Saturday, March 26, 2011

अपने काम के मंत्र दिल में ही रखें-हिन्दू धार्मिक विचार (apna mantra dil mein hakehn-hindu dharmik vichar)

राजा राज्य का और गृहस्थ परिवार का मुखिया होता है। राज्य और परिवार के मुखिया के पास अपने प्रभाव के अंतर्गत रहने वाले सदस्यों के अनेक रहस्य होते हैं। उसी तरह राजकाज और परिवार चलाने के वैसे ही मंत्र या तरीके होते हैं जिस तरह अध्यात्म अनुष्ठानों के होते हैं। राज्य प्रमुख और परिवार के मुखिया को अपने राजकाज का मंत्र तथा रहस्य अपने मन में रखना चाहिए। अगर वह अपने मंत्र बाहर बता देगा तो वह उनका सार्वजनिकीकरण हो जाने पर संकट खड़ा हो सकता है।
इस विषय पर कौटिल्य महाराज कहते हैं कि
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संरक्षेन्मंत्रबीजं हि तद्वीजं हि महीभुजाम।
यस्मिन्न पिन्ने ध्रुवं भेदो गुप्ते युप्तिनुतरा।।
‘मंत्र के रहस्य की रक्षा करना चाहिए। राजा का यही बीज है जिसके प्रगट होने से भेद खुल जाता है और उसके सारे प्रयास निष्प्रभावी हो जाते हैं। गुप्त रहस्य की रक्षा करने की नीति अपनानी चाहिऐ।’
हमने देखा है कि कुछ लोग अतिउत्साह या दूसरे पर विश्वास करने के कारण अपने कामकाज का मंत्र बता देते हैं। उनको लगता है कि जैसे वह कोई बहादुरी का काम रहे हैं। उनको यह भी अहंकार होता है कि इस तरह वह अपनी बुद्धिमानी प्रमाणित कर रहे हैं। कुछ समय बाद जब उनकी कहंी पोल खुल जाती है तो न वह स्वयं ही हंसी के पात्र बनते हैं बल्कि अपमानित भी अनुभव करते हैं। अपने कामकाज के मंत्र दूसरे को बताना आदमी के हल्केपन का प्रमाण है। ऐसे लोगों की संगत करना दूसरे के लिये भी असहजता का कारण बनती । कोई भी मनुष्य तभी तक ताकतवर रहता है जब तक वह अपने कामकाज जिनको गुरुमंत्र दूसरे से छिपाये रहता है।
कोई व्यक्ति कितना मानसिक रूप से दृढ़ है इसका अनुमान तभी लग सकता है जब वह अपने राज अपने मन में ही रखने का प्रमाण देता है। कहा जाता है कि जब तक कोई बात हमारे मन में है तभी तक वह रहस्य है, अगर वह दूसरे को बताई तो इसका मतलब यह है कि वह अब तीसरे कान तक जायेगी। तीसरे से फिर चौथे तक पहुंचेगी और अंततः ऐसी बात सब जान जायेंगे जो संबद्ध व्यक्ति को केवल अपने पास रखनी थी। अंततः उसे अपने काम में परेशानी आनी ही है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Sunday, March 20, 2011

मान पाने की चाहत में आदमी पूरी जिंदगी खराब कर देता है-हिन्दी धार्मिक विचार (samman pane ki chahat aur admi ki zindagi-hindi dharmik vichar)

