Saturday, January 28, 2012

चाणक्य नीति-अधिकार संपन्न आदमी कभी कामना रहित नहीं होता (chankya neeti-adhikar sanpanna aadmi kabhee kamna rahit nahin hota)

हम इस संसार को अपने हिसाब से नहीं चला सकते यह बात समझ लेना चाहिए। अक्सर हम लोग इस गलतफहमी में रहते हैं कि हम अपने प्रभाव से दूसरे लोगों को सुधार लेंगे। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार इस संसार में प्राणी समुदाय त्रिगुणमयी माया से मोहित हो रहा है। हर आदमी अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार व्यवहार करता है। हम लाख कोशिश करें पर जब तक दूसरे आदमी में किसी कार्य या व्यवहार का गुण नहीं है वह उसे हमारे अनुसार नहीं करेगा। रिश्ते और परिवार में जिनके पास अधिकार है वह कभी भी अपना अहंकार छोड़कर व्यवहार नहीं कर सकते। व्यवसाय और नौकरी में भी हम देखते हैं कि अधिकारी लोग अपनी जिद्द नहीं छोड़ते। सच बात तो यह है कि जब हम देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो यह बात सामने आती है कि कुछ लोगों को समाज का भाग्यनियंता बनने का अधिकार मिल गया है जो उसका दोहन अपने अहंकार की पूर्ति तथा घर भरने के लिये करते है। राज्य का हस्तक्षेप समाज में इस तरह है कि मामूली से मामूली अधिकारी भी किसी सम्मानीय आदमी को अपमानित कर सकता है।
                                     चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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                         निस्मृहो नाऽधिकारी स्यान्नाकारी मण्डनप्रियः।
                         नाऽविदगधः प्रियं ब्रूयात् स्पष्टवक्ता न वञ्चकः।।
                 ‘‘जिसके पास अधिकार है वह आकांक्षा रहित नहीं हो सकता। सौंदर्य का पुजारी अकाम नहीं हो सकता। मूर्ख व्यक्ति कभी प्रिय वचन नहीं बोल सकता तो हमेशा स्पष्टभाषी कभी धोखा नहीं देता।
                    ’’मूर्खाणा पण्डिता द्वेष्या अधनानां महाधनाः।
                     वाराऽंगना कुलस्त्रीणां सुभगानां च दुर्भागाः।।
               ‘‘बुद्धिहीनों के शत्रु विद्वान, निर्धनों के शत्रु धनवान, खानदानी स्त्रियों की शत्रु वैश्यायें और सुहागन की शत्रु विधवायें होती है।’’
                हमने देखा है कि भ्रष्टाचार के विरोध करने वाले भी समाज में राज्य का हस्तक्षेप करने की बजाय नये पद सृजन पर जोर देते हैं। जहां अधिक कानूनों को भ्रष्टाचार की जड़ माना जाता है वहीं वहां नये कानून बनाने पर बल देते हैं। उनको चाणक्य नीति पढ़ना चाहिए। समाज, धर्म और कानून के बारे में विचार करते समय चाणक्य जैसे महान विचारक के सिद्धांतों का अध्ययन किया जाना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Wednesday, January 25, 2012

पतंजलि योग सूत्र-साधन से सिद्धि में भेद आता है (sadhna se siddhi-patanjali yoga sahitya)

          इस संसार में सभी मनुष्य का जीवन एक जैसा दृष्टिगोचर नहीं होता। इसका कारण यह है कि हर मनुष्य की संकल्प शक्ति प्रथक प्रथक है। वैसे देखा जाये तो मनुष्य इस संसार से जुड़ता है जिसे योग ही कहा जा सकता है। अर्थात योग तो हर मनुष्य कर रहा है पर कुछ लोग अभ्यास के माध्यम से स्वयं ही अपनी सक्रियता तथा परिणाम निर्धारित करते हैं जबकि कुछ मनुष्य परवश होकर जीवन में चलते हैं। जो स्वयं योग करते हैं वह सहज योग को प्राप्त होते हैं जबकि अभ्यास रहित मनुष्य असहज होकर जीवन गुजारते हैं। स्वयं योग करने वालों की सिद्धि भी एक समान नहीं रहती। जिनका संकल्प प्रबल है उनके मानसिक साधन अत्यंत शक्तिशाली होते हैं और उनको सिद्धि तीव्र गति से मिलती है। जिनकी संकल्प शक्ति मध्यम अथवा निम्न है उनको थोड़ा समय लगता है।
                                            पतंजलि योग में कहा गया है कि
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                                            तीव्रसंवेगानामासन्नः।।
             ‘‘जिसके साधन की गति तीव्र है उनकी शीघ्र सिद्धि हो जाती है।’’                                   मृदुमध्याधिमात्रत्वात्तोऽपि विशेषः।।
        ‘‘साधन की मात्रा हल्की, मध्यम और तीव्र गति वाली होने से भी सिद्धि में भेद आता है।’’
                     मुख्य बात यह है कि मनुष्य को अपनी साधना में निष्ठा रखना चाहिए। यह निष्ठा संकल्प से ही निर्मित होती है। जब मनुष्य यह तय करता है कि वह योग साधना के माध्यम से ही अपने जीवन को श्रेष्ठ बनायेगा तब उसका मन अन्यत्र नहीं भटकता, ऐसे में उसका साधन शक्तिशाली हो जाता है। जहां मनुष्य ने यह माना कि अन्य साधन भी आजमाये जायें वहां उसकी साधना क्षीण होती है। जब कोई साधक केवल इसलिये योग साधना करता है कि इससे कोई अधिक लाभ नहीं होगा तब उसका संकल्प कमजोर होता है। एक बात तय है कि अभ्यास करते करते मनुष्य अंततः पूर्ण सहज योग को प्राप्त होता है पर यह उसकी मनस्थिति पर निर्भर है कि वह कितनी तेजी से इस राह पर बढ़ेगा।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, January 21, 2012

