Thursday, May 30, 2013

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-जहां राज्य कमजोर हो वहां अनाचार बढ़ते हैं (kautilya ka arthshastra-jahan rajya kamjor ho vahan anachar badhte hain



      पिछले कई दिनों से भारतीय प्रचार माध्यम स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराधों की घटनाऐं प्रचारित कर समाज की स्थिति का रोना रोते हुए  अपने विज्ञापन का समय पास कर रहे हैं।  अनेक प्रकार की बहस होती  है पर निष्कर्ष के रूप में नतीजा शून्य ही रहा है।  सच बात तो यह है कि हमारे देश की  ही नहीं वरन् पूरे विश्व की दंडप्रणालियां अत्यंत अपराधों के अन्वेषण तथा  विलंब से निर्णय करने का कारक बन गयी हैं।  दूसरी बात यह है कि अपराध अन्वेषण तथा न्यायिक प्रणाली के सदुपयोग की योग्यता जिन लोगों में अधिक नहीं  है वह भी राज्य कर्म में लिप्त होकर समाज की रक्षा का जिम्मा ले लेते हैं।  पुरातन सभ्यताओं में अपराध की प्रकृत्ति के अनुसार दंड की व्यवस्था थी। इनमें कई सजायें क्रूर थी जिनको पश्चिमी सभ्यता के लोग पशुवत मानते थे।  अपने को सभ्य समाज साबित करने के लिये पश्चिम के लोगों ने पशुवत अपराधों के प्रति भी मानवीय दृष्टिकोण अपनाने का सिद्धांत स्थापित किया जिससे समाज में अपराध बढ़े ही हैं।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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यदि प्रणयेराजा दण्डं उण्ड्येष्वतन्द्रितः।
शले मत्स्यानिवापक्ष्यन्दुर्बलान्बलवत्तराः।
           हिन्दी में भावार्थ-जब राज्य अपनी प्रजा की रक्षा करने के लिये अपराधियों को दंड देने में सावधानी से काम नहीं करता तब अव्यवस्था फैलती है। शक्तिशाली मनुष्य कमजोर लोगों पर भारी अनाचार करने लगते हैं।
अद्यात्काकः परोडाशं श्वा लिह्याद्धविस्तथा।
स्वाम्यं च न स्यात्कस्मिंश्चित्प्रवर्तेताधरोत्तरम्
          हिन्दी में भावार्थ-जब राज्य अपराधियों को दंड नहीं देता तो कौआ पुरोडाश खाने लगेगा, कुत्ता हवि खाकर स्वामी की बात नहीं मानेगा और समाज उच्च से निम्न स्थिति में चला जायेगा।
        भारत में भी कथित रूप से पश्चिमी व्यवस्था को अपनााया गया है। जिस भारतीय संविधान के आधार पर हमारे देश का वर्तमान स्वरूप विद्यमान है वह भी अंग्रेजों से विरासत में मिला है। हमने अपना संविधान बनाया पर उसके साथ ऐसे अनेक नियम हैं जो अंग्रेजों के काल से ही बने हैं।  अंग्रेज आधुनिक सभ्यता के प्रवर्तक होने का दावा करते हैं जो अपराधियों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की बात करती है।  इसके विपरीत हमारा दर्शन मानता है कि क्रूरतम अपराधों की सजा भी क्रूर होना चाहिये।  चूंकि हमारे देश में पश्मिमी सभ्यता के समर्थकों के पास सारी शक्ति है इसलिये यह संभव नहीं है कि यहां अपराध के अन्वेषण तथा दंड के लिये अपने ही देश के अनुरूप कोई नयी प्रणाली बनायी जाये।
       हमारा दर्शन मानता है कि कुत्ते की पूंछ कभी सीधी नहीं हेाती जबकि पश्चिमी दर्शन अपराधियों के सुधरने की कल्पनातीत आशा पालता है।  उहापोह फंसे हमारे देश की स्थिति दिन ब दिन इसलिये बिगड़ती जा रही है क्योंकि हमारे यह अपराध तथा  अन्वेषण तथा न्यायालय में उनके प्रमाणीकरण में विलंब होता है।  अनेक अपराधी तो अपने पुराने अपराध के लिये क्षमा तक की आशा करते हैं।  कुछ तो बिना सजा के ही देह छोड़ जाते हैं।  जब तक हम अपने देश के मूल स्वभाव के अनुसार अपराध के अन्वेषण तथा उनके दंड देने की कोई तीव्र प्रणाली नहीं अपनायेंगे तब तक भयमुक्त समाज की आशा करना व्यर्थ है।         

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, May 25, 2013

मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन-पाखंडी को दान देने वाला भी डूबता है (pakahandi ko dan dene wala bhee doobta hai

