Thursday, September 24, 2009

चाणक्य नीति-आग में तपाये जाने पर भी मदिरा का पात्र शुद्ध नहीं होता (chankya niti-fire and wine)

न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः।
आमूलसिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरात्वमेति।।
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट व्यक्ति को कितना भी सिखाया या समझाया जाये पर वह अपना अभद्रता व्यवहार नहीं छोड़कर सज्जन नहीं बन सकता जैसे नीम का वृक्ष, दूध और घी से सींचा जाये तो भी उसमें मधुरता नहीं आती।
अंतर्गतमलो दृष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि।
न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिसके मन में मैल भरा है ऐसा दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी बार भी तीर्थ पर जाकर स्नान कर लें पर पवित्र नहीं हो पाता जैस मदिरा का पात्र आग में तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की प्रकृत्ति का निर्माण बचपन काल में ही हो जाता है। मनुष्य के माता पिता, दादा दादी तथा अन्य वरिष्ठ परिवारजन जिस तरह का आचार विचार तथा व्यवहार करते हैं उसी से ही उसमें संस्कार और विचार का निर्माण होता है। इसके अलावा बचपन के दौरान ही जैसा खानपान होता है वैसे ही स्थाई गुणों का भी निर्माण होता है जो जीवन पर्यंत अपना कार्य करते हैं। एक बार जैसी प्रकृत्ति मनुष्य की बन गयी तो फिर उसमें बदलाव बहुत कठिन होता है।
इसलिये जिनमें दुष्टता का भाव आ गया है उनके साथ संपर्क कम ही रखें तो अच्छा है। चाहे जितना प्रयास कर लें दुष्ट अपना रवैया नहीं बदलता और अगर उसने किसी व्यक्ति विशेष को अपने दुव्र्यवहार का शिकार बनने का विचार कर लिया है तो फिर उससे बाज नहीं आता। ऐसे में सज्जन व्यक्ति को चाहिये कि वह खामोशी से दुष्ट के व्यवहार को नजरअंदाज करे क्योंकि उनकी प्रकृत्ति ऐसी होती है कि बिना किसी को तकलीफ दिये उनको चैन नहीं पड़ता। ऐसे दुष्ट किसी की मजाक उड़ाकर तो किसी के साथ अभद्र व्यवहार कर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। सज्जन के लिये दो ही उपाय है कि वह चुपचाप अपने रास्ते चले या अगर उसे नियंत्रण करने के लिये शारीरिक या आर्थिक बल है तो उस पर प्रहार करे पर इसके बावजूद भी यह संभावना कम ही होती है कि वह नालायक आदमी सुधर जाये।
ऐसे दुष्ट लोग चाहे जितनी बार तीर्थ स्थान पर जाकर स्नान करें पर उनका उद्धार नहीं होता। तीर्थ पर जाने से शरीर का मल निकल सकता है पर मन का तो कोई योगी ही निकाल पाता है।
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Monday, September 21, 2009

मनुस्मृति-जल में गंदगी बहाना अनुचित (manu smriti-pani aur gandgi)