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-उपेक्षा कर अपने जीवन मे आनंद लायें (kautilya ka arthshastra-upeksha aur anand)

              राजकर्म और  निज व्यवहार में साम, दाम, दंड और भेद की नीतियों से काम लिया जाता है। जब इन चारों नीतियों का उपयोग समझ में न आये तो क्या करे? हां, ऐसा कई बार अवसर आता है कि हमारा विवेक यह तय नहीं कर पाता कि क्या करें? दरअसल यह बात समझना चाहिए कि हमारे व्यवहार में आने वाले व्यक्ति हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिये तमाम युक्तियां अपनाते हैं जिनसे हम प्रसन्न नहीं होते। कर भी कुछ नहीं पाते।  ऐसे में उपेक्षासन करना ही श्रेयस्कर है। ऐसा हमारा मत है। इसका कारण यह है कि हमारी निष्क्रियता दूसरे को विचलित कर सकती है।  वह हमें अप्रसन्न करने वाली क्रियायें बंद कर देगा।
          आज के युग में इस तरह के आसन का विशेष महत्व है। पहले तो छोटे राज्यों की वजह युद्ध आमतौर से होते थे पर आधुनिक लोकतंत्र प्रणाली से राज्यों स्वरूप बृहद बन जाने से युद्धों की आशंका समाप्त कर दी है। जब भौतिकवाद में डूबे विश्व समाज के लोग अहंकार और मद में एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हों और उनसे बहस करने का कोई परिणाम नहीं निकलता हो तब ज्ञानी आदमी के लिये उपेक्षासन एक तरह से ब्रह्मास्त्र की तरह काम कर सकता है। आपसी वार्तालाप में लोग भौतिक साधनों की चर्चा करते हुए अपनी उपलब्धियों का बखान करने से नहीं चूकते। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों के साथ इंटरनेट में बाज़ार के विज्ञापनों से प्रेरित होकर उपभोग संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे में हमें अपने मन को ऐसी चर्चाओं से मन व्यथित करने की बजाय सात्विक विषयों की तरफ अपना ध्यान ले जाना चाहिए। यह अलग बात है कि इस तरह उपेक्षासन करने पर लोग आपको पौंगापंथी समझें पर सच बात यह है कि इससे आपको आराम मिलेगा। जिस तरह मोर नाचने के बाद अपने गंदे पांव देखकर रोता है उसी आजकल लोग नववर्ष, वैलंटाईन डे तथा अन्य पाश्चात्य पर्व आने पर नाच गाकर और गलत सलत खाकर एंजॉयमेंट यानि आंनद करने का पाखंड करते हैं पर उसके बाद फिर जिंदगी के तनाव उनको घेरकर अधिक दुख देते हैं। पैसा खर्च होने के साथ ही शरीर टूटता है सो अलग।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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आस्त प्रेक्ष्यारिमधिकमुपेक्षासनमुच्यते।
उपेक्षा कृतवानिन्द्र पारिजातग्रहं प्रति।।
              ‘‘जब कोई मनुक्ष्य अपने शत्रु या विरोधी को अपने से अधिक जानकर उसके प्रति उपेक्षा का भाव दिखाता है तब उसे उपेक्षासन कहा जाता है। जब भगवान श्रीकृष्ण ने सत्यभावा के लिये स्वर्ग से कल्पवृक्ष उठा लिया तो देवराज ने अपनी शक्ति को कम मानते हुए उसे युद्ध करने की बजाय उपेक्षासन किया था।"
उपेर्क्षितत्स चान्येस्तु कारणेनेह केन चित्त।
आसनं रुक्मिण इव तदुपेक्षासनं स्पुतम्।।
               ‘‘उसी तरह जिस समय रुक्मणी के भाई रुक्मी ने जब कृष्ण के साथ युद्ध में किसी ने सहायता की तो वह उपेक्षासन कर बैठ गया।’’
                 दरअसल आजकल हम चारों तरफ धन के सहारे फैल रहे आकर्षक वातावरण को देखकर अपने मन में अनेक तरह के सपने पाल लेते हैं। खासतौर से आजकल के मध्यम तथा निम्नवर्गीय युवा फिल्म, इंटरनेट तथा पत्रिकाओं में भौतिकतावाद के चलते आकर्षक संसार के उपभोग का जो सपना देखते हैं वह सभी के लिये साकार होना संभव नहीं है। जिनको विरासत में धन मिलता है वह तो चहकते हैं पर जिनको अपनी रोजी रोटी कमाने के लिये ही संघर्ष करना पड़ता है उनके लिये अपने अभावों का मानसिक तनाव झेलने के अलावा अन्य मार्ग नहीं रह जाता। ऐसे में कुछ युवा बहककर अपराध की तरफ बढ़ जाते हैं। उनके लिये बचने का तो बस यह एक ही मार्ग है कि वह भौतिक संसार के आकर्षण के प्रति उपेक्षासन कर जीवन का आनंद लें।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
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Saturday, January 7, 2012

