Saturday, October 30, 2010

श्रीगुरुवाणी-नाम स्मरण करने वाले के दिन और रात सुहावनी होती हैं (shri guruvani-naam samran se din aur raat suhavane)

दिनु रैणि सभ सुहावणे पिआरे जितु जपीअै हरि नाउ।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुवाणी में संत फरीद की इस रचना के अनुसार जब मनुष्य ईश्वर के नाम का स्मरण हृदय से करता है तो उसके लिए सभी दिन और रातें सुहावनी हो जाती हैं।
माइआ कारनि बिदिआ बेयहु जनमु अबिरथा जाइ।
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार पैसे के लिए विद्या बेचने वालों जन्म व्यर्थ जाता है।
फरीदा जा लबहु त नेहु किआ लबु त कूढ़ा नेहु।
किचरु झति लघाइअै छप्पर लुटै मेहु।
हिन्दी में भावार्थ-
संत फरीद के अनुसार अगर परमात्मा की भक्ति लालच या लोभवश की जाती है तो वह सच्ची नहीं है। एक तरह से बहुत बड़ा झूठ है। ठीक वैसे ही जैसे टूटे हुए छप्पर से पानी बह जाता है वैसा ही हश्र कामना सहित भक्ति का होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीगुरुग्रंथ साहिब के अनेक संत कवियों की रचनायें शामिल हैं जिसमें संत फरीद का नाम भी आता है। इन सभी संत कवियों ने निष्काम भक्ति के लाभ बताये हैं। दरअसल मनुष्य कामनाओं के साथ हमेशा जीता है और इस कारण पैदा होनी वाली एकरसता अंततः मन में भारी ऊब तथा खीज पैदा करती है। कई लोग मूड बदलने के लिये कहीं पर्यटन तथा पिकनिक के लिये जाते हैं पर फिर लौटते हैं तो वही असंतोष जीवन को घेर लेता है जिसके साथ जी रहे हैं।
अपने मन का मार्ग बदलने के लिये निष्काम होना जरूरी है इसके लिये परमात्मा का नाम स्मरण करना एक श्रेष्ठ मार्ग हैं। मुश्किल यह है कि अज्ञानी मनुष्य भक्ति में कामना रखकर ही चल पड़ता है और इससे उसको कोई लाभ नहीं मिलता। इतना ही नहंी अनेक लोग तो ज्ञान प्राप्त कर उसे बेचकर अपने मन को संतोष देने का प्रयास करते हैं। ऐसे ढोंगी भले ही समाज में पुजते हैं पर मन तो उनका भी संताप से भरा रहता है। निष्काम भक्ति तभी संभव है जब अपने मन को केवल नाम स्मरण में यह सोचकर लगाया जाये कि उससे कोई भौतिक लाभ हो या नहीं पर शांति मिलनी चाहिए।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Wednesday, October 27, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब-धन न होने पर पत्नी, पुत्र, मित्र तथा संबंधी आदमी को छोड़ देते हैं (shri gurugranth sahib-dhan aur sambandh)