मनुष्य में अहंकार का भाव हमेशा ही रहता है। इस देह को ही सत्य समझने वाले लोग मान और अपमान की परवाह चिंता में मरे जाते हैं। खासतौर से गृहस्थ जीवन में सामाजिक परंपराओं के निर्वाह अपने जातीय, धार्मिक, भाषाई तथा क्षेत्रीय समूहों के लोगों में सम्मान पाने के लिये किया जाता है। शादी और गमी के अवसर पर भोजन खिलाने की परंपरा इसी सम्मान पाने का मोह पालने का ही परिणाम है। जब हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि यह देह नश्वर है और उसमें विराजमान आत्मा अजन्मा होने के साथ अमर है, तब हमारे कथित धर्म प्रेमी लोग देह के जन्म लेने और मरने के बाद भी इसे लेकर जो नाटक करते हैं उसे अज्ञान ही कहा जा सकता है न कि धर्म का प्रमाण। हमारे भारतीय धर्म में जन्म और मरण के दिनों को मनाने की परंपरा नहीं है पर विदेशी दर्शनों के आधार पर अब जन्म दिन और पुण्यतिथि मनाने का फैशन चल पड़ा है। मतलब यह कि समाज में सम्मान पाने के मोह से उपजी परंपराओं की संख्या कम तो नहीं हुई बल्कि बढ़ती जा रही है। अपने तथा परिवार के सम्मान के लिये आदमी अपना पूरा जीवन दाव पर लगा देता है।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं
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दुनिया के धोखे मुआ, चल कुटुंब की कानि
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा पसानि
"यह दुनियां एक धोखा है जिसमें आदमी केवल अपने परिवार के पालन पोषण के लिये हर समय जुटा रहता है। वह इस बात का विचार नहीं करता कि जब उसका शरीर निर्जीव होकर इस धरती पर पड़ा रहेगा तब उसके कुल शान का क्या होगा?"
कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय
"अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।"
दरअसल समाज के खुश करने के लिये दिखावा करने के लिये कार्यक्रम करने पर पैसा खर्च होता है जिसके संचय करने की भावना मनुष्य को पथभ्रष्ट कर देती है। फिर जिसके पास पैसा आ गया वह अपने वैभव का प्रदर्शन करने के लिये अपने कार्यक्रमों पर ढेर सारा खर्च करते हैं। उनको लगता है कि लोग ऐसा प्रदर्शन याद रखेंगे जोकि भ्रम ही है। उनकी देखा देखी दूसरे धनपति उनसे अधिक धन खर्च करते हुए उनके कथित एतिहासिक प्रदर्शन पर अपना पानी चढ़ा देते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि संसार में माया के खेल में आदमी इस तरह उलझा रहता है कि उसे भक्ति और अध्यात्मिक ज्ञान संग्रह का अवसर ही नहीं मिल पाता। सृष्टि में अन्य जीवों से श्रेष्ठ माना जाने वाला मनुष्य पशुओं की तरह अपना तथा परिवार पेट पालने के साथ ही सम्मान को मोह मन में रखते हुए नष्ट कर देता है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Thursday, March 17, 2011

दहेज प्रथा सभ्यता को ही नष्ट कर डालेगी-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (dowri system in india is denger for society-hindu religion thought)

भारत में कन्या शिशु की गर्भ में ही भ्रुण हत्या एक भारी चिंता का विषय बनने लगा है। इससे समाज में लिंग संतुलन बिगड़ गया है जिसके भयानक परिणाम सामने आ रहे हैं। सामाजिक विशेषज्ञ बरसों से इस बात की चेतावनी देते आ रहे हैं कि इससे समाज में स्त्रियों के विरुद्ध अपराध बढ़ेगा। अब यह चेतावनी साक्षात प्रकट होने लगी है। ऐसे अनेक प्रकरण सामने आ रहे हैं जिसमें लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार कर उनकी हत्या कर दी जाती है। स्थिति इतनी बदतर हो गयी है कि बड़ी आयु की महिलायें भी अपने पुत्र या पुत्री की आयु वर्ग के अपराधियों का शिकार होने लगी है। हम अगर कन्या भ्रुण हत्या को अगर एक समस्या समझते हैं तो अपने आपको धोखा देते हैं। दरअसल यह सामाजिक समस्याओं का विस्तार है। इनमें दहेज प्रथा शामिल है। लोग दहेज प्रथा समस्या के दुष्परिणामों के बृहद स्वरूप को नहीं समझते। जहां अमीर आदमी अपनी लड़कियों को ढेर सारा दहेज देते हैं तो गरीब भी कन्या को दान करने के लिये लालायित रहता है। यह लालसा समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करने के अहंकार भाव से उपजती है। दहेज के विषय पर हमारे अनेक विद्वान अपनी असहमति देते आये है। दरअसल एक समय अपनी औकात के अनुसार अपनी पुत्री को विवाह के समय भेंट आदि देकर माता पिता घर से विदा करते थे पर अब यह परंपरा पुत्रों के लिये विवाद के समय उनके माता पिता का अधिकार बन गयी है।
इस विषय पर गुरुवाणी में कहा गया है कि
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'होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो'
"लड़की के विवाह में ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।"
अब पुत्र के माता पिता उसकी शादी में खुल्लम खुला सौदेबाजी करते हैं। कथित प्राचीन संस्कारों के नाम पर आधुनिक सुविधा और साधन की मांग करते हैं। नतीजा यह है कि समाज अब अपने बच्चों की शादी करने तक ही लक्ष्य बनाकर सिमट गया है। यही कारण है कि संचय की प्रवृत्ति बढ़ी है और लोग अनाप शनाप ढंग से पैसा बनाकर शादी के अवसर उसका प्रदर्शन करते हैं। देखा जाये तो किसी की शादी स्मरणीय नहीं बन पाती पर उसे इस योग्य बनाने के लिये पूरा समाज जुट जाता है। शादी में दिया गया सामान एक दिन पुराना पड़ जाता है। भोजन में परोसे गये पकवान तो एक घंटे के अंदर ही पेट में कचड़े के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं मगर पूरा समाज एक भ्रम को स्मरणीय सत्य बनाने के लिये अपना पूरा जीवन नष्ट कर डालता है। दहेज प्रथा एक ऐसा शाप बन गयी है जिससे भारतीय लोग वरदान की तरह ग्रहण करते हैं। जब पुत्र पैदा होता है तो माता पिता के भी माता पिता प्रसन्न होते हैं और लड़की के जन्म पर पूरा खानदान नाकभौ सिकोड़ लेता है। इसी कारण समाज में कन्या भ्रुण हत्या एक फैशन बन गयी है। अगर दहेज प्रथा समाज ने निजात नहीं पायी तो पूर्णता से संस्कृति नष्ट हो जायेगी। फिर किसी समय हमारी धार्मिक परंपरा तथा सभ्यता इतिहास का विषय होगी।
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Saturday, March 12, 2011