नाप्सु मूत्रं पुरीषं वाष्ठीवनं वा समुत्सृजेत्।
अमेध्यमलिप्तमन्यद्वा लोहतं वा विषाणि वा।
हिंदी में भावार्थ-
जल में मल मूत्र, कूड़ा, रक्त तथा विष आदि नहीं बहाना चाहिये। इससे पानी विषाक्त हो जाता है और पर्यावरण पर इसका बुरा प्रभाव दिखाई देता है। इससे मनुष्य तथा अन्य जीवों को स्वास्थ्य भी खराब होता है।
अधस्तान्नोपदध्याच्च न चैनमभिलंघयेत।
न चैनं पादतः कुर्यान्न प्राणबाधामाचरेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
आग को किसी तरह के सामान के नीचे नहीं रखना चाहिये। आग को कभी लांघें नहीं। अपने पैरों को कभी आग पर नहीं रखना चहिये और न ही कभी ऐसा काम करें जिससे किसी जीव का वध हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारी पवित्र नदिया गंगा और यमुना की क्या स्थिति है इसे देखकर कौन कहेगा कि हमारे देश के लोग धर्मभीरु हैं? कहने को कवि, लेखक, संत और कथित अध्यात्मिक नेता दावा करते हैं कि हमारे देश की संस्कृति और सस्कारों की रक्षा होना चाहिए या हम विश्व क अध्यात्मिक गुरु हैं। मगर जब हम अपने देश की नदियों और तालाबों को देखते हैं तो पाते हैं कि यहां केवल नारे लगते हैं पर सच में तो लोग आंखें बंद कर जीने के आदी हो गये हैं। गंगा और यमुना नदियों में आम हो या खास सभी लोग गंदगी बहाते हैं। अधजले शवों को फैंक देते हैं। पंचतत्वों से बने इस शरीर को लेकर जितना अहंकार हमारे देश में हैं अन्यत्र कहीं नहीं है। आदमी पैदा हो या मरे उसके देह को लेकर नाटक बाजी होती है। अब तो अनेक शहरों में बिजली से मुर्दा जलाने की व्यवस्था है मगर वहां अभी भी मृत देह को लकड़ियों से इसलिये जलाया जाता है क्योंकि मृतक के संबंधियों को लगता है कि समाज क लोग कहेंगे कि पैसे बचा रहे हैं। अस्थियां गंगा में विसर्जित की जाती हैं। यह देहाभिमान हैं जिससे बचने की सलाह हमारा अध्यात्मिक ज्ञान देता है पर हिन्दू के नाम पर अपना अहंकार रखने वाले लोग कर्मकांडों के निर्वाह में अपना गौरव मानते हैं उसके नाम पर पर्यावरण को विषाक्त कर देते हैं। बनारस में गंगा की जो स्थिति है उसे सभी जानते हैं और इसे विषाक्त करने वाले हम लोग ही है यह भी सच है। गंगा मैली हो गयी पर की किसने। तमाम तरह के आरोप लगाये जाते हैं पर उसे साफ रहने की पहल कोई नहीं करता।
पर्यावरण प्रदूषण से मनुष्य स्वभाव पर बुरा प्रभाव करता है जिससे उसकी मानसिकता विकृत होती है। आज हम अपने देश में जो आर्थिक और सामाजिक तनाव देख रहे हैं वह केवल इसी पर्यावरण से उपजी खराब मानसिकता का परिणाम है। इसलिये अब भी समय है कि चेत जायें और जितना हो सके अपने जल स्त्रोंतों को साफ रखने का प्रयास करें। कम से कम इतना तो हम कर ही सकते हैं कि हम स्वयं गंदा न करें बाकी जो करते हैं वह जाने। अपने आपको तो यह संतोष होना चाहिए कि हम गंदा नहीं कर रहे। जल गंदा करना पाप है और इसका अपराध नरक में जाकर भोगना पड़ता है।
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Saturday, September 19, 2009

रहीम के दोहे-टेढ़ी चाल वाला घोड़ा कभी राजा नहीं बनता (horse and king of chess-rahin ke dohe

रहिमन सीधी चाल सों, प्यादा होत वजीर।
फरजी साह न हुइ सकै, गति टेढ़ी तासीर।।
कविवर रहीम कहते हैं कि शतरंज के खेल में सीधी चाल चलते हुए प्यादा वजीर बन जाता है पर टेढ़ी चाल के कारण घोड़े को यह सम्मान नहीं मिलता।
रहिमन वहां न जाइये, जहां कपट को हेत।
हम तन ढारत ढेकुली, संचित अपनी खेत।
कविवर रहीम कहते हैं कि उस स्थान पर बिल्कुल न जायें जहां कपट होने की संभावना हो। कपटी आदमी हमारे शरीर के खून को पानी की तरह चूस कर अपना खेत जोतता है/अपना स्वार्थ सिद्ध करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य कपट से चाहे जितनी भी भौतिक उपलब्धि प्राप्त कर ले पर समाज में उसका सम्मान बिल्कुल नहीं होता। डर और लालच के के मारे लोग दिखावे का सम्मान देते हैं पर दिल में तो सभी गालियां बकते हैं। हम देख सकते हैं कि कई वर्षों से अनेक ऐसे लोग हमारी आखों में चमक रहे हैं या चमकाये जा रहे हैं जो किसी भी दृष्टि से सज्जन नहीं है पर उनके पास ढेर सारी भौतिक उपलब्धियां हैं। उनको भगवान का अवतार या महापुरुष कहकर प्रचारित किया जाता है जबकि समाज के लोग उनको वक्र दृष्टि से देखते हैं। यह अलग बात है कि सामने कोई नहीं कहता। इधर आजकल के विज्ञापन युग में तो पैसा देकर लोग अपना नाम सभी प्रकाशित करवा रहे हैं। इससे यह भ्रम हो जाता है कि झूठ और अयोग्यता पुज रही है। सच बात तो यह है कि जिस व्यक्ति का अपने न रहने या पीठ पीछे भी सम्मान होता है वही सच्चा कहा जा सकता है। अनेक कथित महापुरुष मर गये पर अब उनका कोई नाम भी नहीं लेता। कई जग तो उनको गालियां पड़ती हैं पर ऐसे भी लोग हैं जो अल्प धनिक होने के बावजूद सज्जन थे उनको समाज आज भी याद करता है। इसलिये कपट के द्वारा भौतिक सफलता प्राप्त करने को विचार छोड़ते हुए किसी कपटी मनुष्य के पास जाना भी नहीं चाहिये।
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Friday, September 18, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अपने अंदर के व्यसनों की उपेक्षा न करें (kautilya ka arthshastra in hindi)

