Wednesday, April 30, 2008

रहीम के दोहे:दु:ख और सुख हैं चौसर की गोट की तरह

जब लगि जीवन जगत में, सुख दुख मिलन अगोट
रहिमन फूटे ज्यों, परत दुहुंन सिर चोट


कविवर रहीम कहते हैं कि इस जगत में जीवन है तब तक सुख और दुख और मिलते रहेंगे। यह ऐसे ही जैसे चैसर की गोट को गोट मारने से दोनो के सिर पर चोट लगती है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस संसार में दुःख और सुख दोनों ही रहते हैं। जिस तरह किसी भी खेल में दो खिलाड़ी होते हैं तभी खेल हो पाता है उसी तरह ही जीवन की अनुभूति भी तभी हो पाती है जब दुख और सुख आते हैं। सूरज डूबता है तभी आकाश में समस्त तारे और चंद्रमा दिखाई पड़ता ह। अगर यह प्रकृति द्वारा निर्मित चक्र घूमे नहीं तो हमें दिल औ रात का पता ही न चले-ऐसे मे क्या यह एकरसता हमें तकलीफ नहीं देगी?

गर्मी के दिनों में भी जब हम कूलर में बैठे रहते हैं तो घबड़ाहट होने लगती है और उस समय भी थोड़ी घूप का केवल हमें राहत देता है। गर्मी में धूप कितनी कठोर और दुखःदायी लगती है पर कूलर में भी बहुत देर तक बैठना दुखदायी हो जाता है। इस तरह यह दुख सुख का चक्र है। यह देखा जाये तो यह वास्तव में भ्रम भी है। दुख और सुख मन के भाव हैं। इसलिये अगर हमारे साथ जो परेशानियां हैं उनको सहज भाव से लें तो हमें दुख की अनुभूति नहीं होगी। अगर हम इस चक्र को लेकर प्रसन्न या दुखी होंगे तो उससे मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न होता है जो कि वास्तव में कई रोगों का जनक है और उसका इलाज किसी के पास नहीं है।

Tuesday, April 29, 2008

संत कबीर वाणी:मूर्ति रखकर उसकी सेवा की आड़ में होता है .धंधा

मूरति धरि धंधा रखा, पाहन का जगदीश
मोल लिया बोलै नहीं, खोटा विसवा बीस


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि लोग मूर्ति का भगवान बनाकर उसकी सेवा करने के बहाने अपना धंधा करते हैं, पर वह मोल लिया ईश्वर बोलता नहीं है इसलिये नकली है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आज से नहीं बरसों से मूर्ति पूजा के नाम पर नाटक इस देश में चल रहा है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि और तपस्वी यही कह गये है कि ईश्वर हमारे मन में ही पर फिर भी लोग ऐसी अज्ञानता के अंधेरे में भटकते हैं जहां हर पल उनको रोशनी मिलने की आशा रहती है। मंदिर जो कभी बहुत छोटे थे वह अब बड़े होते गये और उनकी कथित चरणसेवा करने वाले कारों में घूमने लगे हैं फिर भी लोग हैं कि अंधविश्वास के लिये दौड़े जा रहे है। जिसके पास माया का शिखर है वह भी दिखावे के लिये वहां जाता है और अपने दिल को संतोष देने के अलावा वह अन्य लोगों को भी यह संदेश देता है कि वह देख वह कैसा भक्त है। जिसके पास धनाभाव है वह भी वहीं जाता है और देखता है कि वहां धनी लोगों की पूछ है पर फिर भी शायद पत्थर की प्रतिमा की दया हो जाये इस मोह में वह उस पर अपनी श्रद्धा रखता है।

दरअसल मूर्तियों की कल्पना इसलिये की गयी कि मानव मस्तिष्क में इन दैहिक आंखों से देखकर ईश्वर की कल्पना को अपने मन में स्थापित कर ध्यान लगाया जाये और फिर निरंकार की तरफ जाये। इसका कुछ लोगों ने फायदा उठाया और यह कहकर कि ‘अमुक मूर्ति सिद्ध’ है और ‘अमुक जगह सिद्ध ह’ै जैसे भ्रम फैलाकर धंधा करते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि अशिक्षित तो ठीक शिक्षित लोग भी इन चक्करों में आ जाते है। हम देश में अनेक व्यवसायों में लोगों की संख्या का अनुमान करते हैं पर इस धर्म के धंधे में कितने लोग हैं यह कोई बता नहीं सकता है। सच तो यह है कि इस तरह की मूर्ति पूजा एक धंधा ही है जिससे बचा जाना चाहिए।

Monday, April 28, 2008

मनुस्मृति:खाने के बाद नहाना नहीं चाहिऐ

मध्र्यदिनाऽर्धरात्रे श्राद्धं भुक्तं च सामिषम्
सन्ध्ययोरुभयोश्चव न सेवेत चतुष्पथम्


दोपहर, आधी रात और दोनों संध्याओं के समय एवं श्राद्ध में मांस का भोजन कर बाजार में चौराहे पर अधिक समय तक नहीं घूमना चाहिए।

न स्नानपाचरद्भुत्वा नातुरा न कहानिशि
न वासोभिःसहाजस्त्रं नाऽविज्ञाते जलाशये


भोजन करने के बाद, रोगी होने, आधी रात के समय, कपड़े पहनकर गहरे पानी और उस सरोवर में नहीं नहाना चाहिए जिसके बारे में ज्ञान न हो।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अक्सर खाना खाने के बाद लोग घर से बाहर बाजारों में घूमने चले जाते हैं। कुछ लोग बाहर निकलकर सिगरेट, तंबाकू और उसकी पुडिया को खाने ऐसी जगहों पर चले जाते है जहां उनको लोग मिलते हैं। वैसे मनु जी ने यहां शायद इसलिये चौराहे शब्द उपयोग किया है क्योंकि गांवों और शहरों में चौराहों पर अधिकतर दुकाने आदि हुआ करतीं थीं। लगभग आज भी वैसी ही स्थिति है पर सब जगह चौराहे नहीं है और यहां हम बाजार को भी चौराहे के रूप में मान सकते हैं। लोग खाना खाने के बाद लंबे समय तक वहीं खड़े बातचीत में लगे रहते हैं। खाना खाने के बाद बाहर घूमने के बहाने बाहर लोग आपस में वही दुनियावी बातें करते है। जो दिनभर करते हैं। खाने के बाद भोजन को पचाने के लिये देह में कई रसायन होते हैं और इस तरह की कुछ क्रियाएं जो हम करते हैं उन रसायनों के मूल तत्व को नष्ट कर देतीं हैं। हम बातें करते है या घूमते हैं तो हमारे मस्तिष्क की धमनियों पर प्रभाव होता है और संभवत उससे खाने की पाचन क्रिया पर प्रभाव पड़ता है। आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान इस बात की पुष्टि करता है कि चिंता से भोजन की पाचन क्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः मनु जी के संदेश का महत्व हम समझ सकते हैं।