अच्छे लोगों से रिश्ते कायम करें-हिन्दू धार्मिक विचार (achche logon se rishta kayam karen-hindu dharmik vichar)

हम लोग सामाजिक तथा पारिवारिक नये संबंधों का निर्माण करते हुए अन्य व्यक्तियों के आचरण, विचार तथा व्यवहार के तौर तरीकों पर विचार नहीं करते। अब तो यह स्थिति यह हो गयी है कि लोग दादागिरी, गुंडागर्दी तथा बेईमान करने के लिये बदनाम लोगों को अपने साथ रखकर प्रसन्नता अनुभव करते हैं। अक्सर हमारे देश के लोग यह सवाल करते हैं कि देश में भ्रष्टाचार कम क्यों नहीं हो रहा? उत्तर में सरकार को दोष देकर चुप हो जाते हैं। सच बात तो यह है कि हमारे समाज में चेतना की कमी तथा वैचारिक आलस्य के परिणाम से ही देश में अपराध और भ्रष्टाचार बढ़ा है। इसके लिये सभी लोग जिम्मेदार है। सभी लोगों को एक दूसरे के बारे पता है कि कौन क्या करता है? कौन भ्रष्टाचारी है और कौन बेईमान? कौन तस्कर है कौन व्याभिचारी? मगर प्र्रेम, विवाह, सत्संग या नित्य कर्म के आधार पर संपर्क कायम करने वाले लोग यह देखने का प्रयास करते हैं कि किसका निज स्वरूप क्या है? यकीनन नहीं!
इस विषय पर मनु महाराज कहते हैं कि
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उत्तमैरुत्तमैर्नित्यं संबंधनाचरेत्सह।
निनीषुः कुलमुत्कर्षमधमानधर्मास्त्यजेत्।
"अपने परिवार की रक्षा तथा सम्मान में वृद्धि के लिये अच्छे परिवारों के साथ अपनी कन्या और पुत्र के संबंध बनाने चाहिए। खराब आचरण तथा धर्म विरोधी पुरुषों के परिवारों के साथ किसी प्रकार का संबंध स्थापित करना ठीक नहीं है।"
उत्तमानुत्तमान्गच्छन्हीनाश्च वर्जवन्।
ब्राम्हण श्रेष्ठतामेति प्रत्यावयेन शूद्रताम्।।
"श्रेष्ठ पुरुषों से संबंध जोड़ने और नीच तथा अधम पुरुषों से परे रहने वाले विद्वान की प्रतिष्ठा बढ़ जाती है। इसके विपरीत श्रेष्ठ लोगों की बजाय नीच पुरुषों से संबंध बनाने वाला मनुष्य और उसका कुल कलंकित हो जाता है।"
जब हम देश में नैतिक आचरण में आई गिरावट तथा संवेदनहीनता की बात करते हैं तो समाज या सरकार को कोसना सबसे आसान लगता है पर अगर हम अपना निज आचरण तथा वैचारिक दृढ़ता का अवलोकन करें तो यह साफ दिखाई देगा कि कहीं न कहीं हमारा स्वार्थपूर्ण जीवन तथा समाज के प्रति दायित्व बोध हीनता ही इसके लिये जिम्मेदार है। अगर हमने निजी रिश्ते बनाने में केवल किसी आदमी का धनपति, बाहूबली तथा उच्च पदस्था होन ही मान लिया है तब यह भी मान लेना चाहिए कि समाज में सम्मान पाने का मोह दूसरे लोगों को येनकेन प्रकरेण सफलता पाना रह जाना बुरा नहीं है। श्रेष्ठ और त्यागी पुरुषों के प्रति लोगों का उपेक्षा का भाव रहना इस बात के लिये सभी को प्रेरित करता है कि अधिक से अधिक उपलब्धि पाकर समाज में सम्मान प्राप्त किया जाये। ऐसे में देश में व्याप्त व्यवस्था में परिवर्तन की अपेक्षा तभी संभव है जब हम अपने विचारों में परिवर्तन किया जाये।
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Sunday, March 6, 2011

