Wednesday, July 16, 2008

संत कबीर वाणी-नाचते और गाते हुए भक्ति नहीं हो सकती

कबीर तृस्ना टोकना, लीये, डोलै स्वाद
राम नाम जाना नही, जनम गंवाया बाद

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मन की तृष्णा तो आदमी को अपने स्वाद के लिये इधर उधर भटकाती है। वह राम का नाम को नहीं जानती और आदमी उसकी संतुष्टि में अपना जीवन व्यर्थ कर देता है।

नाचे गावै पद कहै, नाहीं गुरु सों हेत
कहैं कबीर क्यों नीपजै, बीच बिहुला खेत


संत कबीर दास जी कहते हैं कि कुछ लोग नाचते और गाते हुए भक्ति में लीन होने का अपना अहंकार होने का का प्रदर्शन करते हैं उनका वास्तव में परमात्मा के प्रति प्रेमभाव नहीं होता। वह तो ऐसे खेत की तरह हैं जिनमें भक्ति के बीज बोए हीं नहीं नहीं गये। इसलिये उनका जीवन सफल नहीं हो सकता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अनेक गुरुओं के सत्संग में प्रवचन के दौरान ही लोग भजन के समय नाचते और गाते यह बताने का प्रयास करते हैं कि वह भगवान की भक्ति में लीन है। गुरु भी यह सोचकर प्रसन्न होते हैं कि इस तरह तो उनकी शक्ति का प्रचार हो रहा है। यह दिखावा है। भक्ति और ज्ञान दिखाने की चीज नहीं होती। उनका प्रभाव तो आदमी के चेहरे से दिखने लगता है। भक्ति एकांत साधना है और इस तरह जो लोग सबके सामने नाचते और गाते हैं वह केवल अहंकार के वशीभूत होकर नाचते हैं जैसे कि वह भक्ति कर रहे हैं जबकि उनका पूरा ध्यान इस तरफ होता है कि वह लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करें। मन में परमात्मा का ध्यान हो तो आदमी स्थिर हो जाता है इस तरह नाचता गाता नहीं है।

अपने प्रति लोगों में रुझान पैदा करने की तृष्णा उनके अंदर होती है और वह उन्हें भक्ति के नाम पर ऐसे नाटक करने को प्रेरित करती है। वह वास्तव में परमात्मका का नाम नहीं लेते बल्कि अपने अंदर स्थित अहंकार का प्रदर्शन करते हैं। लोगों में आकर्षण का कें्रद बने रहने की तृष्णा की वजह से कई लोग भक्ति का दिखावा करते है। इतना ही नहीं वह यह भी साबित करने का प्रयास करते हैं कि जैसे बहुत बड़े ज्ञानी हों। सच्ची भक्ति तो केवल एकांत में भी संभव है और ज्ञानी आदमी कभी अपने ज्ञान का बिना वजह प्रदर्शन नहीं करते।

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