Friday, April 25, 2008

रहीम के दोहे:बुरे समय पर ओछे वचन भी सहन करने पड़ते हैं

समय परे ओछे बचन, सब के सहे रहीम
सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम


कविवर रहीम कहते हैं कि बुरा समय आने पर तुच्छ और नीच वचनों का सहना करना पड़ा। जैसे भरी सभा में देशासन ने द्रोपदी का चीर हरण किया और शक्तिशाली भीम अपनी गदा हाथ में लिए रहे पर द्रोपदी की रक्षा नहीं कर सके।

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय
सदा रहे नहिं एक सौ, का रहीम पछिताय


कविवर रहीम कहते हैं कि समय आने पर अपने अच्छे कर्मों के फल की प्राप्ति अवश्य होती है। वह सदा कभी एक जैसा नहीं रहता इसीलिये कभी बुरा समय आता है तो भयभीत या परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में सभी के पास कभी न कभी अच्छा समय आता है ऐसे में अपना काम करते रहने के अलावा और कोई चारा नहंी है। आजकल लोग जीवन में बहुत जल्दी सफलता हासिल करने को बहुत आतुर रहते हैं और कुछ को मिल भी जाती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है।
कई लोग जल्दी सफलता हासिल करने के लिये ऐसे मार्ग पर चले जाते हैं वहां उन्हें शुरूआत में बहुत अच्छा लगता है पर बाद में वह पछताते है।


यह सही है कि कुछ लोगों के लिये जीवन का संघर्ष बहुत लंबा होता है पर उन्हें अपना धीरज नहीं खोना चाहिए। कई बार ऐसा लगता है कि हमें जीवन में किसी क्षेत्र मे सफलता नहीं मिलेगी पर सत्य तो यह है कि आदमी को अपने अच्छे कर्मों का फल एक दिन अवश्य मिलता है।

Thursday, April 24, 2008

रहीम के दोहे:ज्ञान और शिक्षा ग्रहण करने के बाद अपनी राह चलें, किसी की सुने नहीं

कहते को कहिं जान दे, गुरू की सीख तू लेय
साकट जन और स्वान को, फेरि जवाब न देय


कविवर रहीम कहते है कि कहने वालों को कुछ भी कहने दो अपने गुरू की सीख लें और फिर अपने मार्ग पर चलें। अज्ञानी लोग और श्वान के भौंकने पर ध्यान न दें

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों का काम है कहना। सच तो यह है कि अपने जीवन में वह लोग कोई भी उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाते जो जो इस तरह कहने पर ध्यान देकर कोई कदम नहीं उठाते। अपने गुरू से चाहे वह आध्यात्मिक हो या सांसरिक ज्ञान देने वाला उसे शिक्षा ग्रहण कर अपने जीवन पथ पर बेखटके चल देना चाहिए। अगर उसके बाद अगर किसी के कहने पर ध्यान देते हैं तो अकारण व्यवधान पैदा होगा और अपने मार्ग पर चलने में विलंब करने से हानि भी हो सकती है। एक बात मान कर चलिए यहां ज्ञान बघारने वालों की कमी नहीं है। ऐसे लोग जिन्हें किसी भक्ति या सांसरिक क्षेत्र का खास ज्ञान नहीं होता वह खालीपीली अपनी सलाहें देते हैं और अपने अनुभव भी ऐसे बताते हैं जो उनके खुद नहीं बल्कि किसी अन्य व्यक्ति ने उनको सुनाये होते हैं।


इतना ही नहीं जब अपने माग पर चलेंगे तो दस लोग टोकेंगे। आपके कार्यो की मीनमीेख निकालेंगे और तमाम तरह के भय दिखाऐंगे। इन सबकी परवाह मत करो और चलते जाओ। यही जीवन का नियम है। हम देख सकते हैं जो लोग अपने जीवन में सफल हुए हैं उन्होंने अन्य लोगों की क्या अपने लोगों भी परवाह नहीं की। जिन्होनें परवाह की ऐसे असंख्य लोगों को हम अपने आसपास देख सकते हैं।

Wednesday, April 23, 2008

संत कबीर वाणी:माया छोड़ने की कहने वाले ही उसके चंगुल में फंसे रहते हैं

माया छोड़न सब कहैं, माया छोरि न जाय
छोरन की जो बात करु, बहुत तमाचा खाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि माया छोड़ने को सब कहते हैं पर छोड़ी किसी से नहीं जाती। जो लोग माया छोड़ने की कहते है वही इसको पाने के लिये तमाम तरह के तमाचे खाने को तैयार रहते हैं।

मन मते माया तजी, यूं कसि निकस बहार
लागि रहि जानी नहीं, भटकी भयो खुवार


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि मन में आता है तो लोग माया को छोड़कर घर छोड़कर बाहर निकल जाते हैं पर वह मन में अटकी रहती है और उनका उसे पाने का लोभ और खुमार और बढ़ जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल तो आप चाहे जो संत देख लें वह माया छोड़ने की बात करता है पर अगर आप उनका रहनसहन देखें तो आपको यह दिखने लगेगा कि आपसे अधिक तो माया की पकड़ में तो वही लोग हैं जो ऐसा कह रहे हैं। फाइव स्टार आश्रमों में रहते हैं तमाम तरह की औषधि वगैरह बेचते है।
इस संसार में दो मार्ग हैं एक तो सत्य प्रधान का दूसरा है माया प्रधान। आशय यह है कि एक तो लोग सत्य के रास्ते पर चलते हुए माया से सीमित मात्रा में संबंध रखते हैं दूसरे माया के रास्ते पर चलते हैं पर सत्य से उनका कोई उनका संबंंध नहीं रहता। आप देखिए गरीब मजदूर अपना कमा खा कर सो जाते हैं। अपने जीवन का अनुभव या ज्ञान बांटने के लिए इधर-उधर जाकर कोई फीस नहीं वसूल करते पर माया के भक्त तो सत्य का नकाब पहनकर उपदेश देते फिरते हैं। आलीशान बंगलों में रहते हैं और वातानुकूलित कारों के यात्रा करते हैं। सत्य के यह उपासक इतने मायावी होते हैं कि लक्जरी बसों और हवाईजहाजों में घूमते हैंे और सब देखते हुए भी लोग उनकी भक्ति करते हैं।

माया यानि धन आवश्यक है और उसके लिये आदमी को परिश्रम करना चाहिए क्योंकि उसके बिना कोई काम नहीं चल सकता। समय निकालकर भगवान भक्ति और सत्संग भी करना चाहिए पर ऐसे मायावी लोगों की बातों में नहंी आना चाहिए।