कबीर के दोहे-साधुओं के निंदक की कभी मुक्ति नही होती (Kabir ke dohe-sadhu ke nindak ki mukti nahin)

          जिस तरह समाज में सभी तरह के लोग हैं उसी तरह साधु और संतों के बीच भी हैं। कुछ लोग तो साधु और संत का चोला इसलिये पहनते हैं जिससे उनको धन, सम्मान तथा शिष्यों की प्राप्ति होती रहे। एक तरह से धर्म उनका व्यापार हो जाता है। आजकल तो ऐसी खबरें भी आती हैं कि अमुक साधु संत दैहिक यौनाचार या अपराध करते हुए पकड़ा गया। हमारे समाज में अध्यात्मिक की जड़ें गहरी हैं जिसकी वजह से ऐसे लोग जिनको काम नहीं आता या वह करना नहीं चाहते वही साधु का वेश पहनते हैं। गेहुंआ या सफेद रंग का चोगा पहने अनेक साधुओं ने समाज को धोखा दिया है कई तो यौनाचार और बच्चों के अपहरण जैसे अपराध में लिप्त पाये गये हैं। इसका आशय यह कतई नहीं है कि सारे साधु या संत ऐसे हैं। कुछ लोग ऐसे भी संतों की आलोचना करते हैं जो शिष्यों का समुदाय बनाकर प्रवचन देते हैं। अनेक बुद्धिजीवियों को तो संतों पर कटाक्ष करने में मजा आता है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन संतों या साधुओं को मानने या न मानने की पूरी छूट देता है मगर उनकी निंदा करने वालों को बुरी तरह फटकारता भी है।
          इस विषय पर कबीर कहते हैं कि
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        जो कोय निन्दै साधु को, संकट आवै सोय।
          नरक जाय जनमै भरे, मुक्ति कबहु नहिं होय।।
      ‘जो आदमी साधु और संतों की निंदा करता है वह अतिशीघ्र नष्ट हो जाता हे। वह नरक में जाता है और फिर उसे नारकीय यौनि में जन्म लेना पड़ता है। उसकी कभी मुक्ति नहीं होती।’’
            दरअसल हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति ऐसी है जिसमें नकारात्मक सोच का निर्माण होता है। दूसरे की निंदा या आलोचना करने वाले इस तरह प्रदर्शन करते हैं जैसे कि वह श्रेष्ठ हैं। हर कोई दूसरे के दोष गिनाकर यह प्रमाणित करता है कि वह उसमें नहीं है। अपने अंदर जो गुण है उसकी जानकारी कोई नहीं देता। फिर निंदा और आलोचना में अभ्यस्त लोगों के पास इतना समय भी कहां रहता है कि वह आत्ममंथन कर अपने गुणों की तलाश करें। ऐसे लोग न स्वयं सुखी रहते हैं न दूसरे को देख पाते हैं। अतः जिन लोगों को अपने अंदर सकारात्मक भाव बनाये रखना है वह किसी दूसरे की निंदा या आलोचना न करें, खासतौर से साधु और संतों की तो बिल्कुल नहीं। अगर कोई साधु ठीक नहीं लगता तो उसके पास न जायें। उसको अपना गुरु न माने पर सार्वजनिक रूप उसे उसकी निंदा न करे। वैसे भी हमारा भारतीय अध्यात्म दर्शन निरंकार की निष्काम भक्ति का संदेश देता है। परनिंदा से बचने पर मन में सकारात्मक विचार पैदा होते हैं उससे जीवन में स्वमेव प्रसन्नता आती है।
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Friday, March 4, 2011