       
       वैसे तो हमारे देश में पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण खान पान, रहन सहन तथा कार्यपद्धति में अनेक परिवर्तन आये हैं।  इतना ही नहीं देश के पेशेवर धार्मिक स्वयंभूओं तथा संगठनों ने भी पश्चिमी देशों की व्यवसायिक कंपनियों की तरह अपने कामकाज का विस्तार किया है।  वह भक्ति के साथ भगवान का नाम अवश्य लें  पर उनका लक्ष्य माया पाना ही होता है। यह सच है कि इन्हीं धार्मिक ठेकेदारों ने अपने शिष्यों को दान तथा दया के आधुनिक प्रयासों के लिये प्रेरित नहीं किया ताकि पुरानी दान परंपरा के नाम पर उनके घर भरत रहें। दान देने के मामले में यही लोग गुरु बनकर दक्षिणा का  मुख अपनी तरफ किये रहते हैं।  तब वह कभी नहीं कहते कि यह दान दक्षिणा गरीब बच्चों की शिक्षा या असहायों की मदद के लिये व्यय करो। यह अलग बात है कि ऐसे साधन संपन्न धार्मिक व्यवसायी लोगों को दिखाने के लिये कथित रूप से गरीबों को खाना खिलाने और बच्चों को किताबें बांटने का काम स्वयं करते हैं। कभी अपने शिष्यों को अपने घर के आसपास स्थित जरूरतमंदों को मदद करने की प्रेरणा नहीं देते।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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यथा प्लवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन्।
तथा निमज्जतोऽधस्तदजो दातृप्रतीच्छकौ।।
         हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह पानी में पत्थर की नाव पर सवार होने वाला व्यक्ति डूब जाता है उसी तरह पाखंडी विद्वान तथा उसका सहायक दानदाता दोनों ही पाप के भागी बनते हैं
तस्मादविद्वान्विद्यस्मात्तस्मात्प्रतिग्रहात्।
स्वल्पकेनाप्यविद्वान्हि पङ्के गौरवि सीदति।।
    हिन्दी में भावार्थ-पाखंडी विद्वान को दान देने से कोई लाभ नहीं होता। बल्कि उसे धन तथा पुण्य दोनों की हानि होती है। मूर्ख बनाकर दान लेने वाला विद्वान भी शीर्घ नष्ट होता है।
          सच बात यह है कि आधुनिक समय में समाज हित के लिये जिस व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है उसकी प्रेरणा कथित गुरु देना ही नहीं चाहते।  गरीबों को खाना खिलाना बुरी बात नहीं है पर प्रयास इस बात के होने चाहिये कि गरीबों को  अपने परिश्रम का उचित पारिश्रमिक मिले।  भीख मांगने वाले  को दान देते समय पुण्य का फल की कामना मन में रहती है तो लोग खुलकर देते हैं पर जब किसी मजदूर या सेवक को उचित पारिश्रमिक या वेतन देने की बात हो तो तब अमीर आदमी अपनी चतुराई पर उतर आता है।  उस समय वह मजदूर या सेवक के परिवार का पेट भरने में अपना पुण्य नहीं देखता।  यही कारण है कि अनेक भिखारी परिश्रम कर कमाने की बात कहने पर कहते हैं कि हमें तो अपने ही इस धंधे में ही इतनी कमाई है कि परिश्रम करने पर उसका दसवां हिस्सा भी नहीं मिल सकता।  यह हमारे समाज की बौद्धिक मूर्खता है कि वह मेहनतकश को उचित या अधिक पारिश्रमिक देने को दान नहीं मान पाता। यही कारण है कि हमारे देश में धनिक अधिक संख्या में पैदा रहे हैं पर समाज में उनके प्रति वैमनस्य भी उतनी तेजी से बढ़ रहा है।  सच बात तो यह कि हमारा आधुनिक समाज का संपन्न पहले की अपेक्षा अधिक मेहनतकशों पर निर्भर हो गया है पर उनका सम्मान नहीं करना चाहता जबकि अमीर गरीब के बीच स्थित तनाव से बचने का एक ही मार्ग है कि पूंजीगत शक्तियां मानव श्रम का उचित ढंग से लालन पालन करें।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 



Saturday, May 18, 2013

चाणक्य के दर्शन में भी है समाजवाद का सिद्धांत-हिन्दी लेख (chankya ke darshan mein bhee samajwan ka siddhant-hindi lekh)

