Tuesday, November 22, 2011

तुलसीदास के दोहे-दूसरे की अपकीर्ति करने वाले के मुख पर कालिख लगी नजर आती है (tulsidas ke dohe-doosre ke ninda karne valon ka munh kala)

           सामान्य मनुष्य अपनी प्रकृतियों के वशीभूत होकर काम करता है, जबकि ज्ञानी मनुष्य उनको पहचानते हुए अपने विवेक से किसी काम को करने या न करने का निर्णय लेता है। देखा जाये तो समाज में ज्ञानी मनुष्य अत्यंत कम होते हैं पर दूसरे की अपकीर्ति के माध्यम से स्वयं की कीर्ति अपने मुख से बखान करने वालों की संख्या बहुत होती है। उससे भी अधिक संख्या तो दूसरों की निंदा करने वालों की होती है जो यह मानकर चलते हैं कि दूसरे के दोष गिनाकर हम यह साबित कर सकते हैं कि हमारे पास गुण है।
          आपसी वार्तालाप में लोग एक दूसरे से कहते हैं कि ‘‘अमुक आदमी में वह दोष है’, ‘अमुक आदमी यह बुरा काम करता है’, अमुक आदमी इस तरह का गंदा विचार पालता है’, या फिर ‘अमुक आदमी गंदा भोजन खाता है या पानी पीता है’। इस तरह आदमी यह साबित करना चाहता है कि अमुक बुराई ये वह स्वयं दोषमुक्त है। ज्ञानी आदमी अपना आत्ममंथन करता है। वह दूसरों की बजाय अपनी कमियां ढूंढकर उनको दूर करने का प्रयास करता है।
महाकवि तुलसीदास कहते हैं कि
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‘तुलसी’ जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।।
         ‘‘दूसरों की निंदा कर स्वयं प्रतिष्ठा पाने का विचार ही मूर्खतापूर्ण है। दूसरे की अपकीर्ति कर अपनी कीर्ति गाने वालों के मुंह पर ऐसी कालिख लगेगी जो कितना भी धोई जाये मिट नहीं सकती।’’
तनु गुन धन महिमा धरम, तेहि बिनु जेहि अभियान।
तुलसी जिअत बिडम्बना, परिनामहु गत जान।।
        ‘‘सौंदर्य, सद्गुण, धन, प्रतिष्ठा और धर्म भाव न होने पर भी जिनको अहंकार है उनका जीवन ही बिडम्बना से भरा है। उनकी गत भी बुरी होती है।
          सच बात तो यह है कि आधुनिक समय में आदमी धन, प्रतिष्ठा और बाहुबल अर्जित करने के प्रयास में लगा रहता है। न उसके व्यक्तित्व में आकर्षण न व्यवहार में गुण दिखता हैं और न ही व्यसनों की वजह से प्रतिष्ठा और धन भी उसके स्थिर रहता है। इसके बावजूद अधिकतर लोगों के पास अहंकार होता है। जो लोग जुआ, शराब या यौन अपराधों में लिप्त होते हैं उनको अगर नैतिकता का उपदेश दिया जाये तो वह उत्तेजित होते हैं। इतना ही नहीं अनेक लोग तो ऐसे हैं जो अपने में ढेर सारे दोष होने के बावजूद दूसरों की निंदा में लगकर अपनी स्थिति हास्यास्पद बना देते हैं।
ज्ञानी आदमी इन सबसे परे होकर जीवन व्यतीत करता है। उसे मालुम होता है कि गुण और ज्ञान के संचय के लिये समय कम होता है तब परनिंदा में उसे नष्ट करना बेकार है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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