इत्यादि सर्व प्रकृति तथावद्बुध्यत राजा व्यसनं प्रयत्नात्।
बुद्धया च शक्त्वा व्यसनस्य कुर्याकालहीन व्यवरोपर्णहि।।
हिंदी में भावार्थ-
राज विधिपूर्वक सबके व्यसनों को जाने तथा अपनी बुद्धि तथा शक्ति से अपने अंदर स्थित व्यसनों को अधूरेपन में ही नष्ट कर दे क्योंकि विपत्ति होने पर हीन वस्तु और व्यक्ति शीघ्र नष्ट हो जाते हैं।
प्रकृतिव्यवसननि भूतिकामः समुपेक्षेत नहि प्रमाददर्पात्।
प्रकृत्तिवयवसनान्यूपेक्षते यो न चिरात्तं रिपवःपराभवन्ति।।
हिंदी में भावार्थ-
विभूति की इच्छा पैदा से उत्पन्न प्रमाद या अहंकार से प्रकृत्ति से व्यसनों की उपेक्षा न करें। प्रकृत्ति के व्यसनों की उपेक्षा करने वाले को शत्रु शीघ्र नष्ट कर डालते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के व्यसन उसको कमजोर करते हैं। शराब, तंबाकू तथा अन्य कोई भी बुरी आदत पालना ठीक नहीं होती। व्यसनों से न केवल देह की रोगों से लड़ने के लिये प्रतिरोधक क्षमता का क्षरण होता है बल्कि मानसिक रूप से भी मनुष्य कमजोर होता है। इतना ही नहीं व्यसनी मित्रों के साथ रहना भी ठीक नहीं है क्योंकि वह उनके वशीभूत होते हैं और किसी भी समय संकट का कारण बन सकते हैं। कहने का आशय यह है कि व्यवसनी का मन अपने वश में नहीं रहता इसलिये वह अपनी अन्मयस्कता की वजह से विश्वास योग्य नहीं होता। अपने अंदर कोई व्यसन हो और लगे कि उसे छोड़ना ही हितकर है तो बिना विलंब किये उससे परे हो जाना चाहिये।
उसी तरह मौसम के अनुसार ही भोजनादि ग्रहण करना चाहिये क्योंकि प्रकृत्ति के अनुसार न चलने पर भी भारी परेशानी उठानी पड़ती है। उसके विपरीत चलने का व्यसन बहुत हानिकारक होता है। व्यसन किसी भी प्रकार से मनुष्य को हानि पहुंचा सकते हैं चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक।
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Thursday, September 17, 2009

संत कबीर वाणी-इस संसार में सच्चा साथी कोई नहीं (sant kabir vani-sansar aur sathi)

मेरा संगी कोय नहिं, सबै स्वारथी लोय।
मन परतीति न ऊपजै, जिस विश्वास न होय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में कोई सच्चा मित्र या साथी नहीं है। जिसे देखो वही अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये आता है। किसी के मन में प्रीति या विश्वास नहीं है बस दिखावा करते हैं।
कहत सुनत जग जात है, विषय न सूझै काल।
कहैं कबीर सुन प्रानिया, साहिब नाम समहाल।
संत शिरोमणि कबीरदास जी के अनुसार यहां सभी लोग विषयों को लेकर बहस करते हैं किसी को अपना काल दिखाई नहीं देता। सभी प्राणियों को चाहिये कि विषयों में मोह रखने की बजाय परमात्मा का स्मरण करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कहने को यहां अनेक लोग प्रेम और विश्वास करते हुए एक दूसरे के प्रति मित्रता और सद्भाव का प्रदर्शन करते हैं पर सच सभी जानते हैं कि यह स्वार्थ की ही देन है। स्वार्थ हो तो एक नहीं हजार बार आदमी संपर्क करेगा और फिर मूंह फेरने में किसी को देर नहीं लगती। कहीं परंपराओं के नाम पर तो कहीं प्रेम के नाम पर अपना काम निकालने का प्रयास हर कोई करता है। ढौंग इतना हो गया है कि ऐसे में भले आदमी को भी पहचानना कठिन लगता है। ऐसा नहीं है कि समाज में भले लोग नहीं है पर चारों तरफ जब स्वार्थाी, लालची और घमंडी लोगों का मित्र और परिवार समूह हो तो उनको पहचानना कठिन है। अगर देखा जाये तो जहां विश्वास है वहीं धोखा हो सकता है जहां रिश्ता है वहीं बेवफाई का डर है। ऐसे में तो केवल एक ही मार्ग है कि भगवान का स्मरण करते हुए जीवन व्यतीत किया जाये और जो सामने आ रहा है उसे उसकी लीला मानकर संतोष कर लें। दूसरी बात यह है कि अपने अंदर इतनी विवेक शक्ति भी पैदा करें जिससे भले और स्वार्थी मित्र और रिश्तेदार की पहचान हो सके।
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Wednesday, September 16, 2009