अहंकार का भाव आदमी को मूर्ख बना देता है-हिन्दी लेख (ahankar aadmi ko moorkh banata hai-hindi lekh)

अहंकार का मनुष्य को मूर्खता के मार्ग पर ले जाता है। खासतौर से जब किसी आदमी को यह आभास होने लगता है कि उसके पास संसार का पूरा ज्ञान आ गया है तो वह विक्षिप्तता की स्थिति में आ जाता है। उससे भी बड़ी मूर्खता तब होती है जब कोई आदमी अल्पज्ञानी को अपना गुरु बना लेता है। अनेक बाद ऐसे लोगों को भी गुरु मान लिया जाता है क्योंकि वह ज्ञान का रटा लगाकर उपदेशक की भूमिका में आ जाते हैं। सच बात तो यह है कि ज्ञान का रटा लगाकर बने उपदेशक मूर्ख नहीं होते बल्कि अपने शिष्यों और श्रोताओं को बनाते हैं। ज्ञान के व्यापारियों के लिये भारतीय अध्यात्म का संदेश वैसा ही जैसे किताबें बेचने वालों के लिये किताबें। वह किताबें बेचते हैं पर उसका ज्ञान अपने पास नहीं रखते। जब लोग इन ज्ञान के व्यापारियों की संगत करते हैं तो उनको लगता है कि वह स्वयं भी ज्ञानी हो रहे हैं। उसके बाद वह उनके प्रचारक के रूप में दूसरों को भी शिष्य बनने के लिये उकसाते हैं जैसे कि स्वयं बहुत बड़े ज्ञानी हो रहे हैं।
इस विषय पर भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः।
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः।।
"जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।"
मनुष्य का मन कभी संसार के कार्यों से उकता जाता है तब वह अध्यात्मिक शांति चाहता है। ऐसे में वह ज्ञानी लोगों की संगत ढूंढता है। सत्संग का व्यापार करने वाले लोग उसे सकाम और साकार भक्ति का संदेश देते हुए उसे गुरु पूजा और सेवा के लिये प्रेरित करते हैं ताकि उनकी स्वयं की सेवा हो जाये। ऐसे लोगों के इर्दगिर्द घूमता आदमी कभी ज्ञानी नहीं बन पाता। यह अलग बात है कि उसे लगता है कि वह अच्छा कर रहा है। ऐसे में जब उसकी संगत कहीं ज्ञानियों के बीच होती है तो पता लगता है कि वह अभी उस ज्ञान से दूर है जिसे भारतीय अध्यात्म भरा हुआ है। योग साधना, ध्यान तथा मंत्रजाप के साथ ही सत्संग से प्राप्त ज्ञान से ही यह जाना जा सकता है कि वास्तव में तत्वज्ञान क्या है? दूसरी बात यह है कि इस संसार में सर्वज्ञानी कोई नहंी बन सकता। इसलिये ज्ञानी लोगों की भूख कभी नहीं मिटती। वह निरंतर ज्ञान संग्रह में लगे रहते हैं और दूसरों के सामने व्यर्थ बघार कर न व्यापार करते हैं और न ही उनके अंदर इस बात का अहंकार आता है कि वह ज्ञानी हैं।
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Thursday, March 3, 2011

