Saturday, May 17, 2014

मनमौजी लोग ही समाज का हित कर सकते हैं-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(manmauji log hi samaj ka hit kar sakte hain-A hindi thought based on bhartrihari neeti shatak)



      इस संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं-एक भोगी तथा दूसरे योगी। भोगी लोग जीवन में विषयों में लिप्तता को ही सर्वोपरि मानते हैं। भोगी  लोगउपभोग के सामानों का संग्रह ही अपना लक्ष्य मानते हुए अपना जीवन उन्हीं को समर्पित कर देते हैं जबकि योगी लोग भौतिक सामानों का जीवन में आनंद उठाने का साधन मानकर समाज के लिये आदर्श स्थितियों का निर्माण करने में लगे रहते हैं। ज्ञानियों की दृष्टि में बिना सामानों के भी जीवन में उठाया जा सकता है। उल्टे अधिक सामानों का संग्रह चिंता तथा तनाव का कारण होता है। कुछ लोग स्वादिष्ट भोजन के चक्कर में अनेक प्रकार स्वांग रचते हैं जबकि योगी तथा ज्ञानी भोजन को देह पालने की दृष्टि से दवा के रूप में ग्रहण करते हैं।  
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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क्वचित् पृथ्वीशय्यः क्वचिदपि च पर्वङ्कशयनः क्वच्छिाकाहारः क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः।

क्वचित्कन्धाधारी क्वचिदपि च दिव्याभवरधरोः मनस्वी कार्यार्थी न गपयति दुःखः न च सुखम्।।

     हिन्दी में भावार्थ-कभी प्रथ्वी पर सोना पड़े कभी पलंग पर मखमली बिछोने पर शयन का सौभाग्य मिले, कभी बढ़िया तो कभी सादा खाना मिले, जिनकी रुचि अपने लक्ष्य में रहती है वह कभी इन बातों की परवाह नहीं करते।  मनस्वी पुरुष दुःख सुख की चिंता में न पड़कर कभी सामान्य तो कभी दिव्य वस्त्र पहनकर  अपने जीवन मार्ग पर दृढ़ता पूर्वक बढ़ते हुए दूसरों के सामने अपना आदर्श प्रस्तुत करते हैं।
      सच बात तो यह है कि उपभोग की प्रवृत्ति मनुष्य को कायर बना देती है। वह किसी बड़े सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक अभियान में लंबे समय तक सक्रिय नहीं रह पाता। इतना ही अधिक उपभोग मानसिक, वैचारिक तथा अध्यात्मिक से कमजोर भी बनाता है। हम इसे अपने देश में अनेक सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा साहित्यक अभियानों का नेतृत्व करने वाले कथित  शीर्ष पुरुषों की क्षीण वैचारिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक स्थिति को देखकर समझ सकते है। यह सभी कथित शीर्ष पुरुष बातें बड़ी बड़ी करते हैं पर किसी का अभियान लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता।  इसका कारण यह है कि जिनका जीवन सुविधाओं के साथ व्यतीत होता है वह अपने कथित अभियानों की वजह से लोकप्रियता भले ही प्राप्त कर लें पर उनमें इतनी क्षमता नहीं होती कि वह अपने सिद्धांतों या वादों को धरातल पर उतार सकें।  इसके लिये जिस त्याग भाव की आवश्यकता होती है वह केवल उन्हीं लोगों में हो सकता है जो सुविधायें मिलने की परवाह न करते हुए मनस्वी हो जाते हैं। 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, May 10, 2014

वैभव का नशा भी बुरा होता है-विदुर नीति पर आधारित चिंत्तन लेख(vaibhav ka nasha bhee bura hota hai-vidur neeti par aadharit chinnta lekh)



            हमारे देश में लोकतांत्रिक राज्य प्रणाली है जिसमें आमजनों के मत से चुने गये प्रतिनिधि राज्य कर्म पर नियंत्रण करते हैं।  इन्हें राजा या बादशाह अवश्य नहीं कहा जाता पर उनका काम उसी तरह का होता है। पदों के नाम अलग अलग होते हैं पर उन्हें राज्य कर्म में लगी व्यवस्था पर नियंत्रण का अधिकार प्राप्त होता है। पहले राजा की जिम्मेदारी होती थी कि वह प्रजा का पालन करे और वह इस जिम्मेदारी का अपनी योग्यता के अनुसार निभाते भी थे। उनमें कुछ योग्य थे तो कुछ आयोग्य। बहरहाल कम से कम उन पर प्रजा हित की प्रत्यक्ष जिम्मेदारी होती थी।
            लोकतांत्रिक प्रणाली में जनप्रतिनिधि के पास कोई प्रत्यक्ष काम करने का दायित्व नहीं होता वरन् संविधान के अनुसार राज्य व्यवस्था के लिये संस्थायें होती हैं जिनकी वह केवल देखभाल करता है। एक तो उस पर प्रजा हित का प्रत्यक्ष दायित्व नहीं होता दूसरे उनके पद पर कार्य करने की अवधि निश्चित होती है। उसके पूर्ण होने पर उनको फिर प्रजा के समक्ष जाना होता है।  जिन लोगों को राज्य कर्म में उच्च पद पर प्रतिष्ठित होना है उन्हें लोकतंत्र में जनमानस में अपनी छवि बनाये रखने के लिये तमाम तरह के स्वांग करने ही होते हैं। इससे प्रचार माध्यम उन्हें अपनी यहां स्थान देकर अपना व्यवसाय चलाने के लिये विज्ञापन भी जुटाते हैं। जनमानस में छवि बनाये रखने के प्रयास और जल कल्याण के लिये प्रत्यक्ष कार्य न करने की सुविधा का जो अच्छी तरह लाभ उठाये वही सर्वाधिक लोकप्रिय होता है। इस लोकतांत्रिक प्रणाली में  अगर जनहित का काम न हो या भ्रष्टाचार का प्रकरण हो तो दूसरे पर दोष डालना और अगर अच्छा हो जाये तो अपनी वाहवाही करना राज्य कर्म में उच्च पदों पर कार्यरत लोगों को सुविधाजनक लगता है।
            राज्य कर्म में लगे लोगों की प्रवृत्ति राजसी होती है।  जिसमें लोभ, क्रोध,  और अहंकार के साथ ही पद बचाये रखने का मोह और कामना गुण स्वयमेव उत्पन्न होते हैं।  हमारे यहां लोकतंत्र में आस्था रखने वाले राज्यकर्म में लोगों से सात्विक व्यवहार की आशा व्यर्थ ही करते हैं।  जिनके पास कोई राज्य कर्म करने के लिये नहीं है वह सात्विकता से यह काम करने का दावा करते है। जिनके पास है वह भी स्वयं को सात्विक प्रवृत्ति का साबित करने में लगे रहने हैं। इस तरह स्वांग लोकतंत्र में करना ही पड़ता है।  यह नहीं है कि राज्यकर्म में सात्विक लोग आते नहीं है पर वह ज्यादा समय तक अपना वास्तविक भाव नहीं बनाये रख पाते या फिर हट जाते हैं।