इहु धनु करते का खेल है कदे आवै कदे जाइ।
गिआनी का धनु नामु है सद ही रहे समाइ।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार सांसरिक धन तो ईश्वर का खेल। कभी किसी आदमी के पास आता है तो चला भी जाता है। ज्ञानी का धन तो प्रभु का नाम है जो हमेशा उसके हृदय में बना रहता है।
दारा मीत पूत सनबंधी सगर धन सिउ लागै।
जब ही निरधन देखिउ नर कउ संगि छाडि सभ भागै।
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरु ग्रंथ सहिब के अनुसार पत्नी, मित्र, पुत्र और संबंधी तो धन के कारण ही साथ लगे रहते हैं। जिस दिन आदमी निर्धन हो जाता है उस दिन सब छोड़ जाते हैं।
धन जीबन का गरबु न कीजै कागद जिउ गलि जाहिगा।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी भी मनुष्य को अपने जीवन और धन पर गर्व नहीं करना चाहिऐ। यह दोनों कागज की तरह है चाहे जब गल जायें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य जीवन की यह विचित्र माया है कि उसकी अनुभूति में धन दुनियां का सबसे बड़ा सत्य है जबकि उससे बड़ा कोई भ्रम नहीं है। आधुनिक योग में सारे देशों की मुद्रा कागज की बनी हुई है और केवल राज्य के विश्वास पर ही वह धन मानी जाती है। मजे की बात यह है कि अनेक लोगों के पास तो वह भी हाथ में न रहकर बैंकों के खातों में आंकड़ों के रूप में स्थापित होती है। अनेक लोगों के खातों में दर्ज आंकड़ें तो इतने होते हैं कि वह स्वयं सौ जीवन धारण कर भी उनको खर्च नहीं कर सकते मगर फिर भी इस कागजी और आंकड़ा रूपी धन के पीछे अपना पूरा जीवन नष्ट कर देते हैं।
हम अपने जिस शरीर के बाह्य रूप को मांस से चमकता देखते हैं अंदर वह भी कीचड़ से सना रहता है। धीरे धीरे क्षय की तरफ बढ़ता जाता है। धन या देह न रहने पर अपने सभी त्याग देते हैं तब भी मनुष्य दोनों के लेकर भ्रम पालता है। उससे भी ज्यादा बुरा तो यह भ्रम हैं कि हमारे लोग हमेशा ही निस्वार्थ भाव से हमारे साथ हैं। हर आदमी स्वार्थ के कारण ही दूसरे से जुड़ा है। अलबत्ता कुछ परम ज्ञानी तथा ध्यानी महापुरुष संसार और समाज के हित के लिए निष्काम भाव से कर्म करते हैं पर वह भी इसके फल में लिप्त नहीं होते बल्कि उनका फल तो परमात्मा की भक्ति पाना ही होते। वह जानते हैं कि कागज का धन आज हाथ में आया है कल चला जायेगा। यह केवल जीवन निर्वाह का साधन न न कि फल।
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Saturday, October 23, 2010

पतंजलि योग विज्ञान-देश काल से संपर्क टूटने पर भी संस्कार बने रहते हैं (patanjali yoga vigyan-deshkal aur sanskar)