चाणक्य नीति-कोल्हू में कुचले जाने पर भी ईख मिठास नहीं छोड़ती (chankya niti-kolhu aur eekh)

छिन्नोऽपि चन्दनतरुनं जहाति गन्धं।
वृद्धोऽपि वारणपतिर्न जहाति लीलाम्।
यन्त्रार्पितो मधुरतां न जहाति चेक्षुः
क्षीणोऽपि न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः।।
हिंदी में भावार्थ-
कट जाने पर चंदन का वृक्ष अपनी सुंगध नहीं छोड़ता। बूढ़ा हो जाने पर भी हाथी विलसिता से विरक्त नहीं होता और ईख कोल्हू में पेरे जाने पर भी अपनी मिठास नहीं छोड़ती उसी प्रकार गुणवान और कुलीन मनुष्य दरिद्र हो जाने पर दया तथा अन्य गुणों को नहीं छोड़ता।
हिंदी में भावार्थ-मनुष्य को अपने चरित्र पर दृढ़ होना चाहिये और वही उसके गुणवान होने का प्रमाण है। जीवन में अपने कार्य के प्रति हमेशा उत्साहित रहकर ही कोई सफलता प्राप्त की जा सकती है। धन संपदा तो चंचल लक्ष्मी की प्रतीक हैं जो कभी इस घर जाती तो कभी उस घर। जिसके पास धन है वह अपने अंदर ढेर सारे गुण होने का बखान करता है। लोग भी यह मानते हैं कि जिसके पास धन है वह बड़ा आदमी ज्ञानी और गुणवान है। आजकल तो धन संपदा होना ही कुलीन होने का प्रतीक हो गयी है। जिसके पास धन है वह साहसी, ज्ञानी, और शक्तिशाली होने का प्रदर्शन करते हैं पर जैसे ही उनके पास से धन चला जाता है वह टूट जाते हैं। लोग धन संचय के प्रति इतना आकर्षित होते हैं अन्य गुणों के संचय पर उनका ध्यान ही नहीं जाता। आम तौर से सभी यही समझते हैं कि धन आने से समाज में उनको कुलीन, दयालु और ज्ञानी मान लिया जायेगा। मगर यह सच यह है कि गुणों की पहचान तो विपत्ति में ही होती है। जो कुलीन और गुणवान हैं वह दरिद्रता आने पर भी तनाव रहित होते अपनी दया, बौद्धिक कुशाग्रता और मधुरवाणी का त्याग नहीं करते और समाज के सामने यह एक आदर्श होता है।
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Saturday, September 12, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-व्यसनी होता है एक आसान लक्ष्य (drunkar a soft target-kautilya sandesh

