Saturday, March 28, 2015

लोकतंत्र में राजनीति के दो भाग होते हैं-हिन्दी लेख(two part of democrasy election and agitation-hindi article)

अब हमें यह लग राह है कि लोकतंत्र में चुनावी तथा आंदोलन राजनीति को प्रथक करते हुए देखना चाहिये। भारत में महात्मा गांधी के बाद उनके ही अनुयायी अन्ना हजारे ने आंदोलन तो किये पर राजपद नहीं लिया।  हमने देखा है कि चुनावी राजनीति करने वाले अक्सर आंदोलनकारियों को अपने क्षेत्र में आने की चुनौती देते हैं पर हमें लगता है कि यह अन्याय है।  चुनावी राजनीति में सफलता जहां राजपद दिलाती है वहीं आंदोलन की राजनीति हमेशा संघर्ष करते हुए बीतती है-यह अलग बात है कि हमारे यहां अनेक लोग आंदोलन के नाम पर ठाठ करते हैें। चुनावी राजनीति करने वाले भी अनेक आंदोलन करते हैं पर उन पर अपने लक्ष्य की पूर्ति का आरोप लगाकर जनता में अविश्वास पैदा किया जा सकता है पर जो लोग आंदोलन की राजनीति का मार्ग लेते हैं उनकी छवि एक शक्तिशाली योद्धा की होने के कारण जनहित के मामलों में सफलता मिल सकती है।  मुख्य बात यह कि  उन पर स्वार्थी होने का आरोप नहीं लग सकता।

जब कोई आंदोलन के माध्यम से अपनी छवि बनाकर चुनावी राजनीति में उसका दोहन करता है तो कुछ समय बाद उनकी गतिविधियां वैसी हो जाती हैं जिसके वह आलोचक रहते हैं।  आज भी हमारे देश में अन्ना की छवि एक योद्धा की है पर उनके गत वर्षों में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में साथ रहते हुए प्रचार में  प्रकाशमान छवि बनाने के बाद उसके सहारे चुनावी राजनीति के क्षेत्र में आने वाले कुछ पुराने अनुयायी सफलता प्राप्त कर चुके हैं। हमें उन पर कोई आपत्ति नहंी है पर जब वह अब भी आंदोलन की बात करते हैं तो वैसी प्रतिक्रिया नहीं होती जैसी आज भी अन्ना की घोषणा पर होती है। दरअसल चुनावी राजनीति में सफलता के बाद अपना स्तर बनाये रखने की  चिंता प्रारंभ  राह पर डाल देती है जिस पर चलकर आंदोंलन की मुखरता लुप्त हो जाती है।  अन्ना कल भी लोकतांत्रिक योद्धा थे आज भी है पर उनके जिन सहयोगियों ने अपनी छवि बनाकर चुनावी राजनीति में उसका नकदीकरण किया वह आज दावा भी करें तो उन पर यकीन कौन करता है? राजपद मिलने के बाद उसे गंवाने का भय किसे नहीं घेरता।  मकान, कार, सुरक्षा की सुविधा मिलने तथा तथा प्रचार में सतत महिमामंडन होने के बाद आदमी चाहे भी तो योद्धा बना नहीं रह सकता।  अलबत्ता अपना स्तर बनाये रखने के लिये  संघर्ष करते हुए वह प्रचार में अपनी छवि योद्धा के रूप में बनाये रखने का निरर्थक प्रयास करता है।
          हमने अन्ना हजारे जी के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को भुलाया नहीं क्योंकि हम उनके भक्तों के चुनावी राजनीति में सक्रियता का अध्ययन भी करना चाहते थे।  अंततः यह निष्कर्ष निकाला कि लोकतंत्र में राजनीति के दो भाग हैं। एक चुनावी राजनीति जिसकी राह पर चलकर आदमी सुख भोगता है। दूसरी आंदोलन की राजनीति, जिसमें सक्रिय व्यक्ति धन भले ही अधिक न पाये प्रचार जगत में उसकी छवि योद्धा की रहती है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, March 21, 2015

संतोषी मनुष्य किसी की परवाह नहीं करता-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(santoshi manushya kisi ki parvah nahin karta-A Hindu hindu religion thought based on bhartrihari neeti shatak)