महार्षि पतंजलि के अनुसार 
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जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानष्यानन्तर्य स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पतंजलि योग सूत्र के अनुसार जाति, देश काल इन तीनों से संपर्क टूटने पर भी स्वाभाविक कर्म संस्कारों में बाधा नहीं आती क्योंकि स्मृति और संस्कारों का एक ही रूप होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम इस श्लोक में योग के संस्कारिक रूप को समझ सकते हैं। जब मनुष्य बच्चा होता है तब उसके अपने घर परिवार, रिश्तेदारी, विद्यालय तथा पड़ौस के लोगों से स्वाभाविक संपर्क बनते हैं। वह उनसे संसार की अनेक बातें ऐसी सीखता है जो उसके लिये नयी होती हैं। वह अपने मन और बुद्धि के तत्वों में उन्हें स्वाभाविक रूप से इस तरह स्थापित करता है जीवन भर वह उसकी स्मृतियों में बनी जाती हैं। कहा भी जाता है कि बचपन में जो संस्कार मनुष्य में आ गये फिर उनसे पीछा नहीं छूटता और न छोड़ना चाहिए क्योंकि वह कष्टकर होता है।
यही कारण है कि माता पिता तथा गुरुओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दें। संभव है बाल्यकाल में अनेक बच्चे उनकी शिक्षा पर ध्यान न दें पर कालांतर में जब वह उनकी स्थाई स्मृति बनती है तब वह उनका मार्ग प्रशस्त करती है। इसलिये बच्चों के लालन पालन में मां की भूमिका सदैव महत्वपूर्ण मानी गयी है क्योंकि बाल्यकाल में वही अपने बच्चे के समक्ष सबसे अधिक रहती है और इसका परिणाम यह होता है कि कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जो अपनी मां को भूल सके।
इसलिये हमारे अध्यात्मिक संदेशों में अच्छी संगत के साथ ही अच्छे वातावरण में भी निवास बनाने की बात कहीं जाती है। अक्सर लोग कहते हैं कि पास पड़ौस का प्रभाव मनुष्य पर नहीं पड़ता पर यह गलत है। अनेक बच्चे तो इसलिये ही बिगड़ जाते हैं क्योंकि उनके बच्चे आसपास के गलत वातावरण को अपने अंदर स्थापित कर लेते हैं।
यही नहीं आज के अनेक माता पिता बाहर जाकर कार्य करते हैं और सोचते हैं कि उनका बच्चा उनकी तरह ही अच्छा निकलेगा तो यह भ्रम भी उनको नहीं पालना चाहिये क्योंकि किसी भी मनुष्य की प्रथम गुरु माता की कम संगत बच्चों को अनेक प्रकार के संस्कारों से वंचित कर देती है। ऐसे लोग सोचते हैं कि उनका बच्चा बड़ा होकर ठीक हो जायेगा या हम उसे संभाल लेंगे तो यह भी भ्रामक है क्योंकि जो संस्कार कच्चे दिमाग में स्मृति के रूप में स्थापित करने का है वह अगर निकल गया तो फिर अपेक्षायें करना निरर्थक है। युवा होने पर दिमाग पक्का हो जाता है और सभी जानते हैं कि पक्की मिट्टी के खिलोने नहीं बन सकते-वह तो जैसे बन गये वैसे बन गये। दरअसल हम जिससे संस्कार कहते हैं वह प्रारम्भिक काल में स्थापित स्मृतियों का विस्तार ही हैं इसलिये अगर हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे बच्चे आगे चलकर वह काम करें जो हम स्वयं चाहते हैं तो उसकी शिक्षा पहले ही देना चाहिए। यह स्मृतियां इस तरह की होती हैं कि देश, काल तथा जाति से कम संपर्क रहने न बिल्कुल न होने पर भी बनी रहती हैं और मनुष्य अपने संस्कारों से भ्रष्ट नहीं होता है अगर किसी लोभवश वह अपना पथ छोड़ता भी है तो उसे भारी कष्ट उठाना पड़ता है और फिर अपने स्थान पर वापस आता है। अतः अपने बच्चों में अच्छे संस्कार डालने का प्रयास करना चाहिए जो कि अंततः उसकी स्मृतियां बन जाती हैं।
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Saturday, October 16, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब से-ईश्वर ही सच्चा मित्र हो सकता है (shri gurugranth sahib-sachcha mitra eeshwar)

नानक मित्राई तिसु सिउ, सभी किछु जिस कै हाथि।
कुमित्रा सेई कांढीअहि, इक व्रिख न चलहि साथि।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्रीगुरुवाणी के अनुसार मनुष्य का सच्चा मित्र केवल ईश्वर ही हो सकता है जो बुरे मित्रों और शत्रुओं से बचाने की शक्ति रखता है।
दुस्टा नालि दोस्ती संता वैरु करंनि।
आपि डूबे कुटंब सिउ सगाले कुल डोबंनि।।
हिन्दी में भावार्थ-
दुष्टों से मित्रता करने तथा साधुओं के प्रति बैर रखने वाले स्वयं तो डूबते हैं अपने परिवार का भी सत्यानाश करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दोस्ती, प्यार और वफादारी के उम्मीद में इंसान इधर से उधर भटकता है। फिल्म और साहित्य में सक्रिय रचनाकर इंसान को इंसानों में ऐसी चीजें ढूंढने के लिये प्रेरित करते हैं जो मनुष्य देहधारियों में होना संभव ही नहीं है। हर इंसान पंच तत्वों से बना है और उसके स्वयं के स्वार्थ का कहीं अंत नहीं है। ऐसे विरले ही महामनस्वी होते हैं जो निष्काम भक्ति, योगसाधना, स्वाध्याय अथवा तप से तत्व ज्ञान प्राप्त कर समाज का भला करते हैं। उनके दर्शन करना भी अपने आप में पुण्य का काम है और यह तभी संभव है जब किसी मनुष्य में सत्संग के माध्यम से मन की शांति तथा भक्ति प्राप्त करने का संकल्प हो। ऐसे महात्मा लोग किसी इंसान का भला कर सकते हैं पर वह उससे कोई आशा नहीं करते। न ही ईश्वर के अलावा किसी अन्य को मित्र समझते हैं।
इंसान में ईश्वर ढूंढना एक व्यर्थ का काम है पर ईश्वर के बने इंसानों के प्रति प्रेम और अहिंसा का भाव अवश्य रखना चाहिए जो कि धर्म का ही काम है। अपने से गरीब और बेसहारा को सहारा देना अच्छी बात है। मगर मित्रता और प्रेम के नाम पर किसी से कोई आशा नहीं करना चाहिए। दैहिक प्रेम काम, लोभ तथा कामना से उपजा एक व्यसन है जिसका दुष्प्रभाव होता है। ईश्वर को ही सच्चा प्रेमी और मित्र समझना चाहिए जो कि बुरे और स्वार्थी मित्रों के जाल तथा शत्रुओं की चाल में फंसने से बचाने की बुद्धि प्रदान करता है।
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Friday, October 15, 2010