          हमारे देश में भारतीय अध्यात्म से प्रथक अनेक विदेशी विचारधाराओं ने लोगों के मनमस्तिष्क में घर कर लिया है। माना जाता है कि भारतीय अध्यात्म का दर्शन केवल बघारने के लिये है और उसके सिद्धांतों का अब कोई व्यवाहारिक महत्व नहीं है।  अनेक बुद्धिमानों ने  योजनाबद्ध ढंग से  साम्यवादी, प्रगतिवादी तथा समाजवादी विचाराधाराओं को  क्रम से यह कहकर स्थापित करने का प्रयास किया है कि उनके अनुसार गरीबों और असहायों को मदद मिलनी चाहिये।  जब यह बुद्धिमान इन विदेशी विचाराधाराओं का गुणगान करते हैं तो उनका संबोधन समाज नहीं वरन् राज्य व्यवस्था की तरफ होता है। उनका मानना है कि मनुष्य समाज तो एक दम संवदेनहीन होता और उसे राज्य के दंड से ही नियंत्रित किया जा सकता है।
           इसके विपरीत भारतीय अध्यात्म दर्शन समाज को संबोधित करता है। उसका मानना है कि अगर समाज स्वतः नियंत्रित होगा ता अधिक शक्तिशाली होगा। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्म दर्शन ने ही हमेशा दान की प्रवृत्ति का संदेश दिया हैं। हमारे देश के बुद्धिमान लोग उसका आशय केवल मुफ्त में किसी गरीब को देना मानते हैं। इतना ही नहीं  यह समाज के धनी लोगों के विवेक पर ही निर्भर है जबकि हमारे बुद्धिमान मानते हैं कि जिसके पास राज्य दंड नहं है वह संवेदनशील हो ही नहीं सकता।  दरअसल इस दान की महिमा के लिये पुण्य का लाभ मिलने की बात अवश्य हमारा दर्शन कहता है पर उसका कोई रूप स्पष्ट नहीं किया है।  यह पुण्य केवल  अगले जन्म या इस जन्म में प्रत्यक्ष मिलता हो ऐसा दावा हमारा दर्शन नहीं करता।  इस दान की प्रवृत्ति को उकसाने के पीछे हमारे विद्वान मनीषियों का आशय यही रहा है कि इससे समाज में समरसता और शंाति रहे। जिनके पास धन है वह अपने से कमतर व्यक्ति को उसकी सेवा या वस्तु प्रतिफल या दान में देते रहें ताकि वह कभी भूखे न रहें। अगर वह भूखे या निराश होंगे तो समाज को कहीं न कहीं उनके विद्रोह का सामना करना पड़ता है। इससे अशांति फैलती है। अगर धनी मनुष्य अपने समाज के गरीब लोगों का ख्याल रखता है तो उसके धन देने की प्रक्रिया को भले ही दान कहें पर इससे जो शांति बनी रहती है वह उसके लिये पुण्य के रूप  में प्रतिफल ही होता है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणाम्।
लडागोदसंस्थानां परीवाह इवाऽम्भासाम्।।
       हिन्दी में भावार्थ-अर्जित धन का त्याग करने से ही उसकी रक्षा हो सकती है। जैसे तालाब में जमा जल को बाहर निकालने पर उसकी रक्षा होती है।
      चाणक्य महाराज के इस संदेश का विस्तार से अर्थ समझें तो यह स्पष्ट है कि जिन लोगों को पास अधिक धन है वह इस गुमान में कतई नहीं रहें कि वह उसका केवल संग्रह कर अपनी तथा परिवार की रक्षा कर सकते हैं।  उनको अपने आसपास रह रहे लोगों को खुश रखने के लिये भी कुछ व्यय करते रहना चाहिये।  ताकि वह निराशा और हताशा से उनकी तरफ वक्र दृष्टि न डालें।  इतना ही नहीं जब वह धनिकों पर निर्भर रहेंगे तो उनकी रक्षा के लिये भी तैयार रहेंगे।  अगर धनी ऐसा नहीं करेंगे तो निश्चित रूप से न उनका धन और नही परिवार सुरक्षित रह सकता है। एक तरह से यह चाणक्य का समाजवादी सिद्धांत है जिसके लिये अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 



Saturday, May 11, 2013

मनुस्मृति-सन्यासी को त्यागी भी होना चाहिये(sanyasi ko tyagi bhi hana chahiye-manu smriti)