Tuesday, April 22, 2008

संत कबीर वाणी:ज्ञानी की प्रीती उच्च और अज्ञानी की घटिया होती है

गहरी प्रीति सुजान की, बढ़त-बढ़त बढि जाय
ओछी प्रीति अजान की, घटत घटत घटि जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि सज्जन पुरुष का प्रेम में गहराई होती है और वह धीरे-धीरे बढ़ती है, परंतु अज्ञानी की प्रीति बहुत घटिया होती है वह धीरे-धीरे घटती जाती है।

प्रेम बिकांता मैं सुना, माथा साटै हाट
पुछत बिलम न कहजिये, तत छिन दीजै काट


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम तो अनमोल है, इसका मूल्य कौन चुका सकता है? प्रेम को बिकते तो सुना है परंतु उसके बदले अपना सिर काटकर देना पड़ता है ऐसे में देर न कीजिये अपनी शीश काटकर मोल चुका दो।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आजकल समय बदल गया है। लोगों को अपने शहर और देश से परे रोजगार के लिये जाना पड़ता है। ऐसे में अनजान सथानों पर अपना काम निकालने के लिये उन्हें अन्य लोगों से संपर्क करना पड़ता है ऐसे में नये लोगों से धोखे का अंदेशा बना रहता है। ऐसे में सहृदय प्रेमी की पहचान का एक ही तरीका है जो धीरे-धीने प्रेम के रास्ते पर बढ़े और उतावली न दिखाए उसके बारे में यही समझना चाहिए कि उसका कोई स्वार्थ नहीं है। जहां कोई व्यक्ति उतावली से प्रेम संबंध बनाने की करे वहां समझना चाहिए कि उसका कोई फायदा होने वाला है और उसके पूरे होते ही वह दूर हो जायेगा।

हमने देखा होगा कि अनेक प्रकार के इस तरह के समाचार आते रहते हैं कि अमुक ने अमुक को धोखा दिया और अमुक ने अमुक के बारे में जानकारी इधर से उधर कर हानि पहुंचाई। यह सब प्रेम में ही होते है। अतः सावधानी से आगे बढ़ना चाहिए। आजकल सब लोग सच्चे मित्र या प्रेमी होने के दावा करते हैं पर हम सब जानते हैं कि सब कोरी बकवाद करते हैं। एसे में प्रेम मार्ग पर सतर्कता से बढ़ना चाहिए और कोई अपने घर-परिवार का आदमी बाहर के किसी व्यक्ति से प्रेम की पींगें बढ़ा रहा हैं तो उसे भी समझाना चाहिए।

Monday, April 21, 2008

संत कबीर वाणी:सबसे मीठा है चुप रहना

बाले जैसी किरकिरी, ऊजल जैसी धूप
ऐसी मीठी नहीं कछु नहीं, जैसी मीठी चूप

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि रेत के समान अन्य किसी वस्तु में वैसी चिकनाहट नहीं है, धूप के समान काई उजली वस्तू नहीं है ऐसे ही चुप रहने से अधिक कोई मीठी वस्तू नहीं है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-ऐसा हमें कई बार लगता होगा कि कहीं कोई बात अपने मूंह से कहकर फिर वहां तिरस्कार का सामना करते हैं तब यह सोचते हैं कि यहां बेकार बोले। वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण और खानपान की वजह से लोगों की सहशीलता वैसे भी कम होती जा रही है। इस पर आजकल की अपने अध्यात्मिकता से रहित शिक्षा लोगों को अहंकारी बना देती है। शिक्षा के नाम पर ढेर सारी उपाधियों का संग्रह कर लिया पर जीवन और आध्यात्म के ज्ञान से शून्य अहंकारी लोगों की संख्या बहुत अधिक है और ऐसे में उनके पास पद और पैसा हो जाये तो फिर कहना ही क्या? अपनी शक्ति प्रदर्शन की इच्छा उन्हें अंधा बना देती है। अपने सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं। ऐसे लोगों से किसी प्रकार के विवाद से बचा जाये तो बहुत अच्छा है।

आयु में छोटा है तो उसे अपनी शक्ति का अहंकार होता है और उसमें बड़े-छोटे का संकोच नहीं होता। अगर अपने को कोई तकलीफ न दे रहा है तो उसे बिना पूछे सलाह देना किसी अन्य से विवाद होने पर उसे समझाना अपना अपमान कराना है। बेहतर है जब तक आवश्यक न हो बोलें नहीं। सभाओं या मीटिंगों या विवाहादि कार्यक्रमों में जायें तो उपस्थिति की औपचारिकता पूरी कर अपने घर की तरफ चल दें। आजकल जिसे देखों आसमान में उड़ रहा है। ऐसे में अगर आप भावुक हैं तो कम से कम बोलने का प्रयास करें। उससे तो अच्छा है खामोश रहें इसी से सम्मान बचा रह सकता है और तनाव से दूर रह सकते हैं। अधिकतर लोग तो इसी चिंता मंे राजरोग बुला लेते हैं कि वह कहते हैं तो कोई सुनता नहीं। इससे बेहतर है फालतु समय ध्यान और मंत्रोच्चारण में लगायें तो मन और वाणी दोनों का व्यायाम हो जायेगा।

Sunday, April 20, 2008

वाल्मीकि रामायण से-शस्त्रों का संयोग ह्रदय में विकार का उत्पादक

अपने वन प्रवास के दौरान सुतीक्षण के आश्रम से निकलकर जब श्री राम अपनी धर्म पत्नी सीताजी और भ्राता लक्ष्मण में साथ आगे चले। अपने पति द्वारा राक्षसों के वध करने के प्रतिज्ञा से वह दुखी थीं इसलिए उन्होने इससे हटने के लिए उनसे हिंसा छोड़ने का आग्रह किया और निम्नलिखित कथा सुनाई

पूर्वकाल की बात है किसी पवित्र वन में जहाँ मृग और पक्षी बडे आनंद से रहते एक सत्यवादी एवं पवित्र तपस्वी निवास करते थे। उन्हीं की तपस्या में विघ्न डालने के लिए शचिपति इन्द्र किसी योद्धा का रूप धारण कर हाथ में तलवार एक दिन उनके आश्रम पर आये। उन्होने मुनि के आश्रम में अपना उतम खड्ग रख दिया। पवित्र तपस्या में लगे हुए मुनि को धरोहर के रूप में वह खड्ग दे दिया। उस शस्त्र को पाकर मुनि उस धरोहर की रक्षा में लग गए, वे अपने विश्वास की रक्षा के लिए वन में विचरते समय भी उसे अपने साथ रखते थे। धरोहर की रक्षा में तत्पर रहने वाले वे मुनि फल-मूल लेने के लिए जहाँ-कहीं भी जाते, उस खड्ग की साथ लिए बिना नहीं जाते। तप ही जिनका धन था उस मुनि ने प्रतिदिन शस्त्र ढोते रहने के कारण क्रमश: तपस्या का निश्चय छोड़कर अपनी बुद्धि को क्रूरतापूर्ण बना लिया। फिर तो अधर्म ने उन्हें आकृष्ट कर लिया। वे मुनि प्रमादवश रोद्र कर्म में तत्पर हो गये और उस शस्त्र के सहवास से नरक जाना पडा।