चाणक्य नीति-आंखों से देखकर ज़मीन पर पांव रखें (chanakya neeti in hindi-aankha aur paanv)

दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम्।
शास्त्रं वंदेद् वाक्यं मनः पूतं समाचरेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य का कहना है कि दृष्टि से देखकर प्रथ्वी पर पांव रखें, कपड़े से छानकर पानी को पिऐं, शास्त्र से शुरु कर वाक्य बोलें और मन से सोचकर कार्य प्रारंभ करने पर उसे पूरा अवश्य करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिंदगी में सावधानी के साथ ही चिंतन और मनन की आवश्यकता होती। अधिकतर लोग दूसरों की शान शौकत या दौलत देखकर वैसा ही बनने का सपना पाल लेते हैं। वह यह नहीं देखते कि किसने किस तरह अपनी जिंदगी में संघर्ष किया है। अनेक लोग हवाई किले बनाकर चल पड़ते हैं पर कामयाबी न मिलने पर संकट में पड़ जाते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि जीवन में हर कदम पर सोच समझकर ही अपना काम प्रारंभ करना चाहिए।
अनेक जगह लोग निरर्थक वार्तालाप करते हैं। अनेक बार तो बातचीत में झगड़े हो जाते हैं और नौबत खून खराब की आ जाती है। लोग अध्यात्म ग्रंथों की बजाय कल्पित साहित्य और फिल्मों से प्रभावित इतने हैं कि उनको यह पता नहीं है कि जिंदगी कितनी कठिन है और उसमें सपने देखना और उनको पूरा करना अलग अलग बातें हैं। खासतौर से नयी पीढ़ी को तो एकदम सुविधाभोगी जीवन के सपने प्रचार माध्यम दिखा रहे हैं। बंगला, कार, तथा घर में नौकर होने का ख्वाब सभी को है पर यह पता नहीं कि नौकर भी एक इंसान होता है जिसे बंगला और कार की तरह बेज़ान नहीं माना जा सकता। न ही हर नौकर फिल्म या धारावाहिक की तरह वफादार होता है। यही कारण है कि घरेलु नौकरों द्वारा किये जा रहे अपराधों की संख्या बढ़ रही है।
कहने का अभिप्राय यह है कि आंखें खुली होने के साथ ही बुद्धि भी सक्रिय रखना चाहिये। फिल्में देखना या कल्पित साहित्य पढ़ना बुरा नहीं है पर जीवन के यथार्थ का ज्ञान भी अपने आसपास की घटनाओं तथा पुराने लोगों से प्राप्त करना चाहिए।
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Sunday, October 10, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब से-भक्त की चाल निराली होती है (shir guru granth sahib-bhakt ki chal nirali)