धन और विद्वता का अहंकार रखने वालों से दूरी भली-हिन्दी धार्मिक चिंत्तन (ghamand rakhane valon se door raheh-hindi dharmik lekh)

जैसे जैसे विश्व में विकास हो रहा है वैसे वैसे ही लोगों के पास शारीरिक सुख के भौतिक साधनों एकत्रित होते जा रहे हैं। लोगों के लिये विलासिता ही सुख का पर्याय बन गयी है। शारीरिक श्रम के अभाव में अनेक तरह की बीमारियां जन्म लेती हैं। रुग्णता से ही मानसिक विकृति पनपती है।
विश्व के अनेक स्वास्थ्य संगठन तथा विशेषज्ञ इस बात की ओर संकेत कर चुके हैं कि अनेक देशों में चालीस प्रतिशत से अधिक लोग मनोरोगों से ग्रसित हैं पर वह न स्वयं न जानते हैं न दूसरों को ही आभास होता है। हम लोग यह समझते हैं कि मनोरोग होने का मतलब पागलपन से है। दरअसल हम विक्षिप्ता की चरम स्थित जिसे पागलपन कहा जाता है मनोरोग मान लेते हैं। वैसे मनोरोग की चरमस्थिति विक्षिप्पता ही है पर इसके अलावा भी ऐसी स्थितियां हैं जब कोई आदमी विक्षिप्त न हो पर मानसिक रूप से उसका मस्तिष्क तनाव से ग्रस्त होता है पर सामान्य दैहिक व्यवहार के चलते न उसे आभास होता है न दूसरे ही इस बात को समझते हैं। वह भी मनोरोग का शिकार हैं भले ही उनके सामान्य दैहिक क्रियाओं से यह लगता न हो। खासतौर से वर्तमान काल में जो लोग शारीरिक श्रम से बच रहे हैं उनका व्यवहार तो अनेक बार बेतुका हो जाता है और बातचीत में इसका आभास वही लोग कर सकते हैं जो परिश्रम करते हुए अपना मानसिक स्तर सामान्य बनाये हुए हैं।
इस विषय पर भर्तृहरि महाराज कहते हैं
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पुण्यैर्मूलफलैस्तथा प्रणयिनीं वृत्तिं कुरुष्वाधुना
भूश्ययां नवपल्लवैरकृपणैरुत्तिष्ठ यावो वनम्।
क्षधद्राणामविवेकमूढ़मनसां यन्नश्वाराणां सदा
वित्तव्याधिविकार विह्व्लगिरां नामापि न श्रूयते।।
"भर्तृहरि महाराज अपने प्रजाजनों से कहते हैं कि अब तुम लोग पवित्र फल फूलों खाकर जीवन यापन करो। सजे हुए बिस्तर छोड़कर प्रकृति की बनाई शय्या यानि धरती पर ही शयन करो। वृक्ष की छाल को ही वस्त्र बना लो लो। अब यहां से चले चलो क्योंकि वहां उन मूर्ख और संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों का नाम भी सुनाई नहीं देगा जो अपनी वाणी और संपत्ति से रोगी होने के कारण अपने वश में नहीं है।"
जहां अमीरों और सम्मानित लोगों की महफिल होती है वहां उपस्थित होने वाले सभी एक तरह के होते हैं। इसलिये उन्हें आभास नहीं हो सकता कि कौन मनोरोगी हैं और कौन नहीं। कोई छोटा आदमी वहां मौजूद हो तो वह सोचता है कि यह तो बड़े लोग हैं पर जो ज्ञानी और मानसिक रूप से स्वस्थ हैं वह जानते हैं कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं’। मतलब यह कि देह जैसे कर्म में लिप्त है वैसे ही मन की स्थिति हो जाती है। देह अगर अधिक परिश्रम करने वाली नहीं है तो बुद्धि भी अधिक चिंतन नहीं कर सकती। आदमी भले ही अपने वाहनों से लंबी लंबी यात्रायें करता हो पर उसका मन, बुद्धि और अहंकार उसे संकीर्ण दायरों में कैद कर देता है। ऐसे लोग न स्वयं कष्ट भोगते हैं बल्कि दूसरे को भी अपनी वाणी और व्यवहार से कष्ट देते हैं। ऐसे लोगों की पहचान कर उनसे दूर रहना ही बेहतर है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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