विदुर नीति में कहा गया है कि

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ऐश्वमदयापिष्ठा सदाः पानामदादयः।

ऐश्वर्यमदत्तो हि नापतित्वा विबुध्यते।।

            हिन्दी में भावार्थ-वैसे तो मादक पदार्थ के सेवन में नशा होता है पर उससे ज्यादा बुरा नशा वैभव का होता है। पद, पैसे तथा प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति भ्रष्ट हुए बिना नहीं रहता।

            अभी हाल ही में एक राज्य की विधानसभा के चुनावों में आम इंसानों को राजकीय कर्म में भागीदारी दिलाने का एक उच्च स्तरीय नाटक खेला गया। इस तरह के नाटक लोकतंत्र में जनमानस में अपनी छवि बनाने के लिये अत्यंत आवश्यक होते हैं इसलिये इन्हें गलत मानना भी नहीं चाहिये।  एक दल के लोगों को आमजन का प्रतीक माना गया। इस दल के लोगों ने चुनाव प्रचार के दौरान सत्ता में आने पर राजकीय भवन तथा वाहन न लेने की घोषणा की। दल अल्पमत में था और विधानसभा में अपना बहुमत साबित करना था।  उससे पूर्व तक इसके लोगों ने परिवहन के लिये आमजनों की सार्वजनिक सुविधाओं का उपयोग किया।  ऐसा प्रचार हुआ कि यह लोग आमजन के वास्तविक हितैषी है।  यह प्रचार  दूसरे दलों पर समर्थन देने के लिये दबाव बनाने के रूप में किया गया।  बहुमत मिला तो अगले दिन ही सभी का रूप बदल गया।  जिन प्रचार माध्यमों ने इनकी धवल छवि का प्रचार किया वही अब नाखुश दिख रहे हैं।
            हो सकता है कि इससे कुछ आम बुद्धिजीवी निराश हों पर ज्ञान साधकों के लिये इसमें कुछ नया नहीं है। राजसी कर्म की यही प्रवृत्ति है।  सच बात तो यह है कि जो राजसी कर्म श्रेष्ठता से संपन्न  करता है उसे उसका फल भी मिलता है। दूसरी बात यह कि राजसी कर्म हमेशा ही फल की कामना से किये भी जाते हैं। सात्विक प्रकृत्ति के लोग कभी भी राज्य कर्म करने का प्रयास नहीं करते इसका मतलब यह नही है कि वह राजसी कर्म करते ही नहीं है। राजसी प्रकृत्ति का राज्य कर्म एक हिस्सा भर है।  व्यापार, कला या साहित्य में भौतिक फल की कामना करना भी राजसी प्रकृत्ति का ही है।  सात्विक प्रकृत्ति के लोग अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की सीमा तक इनमें लिप्त रहते भी हैं पर वह कभी इस तरह का दावा नहीं करते कि निस्वार्थ भाव से व्यापार कर रहे हैं।
            कहने का अभिप्राय यह है कि प्रचार माध्यमों में लोकतंत्र के चलते अनेक प्रकार के नाटकीय दृश्य देखने को मिलते हैं।  एक तरह से यह दृश्य जीवंत फिल्मों की तरह होते हैं जिनमें अभिनय करने वाले स्वयं को सात्विक प्रकृत्ति का दिखाने का प्रयास करते हैं। ज्ञान साधकों को उनके अभिनय का अनुमान होता है पर आमजन अपना हृदय इन दृश्यों और पात्रों में लगा बैठते हैं जो कि बाद में उन्हें निराश करते हैं।  भारतीय अध्यात्म दर्शन के राजसी कर्म में लोगों का इस तरह कार्य करना और फल लेना कोई आश्चर्य की बात नही होती। राजसी कर्म करने वाले बुरे नहीं होते पर उनके सात्विक दावों पर कभी यकीन नहीं करना चाहिए।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


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