इस प्रकार शास्त्र का संयोग होने के कारण पूर्वकाल में उन तपस्वी मुनि को ऐसी दुर्दशा भोगनी पडी। जैसे आग का संयोग ईंधन के जलाने का कारण होता है उसी प्रकार शस्त्रों का संयोग शस्त्रधारी के हृदय में विकार का उत्पादक कहा गया है।

आगे सीता जी कहतीं हैं कि-'मेरे मन में आपके प्रति जो स्नेह और विशेष आदर है उसके कारण मैं आपको उस प्राचीन घटना की याद दिलाती हूँ तथा यह शिक्षा भी देती हूँ कि आपको धनुष लेकर किसी तरह बिना बिः के ही वन में रहने वाले राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिए। आपका बिना किसी अपराध के किसी को मारना संसार के लोग अच्छा नहीं समझेंगे। अपने मन और इन्दिर्यों को वश में रखने वाले वीरों के लिए वन में धनुष धारण करने का इतना प्रयोजन है कि वे संकट में पड़े हुए प्राणियों की रक्षा करें।''

अरण्यकाण्ड के नौवें सर्ग से लिए गया यह वृतांत इस उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया है कि लोग अस्त्रों-शस्त्रों को शौक के लिए अपने पास भी रखते है और उसके जो परिणाम आते हैं वह बहुत भयावह होते हैं ।

Saturday, April 19, 2008

रहीम के दोहे:इस देह में है हर संकट झेलने की क्षमता

जसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह
धरती पर ही परत है, शीत घाम और मेह

कविवर रहीम कहते हैं कि इस मानव काया पर किसी परिस्थिति आती है वैसा ही वह सहन भी करती है। इस धरती पर ही सर्दी, गर्मी और वर्षा ऋतु आती है और वह सहन करती है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-पश्चिमी चिकित्सा विशेषज्ञों तमाम तरह के शोधों के बाद यह कह पाये कि हमारी देह बहुत लोचदार है उसमें हालतों से निपटने की बहुत क्षमता है। इसके लिये पता नहीं कितने मेंढकों और चूहों को काटा होगा-फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचे । हमारे मनीषियों ने अपनी योग साधना और भक्ति से अर्जित ज्ञान से बहुत पहले यह जान लिया कि इस देह में बहुत शक्ति है और वह परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल लेती है। ज्ञान या तो योग साधना से प्राप्त होता है या भक्ति से। रहीम तो भक्ति के शिखर पुरुष थे और अपनी देह पर कतई ध्यान नहीं देते थे पर फिर भी उनको इस मनुष्य देह के बारे में यह ज्ञान हो गया पर आजकल अगर आप किसी सत्संग में जाकर बैठें तो लोग अपनी दैहिक तकलीफों की चर्चा करते हैं, और वहां ज्ञान कम आत्मप्रवंचना अधिक करते हैं। कोई कहेगा ‘मुझे मधुमेह हो गया है’ तो कोई कहेगा कि मुझे ‘उच्च रक्तचाप’ है। जिन संत लोगों का काम केवल अध्यात्मिक प्रवचन करना है वह उनकी चिकित्सा का ठेका भी लेते हैं। यह अज्ञान और भ्रम की चरम परकाष्ठा है।

मैने अपने संक्षिप्त योग साधना के अनुभव से यह सीखा है कि देह में भारी शक्ति होती है। मुझे योगसाधना का अधिक ज्ञान नहीं है पर उसमें मुझे अपने शरीर के सारे विकार दिखाई देते हैं तब जो लोग बहुत अधिक करते हैं उनको तो कितना अधिक ज्ञान होगा। पहले तो मैं दो घंटे योगसाधना करता था पर थोड़ा स्वस्थ होने और ब्लाग लिखने के बाद कुछ कम करता हूं (वह भी एक घंटे की होती है)तो भी सप्ताह में कम से कम दो बार तो पूरा करता हीं हूं। पहले मुझे अपना शरीर ऐसा लगता था कि मैं उसे ढो रहा हूं पर अब ऐसा लगता है कि हम दोनों साथ चलते हैं। मेरे जीवन का आत्मविश्वास इसी देह के लड़खड़ाने के कारण टूटा था आज मुझे आत्मविश्वास लगता है। आखिर ऐसा क्या हो गया?

इस देह को लेकर हम बहुत चिंतित रहते हैं। गर्मी, सर्दी और वर्षा से इसके त्रस्त होने की हम व्यर्थ ही आशंका करते हैं। सच तो यह है कि यह आशंकाएं ही फिर वैसी ही बीमारियां लातीं हैं। हम अपनी इस देह के बारे में यह मानकर चलें यह हम नहीं है बल्कि आत्मा है तो ही इसे समझ पायेंगे। इसलिये दैहिक तकलीफों की न तो चिंता करें और न ही लोगों से चर्चा करें। ऐसा नहीं है कि योगसाधना करने से आदमी कभी बीमार नहीं होता पर वह अपने आसनों से या घरेलू चिकित्सा से उसका हल कर लेता है। यह बात मैने अपने अनुभव से सीखी है और वही बता रहा हूं। योगसाधना कोई किसी कंपनी का प्राडक्ट नहीं है जो मैं बेच रहा हूं बल्कि अपना सत्य रहीम के दोहे के बहाने आपको बता रहा हूं।

Friday, April 18, 2008

रहीम के दोहे:समुद्र में मिलने से गंगा का महत्व हो जाता है कम

कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम
केहि की प्रभुता नहिं घटी, पर घर गये रहीम


कविवर रहीम कहते है कि पवित्र नदी गंगा जब समुद्र में मिलती है तो उसका महत्व नहीं रह जाता। उसी तरह किसी दूसरे के घर जाने पर अपना भी महत्व कम हो जाता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-हमें अपने काम के सिलसिले में दूसरों के घर जाना ही पड़ता है और वहां अगर हमें सम्मान नहीं मिलता तो उसे हृदय में नहीं रखना चाहिए। यह स्वाभाविक बात है कि हर कोई अपने घर, क्षेत्र और देश में ही राजा होता है। जब काम या रोजगार के सिलसिल में अपना मूल स्थान या घर छोड़ना पड़े तो आत्म सम्मान का मोह भी छोड़ देना चाहिए। अक्सर अपना क्षेत्र या देश छोड़कर गये कुछ लोग वहां बराबरी का सम्मान न मिलने की शिकायत करते हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि यह स्वाभाविक मनोवृति है कि अपने क्षेत्र में बाहर से आये आदमी का बहुत कम लोग सम्मान करते हैं क्योंकि उनको लगता है कि हम तो निस्वार्थ भाव से रहते हैं और बाहर से आया आदमी तो अपनी रोजी-रोटी कमाने के उद्देश्य से आया है।

