Sunday, April 28, 2013

मजदूर दिवस-चाणक्य का धन के संबंध में दिया गया संदेश आज भी प्रासंगिक (mazdoor diwal or divas-chankya ka dhan ke sambandh mein diya gaya sandesh aaj bhee prasngik)

          हमारे देश में भारतीय अध्यात्म से प्रथक अनेक विदेशी विचारधाराओं ने लोगों के मनमस्तिष्क में घर कर लिया है। माना जाता है कि भारतीय अध्यात्म का दर्शन केवल बघारने के लिये है और उसके सिद्धांतों का अब कोई व्यवाहारिक महत्व नहीं है।  अनेक बुद्धिमानों ने  योजनाबद्ध ढंग से  साम्यवादी, प्रगतिवादी तथा समाजवादी विचाराधाराओं को  क्रम से यह कहकर स्थापित करने का प्रयास किया है कि उनके अनुसार गरीबों और असहायों को मदद मिलनी चाहिये।  जब यह बुद्धिमान इन विदेशी विचाराधाराओं का गुणगान करते हैं तो उनका संबोधन समाज नहीं वरन् राज्य व्यवस्था की तरफ होता है। उनका मानना है कि मनुष्य समाज तो एक दम संवदेनहीन होता और उसे राज्य के दंड से ही नियंत्रित किया जा सकता है।
           इसके विपरीत भारतीय अध्यात्म दर्शन समाज को संबोधित करता है। उसका मानना है कि अगर समाज स्वतः नियंत्रित होगा ता अधिक शक्तिशाली होगा। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्म दर्शन ने ही हमेशा दान की प्रवृत्ति का संदेश दिया हैं। हमारे देश के बुद्धिमान लोग उसका आशय केवल मुफ्त में किसी गरीब को देना मानते हैं। इतना ही नहीं  यह समाज के धनी लोगों के विवेक पर ही निर्भर है जबकि हमारे बुद्धिमान मानते हैं कि जिसके पास राज्य दंड नहं है वह संवेदनशील हो ही नहीं सकता।  दरअसल इस दान की महिमा के लिये पुण्य का लाभ मिलने की बात अवश्य हमारा दर्शन कहता है पर उसका कोई रूप स्पष्ट नहीं किया है।  यह पुण्य केवल  अगले जन्म या इस जन्म में प्रत्यक्ष मिलता हो ऐसा दावा हमारा दर्शन नहीं करता।  इस दान की प्रवृत्ति को उकसाने के पीछे हमारे विद्वान मनीषियों का आशय यही रहा है कि इससे समाज में समरसता और शंाति रहे। जिनके पास धन है वह अपने से कमतर व्यक्ति को उसकी सेवा या वस्तु प्रतिफल या दान में देते रहें ताकि वह कभी भूखे न रहें। अगर वह भूखे या निराश होंगे तो समाज को कहीं न कहीं उनके विद्रोह का सामना करना पड़ता है। इससे अशांति फैलती है। अगर धनी मनुष्य अपने समाज के गरीब लोगों का ख्याल रखता है तो उसके धन देने की प्रक्रिया को भले ही दान कहें पर इससे जो शांति बनी रहती है वह उसके लिये पुण्य के रूप  में प्रतिफल ही होता है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणाम्।
लडागोदसंस्थानां परीवाह इवाऽम्भासाम्।।
       हिन्दी में भावार्थ-अर्जित धन का त्याग करने से ही उसकी रक्षा हो सकती है। जैसे तालाब में जमा जल को बाहर निकालने पर उसकी रक्षा होती है।
      चाणक्य महाराज के इस संदेश का विस्तार से अर्थ समझें तो यह स्पष्ट है कि जिन लोगों को पास अधिक धन है वह इस गुमान में कतई नहीं रहें कि वह उसका केवल संग्रह कर अपनी तथा परिवार की रक्षा कर सकते हैं।  उनको अपने आसपास रह रहे लोगों को खुश रखने के लिये भी कुछ व्यय करते रहना चाहिये।  ताकि वह निराशा और हताशा से उनकी तरफ वक्र दृष्टि न डालें।  इतना ही नहीं जब वह धनिकों पर निर्भर रहेंगे तो उनकी रक्षा के लिये भी तैयार रहेंगे।  अगर धनी ऐसा नहीं करेंगे तो निश्चित रूप से न उनका धन और नही परिवार सुरक्षित रह सकता है। एक तरह से यह चाणक्य का समाजवादी सिद्धांत है जिसके लिये अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 