‘भगता की चाल निराली।
चाला निराली भगताह केरी, विखम मारगि चलणा।
लबु लोभु अहंकारु तजि तृस्ना, बहुतु नाही बोलणा।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्रीगुरुवाणी के अनुसार भगवान के भक्त की चाल निराली होती है। सद्गुरु के प्रति उसकी यह अनन्य भक्ति उसे ऐसे विषम मार्ग पर चलने में भी सहायता करती है जो आम इंसान के लिए असहज होते हैं। वह लोभ, अहंकार तथा कामनाओं का त्याग कर देता है। कभी अधिक नहीं बोलता।
‘जै को सिखु, गुरु सेती सनमुखु हौवे।
होवै त सनमुखु सिखु कोई, जीअहु रहै गुरु नालै।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्रीगुरुवाणी के अनुसार जो सिख गुरु के समक्ष उपस्थित होता है और चाहता है कि उनके समक्ष कभी शर्मिंदा न होना पड़े तो तो उसके लिये यह आवश्यक है कि गुरु को हमेशा प्रणाम कर सत्कर्म करता रहे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वैसे तो सभी लोग भक्ति करते हैं पर जिनके मन में ईश्वर के प्रति अगाध निष्ठा है उनकी चाल आम इंसानों से अलग हो जाती है। वह दुःख सुख और मान अपमान में सम रहते हैं। वह अपने जीवन में अनेक ऐसे कष्टों का सहजता से समाना कर लेते हैं जो सामान्य इंसान के लिये कठिन काम होता है। इसलिये कहा जाता है कि भक्ति में शक्ति होती है। जब तक यह देह है तब तक सांसरिक संकट तो आते ही रहेंगे। उसके साथ ही सुख के पल भी आते हैं पर सामान्य मनुष्य केवल उनको ही चाहता है। मगर संसार का नियम है। सूरज डूबता है तो अंधेरा होता है और वह फिर सुबह होती है। संसार का यह निमय मनुष्य की देह पर भी लागू होता है। यह सत्य भक्त जान लेते हैं। उनको पता होता है कि अगर अच्छा वक्त नहीं रहा तो यह खराब भी नहीं रहेगा। इसलिये वह सहज हो जाते हैं। इसके विपरीत जो भक्ति और प्रार्थना से दूर रहते हैं वह अध्यात्मिक ज्ञान नहीं समझ पाते इसलिये थोड़े कष्ट या बीमारा में हाहाकार मचा देते हैं जो अंततः मानसिक रूप से तोड़ देता है। इसके विपरीत भक्त लोग हमेशा ही अपनी मस्ती में मस्त रहते हैं।
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Sunday, October 3, 2010

चाणक्य नीति-एकता से शत्रु का मुकाबला संभव (chankya neeti-ekta se dushman ka mukabla sanbhav)

बहूनां चैव सात्तवानां समवायो रिपुञ्जयः।
वर्षधाराधरो मेघस्तृपौरपि निवार्यते।
हिन्दी में भावार्थ-
अगर लोगों का समूह बड़ा होने के साथ ही एकता कायम किये रहे तो वह शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेता है जैसे वर्षा की तेज धारा होने होने के बावजूद तिनकों का समूह उसे आगे बहने से रोक लेता है।
हिन्दी में भावार्थ-सामान्य मनुष्य की सोच हमेशा ही अपनी चिंताओं के इर्दगिर्द घूमती है। सच बात तो यह है कि इस संसार के संकट दुष्टों द्वारा इसलिये ही पैदा किया जाता है क्योंकि सज्जन लोग एक होकर उनका मुकाबला नहीं कर पाते। मुकाबला करना तो दूर ऐसा सोचते भी नहीं है।
कहा भी जाता है कि विश्व की समस्यायें दुष्टों की सक्रियता से नहीं बल्कि सज्जनों की निष्क्रियता के कारण बढ़ती हैं । सज्जन लोग अपने तथा परिवार के जीवन की रक्षा के लिये इतने आतंकित रहते हैं कि एक दूसरे की मदद करने की बजाय परस्पर ही पीड़ित के दोष ढूंढने लगते हैं। सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के साथ बदतमीजी और बेबसों पर हमले इसी कारण ही होते हैं क्योंकि अपराधियों को पता है कि डरपोक कथित भले लोग कभी भी पीड़ित की मदद को नहीं आयेंगे।
हमारे देश की महिमा तो बड़ी विचित्र है। सभी जानते हैं कि यह जीवन क्षण भंगुर है और जब मृत्यु आयेगी तब कोई भी उसे रोक नहीं पायेगा पर अपने मतलब से ही मतलब रखने वाले इसे भूलकर डरपोक जैसा जीवन गुजारते हैं। यही कारण है कि फूट का लाभ दुष्ट लोग उठाते हैं।
अगर सज्जन लोग अपने अंदर चेतना, दृढ़ता और परस्पर सहयोग का भाव लायें तो दुष्टों को रोक जा सकता है। इस बात पर अगर गंभीरता विचार किया जाये तो तिनके भी हमें सिखा सकते है जो ढेर सारी बरसात में भी उसके सामने विचलित नहीं होते। जहां झुंड की तरह खड़े हैं वहां उसका पानी रोके रहते हैं। इन्हीं तिनकों से बनी झौंपड़ियां अपने स्वामी की बरसात से रक्षा करती हैं।
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Saturday, October 2, 2010