            कहा जाता है कि संतोष सबसे बड़ा धन है पर आज हम जब समाज में इस सिद्धांत के आधार पर दृष्टि डालते हैं तो आभास होता है कि लोग माया की दृष्टि से अधिक धनी जरूर हो गये पर मानसिक रूप से बहुत दरिद्र हैं।  स्थिति यह है कि धन, पद और प्रतिष्ठा के अभाव से त्रस्त अनेक लोग आत्महत्या कर स्वयं को जीवन से मुक्ति दिला देते हैं।  नश्वर देह को समय से पहले ही नष्ट करना अने लोगों को  अच्छा लगने लगा है।
            हमारे एक मित्र ने एक किस्सा सुनाया जो  हमें अत्यंत रुचिकर लगा । वह मित्र अपनी धर्मपत्नी के साथ मंडी गये थे।  वहां उनका एक परिचित दूधिया अपनी साइकिल छायादार स्थान पर खड़ी कर गर्मी में बटी खा रहा था।  उसके पास आठ दस बटियां थीं। सभी जानते हैं कि गर्मी में बटियां खाने से पानी की कमी नहीं होती।  हमारे मित्र ने उस दूधिया से कहा-अरे, इतनी सारी बटियां जमा कर रखी हैं। सभी खाओगे या बचाकर घर ले जाओगे?’’
            उस दूधिया ने कहा कि-‘‘सभी खाऊंगा। मेरा घर यहां से सात  किलोमीटर दूर है। इस गर्मी में साइकिल चलाते हुए यही बटियां मेरे पेट में कूलर का काम करेंगी।’’
            हमारे मित्र ने उसकी आंखों में जो आत्मविश्वास देखा उससे वह आत्मविभोर हो गये।  उन्होंने अपनी पत्नी से कहा-‘‘पता नहीं यह गलतफहमी अनेक समाज सेवकों  को क्यों है कि गरीब और परिश्रमी लोग जीवन में मुश्किलों से हार जाते हैं। ऐस लोगों को देखो तो लगता है कि गरीब होना ही दुःख का प्रमाण नहीं है।  इस लड़के की आंखों में जो आत्मविश्वास था वह हम जैसे सभ्रांत वर्ग के बच्चों के पास कहां होता है? सबसे बड़ी बात यह कि गरीबों को भिखारी मानकर विचार नहीं करना चाहिए।’’

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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वयमिह परितृष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलैस्सभ इह परितोषे निर्विशेषो विशेषः।

स तु भवतु दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः।।

            हिन्दी में भावार्थ-हे राजन्! हम पेड़ की छाल के वस्त्र पहनकर संतुष्ट हैं तो तुम रेशमी परिधान पहनकर प्रसन्न हो। संतोष तो हम दोनों को ही है तब विरोध वाली बात कहां है? इसमें विशेष कुछ नहीं है। दोनों ही संतुष्ट है तब अंतर नहीं है। मगर जो दरिद्र है पर जिसकी इच्छायें अधिक है उसका अगर मगर संतोष से भर जाये तो धनिक और दरिद्र में अंतर कहां रह जाता है।

            आधुनिक राज्यव्यवस्थाओं में पूरे विश्व के शिखर पुरुष हमेशा ही गरीबों के मसीहा होने का दावा करते हैं यह अलग बात है कि उनके प्रशासनिक तंत्र की नीतियां और कार्यशैली इसके विपरीत दिखती हैं।  गरीब, बेसहारा, बूढ़े, कमजोर तथा विकलांग की सेवा के नारे पूरे विश्व में लगते हैं।  तब ऐसा लगता है कि बस इस धरती पर देवता प्रकट होने वाले ही है।  ऐसा होता नहीं क्योंकि इस तरह के नारे लगाने वालों का उद्देश्य केवल प्रचार के माध्यम से अपना अर्थ साधने का होता है।  सभी गरीब भीख नहीं मांगते और श्रम से जीने वाले सभी लोग धनिक होने का सपना देखकर अपना समय भी नष्ट नहीं करते।  अभावों में जीने वाले जिंदा हैं तो संपन्न लोगों को अपनी रक्षा की चिंता खाये जाती है।
            इसलिये किसी गरीब को देखकर उस पर हंसना नहीं चाहिये और न ही अपनी संपन्नता के मद में रहकर जीवन बिताना चाहिये। जिसके पास मन का संतोष है वही सबसे बड़ा धनी है। बढ़त राजरोगों के बढ़़ते प्रभाव से तो यही निष्कर्ष निकलता है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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