नानाप्रकारैव्र्यसनेर्विमुक्तः शक्तिवेणाप्रतिमेन युक्तः।
परं दुरन्तव्यसनोपपन्नं याग्रान्नरन्द्रो विजयाभिकांक्षी।।
हिंदी में भावार्थ-
विभिन्न प्रकार के व्यसनों से रहित महाप्रभावशाली तीन शक्तियों से युक्त जीतने की इच्छा करने वाला राज प्रमुख व्यसनों से युक्त शत्रु पर आक्रमण की योजना बनाये।
प्रावेण सन्तो व्यसने रिपूणां यातव्यमित्येव सभादिशंति।
तत्रैव पक्षी व्यसने हि नित्यं क्षमस्तुन्नभ्युदितोऽभियायात्।
हिंदी में भावार्थ-
अधिकतर महानतम विचारक व्यसनों से युक्त व्यक्ति पर आक्रमण करने का सुझाव देते हैं और जिसके साथी भी व्यसनी हों अर्थात उसका पूरा पक्ष ही व्यसनी हो उस पर तो हमला कर ही देना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संदेश को हम अलग तरीके से भी समझ सकते हैं। अब राजा तो रहे नहीं और लोकतात्रिक सभ्यता में हर व्यक्ति अपने घर का राजा है अतः उसे अपने परिवार और अपनी रक्षा के लिये अनेक अवसर पर रणनीति बनानी पड़ती है। ऐसे में दूसरे व्यसनी पर आक्रमण की बात सोचने की बजाय इस बात पर ध्यान करना चाहिये कि अपने अंदर व्यसन न हों ताकि कोई दूसरा हमें और परिवार को परेशान करने के लिये आक्रमण न कर सके। इस समय हमारे देश में अधिकतर लोगोंआत्मसंयम का अभाव है जो कि इन्हीं व्यसनों का परिणाम है। शराब, जुआ सट्टे जैसे व्यसनों ने चहुं ओर से घेर रखा है और इससे जुड़े व्यवसायों में खूब कमाई है। सच तो यह है कि जिन व्यवसायों में कमाई है वह सभी व्यसनों से जुड़े हैं। लोगों के अंदर मनोरंजन के नाम पर ऐसे व्यसन पेश किये जा रहे हैं जिससे समाज विकृत हो रहा है। यही कारण है कि हमारे देश को बाहर से चुनौती मिल रही है तो अंदर असामाजिक प्रकृत्ति के लोग अपना प्रभुत्व कायम कर लोगों को आतंकित किये रहते हैं। मनोरंजन के नाम पर शराब, खेल, और फिल्मों के व्यसनों ने लोगों को कायर बना दिया है और साथ में उनकी चिंतन क्षमता भी लुप्त हो गयी है। यही कारण है कि जब चार लोग की बैठक जमने पर देश के सामने आ रही चुनौतियों की चर्चा तो है पर उसके हल का कोई उपाय उनको नहीं सूझता। सभी लोग निराशाजनक बातें करते हैं।
व्यक्तिगत रूप से देश की चिंता करने के साथ ही अपनी स्थिति पर भी विचार करना चाहिए। जितना हो सके उतना व्यसनों से बचें वरना धन, पद और बाहुबल से सुसज्ज्ति असामाजिक तत्व-जो व्यसनों के कारण स्वयं ही डरपोक होते हैं उन उनका डर क्रूरता पैदा करता है- आपको या परिवार को तंग कर सकते हैं। एक बात याद रखें अगर आप अपने चरित्र पर दृढ़ रहते हुए व्यसनों से परे हैं तो आपकी रक्षा स्वतः होगी। व्यसनी होने पर हर कोई आपको एक आसान लक्ष्य (साफ्ट टारगेट) समझने लगता है।
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Friday, September 11, 2009

मनुस्मृति-क्लेश करते हुए भोजन ग्रहण न करें (bhojan aur manushya-manu smruti)

पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चेतकुत्सयन्
दृष्टवा हृध्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य को जैसा भोजन मिले उसे देखकर प्रसन्नता हासिल करना चाहिए। उसे ईश्वर प्रदत्त मानकर गुण दोष न निकालते हुए उदरस्थ करें। भोजन करते हुए अपनी झूठन न छोड़ें। यह कामना करें कि ऐसा अन्न हमेशा ही मिलता रहे।
पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्ज च यच्छाति।
अपूजितं च तद्भुक्तमूभयं नाशयेदिदम्।।
हिंदी में भावार्थ-
सदाशयता से ग्रहण किया भोजन बल और वीर्य में वृद्धि करता है जब निंदा करते हुए उदरस्थ करने से उसके तत्व नष्ट होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिनको भोजन आराम से मिलता है उनको उसका महत्व नहीं पता इसलिये वह उसे ऐसे करते हैं जैसे कि उसकी उनको परवाह ही नहीं है। भोजन करते समय उनको यह अहंकार आता है कि यह तो हमारा अधिकार ही है और हमारे लिये बना है। सच तो यह है कि भोजन का महत्व वही लोग जानते हैं जिनको यह नसीब में पर्याप्त मात्रा में नहीं होता। स्वादिष्ट भोजन की चाह आदमी को अंधा बना देती है। अनेक बार ऐसा समय आता है जब वह सब्जी के कारण भोजन नहीं करता या उसे त्याग देता है। भोजन करते समय उसकी निंदा करेंगे। शादी विवाह में तो अब यह भी होने लगा है कि लोग भोजन थाली में भरकर लेते हैं पर उसमें से ढेर सारा झूठन में छोड़े देते हैं। सार्वजनिक अवसरों पर ऐसे भोजन की बरबादी देखी जा सकती है।
यह समझ लेना चाहिये कि भोजन तो ईश्वरीय कृपा से मिलता है। यह सही है कि दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, पर यह भी नहीं भूलना कि अपने कर्म और भाव से भी भाग्य का निर्माण होता है। अगर हम भोजन करते हुए अहंकार पालेंगे तो संभव है कि दानों पर लिखा हमारा नाम मिट भी जाये। अपनी गृहिणी को कभी भी सब्जी आदि को लेकर ताना नहीं देना चाहिये। यह भगवान की कृपा समझें कि एक ऐसी गृहिणी आपके साथ है जो अपने हाथ से खाना बनाकर देती है वरना तो अनेक लोग घर के खाने के लिये तरस जाते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि खाते हुए अपना भाव सौम्य और सरल रखना चाहिए तभी भोजन के तत्व संपूर्ण रूप से काम करते हैं अगर मन में क्लेश या अप्रसन्नता है तो फिर खाना न खाना बराबर है।
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Thursday, September 10, 2009

विदुर नीति-क्षमा और धैर्य से आयु बढ़ती है (kshama aur dhiraj-vidur niti)

मार्दव सर्वभूतनामसूया क्षमा धृतिः।
आयुष्याणि बुधाः प्राहुर्मित्राणा चाभिमानना।।
हिंदी में भावार्थ-
संपूर्ण जीवों के प्रति कोमलता का भाव, गुणों में दोष न देखना, क्षमा, धैर्य और मित्रों का अपमान न करना जैसे गुण मनुष्य की आयु में वृद्धि करते हैं।
अपनीतं सुनीतेन योऽयं प्रत्यानिनीषते।
मतिमास्थाय सुदृढां तदकापुरुषव्रतम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो अन्याय के कारण नष्ट हुए धन को अपनी स्थिर बुद्धि का आश्रय लेकर पवित्र नीति से वापस प्राप्त करने का संकल्प लेता है वह वीरता का आचरण करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के स्वयं के अंदर ही गुण दोष होते हैं। उनको पहचानने की आवश्यकता है। दूसरे लोगों के दोष देखकर उनके प्रति कठोरता का भाव धारण करना स्वयं के लिये घातक है। जब किसी के प्रति क्रोध आता है तब हम अपने शरीर का खून ही जलाते हैं। अवसर आने पर हम अपने मित्रों का भी अपमान कर डालते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अपने हृदय में कठोरता या क्रोध के भाव लाकर मनुष्य अपनी ही आयु का क्षरण करता है।
कोमलता का भाव न केवल मनुष्य के प्रति वरन् पशु पक्षियों तथा अन्य जीवों के प्रति रखना चाहिए। कभी भी अपने सुख के लिये किसी जीव का वध नहीं करना चाहिये। आपने सुना होगा कि पहले राजा लोग शिकार करते थे पर अब उनका क्या हुआ? केवल भारत में ही नहीं वरन् पूरे विश्व में ही राजशाही खत्म हो गयी क्योंकि वह लोगा पशुओं के शिकार का अपना शौक पूरा करते थे। यह उन निर्दोष और बेजुबान जानवरों का ही श्राप था जो उनकी आने वाली पीढ़ियां शासन नहीं कर सकी।
हम जब अपनी मुट्ठियां भींचते हैं तब पता नहीं लगता कि कितना खून जला रहे हैं। यह मानकर चलिये कि इस संसार में सभी ज्ञानी नहीं है बल्कि अज्ञानियेां के समूह में रह रहे हैं। लोग चाहे जो बक देते हैं। अपने को ज्ञानी साबित करने के लिये न केवल उलूल जुलूल हरकतें करते हैं बल्कि घटिया व्यवहार भी करते हैं ताकि उनको देखने वाले श्रेष्ठ समझें। ऐसे लोग दिमाग से सोचकर बोलने की बजाय केवल जुबान से बोलते हैं। उनकी परवाह न कर उन्हें क्षमा करें ताकि उनको अधिक क्रोध आये या वह पश्चाताप की अग्नि में स्वयं जलें। अपनी आयु का क्षय करने से अच्छा है कि हम अपने अंदर ही क्षमा और कोमलता का भाव रखें। दूसरे ने क्या किया और कहा उस कान न दें।
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Monday, September 7, 2009