विदेशों में गये कई भारतीयों ने ऊंचे ओहदों के साथ बहुत सारा धन और प्रतिष्ठा अर्जित की है पर उनका वैसा सम्मान नहीं है जैसा कि यहां अपने लोग करते हैं। कुछ तो सत्य स्वीकारते हैं पर कुछ लोग इस तरह यहां प्रचारित करते हैं कि जैसे उनको विदेश में लोगों का बहुत सम्मान प्राप्त है जो कि उनका स्वयं का ही भ्रम होता है। उनका वहां वही लोग सम्मान करते हैं जो उनसे अपना स्वार्थ निकालते हैं। विदेशों में कई देश ऐसे हैं जो धर्म पर आधारित हैं और वहां इस देश के किसी भी धर्म के पालन की अनुमति नहीं है। जहां यह अनुमति नहीं है वहां के लोग भी अपने स्वार्थ की खातिर अपने खुश होने का प्रमाण पत्र देते हैं पर अगर उनका वहां सम्मान होता तो भला उनको सार्वजनिक रूप से अपने धर्म पालन की अनुमति होती कि नहीं। हम यह नहीं कह रहे कि यह अनुमति मिलना चाहिए। हां यह वास्तविकता उनको स्वीकार कर लेना चाहिए कि वहां वह अपने काम और रोजगार के सिलसिले में हैं और उनको किसी भी मान सम्मान की चाहत नहीं है। जब आप अपना घर या देश छोड़कर दूसरी जगह जाते हैं तो सम्मान का मोह छोड़ना ही सत्य के साथ चलना है।

Thursday, April 17, 2008

संत कबीर वाणी:सम्मान पाने की इच्छा श्वान का लक्षण

मान बढ़ाई जगत में, कुकर की पहचान
प्यार किए मुख चाटई, बैर किए तन हान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सम्मान पाने की इच्छा तो श्वान के लक्षण है। प्यार करने पर वह मुख चाटने लगता है और फटकारने पर काट लेता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार तो श्वान का चाटना भी रैबीज पैदा कर देता है और अधिकतर लोगों को रैबीज होता ही उन लोगों को है जो कुता पालते हैं। कबीर दास जी न यह दोहा व्यंजना विधा में कहा है जिसका आशय यह है कि आदमी में अपना सम्मान पाने का मोह उसकी तरह ही होता है। संसार में सभी लोग आत्मप्रवंचना में लगे हैं। मैने कई जगह देखा है कि जैसे मैं अपने भाई की बात करूं तो सामने वाला भी अपने भाई की बात शुरू कर देता है। मैं अपने किसी व्यापारी दोस्त की बात करूं तो सामने वाला अपने किसी व्यापारी दोस्त की बात शुरू कर देता है। मैं किसी अधिकारी दोस्त की बात करूं तो वह भी अपने अधिकारी दोस्त की बात कर देता है।

सच बात तो यह है कई बार तो ऐसा लगता है कि लोगों से बात करने की बजाय तो किसी रचनात्मक काम में लगा जाये। हम जो बात कहें उसे कोई सुने ही नहीं तो कहने से क्या फायदा? सब लोग केवल अपने मूंह से अपनी बड़ाई करते हैं। मैं अमुक को जानता हूं, अमुक मेरी इज्जत करता है। ऐसी बातें हास्यास्पद होती है। सब जानते हैं पर अपने बोलने को अवसर आने पर सब भूल जाते हैं। ऐसे में कबीर का यह दोहा जो पढ़ कर अपने मन में धारण कर लेगा वह अपने मूंह से कभी भी अपनी बड़ा ई नहीं करेगा।

अधिकतर लोगों का व्यवहार भी अजीब होता है कोई भी उनके मूंह पर झूठी तारीफ कर दे तो वह बहुत खुश हो जाते हैं और कोई उनका दुर्गुण बता दे तो उग्र हो जाते हैं। ऐसे व्यवहार से सब एक दूसरे पर हंसते हैं पर अपने पर नियंत्रण नहीं करते।

Wednesday, April 16, 2008

रहीम के दोहे:आदमी नाचता है कठपुतली की तरह

ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपुने हाथ


कविवर रहीम कहते हैं कि जैसे नट कठपुतली को नचाता है वैसे ही मनुष्य को उसके कर्म नाच करने के लिऐ बाध्य करते हैं। जिन्हें हम अपने हाथ समझते हैं वह भी अपने नियंत्रण में नही होते हैं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जब मैं रहीम के दोहे देखता हूं तो सोचता हूं कि इस संत ने जीभर कर जीवन का आनंद लिया होगा। किसी प्रकार के भ्रम में नहीं जीना ही मनुष्य की पहचान है और रहीम हमेशा सत्य के साथ जिये। सामान्य आदमी कितना भ्रम में जीता है यह उनके दोहे पढ़कर समझा जा सकता है। सभी लोग और आपको कर्ता समझते है जबकि सभी जीवों का शरीर पांच तत्वों से बना वह पुतला है जिसमें तीन प्रकृतियां-मन, बुद्धि और अहंकार -अपना काम करती हैं। आंख है तो देखेगी, कान है तो सुनेंगे, नाक है तो सूंघेगी, पांव है तो चलेंगे और हाथ हैं तो हिलेंगे। मन विचार करता है, बुद्धि योजना बनाती है और अहंकार उकसाता है। हम सोचते हैं कि हम करते हैं जबकि हम तो एक तरह से सोये हुए हैं। अपने आपको देखते ही नहीं। हमारी आत्मा तो परमार्थ से प्रसन्न होती है पर हम अपने कर्मों के अधीन होकर स्वार्थ में लगे रहते हैं जबकि यह काम तो हमारी इंद्रियां तब भी करेंगी जब इन पर नियंत्रण करेंगे। मतलब हम जो कर रहे हैं वह तो करेंगे ही पर जो हमें करना चाहिए परमार्थ वह करते नहीं। सत्संग और भक्ति केवल दिखावे की करते है। कुल मिलाकर कठपुतली की तरह नाचते रहते हैं।

Tuesday, April 15, 2008

संत कबीर वाणी:व्यवहार में अति से बचना जरूरी

अति को भला न बोलना, अति की भली न चुप
अति को भलो न बरसनो, अति की भली न धुप्प

संत शिरामणि कबीरदास जी कहते हैं कि न तो अधिक बोलना चाहिए न एकदम चुप रहना चाहिए। समयानुसार अपने अंदर बदलाव करना चाहिए। कभी न तो एकदम क्रोध करना चाहिए न ही एकदम घबड़ा कर बैठ जाना चाहिए। किसी काम में न तो उतावली दिखाना चाहिए और न ही विलंब करना चाहिए।

