता का भाव शांत करने के लिये पैदा होती है। सच बात तो यह है कि राजपद पाना हमारे देश में एक उपलब्धि तो माना जाता है पर उसके साथ जो दायित्व हैं उन पर किसी की दृष्टि नहीं जाती।  किसी भी राज्य का प्रबंध सहज नहीं होता उस पर भारत जैसे विशाल तथा विविधताओं वाले देश में तो सुशासन बनाय रखना एक बड़ी चुनौती होती है पर कभी यह नहीं लगता कि राजपद की कामना रखने अनेक लोगों को इसका आभास होता है।
कविवर रहीम कहते हैं कि

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रहिमन राज सराहिए, ससि सम सुखद जो होय।

कहा बापुरो भानु है, तपै तरैयन खोय।।

                   हिन्दी में भावार्थ-वही राज्य सराहनीय है जिसमें सभी लोग वर्ग के लोग खुश रहें। जहां सभी को आगे बढ़ने का अवसर मिले और जहां सभी को अपने काम काम पूरा दाम मिले वही राज्य सुशासित कहलाता है।
                      राज्य प्रमुख का यह कर्तव्य रहता है कि वह अपने अंतर्गत रहने वाले विभिन्न वर्ग, वर्ण तथा विचार वाले लोगों की रक्षा करे।  सभी को आगे बढ़ने के समान अवसर मिले। हम देख रहे हैं भारत में आधुनिक लोकतंत्र प्रणाली होने के बावजूद वैसी अपेक्षायें पूरी नहीं हो सकीं जैसी अपेक्षा की गयी थी।  देखा यह गया कि इस लोकतंत्र की आड़ में वैसी राजशाही, वंशवाद तथा वणिक वृत्ति राज्यकर्म में व्याप्त हो गयी है जैसे पहले हुआ करती थी।  हालांकि अभी हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनाव के परिणामों में आम लोगों ने यह जता दिया है कि वह देश में एक सच्चा लोकतंत्र चाहते हैं।  इन चुनाव परिणामों से यही संदेश मिला है कि लोग इस देश में राज्य से अपने विकास तथा रक्षा की अपेक्षा करते हैं।  वह छोटी छोटी बातों से बहलने वाले नहीं है। न ही कथित नारे उनको प्रभावित कर सकते हैं।  यह अलग बात है  कि इस संदेश को राजपद पाने का मोह रखने वाले लोग कितना समझ पाते हैं


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Tuesday, June 3, 2014

भगवान नाम स्मरण के अलावा भक्ति के अन्य प्रयास व्यापार-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन(bhagwan nam ke alawa bhakti ka anya prayas vyapar-A hindi hindu religion thought based on bhartrihari polciy century)



      हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के भ्रम इस तरह प्रचलित हो गये हैं कि लोग यह समझ नहीं पाते कि आखिर परमात्मा की भक्ति का कौनसा तरीका प्रभावकारी है? यह भ्रम भारत में सदियों से सक्रिय उन पेशेवर शिखर पुरुषों के कारण है जो लोगों की इंद्रियों को बाहर सक्रिय कर उनसे आर्थिक लाभ पाने के लिये यत्नशील होते हैं। समाज में अंतर्मुखी होकर परमात्मा की भक्ति करने के लिये वह उपदेश जरूर देते हैं पर उसकी जो विधि बताते हैं वह बर्हिमुखी भक्ति की  ही प्रेरक होती है।  भारत में गुरु शिष्य तथा सत्संग की परंपरा का इन पेशेवर धार्मिक ठेकेदारों ने जमकर उठाया है।  गुरु बनकर वह जीवन भर के लिये शिष्य को अपने साथ बांध लेते हैं।  शायद ही कोई शिष्य हो जो ज्ञान प्राप्त कर इन गुरुओं के सानिध्य से मुक्त हो पाता हो।  इतना ही नहीं ऐसे धार्मिक ठेकेदार अपने धर्म की दुकान भी किसी शिष्य की बजाय अपने ही घर के किसी सदस्य को सौंपते हैं।  कहने का  अभिप्राय यह है कि अपने पूरे जीवन में धार्मिक व्यवसाय के दौरान एक भी ऐसा शिष्य तैयार नहीं कर पाते जो उनके बाद कोई संभाल सके। सत्संग के नाम पर यह अपने सामने श्रोताओं की भीड़ एकतित्र कर रटा हुआ ज्ञान देते हैं और कभी प्रमाद वाली बातें भी कर माहौल को हल्का करने का दावा भी करते हैं।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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किं वेदै स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः स्वर्गग्रामकुटीनिवाफलदैः कर्मक्रयाविभमैः।

मुक्तवैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानलं स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलन। शेषाः वणिग्वृत्तयः।।

     हिन्दी में भावार्थ-वेद, स्मृतियां और पुराणों के पठन,  शास्त्रों के सूत्रों के विस्तार तथा किसी स्वर्गरूप कुटिया में रहकर स्वर्ग पाने के लिये तप करने से कोई लाभ नहीं होता। संसार में कष्ट से रहित मुक्तभाव सेे विचरण करने के लिये परमात्मा के नाम का स्मरण करने के अलावा अन्य कर्मकांड व्यापारिक प्रवृत्ति का ही प्रतीक हैं।
      वेद, पुराण, शास्त्र तथा अन्य प्राचीन धार्मिक ग्रंथों  के सू़त्र रटकर सुनाने वाले हमारे समाज में बहुत लोग हैं। हमारे देश में कथित रूप से अनेक धर्मों का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है जबकि सच यह है कि शुद्ध आचरण ही मनुष्य के धमभीरु होने का परिचायक है।  हमारे देश में विभिन्न धार्मिक पहचान वाले समूह हैं जिनके तयशुदा रंग के वस्त्र पहनकर कथित ठेकेदार  ऐसा पाखंड करते हैं कि वह देश में अपने धार्मिक समूह के खैरख्वाह है।  ऐसे लोग धार्मिक ही  नहीं आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा प्रचार के क्षेत्र में अपने संपर्क बनाते हैं। अवसर आने पर इस तरह बयान देते हैं कि गोया कि उनके वाक्य सर्वशक्तिमान के श्रीमुख से प्रकट हुए हैं।
      हमारे देश के लोगों में अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति झुकाव सदैव रहा है इसलिये समाज का एक बड़ा वर्ग इन धार्मिक गुरुओं के चक्कर में नहीं पड़ता पर जिस तरह यह लोग प्रचार करते हैं उससे तो बाहरी देशों में यह धारण बनती है कि भारत के नागरिक अधंविश्वासी हैं।  हम जैसे योग तथा ज्ञान साधकों की दृष्टि से स्थिति ठीक विपरीत है पर चूंकि गुणीजन स्वतः प्रचार नहीं करते जबकि यह पेशेवर धार्मिक ठेकेदार अपने विज्ञापन के लिये धन भी व्यय करते हैं तो ऐसा लगता है कि उनका समाज पर उनक भारी प्रभाव है।
      योग साधना, भक्ति तथा चिंत्तन एकांत में की जाने वाली क्रियायें हैं।  एक तरह से यह ज्ञान यज्ञ होता है जबकि कर्मकांड द्रव्यमय यज्ञ हैं जिसको हमारे अध्यात्मिक दार्शनिक अधिक महत्व नहीं देते।  पेशेवर धार्मिक लोग समाज को इसी द्रव्यमय यज्ञ के लिये प्रेरित करते हैं जबकि ज्ञान यज्ञ से ही परमात्मा की अनुभूति की जा सकती है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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