Sunday, April 21, 2013

सर्वरक्षक आत्मा का स्मरण करें-यजुर्वेद (sarvarakshak aatma ka smaran kar-yajurved)

       पूरे विश्व समाज  में सोने  को अत्यंत महंगी धातु माना जाता है। हैरानी की बात यह है कि सोना किसी का पेट न भर सकता है न गले की प्यास  बुझा सकता है फिर भी  लोग उसे पाने को आतुर रहते है।  खासतौर से महिलाओं को सोने के आभूषण पहनने का शौक रहता है।  अपने आप में यह आश्चर्य की बात है कि जिस अन्न से मनुष्य का पेट भरता है उसे कोई सम्मान से नहीं देखता।  इतना ही नहीं जिस अन्न को प्रसाद मानकर खाना चाहिये लोग उसे मजबूरी समझ कर खाते हैं क्योंकि उसके बिना शरीर नहीं चल सकता।   अधिकतर मनुष्य भोजन कर शरीर इसलिये चलाना चाहते हैं कि अधिक से अधिक दैहिक रूप सक्रिय होकर धन संचय कर सकें। इस द्रव्य धन का सर्वश्रेष्ठ भौतिक रूप सोना ही है।  आज के विश्व समाज में सोने  का उपयोग कागजी मुद्रा को भौतिक रूप में स्थिर रखने के लिये किया जाता है।  इसी सोने के पात्र में जीवन का सच छिप जाता है।  यह संसार बिना अधिक धन संपदा, भूमि तथा अन्य भौतिक साधनों के भी स्वर्ग हो सकता है यह तथ कोई सिद्ध या ज्ञान साधक ही समझ सकता है।  
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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हिरण्मपेन पवित्र सत्यस्थापिहितं सुखम्।
हिन्दी में भावार्थ-सोने के पात्र से सत्य ढका हुआ है।
वापुरनिलमृतथेदं भस्मान्थमशरीरम्।
क्रततो स्मद।।
क्लिवे स्मर।
कृथ्स्मर।।
हिन्दी
में भावार्थ-प्राण अपार्थिव अमृत हैं जबकि यह शरीर अंततः भस्म हो जाता है। अतः सर्वरक्षक आत्मा का स्मरण कर। अपनेअंदर स्थित कर्म करने वाला पुरुष का स्मरण कर।
       हमारी देह में विराजमान ही आत्म ही वास्तविक स्वर्ण है। यही वह अमृत है जिसका स्मरण करना चाहिये।  निरंतर बहिर्मुखी होने से मनुष्य बाह्य विषयों में सिद्धहस्त हो जाता है पर आंतरिक विषयों के बारे में उसका अज्ञान अंततः उसके लिये घातक होता है। आजकल लोगों के पास भौतिक साधनों का जमावड़ा तो हो गया है पर फिर भी कोई खुश नहीं दिखता। मानसिक तलाव के चलते लोग राजरोगों का शिकार होते जा रहे हैं।  समस्या यह भी है कि शारीरिक रूप से लोग अपने विकारों की चर्चा तो कर सभी को बता देते हैं पर उससे उनकी मानसिकता में  जिंदगी के प्रति उत्पन्न  नकारात्मक  भाव की  अनुभूति प्रत्यक्ष नहीं दिखती पर उनका आचरण तथा व्यवहार पर उसका दुष्प्रभाव अवश्व ही पड़ता है।  यही कारण है कि लोगों को दूसरों के द्वंद्व में मनोरंजन, पीड़ा में सनसनी और व्यसनों में ताजगी का अनुभव हेाता है।  आध्यात्कि विषय पर चर्चा उनके लिये केवल समय नष्ट करना ही होता है।  अपने मन के वेग से भौतिक संपदा के पीछे भाग रहे लोग अपनी आत्मा से साक्षात्कार तो दूर उसका विचार तक नहीं करते।
      जिन लोगों के हृदय में  शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ् रहने की इच्छा है उनको अंतमुखर््ी होकर योगासन, प्राणायाम, ध्यान और मंत्र जाप में अवश्य लगना चाहिये।  अंतमुर्खी  होकर अध्ययन करने से संसार के विषयों में स्वतः प्रवीणता आती हे पर बहिमुर्खी रहकर सांसकिर विषयों में लिप्त रहने से अध्याित्मक ज्ञान नहीं आ सकता।  जब भौतिकता से मोहभंग होता है तब अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव  में मनुष्य निराशा, हताशा और मानसिक विकृतियों का शिकार होकर अपना जीवन दाव पर लगा देता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 



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