स्वारथ का सबको सगा, सारा ही जग जान
बिन स्वारथ आदर करै, सो नर चतुर सुजान
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में सभी स्वार्थ के कारण सगे बनते हैं। सारा संसार ही स्वार्थ के लिये अपना बनता है। परंतु चतुर व्यक्ति वही है जो बिना किसी स्वार्थ के गुणी आदमी का सम्मान करते हैं।
निज स्वारथ के कारनै, सेव करै संसार
बिन स्वारथ भक्ति करै, सो भावै करतार
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में जो भी लोग सेवा करते हैं वह स्वार्थ के कारण करते हैं पर परमात्मा को तो वही भक्त भाते हैं जो बिना किसी स्वार्थ के भक्ति करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन का यह एक सत्य है कि जो भी संबंध आपस में बनते हैं वह कोई न कोई स्वार्थ के कारण होते हैं। हालांकि लोग कहते जरूर है कि हम तो निस्वार्थ सेवा करते हैं पर उनके यह वचन मिथ्या होते हैं। लोग तो भगवान की भक्ति में भी अनेक प्रकार के स्वार्थों की अपेक्षा रखते हैं। अगर कोई कहीं धर्म का काम कर रहा है तो उसमें उसके अपने और अपने परिवार का नाम या अपनी व्यवसाय के प्रचार का भाव रहता है। कई जगह लोग अपने नाम से मंदिर और प्याऊ बनवाकर वहां अपना नाम लगा देते हैं।
सेवा के नाम पर इतने पाखंड हो गये हैं। जिसे देखो वही समाज सेवा करने चला आ रहा है। हाथ में होती हैं बस अपने नाम की तख्तियां और मूंह में लोगों के कल्याण के नारे। इस आड़ में तो कई लोग धन कमा रहे हैं। आजकल तो अपने स्वार्थ की सेवा ही सच्ची सेवा बन गयी है।
इसके बावजूद सच्चे भक्तों को सच्ची सेवा का मार्ग अनुसरण करना चाहिए। कब तब कोई आदमी अपने को धोखा दे सकता है। धार्मिक स्थलों पर मन्नतें मांगना भक्ति नहीं हो सकती। कई मनोकामना पूरी होने के बावजूद लोगों को मन की शांति नहीं मिल रही। वजह निष्काम भक्ति ही एक ऐसी दवा है जो मन का इलाज कर सकती है। जो लोग हृदय में कोई स्वार्थ रखे बिना भगवान की भक्ति और लोगों की सेवा करते हैं वही अपने अंदर उसके सुख की अनुभूति कर पाते हैं। पाने को तो सब लोग कुछ न कुछ पाते हैं पर सुख की अनुभूति वही लोग करते हैं जो भौतिक उपलब्धियों को अधिक महत्व नहीं देते बल्कि मन की शांति को ही सर्वोपरि मानते हैं।
समाधि से जीवन चक्र स्वतः ही साधक के अनुकूल होता है-पतंजलि योग सूत्र
(samadhi chenge life stile)Patanjali yog)
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*समाधि से जीवन चक्र स्वतः ही साधक के अनुकूल होता
है।-------------------योगश्चित्तवृत्तिनिरोशःहिन्दी में भावार्थ -चित्त की
वृत्तियों का निरोध (सर्वथा रुक ज...
3 years ago
2 comments:
>ज्ञान को छोड़ते ही, मन से पीछे हटते ही, एक ये लोक का उदय होता है। उसमें हम प्रकृति से एक हो जाते हैं। कुछ अलग नहीं होता है, कुछ भिन्न नहीं होता है। सब एक शांति में स्पंदित होने लगता है।
यह अनुभूति ही 'ईश्वर' है।
इश्वर की इस कल्पना से मनु्ष्य कितना दूर आ चुका है! एक बेहतरीन पोस्ट के लिए धन्यवाद
दीपक जी, बहुत खुब, अगर हम रोजाना भी एक नयी ओर अच्छी बात ग्रहन करे तो,हमारे कितने ही दुखो का अन्त हो जाये.
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