अथर्ववेद से संदेश-श्रद्धाहीन मनुष्य दूसरों के धन पर वक्रदृष्टि डालते हैं (aaatharva ved se sandesh-shraddhahin manushya doosron ke dhan par vakradrshiti dalte hain)

            श्रीमद्भागवतगीता को लेकर हमारे देश में अनेक भ्रम प्रचलित हैं। कहा जाता है कि यह एक पवित्र किताब है और इसका सम्मान करना चाहिए पर उसमें जो तत्वज्ञान है उसका महत्व जीवन में कितना है इसका आभास केवल ज्ञानी लोगों को श्रद्धापूर्वक अध्ययन करने पर ही हो पाता है। श्रीगीता को पवित्र मानकर उसकी पूजा करना और श्रद्धापूर्वक उसका अध्ययन करना तो दो प्रथक प्रथक क्रियायें हैं। श्रीगीता में ऐसा ज्ञान है जिससे हम न केवल उसके आधार पर अपना आत्ममंथन कर सकते हैं बल्कि दूसरे व्यक्ति के व्यवहार, खान पान तथा रहन सहन के आधार पर उसमें संभावित गुणों का अनुमान भी कर सकते हैं। गीता का ज्ञान एक तरह से दर्पण होने के साथ दूरबीन का काम भी करता है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग परमात्मा की निष्काम आराधना करते हुए अपने अंदर ऐसी पवित्र बुद्धि स्थापित होने की इच्छा पालते हैं जिससे वह ज्ञान प्राप्त कर सकें। जब एक बार ज्ञान धारण कर लिया जाता है तो फिर इस संसार के पदार्थों से केवल दैहिक संबंध ही रह जाता है। ज्ञानी लोग उनमें मन फंसाकर अपना जीवन कभी कष्टमय नहीं बनाते।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
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ये श्रद्धा धनकाम्या क्रव्वादा समासते।
ते वा अन्येषा कुम्भी पर्यादधति सर्वदा।।
            ‘‘जो श्रद्धाहीन और धन के लालची हैं तथा मांस खाने के लिये तत्पर रहते हैं वह हमेशा दूसरों के धन पर नजरें गढ़ाये रहते हैं।’’
भूमे मातार्नि धेहि भा भद्रया सुप्रतिष्ठतम्।
सविदाना दिवा कवे श्रियां धेहि भूत्याम्।।
         ‘‘हे मातृभूमि! सभी का कल्याण करने वाली बुद्धि हमें प्रदान कर। प्रतिदिन हमें सभी बातों का ज्ञान कराओ ताकि हमें संपत्ति प्राप्त हो।’’
          इस तत्वज्ञान के माध्यम से हम दूसरे के आचरण का भी अनुमान प्राप्त कर सकते हैं। जिनका खानपान अनुचित है या जिनकी संगत खराब है वह कभी भी किसी के सहृदय नहीं हो सकते। भले ही वह स्वार्थवश मधुर वचन बोलें अथवा सुंदर रूप धारण करें पर उनके अंदर बैठी तामसी प्रवृत्तियां उनकी सच्ची साथी हो्रती हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि तत्वज्ञान में ज्ञान तथा विज्ञान के ऐसे सूत्र अंतर्निहित हैं जिनकी अगर जानकारी हो जाये तो फिर संसार आनंदमय हो जाता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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