मनुस्मृति-सभी के हित की कामना वाला सुखी (Wished everyone a happy interest-manu smriti)

योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया।
स जीवेश्च मृतश्चैव नववचित्सुखमेधते।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति अहिंसक तथा किसी को न सताने वाले जीवों को अपने सुख के लिये मारता है वह अपनी जिंदगी तथा मौत के बाद भी सुख प्राप्त नहीं करता।
जो बनधन्वधक्लेशाान्प्राणिनां न चिकीर्षति।
स सर्वस्य हिनप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्नुते।।
हिंदी में भावार्थ-
ऐसा व्यक्ति जो किसी का वध तो दूर दूसरे प्राणियों को बांधकर भी नहीं रखता न ही पीड़ा देता, सभी के हित की कामना करता है वह सदैव सुखी रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर कोई अपने हित और सुख की कामनाओं की पूर्ति में लगा रहता है यह किसी को ज्ञान नहीं है कि सभी के हित में ही हमारा हित है। सभी लोग पेड़ों और जलाशयों से सुख तो स्वयं लेना चाहते हैं पर लगाने बनाने के लिये उनके पास न समय है न इच्छा। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग धरती और अन्य व्यक्तियों का दोहन करना चाहते हैं पर किसी के लिये स्वयं कुछ नहीं करते। कुंऐं से पानी निकालना है पर उसे भरने का जिम्मा दूसरे का हो तो बहुत अच्छा है-सभी यही सोचते हैं। इसी दोहन की प्रवृत्ति ने प्राकृतिक सुख के समस्त साधनों को सुखा दिया है।
हमें यह समझ लेना चाहिये कि इस संसार जीव तो सभी एक जैसे हैं पर मनुष्य को ही बुद्धि सभी से अधिक मिली है वह केवल इसलिये कि वह परमात्मा को इस दुनियां के संचालन में सहयोग दे पर हो रहा है इसका उल्टा! सभी मनुष्य यही सोचते हैं कि हम तो मनुष्य हैं और इस संसार के सर्वाधिक उपभोग के लिये ही हमें यह बुद्धि मिली है। हम देख रहे हैं कि समाज में प्राकृतिक और भौतिक साधनों के विषम वितरण ने जो वैमनस्य उत्पन्न किया है उसने हमारे समाज के समक्ष एक विशाल संकट उत्पन्न कर दिया है। यह संभव नहीं है कि हम तथा परिवार ही सदा सुखी रहे और बाकी समाज त्रस्त रहे। याद रखिये हम समाज के ही कुछ तत्वों द्वारा निष्काम भाव से किये गये सत्कार्यों का लाभ लेते हैं और बदले में वह दूसरे जरूरतमंद लोगों को लौटाना हमारा कर्तव्य बनता है। यह कभी नहीं हो सकता कि हम समाज और प्राकृति से लेते जायें पर दें कुछ नहीं।
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Friday, September 4, 2009

श्री गीता से-मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु और मित्र (from shri geeta- man himself your enemy and friendly)

उद्धरेदात्मनाऽमानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैय ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मनः।।
हिंदी में भावार्थ-
स्वयं ही अपना संसार रूप समुद्र से उद्धार करते हुए अधोगति से बचे, क्योंकि मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र और शत्रु है।
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य यैनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्ः।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस जीवात्मा द्वारा मन और इंद्रियों सहित देह जीत ली गयी है उस जीवात्मा के लिये वह मित्र जिसके द्वारा नहीं जीता गया उसके लिये वह शत्रु है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-किसी दूसरे में अपना मित्र ढूंढना या सहयोग की आशा करना व्यर्थ है। हम अपने मित्र और शत्रु स्वयं हैं। मनुष्य स्वयं खोटे काम करते हुए धर्म का दिखावा करता है पर अंततः उसे बुरे परिणाम भोगने हैं यह वह नहीं सोचता। हर कोई दूसरे को धर्म का ज्ञान देता है पर स्वयं उसे धारण नहीं करता। सच तो यह है कि लोगों में धर्म और अधर्म की पहचान ही नहीं रही। देश में आप देखिये कितने जोर शोर से धार्मिक कार्यक्रम होते हैं पर समाज का आचरण देखें तो कितना निकृष्ट दिखाई देता है। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराध, दहेज प्रथा तथा भ्रुण हत्या जैसे प्रतिदिन होने वाले कृत्य इस बात का प्रमाण है कि हमारे लिये देह केवल उपभोग करने के लिये ही एक साधन बन गयी है भक्ति तो हम सांसरिक लोगों को दिखाने के लिये करते हैं न कि भगवान को पाने के लिये। धर्म के नाम पर ऐसे आस्तिकों के हाथ से ऐसे काम हो रहे हैं कि नास्तिक इंसान करने की भी न सोचे। अधर्म से धन कमाकर उसे धर्म के नाम पर व्यय कर लोग सोचते हैं कि हमने पुण्य कमा लिया।
सच बात तो यह है कि हमें आत्मंथन करना चाहिये। दूसरा क्या कर रहा है यह देखने की बजाय यह सोचना चाहिये कि हम क्या कर रहे हैं। दूसरे ने भ्रष्टाचार से संपत्ति अर्जित की तो हम भी वैसा ही करे यह जरूरी नहीं है। एक बात याद रखिये जिस तरह से धन आता है वैसे जाता ही है। जिन लोगों ने भ्रष्टाचार या अपराध से पैसा कमाया है वह उसका परिणाम भोगते हैं। अगर हम स्वयं करेंगे तो वह भी हमें भोगना ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम अपने मित्र और शत्रु स्वयं ही हैं।
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Wednesday, September 2, 2009

