Wednesday, November 26, 2008

भृतहरि सन्देश: संतोष हो तो निर्धन और धनी एक जैसे होते हैं

वयमहि परितृष्टा वल्कलैस्त्वं दृकूलैस्सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।
स तु भवतु यस्य तृष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्र

भावार्थ-इस भौतिक संसार में कोई मनुष्य वृक्ष की छाल के वस्त्र पहनकर ही संतुष्ट होता है तो किसी का मन रेशमी सूत के बने वस्त्र धारण कर ही प्रसन्न होता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। धनी और निर्धन के संतोष में कोई अंतर नही। जिसकी बहुत बड़ी इच्छाएं हैं वह धनी होते हुए भी असंतोष के साथ जीवन व्यतीत करता है। जिसकी इच्छाएं और आकांक्षाएं कम हैं वह वह दरिद्र होते हुए भी मन के संतुष्ट हो जाता है तो भला किसे धनी कहा जाये और किसे दरिद्र।

संक्षिप्त व्याख्या-यहां कोई धनी अपने धन पर इतराता है तो कोई अपनी निर्धनता को लेकर त्रस्त रहता है। अपनी देह में विचरने वाले मन की ओर कोई दृष्टिपात नहीं करता। अगर मन में संतोष है तो फिर किस बात की चिंता रह जाती है। कुछ लोग ऐसे है जो अपने पास भौतिक साधनों के अभाव की परवाह न करते हुए भक्ति भाव से अपना जीवन व्यतीत करते हैं। वह परमात्मा द्वारा दिये गये धन से संतुष्ट हो जाते हैं पर कई धनिक हैं जो धन क पीछे सदैव पड़े रहते हैं पर मन की शांति उनसे कोसों दूर रहती है। इतना ही नहीं अपनी कम आवश्यकताओं के कारण संतुष्ट लोगों के मन की शांति उनको नहीं सुहाती और तब वह सोचते हैं कि काश! हमें मन की शांति मिल जाये।

आज का भौतिक संसार तो आपने देखा होगा मनुष्य की अशांति पर ही अधिक चल रहा है। टीवी चैनलों पर एक विज्ञापन आता है जिसमें एक अभिनेता कहता है-‘डोंट बी संतुष्ट‘। मतलब यह कि आज के युग के व्यवसायी अपने हित के लिऐ ऐसे प्रयास करते हैं कि आम आदमी के मन में असंतोष भड़काकर उन्हें माया के ऐसे चक्कर में फंसाया जहां से वह निकल नहीं सके।
अगर आदमी के मन में संतोष है इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह धनी है या निर्धन। हमारा काम कम आवश्यकता से चल जाता है तो उससे संतुष्ट हो जाना चाहिए। संतोष ही सबसे बड़ा धन है।

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