पतंजलि योग साहित्य-इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने से सिद्धियां मिलती हैं (patanjali yoga sahitya-indriyan aur siddhi)

रूपलावण्यबलवज्रसंहनत्वानि कायसम्पत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
रूप, लावण्य, बल और मानसिक दृढ़ता यानि वज्र एक संगठन होने के साथ ही शरीर की संपत्ति है।
ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्तवसंमादिन्द्रियजयः।।
हिन्दी में भावार्थ-
ग्रहण, स्वरूप, अस्मित, अन्वय और अर्थतत्व इन पांचों अवस्थाओं में संयम करने से मन सहित इंद्रियों पर विजय प्राप्त हो जाती है।
ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च।।
हिन्दी में भावार्थ-
इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने मन के सदृश गति, शरीर के बिना विषयों को अनुभव करने की शक्ति और प्रकृत्ति पर अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारतीय योग साधना के प्रचारक केवल आसन तथा प्राणायाम करने के संदेश के साथ ही इसे केवल स्वस्थ रहने का उपाय बताते हैं। यह गलत नहीं है पर इससे सीमित उद्देश्य की प्राप्त होती हैं । योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान अनेक प्रकार की सिद्धियां भी प्राप्त हो जाती हैं। अब यहां सिद्धियों का अर्थ यह कदापि नहीं लेना चाहिए कि मरे हुए आदमी को जीवित किया जा सकता है या किसी को को धन प्राप्त हो ऐसा उपाय किया जा सकता है। कुछ लोग योग साधना कर यह भ्रम पाल लेते हैं कि उनको तो भारी सिद्धियां मिल गयी। दरअसल योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान करने से मनुष्य की देह तथा इंद्रियों में तीक्ष्णता आती है पर अन्य ज्ञान न होने की वजह से उसका उपयोग अनेक लोग अज्ञानजनित कार्यों में करते के साथ ही अंधविश्वास फैलाने में करते हैं।
पतंजलि महाराज ने योग दर्शन में केवल मनुष्य को स्वयं शक्तिशली और दृढ़ मानसिकता का स्वामी होने का पाठा सिखाया है। योगासन, प्राणायाम तथा मंत्र जाप के बाद जब ध्यान किया जाता है तब वह मनुष्य देह और मन को पूर्णता प्राप्त करता है। उस समय अंतर्मन का निरीक्षण करने से बाहर के विषयों की अनुभूति की जा सकती है। ऐसी जगहों को भी अनुमान किया जा सकता है जहां स्वयं उपस्थित न हों। इतना ही दूसरे व्यक्ति का चेहरा देखकर या उसके शब्द सुनकर उसके मन में चल रही अन्य बातों का भी अनुमान किया जा सकता है। इसके अलावा गर्मी, सर्दी और वर्षा के दौरान अपनी देह को बीमारियों से भी बचाया जा सकता है।
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