ज्ञानी को ज्ञानी मिले, रस की लूटम लूट
ज्ञानी अज्ञानी मिर्ल, होवे माथा फूट


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब कोई एक ज्ञानी दूसरे को मिलता है तो दोनों को आनंद मिलता है और वह एक दूसरे के ज्ञान के रस को आनंद उठाते हैं। जब कहीं मूर्खों और अज्ञानियों को मेल होता है तो उनके जमकर वाद-विवाद होता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आजकल लोग कामकाज के सिलसिले में अपने घरों से दूर रहते हैं तो अधिकतर को अपना जीवन अकेले ही दूसरों के साथ व्यतीत करना पड़ता है और नित नये लोगों से संपर्क होता है। ऐसे में अपने व्यवहार में अधिक सतर्कता बरतना चाहिए। न तो किसी से अधिक बोलना चाहिए क्योंकि वह आपकी कमी का लाभ उठाकर आपको हानि पहुंचा सकता है और न ही किसी से डरना चाहिए क्योंकि उसको देखकर कोई भी आपसे अधर्म का कार्य करा सकता है। जहां तक हो सके अपने से अधिक ज्ञानियों के बीच उठना-बैठना चाहिए ताकि उनसे ज्ञान रस प्राप्त किया जा सके अज्ञानियों के साथ संपर्क से तो वाद विवाद और मारपीट होने का भय रहता है।

Monday, April 14, 2008

रहीम के दोहे:भोग कर रोग बुलाने की बजाय राम का नाम लें

रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय
पसु खर खात सवाद सों, गुर बुलियाए खाय


कविवर रहीम कहते है कि भगवान राम को हृदय में धारण करने की बजाय भोग और विलास में डूबे रहते है। पहले तो अपनी जीभ के स्वाद के लिए जानवरों की टांग खाते हैं और फिर उनको दवा भी लेनी पड़ती है।

वर्तमान सदंर्भ में व्याख्या-वर्तमान समय में मनुष्य के लिये सुख सुविधाएं बहुत उपलब्ध हो गयी है इससे वह शारीरिक श्रम कम करने लगा हैं शारीरिक श्रम करने के कारण उसकी देह में विकार उत्पन्न होते है और वह तमाम तरह की बीमारियों की चपेट में आ जाता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन भी रहता है। इसके अलावा जैसा भोजन आदमी करता है वैसा ही उसका मन भी होता है।

आज कई ऐसी बीमारिया हैं जो आदमी के मानसिक तनाव के कारण उत्पन्न होती है। इसके अलावा मांसाहार की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। मुर्गे की टांग खाने के लिय लोग बेताब रहते हैं। शरीर से श्रम न करने के कारण वैसे ही सामान्य भोजन पचता नहीं है उस पर मांस खाकर अपने लिये विपत्ति बुलाना नहीं तो और क्या है? फिर लोगों का मन तो केवल माया के चक्कर में ही लगा रहता है। आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि अगर कोई आदमी एक ही तरफ ध्यान लगाता है तो उसे उच्च रक्तचाप और मधुमेह जैसे विकास घेर लेते हैं। माया के चक्कर से हटकर आदमी थोड़ा राम में मन लगाये तो उसका मानसिक व्यायाम भी हो, पर लोग हैं कि भगवान श्रीराम चरणों की शरण की बजाय मुर्गे के चरण खाना चाहते हैं। यह कारण है कि आजकल मंदिरों में कम अस्पतालों में अधिक लोग शरण लिये होते हैं। भगवान श्रीराम के नाम की जगह डाक्टर को दहाड़ें मारकर पुकार रहे होते है।

अगर लोग शुद्ध हृदय से राम का नाम लें तो उनके कई दर्दें का इलाज हो जाये पर माया ऐसा नहीं करने देती वह तो उन्हें डाक्टर की सेवा कराने ले जाती है जो कि उसके भी वैसे ही भक्त होते हैं जैसे मरीज।

Sunday, April 13, 2008

रहीम के दोहे: मनुष्य को आत्मसम्मान के साथ जीना चाहिए

मान सहित विष खाय के, संभु जगदीस
बिना मान अमृत पिये, राहु कटायी सीस

कविवर रहीम कहते हैं कि सम्मान के साथ शिव जी विष उदरस्थ किया तो जगदीश कहलाये पर बिना मान के राहु ने अमृत पिया तो अपना सिर कटवा लिया।
मान सरोवर ही मिले, हंसनि मुक्ता भोग
सफरनि भरे रहीम सर, बस-बालकनहिं जोग

कविवर रहीम कहते हैं कि हंस तो केवल मानसरोवर में ही मोती चुन कर खाता है और सीपियों से भरे हुए तालाब तो केवल बगुले उसके बालकों के लिये ही होते है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आज के भौतिक प्रधान युग में कई लोगों के पास ढेर सारी सुखसुविधा है तो दूसरी तरफ लोगों के पास रोटी खाने के लाले भी है। ऐसे में हम अक्सर सुनते हैं कि अमुक आदमी अमुक किसी बड़े व्यक्ति का चमचा है। दरअसल आजकल लोग अपनी कुछ ऐसी सुविधाओं को उन लोगों से बांटते है जो उनके इर्द-गिर्द फिरते हैं। अगर कोई अमीर घर का लड़का है तो उसके साथ चार ऐसे भी होंगे जो उसकी मोटर सायकल या कार की वजह से उसके मित्र होंगे। हालांकि इस मित्रता की वजह से उनको अपना सम्मान खोना पड़ता है। इसी तरह अमीर और बड़े घर के स्त्री पुरुष भी अपने से छोटे और गरीब घरों के लोगों से मन बहलाने के लिये मित्रता कर लेते हैं। इसके लिये वह अपनी सुविधाओं का इस्तेमाल इस तरह करते हैं कि उसका थोड़ा लाभ लेकर गरीब और छोटे घरों के लोग उनकी मुफ्त में चाकरी करते रहे। कई बार हम में से ही कई लोग ऐसे इस्तेमाल होते हैं।

कई बार बड़े आदमी के घर-परिवार में किसी खास अवसर पर जाने पर वहां हम भोजन करते हैं पर ऐसा लगता है कि वहां हमारा कोई सम्मान नहीं है ऐसे में हम जो वस्तु खा रहे हैं वह रोटी विष लगती है। हां ऐसी जगहों पर हमें जाना नहीं चाहिए जहां लगे कि भोजन एक तरह से विष होगा। अपना आत्मसम्मान बचाना हर मनुष्य का कर्तव्य है और इसलिये उसे मनुष्य भी कहा जाता है।