             हमारे देश में सन्यास और सन्यासी को लेकर कभी सार्वजनिक रूप से परिभाषित किया ही नहीं जाता। इसका कारण यह है कि जिन लोगों को सन्यास या वानप्रस्थ का सही अर्थ बताना चाहिये वही गेरुए या सफेद वस्त्र पहनकर इस तरह समाज के सामने प्रस्तुत होते हैं जैसे कि वह भारी भरकम आत्मज्ञानी हों।  इतना ही नहीं स्वयंभू गुरु बनकर वह अपने शिष्यों से धन संपदा संग्रह करने के साथ ही उनसे अपने पांव भी पुजवाते हैं।  भारतीय अध्यात्म ज्ञान में सिद्ध होने का दावा करने वाले यह पेशेवर महापुरुष समाज को भौतिक यज्ञ करने के लिये ही प्रेरित करते हैं।  इतना ही ज्ञान यज्ञ के नाम पर यह ऐसे कार्य करते हैं जिनका धार्मिक कर्मकांडों से संबंध तो होता है पर अध्यात्म के विषय से उनका कोई सरोकार नहीं माना जा सकता।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार तो सन्यास का सीधा अर्थ संसार के भौतिक साधनों का पूरी तरह से त्याग करना ही है। सन्यास ग्रहण करने के बाद केवल प्रकृति से निर्मित वस्तुओं का ही उपभोग करना आवश्यक है ।  पहनना, ओढ़ना और सोना हमेशा ही प्रकृति प्रधान वस्तुओं का ही जुड़ा  होना चाहिये । वस्त्रों के रूप में मृगचर्म या फिर पेड़ के पत्तों को ओढ़ना चाहिये। भोजन में फल और कंदमूल का सेवन करना ही श्रेयस्कर माना जाता है।  कहने का अभिप्राय यह है कि मानव निर्मित वस्तुओं का उपभोग एक तरह से निषिद्ध है। देखा जाये तो सन्यास के इस रूप में आज के अनेक गुरु खरे नहीं उतरते।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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प्राजापत्यां निरुप्येर्ष्टिसर्ववेदसदक्षिणाम्।
आत्मन्यग्नीसमारोप्य ब्राह्म्णः प्रव्रजेद्गृहात्।
       हिन्दी में भावार्थ-वानप्रस्थ आश्रम में रहने वाले को चाहिये कि वह अपनी सारी संपत्ति दान देने के साथ ही परमात्मा के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने के लिये यज्ञ का आयोजन करे। इसके पश्चात् आत्मज्ञान की ज्योति को जलाकर सन्यास के लिये प्रस्थान करे।
यो दत्वा सर्वभूतेभ्यः प्रव्रजत्यभवं गृहात्।
तस्य तेजोमया लोक भवन्ति ब्रह्मवादिनः।
        हिन्दी में भावार्थ-सभी जीवों को अभयदान देकर वानप्रस्थ के लिये  सन्यास ग्रहण करने वालों को तेजपूर्ण लोकों की प्राप्ति होती है।
         सन्यासी को न तो किसी निंदा करना चाहिये न किसी के व्यक्ति के मन में भय पैदा कर उसका हृदय अपने अनुकूल बनाने के प्रयास करना चाहिये।  उसे किसी की मधुर वाणी पर मुग्ध और कटु वाणी पर क्रुद्ध होने के भाव से भ परे होना चाहिये।  जबकि इसके विपरीत हम देख रहे हैं कि जिन्होंने धर्म क्षेत्र में शिखर पर अपनी जगह बनाई है वह आम लोगों में उसका प्रभाव भी दिखाते हैं।  राजसी पुरुषों के अपने शिष्य होने के दावे के प्रचार   के लिये वह उनके साथ खिंचवाये गये फोटो की प्रदर्शनी भी लगाते हैं।  अनेक कथित धर्मगुरु यह कहते थकते नहीं कि वह तो सन्यासी हैं पर अपने पास आने वालों लोगों को वह उनके स्तर के अनुसार दर्शन देते हैं।  अनेक गुरु तो आम तथा विशिष्ट लोगों को दर्शन देने के लिये अलग अलग स्थान निर्धारित करते हैं।  हम उन लोगों की निंदा नहीं कर रहे। हमारा कहना तो यह है कि धर्म के क्षेत्र में उनका यह पेशा है और यह कोई बुराई नहीं है।  हमारा उद्देश्य तो यह बता कहना है कि किसी को वस्त्र, वाणी, या व्यक्तितत्व देखकर उसे सन्यासी मानकर उसके सामीप्य प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिये।  ऐसे में हम अपने जीवन में आये भटकाव से बच नहीं सकते क्योंकि उन पेशेवर साधुओं के पास कोई ऐसी युक्ति नहंी है जिससे  मनुष्य तनाव से बच सकते।  इसके लिये सबसे बेहतर उपाय तो यही है कि अपने अध्यात्मिक ग्रंथों का स्वयं ही अध्ययन करें। उसके संदेशों को समझकर जीवन के प्रति अपना उचित दृष्टिकोण बनाये।  अध्यात्मिक चिंत्तन और मनन की यह प्रक्रिया स्वतः ही मस्तिष्क में वैचारिक स्फृर्ति पैदा करती है और हमें किसी अन्य से राय लेने से बचाती है ।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 



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