मनु स्मृति-छोटी मछली को बड़ी मछली न निगले, यह दायित्व राज्य का है (duty of state-manu smriti in hindi)

यदि न प्रणयेद्राजा दण्डं उण्डयेघ्वतन्द्रितः।
शूले मत्स्यानिवापक्ष्यन्दुर्बलन्बलवत्तराः।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि अपराध कर्म करने वालो को सजा देने में राज्य अगर सावधानी से काम नहीं लेता तो शक्ति शाली व्यक्ति कमजोर को उसी तरह नष्ट कर देता है जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है।
अद्यत्काकः पुरोडाशं श्वा च लिह्याद्धविस्तथा।
स्वाम्यं च न स्यात्कस्मिंश्चितप्रवतेंताधरोत्तरम्।।
हिंदी में भावार्थ-
अगर राज्य अपनी प्रजा को बचाने के लिये अपराधियों को दंड नहीं देता तो कौआ पुरोडाश खाने लगेगा, श्वान हवि खा जायेगा और कोई किसी को स्वामी नहीं मानेगा अंततः समाज पहले उत्तम से मध्यम और फिर अधम स्थिति को प्राप्त होगा।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-किसी भी देश में राज्य दंड का प्रभावी होना आवश्यक है। वहां की न्यायायिक व्यवस्था का मजबूत होना ही जनता की शांति और सुख की गारंटी होती है। अगर वर्तमान संदर्भ में अपने देश की स्थिति देखें तो ऐसा लगता है कि हमारे देश में कानून व्यवस्था की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। मजे की बात यह है कि अपराधियों और धनियों के इशारे पर चलने वाले लोग मनुस्मृति के विरुद्ध प्रचार अभियान छेड़े रहते हैं शायद इसका कारण यह है कि इसमें अपराधों कें लिये कड़े दंड का प्रावधान किया गया है। हालांकि इसमें कुछ जातीय पूर्वाग्रह हैं पर जातिगत व्यवस्था जन्म पर आधारित हो इसका समर्थन नहीं किया गया। फिर सभी जातियों को अपने स्वाभाविक कर्म में लिप्त होने का आग्रह इसमें किया गया है पर इसका आशय यह नहीं कि कोई उसमें बदलाव नहीं किया जा सकता।
इस आधार पर ही मनुस्मृति का विरोध नहीं किया जाता कि उसमेें छोटी जातियों और महिलाओं आज के संदर्भ में प्रासंगिक बातें लिखी हुई है। हो सकता है कि मनुजी के काल में उन बातों को लिखने वाले प्रसंग रहे हों और अब उनका कोई महत्व नहीं हो। दूसरा यह भी है कि अनेक विद्वान कहते हैं कि मनुस्मृति में अनेक अंश उनके बाद जोड़े गये हैं।
इस आधार पर यह तो कहा जा सकता है कि मनुस्मृति के कुछ अंश वर्तमान संदर्भ में महत्व न हों पर उसे पूरी तरह नकारना एक तरह से समाज को चेतनाविहीन बनाये रखने की एक योजना लगती है। इसमें कई ऐसे संदेश हैं जो व्यक्तिगत जीवन में भी बहुत महत्व रखते हैं।
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