Saturday, April 12, 2008

रहीम के दोहे:बोलने पर ही कोयल और कौए के भेद का पता चलता है

दोनों रहिमन एक से, जौ बोलत नाहिं
जान परत हैं काक पिक ऋतु बसंत के माहिं


कविवर रहीम कहते हैं कि जब तक मुख से बोल नहीं निकलते तब तक कौआ और कोयल एक समान ही प्रतीत होते हैं। ऋतुराज बसंत के समय कोयल की मीठी और कौए की कर्कश वाणी के अंतर का अनुभव होता है।

वर्तमान के संदर्भ में व्याख्या-इसमें मनुष्य के भ्रम में पड़ जाने की प्रवृत्ति की ओर संकेत है। आजकल तो कुछ लोग होते तो कौए की प्रवृति के है पर कोयल जैसी मीठी वाणी बोलते हैं। उनके मन काले होते हैं और जब शिकार उनके जाल में फंस जाता है तो फिर कौए की तरह कर्कश वाणी बोलने लगते हैं। कौआ अगर मूंह न खोले तो उसके कोयल होने की अनुभूति होती है उसी तरह कुछ लोग अपनी वाणी से मधुर होने का अहसास दिलाते हैं परंतु अपना काम निकलते ही वह अपना औकात पर आ जाते हैं। कविवर रहीम ने अपने जीवन रहस्यों को व्यंजना विधा में प्रस्तुत किया है। यहां कोयल और कौए का उदाहरण देते हुए वह मनुष्यों को अपने जीवन में सतर्क रहने का संदेश देते है।

आजकल खासतौर से युवक-युवतियों को ऐसे संदेशों से प्रेरणा लेनी चाहिए। आपने देखा होगा कि इश्क और प्यार की आड़ में वासना के वशीभूत होकर कुछ युवक अपनी मीठी वाणी से युवतियों को अपने जाल में फंसा लेते हैं और फिर पहले तो शादी नहीं करते और शादी करते हैं तो फिर पता लगता है कि वह वैसे नहीं है जैसी युवतियां अपेक्षा करतीं हैं। फिर शुरू होता है उनके नारकीय जीवन का दौर।

उसी तरह युवकों को रोजगार का लालच देकर कुछ लोग पैसा वसूल कर देते हैं या फिर ऐसी जगहों पर भेज देते है जहां से उनकी वापसी होना मुश्किल हो जाती है। कुछ युवकों ऐसे गलत कामों में फंसा दिया जाता है जो उनको अपराध की दुनियां में ले जाता है। इसलिये कोयल और कौए के भेद को समझकर ही किसी पर विश्वास करना चाहिए। यहां वाणी से तात्पर्य हम नीयत से भी ले सकते हैं। कौऐ की नीयत रखने वाला कुछ देर तक कोयल होने का आभास दे सकता है पर समय आने पर उसकी असलियत खुल जाती है।

Thursday, April 10, 2008

संत कबीर वाणी:पत्थर और पानी पूजने से भक्ति नहीं होती

पाहन पानी पूजि से, पचि मुआ संसार
भेद अलहदा रहि गयो, भेदवंत सो पार


संत शिरोमणि कबीदासजी कहते हैं कि पत्थर और पानी को पूज कर सारे संसार के लोग नष्ट हो गये पर अपने तत्व ज्ञान को नहीं जान पाये। वह ज्ञान तो एकदम अलग है। अगर कोई ज्ञानी गुरु मिल जाये तो उसे प्राप्त कर इस दुनियां से पार हुआ जा सकता है।

पाहन ही का देहरा, पाहन ही का देव
पूजनहारा आंधरा, क्यौं करि मानै सेव


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मूर्ति पत्थर की होती है और उसको घर में रखा जाता है वह भी पत्थर का है और लोग उसकी पूजा कर रहे हैं। जिसे खुद कुछ नहीं दिखाई देता वह भला आदमी की सेवा और भक्ति को कैसे स्वीकार कर सकता है।
आज के संदर्भ में व्याख्या-सच तो यह है कि पत्थरों की प्रतिमाएं या मकान बनाकर उसमेें लोगों को अपनी आस्था और भक्ति व्यक्त करने के परंपरा इस संसार में शूरू हुई है तब से इस संसार में लोगों के मन में तत्वज्ञान के प्रति जिज्ञासा कम हो गयी है। लोग पत्थरों की प्रतिमाओं या स्थानों के जाकर अपने दिल को तसल्ली देते है कि हमने भक्ति कर ली और दुनियां के साथ भगवान ने भी देख लिया। मन में जो विकास है वह जस के तस रहते है जबकि सच्ची भक्ति के लिये उसका शुद्ध होना जरूरी है। इस तरह भक्ति या सेवा करने का कोई लाभ नहीं है। पत्थर की पूजा करते हुए मन भी पत्थर हो जाता है और उसकी मलिनता के कारण शुद्ध भक्ति और सेवा का भाव नहीं बन पाता और आध्यात्मिक शांति पाने के लिये किये गये प्रयास भी कोई लाभ नहीं देते।

Tuesday, April 8, 2008

रहीम के दोहे:देता तो परमात्मा है किसी अन्य का भ्रम मत पालो

देनदार कोउ और है, भेजत सा दिन रैन
लोग भरम पै धरे, वाते नीचे नैन

कविवर रहीम कहते हैं कि इस जीवन में कुछ देने वाला तो परमात्मा है पर लोग अपने द्वारा लेने-देने की भ्रम पाल लेते है। इसी कारण हमारे नेत्र झुके रहते है।

दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि


कविवर रहीम कहते हैं कि जीवन में बुरे दिन आने पर सब लोग पहचानना भी भूल जाते है। ऐसे समय में यदि अपने सहृदय लोगों से सम्मान ओर प्रेम मिलता रहे तो फिर धन की हानि की पीड़ा कम हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस संसार में कुछ लोग तो गरीब है और कुछ अमीर, पर मनुष्य का स्वभाव है कि वह माया के इस भ्रम का शिकार हो जाता है और उसे लगता है कि जो अमीर है वह कुछ अधिक योग्य है और जो गरीब है वह अयोग्य। आजकल तो यह भ्रम और बढ़ गया है लोग चर्चित और धनवान लोगों को देवता समझ लेते हैं जैसे कि उनमें इंसानों जैसे गुणों के साथ कोई दोष हो ही नहीं। चारों तरफ भ्रम का साम्राज्य है। इसलिये लोग छलकपट और अपराध करके अधिक से अधिक धन कमा कर समाज में प्रतिष्ठित होना चाहते है।

समझदार और ज्ञानी लोग कभी भी भ्रम का शिकार नहीं होते उनको पता होता है कि यह सब माया का खेल है। इसलिये वह अमीर गरीब का भेद नहीं करते। ऐसे सहृदय सज्जन ऐसे किसी अमीर मित्र या रिश्तेदार का साथ नहीं छोड़ते तो उस व्यक्ति को अपने आप को धनी ही समझना चाहिए। माया तो आनी जानी है पर अगर कोई अपने लोग फिर भी सम्मान देते हैं तो समझ लो कुछ नहीं गया।

Saturday, April 5, 2008

संत कबीर वाणी:स्वार्थ के कारण ही सब सगे बनते हैं

स्वारथ का सबको सगा, सारा ही जग जान
बिन स्वारथ आदर करै, सो नर चतुर सुजान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में सभी स्वार्थ के कारण सगे बनते हैं। सारा संसार ही स्वार्थ के लिये अपना बनता है। परंतु चतुर व्यक्ति वही है जो बिना किसी स्वार्थ के गुणी आदमी का सम्मान करते हैं।

निज स्वारथ के कारनै, सेव करै संसार
बिन स्वारथ भक्ति करै, सो भावै करतार


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में जो भी लोग सेवा करते हैं वह स्वार्थ के कारण करते हैं पर परमात्मा को तो वही भक्त भाते हैं जो बिना किसी स्वार्थ के भक्ति करते हैं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन का यह एक सत्य है कि जो भी संबंध आपस में बनते हैं वह कोई न कोई स्वार्थ के कारण होते हैं। हालांकि लोग कहते जरूर है कि हम तो निस्वार्थ सेवा करते हैं पर उनके यह वचन मिथ्या होते हैं। लोग तो भगवान की भक्ति में भी अनेक प्रकार के स्वार्थों की अपेक्षा रखते हैं। अगर कोई कहीं धर्म का काम कर रहा है तो उसमें उसके अपने और अपने परिवार का नाम या अपनी व्यवसाय के प्रचार का भाव रहता है। कई जगह लोग अपने नाम से मंदिर और प्याऊ बनवाकर वहां अपना नाम लगा देते हैं।

सेवा के नाम पर इतने पाखंड हो गये हैं। जिसे देखो वही समाज सेवा करने चला आ रहा है। हाथ में होती हैं बस अपने नाम की तख्तियां और मूंह में लोगों के कल्याण के नारे। इस आड़ में तो कई लोग धन कमा रहे हैं। आजकल तो अपने स्वार्थ की सेवा ही सच्ची सेवा बन गयी है।

इसके बावजूद सच्चे भक्तों को सच्ची सेवा का मार्ग अनुसरण करना चाहिए। कब तब कोई आदमी अपने को धोखा दे सकता है। धार्मिक स्थलों पर मन्नतें मांगना भक्ति नहीं हो सकती। कई मनोकामना पूरी होने के बावजूद लोगों को मन की शांति नहीं मिल रही। वजह निष्काम भक्ति ही एक ऐसी दवा है जो मन का इलाज कर सकती है। जो लोग हृदय में कोई स्वार्थ रखे बिना भगवान की भक्ति और लोगों की सेवा करते हैं वही अपने अंदर उसके सुख की अनुभूति कर पाते हैं। पाने को तो सब लोग कुछ न कुछ पाते हैं पर सुख की अनुभूति वही लोग करते हैं जो भौतिक उपलब्धियों को अधिक महत्व नहीं देते बल्कि मन की शांति को ही सर्वोपरि मानते हैं।

Friday, April 4, 2008

संत कबीर वाणी:शब्द के बराबर कोई धन नहीं

शब्द बराबर धन नहीं, जो कोय जानै बोल
हीरा तो दामों मिलै, सब्दहिं मोल न तोल

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर कोई अपनी वाणी से शब्द बोलना जानता हो तो वास्तव में उचित शब्द के बराबर कोई धन नहीं है। हीरा तो फिर भी पैसा खर्च करने पर मिल जाता है पर दूसरे को प्रभावित करने वाले शब्द हर कोई नहीं बोल पाता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आज के भौतिक युग में लोगों के संवेदनशीलता कम होती जा रही है। किसी से प्रेमपूर्वक बोलना चमचागिरी कहा जाता है। सच तो यह है कि लोग उसी से प्रेम से बोलते हैं जिससे कोई काम निकलता है या किसी से डरते हैं। अपने से छोटे या निम्न व्यक्ति के साथ तो हर कोई शुष्क और कठोर व्यवहार करता है। इसका एक पक्ष यह भी है कि अगर किसी से प्रेमपूर्वक बात की जाये तो वह सामने वाले को कमजोर और डरपोक समझने लगता है। कुछ लोग तो ऐसे भी है जो प्रेम ओर मित्रता से बात करने पर मखौल उड़ाने लगते हैं। इसके बावजूद विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। हमें अपना व्यवहार साफ रखना चाहिए। जितना हो सके सुंदर और मधुर वाणी में बोलना चाहिए।

एक सच यह भी है कि मधुर और प्रेमपूर्ण वाणी भी तभी बोली जा सकती है जब अपना मन साफ हो। अगर मन में कुविचार रखकर किसी से मधुर वाणी में बोलेंगे तो उसका कोई प्रभाव नहीं होता। किसी से डरकर भी जब उससे मधुर शब्द बोलते हैं तो वह समझ जाता है। कई लोग तो मधुर शब्द बोलकर ठगते हैं और यह सब लोग समझ जाते हैं। अतः मन में स्वच्छता रखकर हम किसी से बात करेंगे तो हमारी वाणी से सुंदर और मधुर शब्द जरूर निकलेगें और उसका प्रभाव भी होगा।

Tuesday, April 1, 2008

रहीम के दोहे:विपत्ति के समय पहचान वाले भी भूल जाते हैं

दुरनि परे रहीम कहिए भूलत सब पहिचानि
सोच नहीं वित हानि को, जो न होन हित हानि

कविवर रहीम कहते है कि जीवन में बुरे दिन आने पर सब लोग पहचानना भी भूल जाते हैं। ऐसे समय में अपने मित्रों और रिश्तदारों से सहानुभूति मिल जाये तो अच्छा लगता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या- वर्तमान समय में यही संभव नहीं है जब तक किसी के पास धन है लोगों का जमावड़ा उसके आसपास रहता है और जैसे ही उसके बुरे दिन आये तो सब मूंह फेर जाते हैं। कोई भी मित्र या रिश्तेदार आर्थिक दृष्टि के परेशान किसी भी आदमी के पास फटकने को तैयार नहीं होता। ऐसे में अगर कोई रिश्तेदार या मित्र थोड़ी ही सहानुभूति जताए तो मानसिक रूप के सुख मिलता है पर आजकल वह संभव नहीं हैं। क्योंकि जब पेसा होता है तो आदमी अपना अहंकार दिखाता है और लोग उससे नाराज हो जाते हैं और इसलिये बाद में उससे दूरी बना लेते हैं।

जो लोग संपन्नता और सुख के समय विनम्र रहते हैं उनको इस स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता।

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